बकरियों में होने वाले सामान्य रोग और उनके उपचार
- आमतौर पर अन्य मवेशियों की अपेक्षा बकरियाँ कम बीमार पड़ती है।
- लेकिन आश्चर्य की बात है कि बहुत कम बीमार होने पर भी इनकी उचित चिकित्सा की ओर से बकरी पालक प्रायः उदासीन रहते हैं
- और अपनी असावधानी के कारण पूंजी तक गंवा देते हैं।
- बकरी पालन के समुचित फायदा उठाने वाले लोगों को उनके रोगों के लक्षण और उपचार के संबंध में भी थोड़ी बहुत जानकारी रखनी चाहिए ताकि समय पड़ने पर तुरंत ही इलाज का इन्तेजाम कर सकें।
- इसलिए बकरियों की सामान्य बीमारियों के लक्षण और उपचार के संबंध में मोटा-मोटी बातें बतलाई जा रही है।
1. पी. पी. आर. या गोट प्लेग
- यह रोग ‘‘काटा’ या ‘‘गोट प्लेग’’ के नाम से भी जाना जाता है।
- यह एक संक्रमक बीमारी है जो भेंड़ एवं बकरियों में होती है।
- यह बीमारी भेंड़ों की अपेक्षा बकरियों (4 माह से 1 वर्ष के बीच) में ज्यादा जानलेवा होता है।
- यह एक खास प्रकार के विषाणु (मोरबिली वायरस) के द्वारा होता है जो रिंडरपेस्ट से मिलता-जुलता है।
लक्षण:
- पी. पी. आर. – ऐक्यूट और सब-एक्यूट दो प्रकार का होता है।
- एक्यूट बीमारी मुख्यतः बकरियों में होता है।
- बीमार पशु को तेज बुखार हो जाता है, पशु सुस्त हो जाता है, बाल खड़ा हो जाता है एवं पशु छींकने लगता है।
- आँख, मुँह एवं नाक से श्राव होने लगता है जो आगे चलकर गाढ़ा हो जाता है जिसके कारण आँखों से पुतलियाँ सट जाती है तथा सांस लेने में कठिनाई होने लगती है।
- बुखार होने के 2 से 3 दिन बाद मुँह की झिलनी काफी लाल हो जाती है जो बाद में मुख, मसुढ़ा, जीभ एवं गाल के आन्तरिक त्वचा पर छोटे-छोटे भूरे रंग के धब्बे निकल आते है।
- 3 से 4 दिन बाद पतला पैखाना लगता है तथा बुखार उतर जाता है और पशु एक हफ्ते के भीतर मर जाते हैं।
- सब एक्यूट बीमारी मुख्यतः भेड़ों में होती है। इसके उपर्युक्त लक्षण काफी कम दिखाई देते हैं और जानवरों की मृत्यु एक हफ्ते के अन्दर हो जाती है।
मृत्यु दर: 45-85 प्रतिशत
रोग से बचाव एवं रोकथाम
- रोग फैलने की स्थिति में यथाशीघ्र नजदीकी पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें।
- स्वस्थ पशुओं को बीमार पशु से अलग रखने की व्यवस्था करनी चाहिये।
- जिस क्षेत्र में बीमार पशुओं की चराई की गई है उस क्षेत्र में स्वस्थ पशुओं को नहीं ले जाना चाहिये ताकि ड्रपलेट इनफेक्शन से बचाया जा सके।
- वैसे पशुओं को जो बाजार में बिकने के लिए गये परन्तु वहाँ न बिकने पर वापस आने पर कुछ दिनों के लिए अलग रखने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
- बीमार पशुओं के आँख, नाक एवं मुँह को साफ करते रहना चाहिए।
- बीमार पशुओं को सब कट या इंट्रा पेरिटोनियल फ्लयुडोथेरापी करनी चाहिये, साथ-साथ ऐन्टीबायोटिक देकर सेकेण्ड्री बैक्टीरियल बीमारी से बचाना चाहिए।
- शेष बचे हुए सभी पशुओं में पी.पी.आर. टीका पशु चिकित्सक की राय से दिलवानी चाहिये।
2.खुरपका मुँहपका रोग
लक्षणः–
- मुँह के अन्दर जीभ, होठ गाल, तालू और मुँह के अन्य भागों में फफोले निकल आते हैं।
- केवल खुरपका होने पर खुर के बीच और खुर के उपरी भागों में फफोलें निकल आते हैं।
- ये फफोले फट जाते हैं। कभी-कभी बीमार बकरी को दस्त होने लगता है और निमोनिया भी हो जाती है।
- यह रोग ज्यादातर गर्मी या बरसात में फैलता है।
उपचारः
- रोगी बकरी को अलग रखकर अगर मुँह में छाले हों तो पोटाशियम परमैंगनेट से धोना चाहिए।
- खुरों की छालों पर फिनाइल या नीला थोथा लगाना चाहिए।
नियंत्रणः
- इस रोग से बचाव हेतु टीकाकरण करा लेना चाहिए।
- टीका पशु चिकित्सक की राय से दिलवानी चाहिये।
रोग फैलने की स्थिति में यथाशीघ्र नजदीकी पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें।
- स्वस्थ पशुओं को बीमार पशु से अलग रखने की व्यवस्था करनी चाहिये।
- जिस क्षेत्र में बीमार पशुओं की चराई की गई है उस क्षेत्र में स्वस्थ पशुओं को नहीं ले जाना चाहिये ताकि ड्रपलेट इनफेक्शन से बचाया जा सके।
- वैसे पशुओं को जो बाजार में बिकने के लिए गये परन्तु वहाँ न बिकने पर वापस आने पर कुछ दिनों के लिए अलग रखने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
3. प्लुरों निमोनिया संक्रमण (CCPP)
लक्षणः
- यह बहुत खतरनाक बिमारी है और इसका शिकार किसी आयु की बकरी को हो सकती है।
- खांसी आना, लगातार छींकना, नाक बहना और भूख की कमी इस रोग के खास लक्षण है।
उपचारः
- रोगी पशु को तुरंत ही झुंड से अलग कर देना चाहिए और चिकित्सा के लिए पशु-चिकित्सक से परामर्श करना चाहिए।
- इसलिए रोग का आगमन होते ही नजदीक के पशु-चिकित्सालय में सूचना भेज देनी चाहिए।
4. निमोनिया
लक्षणः
- सर्दी लग जाने या लम्बी सफर तय करने के फलस्वरूप यदि बकरी को बुखार हो जाए, उसे भुख नहीं लगे, कभी-कभी खाँसी हो और साँस लेने में कठिनाई हो तो समझ लेना चाहिए कि उसे निमोनिया हो गया है।
उपचारः
- रोगी को सूखे और गर्म स्थान पर रखना चाहिए। हवा की सर्द झोंको से बचाना चाहिए।
- काफी मात्रा में ताजा पानी पिलाना चाहिए और जल्दी पच जाने वाला मुलायम चारा खिलाना चाहिए।
- दवा के लिए पशु-चिकित्सक की सलाह लेना ही बेहतर है। तारपीन तेल से भाप देना चाहिए और धुँआ से बचाना चाहिए।
5. आन्तरिक परजीवी रोग
- बकरियाँ आन्तरिक परजीवी रोग से भी काफी परेशान होती हैं।
- इन परजीवियों में गोल कृमि (राउण्ड वर्म), फीता कृमि (टेप वर्म), फ्लूक और प्राटोजोआ प्रमुख हैं।
- इन परजीवियों के कारण बीमार पशु की उत्पादन क्षमता घट जाती है, शरीर हल्का होने लगता है, दस्त होने लगता है
- और शरीर में खून की कमी हो जाती है। कभी-कभी पेट काफी बढ़ जाता है और जबड़ों के नीचे हल्का सूजन आ जाती है।
उपचारः
- ऑक्सीक्लोजानाइड, एलबेंडाजोल, फेनबेंडाजोल, कार्बन टेट्राक्लोराइड, नीला थोथा आदि औषधियों का उपयोग कर परजीवियों से पैदा होने वाली बीमारियों से बचा
जा सकता है।
- किस दवा से कितनी मात्रा पशु को दी जाय इसका निर्धारण पशु चिकित्सक से करा लेना चाहिए।
- चारे साफ कर खिलाएँ जाएँ और घर-बथान अच्छी तरह से साफ और सूखा रहे तो इन बीमारियों से नुकसान होने की संभावना बहुत ही कम रही है।
- यकृत-कृमि से बचाव के लिए बकरियों को उन स्थानों पर नहीं चरने दें, जहाँ पर बरसात का पानी जमता हो।
6. पित्ती या गिल्लर रोग
लक्षणः
- रोगी पशु सुस्त हो जाता है तथा शरीर में रक्त की कमी हो जाती है।
- रोग बढ़ जाने पर गले में सूजन हो जाती है, जो संध्या काल में बढ़ती है और सुबह में कम से हो जाती है।
- बाद में पशु को आंव और दस्त आने लगते है और कभी-कभी पशु की अचानक मृत्यु हो जाती है।
7. वाह्य परजीवियों से होने वाले रोग
- आंतरिक परजीवियों से पैदा होने वाले इन रोगों के अलावा बकरियाँ जूं जैसे वाह्य परजीवियों से भी काफी परेशानी होती है।
- ये वाह्य परजीवी स्वयं तो बकरियों को कमजोर करते ही हैं अन्य रोगों की भी वृद्धि करते है।
- इनसे बचाव हेतु बकरी की सफाई पर विशेष ध्यान दें।
8. बकरी पशुओं को संक्रामक रोगों से बचाव हेतु टीकाकरण
क्र. | रोग का नाम | टीका लगाने का समय |
1. | गलाघोंटू (एच.एस.) | 6 माह एवं उसके उपर की उम्र में पहला टीका। उसके बाद वर्ष में एक बार बराबर अन्तराल पर वर्षा ऋतु आरंभ होने से पहले। |
2. |
कृष्णजंघा (ब्लैक क्वार्टर) | 6 माह एवं उससे उपर की उम्र में पहला टीका। उसके बाद वर्ष में एक बार बराबर अन्तराल पर। |
3. | एन्थ्रैक्स | 4 माह एवं उसके उपर की उम्र में पहला टीका। उसके बाद वर्ष में एक बार बराबर अन्तराल पर (एन्डेमिक क्षेत्रों में)। |
4. | ब्रुसेलोसिस | 4-8 माह की उम्र के बाछी एवं पाड़ी में जीवन में एक बार। नर में इस टीकाकरण की आवष्यकता नहीं है। |
5. | खुरहा-मुँहपका (एफ.एम.डी.) | 4 माह एवं उसके उपर की उम्र में पहला टीका। बुस्टर पहला टीका के एक माह के बाद एवं तत्पश्चात् वर्ष में दो बार छः माह के अन्तराल पर। |
6. | पी.पी.आर. | 4 माह की आयु एवं उसके उपर के सभी मेमनों, बकरियों एवं भेड़ों में। एक बार टीका लगाने के बाद तीन वर्ष तक पशु इस बीमारी से सुरक्षित रहते हैं। |
9. बकरी पालन के लिए सावधानियाँ
बकरी पालन यूँ तो काफ़ी आसान बिज़नेस है लेकिन हमें इसमें कई महत्वपूर्ण चीजों का ख़ास ध्यान रखना होता है। यह कुछ इस प्रकार से हैं:
- बकरी पालन के लिए सबसे पहले ध्यान रखना होता है कि उन्हें बकरियों को ठोस ज़मीन पर रखा जाए जहाँ नमी न हो। उन्हें उसी स्थान पर रखें जो हवादार व साफ़ सुथरा हो।
- बकरियों के चारे में हरी पत्तियों को जरूर शामिल करें। हरा चारा बकरियों के लिए बहुत फायदेमंद होता है।
- बारिश से बकरियों को दूर रखे क्योंकि पानी में लगातार भीगना बकरियों के लिए नुकसान दायक है।
- बकरीपालन के लिए तीन चीजें बहुत जरूरी होती हैं:- धैर्य, पैसा, प्लेस, I
- बकरी पालन मे बकरियों पर बारीकी से ध्यान देना पड़ता है। अगर आप अच्छी ट्रेनिंग लेंगे तो आप उन्हें एक नजर में देखते ही समझ जायेंगे कि कौन बीमार है और कौन दुरूस्त।
- बकरियों पर ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। ये जब भी बीमार होती है तो सबसे पहले खाना-पीना छोड़ देती हैं। ऐसी स्थिति में पशु चिकित्सीय परामर्श भी लेते रहें।
- पशुओं के लिए क्रूरता अधिनियम, 1960 पालन करें।