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अदरक की वैज्ञानिक खेती
भूमिका
अदरक प्रमुख मसालों में एक है इसकी खेती नगदी फसल के रूप में की जाती हैं। अदरक का वानस्पतिक नाम 'जीन्जीबरओफीसीनेली है। अदरक के भूमिगत रूपांतरित तन अर्थात प्रकद का उपयोग किया जाता हैं। इन प्रकदो को फसल के खोदाई के बाद हरा तथा सुखाकर दानों ही रूपों में उपयोग करते हैं। ताजा अदरक व्यंजनों को खूशबूदार तथा चटपटा बनाने एवं मुरब्बा बनाने के काम आते है। चाय का स्वाद बढ़ाने के लिये विशेष तौर पर सर्दियों में अदरक का उपयोग किया जाता है। अदरक का उपयोग मसालों के रूप में सलाद, अचार, मुरब्बा, चटनी आदि के रूप में किया जाता हैं। पकी गांठों को सुखाकर उनसे सोंठ तैयार किया जाता है। जिसका काफी मात्रा देशों में नियति किया जाता है। सबसे अधिक अदरक का उत्पादन भारत वर्ष में होता है। सभी देशों को मिलाकर जितना अदरक का उत्पादन होता है उसमें भारत वर्ष अकेले 33 प्रतिशत अदरक का उत्पादन करता है ।[/responsivevoice]
औषधीय गुण
अदरक का प्रयोग सब्जियों को चटपटा बनाने के साथ गुणकारी बनाने में किया जाता हैं। यह घबराहट, थकान, प्यास आदि को शांत करके शरीर में ताजगी और ढंडक भरती है। कफ से ग्रस्ति लोगो के लिये अदरक काफी कारगर औषधि के रूप में उपयोग होता है । अदरक के उपयोग से छाती पर जमा सारा बलगम निकालकर बाहर करती है, अतः खांसी नहीं बनने पाती है। सिरदर्द, कमर के दर्द, पेट दर्द, बेचैनी, घबराहट आदि छोटे-मोटे रोगों के लिये यह रामबाण औषधि है। अदरक को चुसते ही मुंह में लार ग्रन्थि अपना काम शुरू कर देती है। इसमें कठ की खशखशाहट दूर होती है।
स्त्रियों के लिये भी अदरक वरदान है। जिन युवतियों को मासिक धर्म, गर्भाधान, प्रसव के बाद स्तन में दूध न उतरने की शिकायत रहती है, उनके लिये अदरक कीमती दवा से भी बड़ा काम करती है।
जलवायु
अदरक की अच्छी अपज के लिए थोड़ी गर्म तथा नम जलवायु होनी चाहिए। अदरक की अच्छी ऊपज के लिए 20 से 30 डिग्री से0 तापमान उपयुक्त होता है। इससे ज्यादा होने पर फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कम तापमान के कारण (10' से0 से कम) पत्तों तथा प्रकन्दों को नुकसान पहुँचता है। बोआई के अंकुर फूटने तक हल्की नमी, फसल बढ़ते समय मध्यम वर्षा तथा फसल के उखाड़ने के एक माह पहले शुष्क मौसम होना चाहिए।
भूमि
अदरक की अधिक ऊपज के लिए हल्की दोमट या बलूई दोमट भूमि उयुक्त होती है। 60 से 7.5 पी0 एच0 मान वाली भूमि में अदरक की अधिक पैदावार होती है। अदरक के खेती के लिए ऊँची जमीन एवं जल निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। भारी एवं क्षारीय भूमि में अदरक का उत्पादन अच्छा नहीं होता है। अदरक उत्पादन के लिए फसल चक्र अपनाना अति आवश्यक है।
भूमि की तैयारी
अदरक की खेती के लिए एक बार मिट्टी पलटने वाली हल से जुताई करने के बाद, चार बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई करते हैं। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाना चाहिए। जिससे मिट्टी भूरभूरी हो जाए। अंतिम जुताई से 3 से 4 सप्ताह पूर्व खेत में 250 से 300 क्विंटल सड़ा हुआ गोबर का खाद देते है। गोबर का खाद देने के बाद एक या दो बार खेत की जुताई कर गोबर के खाद को मिट्टी में मिला देते हैं।
बोआई की विधि
अदरक की बोआई तीन विधियों के द्वारा की जाती है।
कयारी विधि
इस विधि में 120 मीटर चौड़ी तथा 30 मीटर लम्बी उभारयुक्त क्यारियाँ जो जमीन की सतह से 15-20 से0मी0 ऊँची हो। प्रत्येक क्यारी के चारो तरफ 50 से0मी0 चौड़ी नाली बनानी चाहिए। क्यारी में 30-20 से0मी0 दूरी पर 8-10 से0मी0 की गहराई में बीज की बोआई करनी चाहिए। यह विधि जहाँ पानी लगता है वैसे जगह पर इस विधि से बोआई करनी चाहिए।
मेड़ विधि
इस विधि में 60 से0मी0 की दूरी पर तैयार खेत में 20 से0मी0 दूरी पर बीज की बोआई करने के बाद मिट्टी चढ़ाकर मेड़ बनावें। इस बात का ध्यान होना चाहिये कि बीज 10 से0मी0 गहराई में हो जिससे बीजों का अंकुरण अच्छा हों यह विधि जहाँ पर जल जमाव की संभावना होती है वैसी जगह इस विधि से अदरक की खेती की जाती हे ।
समतल विधि
यह विधि हल्की एवं ढ़ालू भूमि में अपनाई जाती है। इस विधि में 30 से0मी0 पंक्ति एवं 20 से0मी0 गांठ से गांठ या पौधे की दूरी तथा 8-10 से0मी0 की गहराई में बोआई की जाती है। जहाँ पर जल जमाव की संभावना नहीं होती है वैसे जगह पर इस विधि से खेती करते हैं।
अदरक की उन्नत किस्में
बिहार की लिए नदिया, सुप्रभा, सुरूचि, सुरभी जोरहट, रीयो-डी जेनेरियो, मननटोडी एवं मरान उपयुक्त किस्में हैं।
नदिया - यह किस्म बिहार के लिये उपयुक्त है यह 8 से 9 माह में तैयार हो जाती है इसकी ऊपज क्षमता 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टर होती है।
मरान - यह एक अच्छी किस्म है इसकी ऊपज क्षमता 175 से 200 क्विंटल प्रति हेक्टर होता है साथ ही इस किस्म में मृदु विगलन रोग नहीं लगता है।
जोरहट -यह असम की लोकप्रिय किस्म है इसकी ऊपज क्षमता 200-225 क्विंटल प्रति हेक्टर है यह 8 से 10 माह में तैयार हो जाती है।
सुप्रभा - यह किस्म 225 से 230 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्म में अधिक किलें (टोलरिंग) निकलते हैं प्रकद का सिरा मोटा, छिलका सफेद एवं चमकदार होता है। इस किस्म की ऊपज क्षमता छिलका 200-230 क्विंटल प्रति हेक्टर है। यह किस्म प्रकन्द विगलन रोग के प्रति सहनशील है।
सुरूचि - यह किस्म हल्के सुनहले रंग की होती है एवं 230-240 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्में की ऊपज 200-225 क्विंटल प्रति हेक्टर है। यह किस्म प्रकन्द विगलन रोग के प्रति निरोधक है ।
सुरभि - इसके गांठ काफी आकर्षक होते हैं। यह 225-235 दिन में तैयार हो जाती है। इसकी ऊपज क्षमता 200-250 क्विंटल प्रति हेक्टर है। यह किस्म भी प्रकन्द विगलन बीमारी के प्रति सहनशील है।
खाद एवं उर्वरक
अदरक लम्बी अवधि के फसल है तथा ज्यादा खाद चाहने वाली होती है। अत: अधिक ऊपज के लिये गोबर की सडी खाद 250—300 क्विंटल / हेक्टर नेत्रजन, फास्फोरस वा पोटाश कृमश: 80—100, 50-60 एवं 100 किलोग्राम/ हेक्टर की दर से खेत में डालें। गोबर खाद रोपाई से 20-30 दिन पहले तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय जबकि नेत्रजनित खाद को तीन बराबर भाग में बाँटकर, पहला भाग रोपाई से 40 से 45 दिन बाद या दो से अधिक पत्तियाँ होने के बाद, दूसरा भाग 80 से 90 दिन बाद तथा तीसरा भाग 100 से 120 दिन बाद देना चाहिए। नेत्रजनित उर्वरक का प्रयोग करते समय खेत में भरपूर नमी होनी चाहिए। बिहार में जिंक, बोरान (सुहागा) एवं लोहा की मिट्टी में कमी पायी गई है अतः मिट्टी का परीक्षण कराने पर सूक्षम तत्वों की कमी हो तो मिट्टी में रोपाई के पहले जिक सल्फेट एवं बोरेक्स का कमश: 20-25 एवं 10-12 किलो प्रति हेक्टर दें। लोहा के कमी की अवस्था में 0.5 से 0.8 प्रतिशत का घोल बनाकर उसमें 25 से 30 बुन्द नींबू का रस डालकर दो छिड़काव करे। पहला छिड़काव रोपाई से 60 दिन के बाद तथा दूसरा रोपाई से 90 दिन के बाद करें।
कन्द (गांठ) की बोआई
बीज प्रकन्द मध्यम आकार के जिनका भार 20–25 ग्राम तथा 2–3 आँखो वाली ही, कन्द का चुनाव करना चाहिए। बीज प्रकन्द स्वस्थ, बीमारी वा कीट रहित होनी चाहिये । प्रति हेक्टर 18-20 क्विंटल कन्द की जरूरत होती है। कन्दो को इण्डोफिल एम-45 का 25 ग्राम एवं स्ट्रेप्टो-साइक्लिन ¼ ग्राम प्रति लीटर पानी के मिश्रित घोल में या रीडोमिल के 2 से 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी के दर से घोल बनाकर आधा घंटे तक उपचारित करें। तत्पश्चात छाया में सुखाकर रोपाई करें। जिन इलाकों में सूत्रकृमि का प्रकोप हो वहाँ पर नीम की खल्ली 25 क्विंटल या थिमेट 10 जी0 12 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से खेत की तैयारी करते समय डालें। रोपाई 30 × 20 से0मी0 की दूरी एवं 8-10 से0मी0 गहराई पर करे। रोपाई का उचित समय 15 से 31 मई है। लेकिन विशेष परिस्थिति में इसकी रोपाई 20 जून तक की जा सकती है।
झपनी
रोपाई के बाद शीशम की हरी पत्ती या अन्य चीजों की मोटी तह बिछाकर ढ़क देना चाहिए। इससे मिट्टी में नमी बनी रहती है तथा कन्दों का अंकुरण सामान्य रूप में होता है तथा तेज धूप से अंकुरण का बचाव होता है। साथ ही खरपतवार कम निकलते हैं एवं ऊपज भी अधिक प्राप्त होती है।
सिंचाई
अदरक बरसात वाली फसल है इसलिए इसकी सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है लेकिन अक्टूबर-नवम्बर माह में वर्षा नहीं होने की परिस्थिति में सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि अक्टूबर-नवम्बर माह में अदरक का गांठ बनता तथा उसका विकास होता है इसलिए अक्बूबर-नवम्बर माह में खेतों अधिक नमी होनी चाहिए।
फसल-प्रबंधन
रोपाई के दो से तीन माह बाद क्यारियों में निकाई-गुड़ाई कर मिट्टी चढ़ानी चाहिये। अदरक में खरपतवारनाशक दवाईयों का जयादा इस्तेमाल नहीं किया जाता है क्योंकि लम्बे समय की फसल होने के कारण रोपाई से पहले या तुरन्त बाद के छिड़काव से अच्छे परिणाम नहीं मिले हैं।
अदरक की फसल सामान्यतः 8-9 महीनों में तैयार होती हैं जब पौधे की पत्तियाँ पीले पड़नी शुरू हो जाये तब खुदाई करनी चाहिए। जिन इलाकों में पाला नहीं पड़ता है वहां इसे कुछ दिन बाद भी खुदाई की जा सकती है। खुदाई के बाद इसे 2-3 दिन तक छाया में सुखायें। एक हेक्टर क्षेत्र में औसत 100 से 150 क्विंटल पैदावार होती है। कुछ किसान को अच्छा भाव मिलने पर समय से पहले ही अदरक को उखाड़ लेते हैं ऐसी स्थिति में उखाड़ा गया अदरक ज्यादा दिन तक अच्छी दशा में नहीं रहती हैं। अतः इसे तुरन्त बेच दें या इस्तेमाल कर लेना चाहिए। भण्डारण के लिये रखने वाला अदरक कभी भी समय से पहले नहीं निकालना चाहिए।
भण्डारण
ज्यादातर अदरक अगले वर्ष में रोपाई हेतु भण्डारित किये जाते हैं। इसके लिये स्वस्थ्य वा बीमार रहित गांठ को छांट करके इन्डोफिल एम-45 का 2.5 एवं स्ट्रेप्टो-साइक्लिन 1/4 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से मिश्रित घोल में उपचारित करके 48 घंटे तक छाया में सुखाने के बाद गडढों में रखें। गडढों में गांठ को रखने के बाद पुआल या लकड़ी के तख्तों से ढ़ककर तख्तों को गोबर से लेप दें लेप करते समय छोटी मुँह हवा निकास के लिए अवश्य रखें। हवा निकास के लिये सुराख वाली पाईप या नाली का भी इस्तेमाल किया जाता है जिसका एक मुँह गडढों से बाहर होना चाहिए।
जापानी पुदीना(मेन्था) की खेती
मेन्था की उत्पत्ति स्थान चीन माना जाता है। चीन से यह जापान ले जाया गया, वहां से यह संसार के विभिन्न देशों में पहुंचा। मेन्था भारत में जापान से लाया गया है। इसलिए इसे जापानी पुदीना भी कहते हैं। यह फैलने वाला, बहुवर्षीय शाकीय पौध है, जिसकी ऊंचाई 1 मीटर तक हो जाती है। पत्तियों के किनारे कटे-फटे होते हैं, जिन पर सफेद रोंये पाये जाते हैं। इसमें पुष्प सफेद या हल्के बैंगनी रंग के गुच्छों में आते हैं। इसकी जड़े गूदेदार सफेद रंग की होती है जिन्हें भूस्तारी (स्टोलन) कहते हैं। मेन्था का प्रसारण इन्हीं भूस्तारी से होता है। मेन्था लेमिएसी कुल का अत्यंत उपयोगी औषधीय पौधा है। इसका वानस्पतिक नाम मेन्था आर्वेन्सिस है। इसके ताजा शाक से तेल निकाला जाता है। ताजा शाक में तेल की मात्रा लगभग 0.8-100 प्रतिशत तक पायी जाती है। इसके तेल में मेंथॉल, मेन्थोन और मिथाइल एसीटेट आदि अवयव पाये जाते हैं। लेकिन मेन्थाल तेल का मुख्य घटक है। तेल में मेन्थाल की मात्रा लगभग 75-80 प्रतिशत होती है। इसके तेल का उपयोग कमरदर्द, सिरदर्द, श्वसन विकार के लिए औषधियों के निर्माण में किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके तेल का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों, टुथपेस्ट, शेविंग क्रीम लोशन, टॉफी, च्यूंगम, कैन्डी, आदि बनाने में भी किया जाता है। इस प्रकार से कई प्रकार के उद्योगों में काम आने के कारण इसकी मांग बढ़ रही है।
मेन्था की खेती विश्व के कई देशों में की जा रही है। मुख्य रूप से भारत, चीन, जापान, ब्राजील और थाइलैण्ड में इसकी खेती की जा रही है। भारत में इसकी खेती, जम्मू कश्मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से की जा रही है। राजस्थान में भी इसकी खेती संभव है।
पुदीना की खेती पर जलवायु का विशेष प्रभाव पड़ता है। अगर जलवायु अनुकूल नहीं है तो पैदावार के साथ-साथ तेल की गुणवत्ता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। इसकी खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त समझी जाती है। ऐसे क्षेत्र जहां सर्दी के मौसम में पाला और बर्फ पड़ने की संभावना रहती है। वहां इसकी खेती संभव नहीं हैं, क्योंकि इससे पौधे की बढ़वार कम हो जाती है तथा पौधों की पत्तियों मे तेल और मेन्थॉल की मात्रा भी प्रभावित होती है।
मेन्था की खेती कई प्रकार की मृदाओं, जिसकी जल धारण क्षमता अच्छी हो, में की जा सकती है। लेकिन बलुई दोमट मृदा जिसका पी-एच मान 6.0-7.0 हो, इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम होती है। ऐसी मृदा जिसमें जीवांश पदार्थ प्रचुर मात्रा में हों, उसमें अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसकी खेती के लिए उचित जल निकास वाली मृदा का ही चुनाव करें। जहां पानी भरता हो ऐसी मृदा इसकी खेती के एि बिल्कुल उपयुक्त नहीं है।
खेत की पहली गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें, इसके बाद दो जुताइयां हैरो से करें । अन्तिम जुताई से पहले 20-25 टन प्रति हे0 के हिसाब से अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में मिलाएं तथा पाटा लगाकर खेत को समतल कर लें। ध्यान रहे कि गोबर की खाद अच्छी प्रकार से सड़ी हो, अन्यथा दीमक लगने का भय रहेगा।
अच्छी पैदावार प्राप्त कने के लिए उन्नत किस्मों का ही चुनाव करें, लेकिन जो किस्म आप ले रहे हैं। उसके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर प्रामाणिक संस्था से खरीदें। अगर किस्म के चुनाव में चूक हो गयी तो निश्चित रूप से पैदावार कम मिलेगी। मेन्था की एम. ए. एस. 1 हाइब्रिड-77, कालका, गोमती, हिमालय, कोशी और शिवालिक आदि उन्नत किस्में विकसित की जा चुकी हैं।
मैदानी क्षेत्रों में इसकी बुआई 15 जनवरी से 15 फरवरी के मध्य करें। इससे पहले या बाद में बुआई करने पर अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी बुआई मार्च-अप्रैल में की जा सकती है। बुआई हमेशा लाइनों में 45 x 60 से0मी0 की दूरी पर करें ।
मेन्था का प्रसारण भूस्तारी के द्वारा होता है। बुआई के लिए भूस्तारी ऐसे खेत से लें जो रोगरहित हो। मेन्था की बुआई दो प्रकार से की जा सकती है-
1)खेत में सीधे भूस्तारियों द्वारा
इस विधि में पहले से तैयार खेत में लाइनें बनाकर सीधे भूस्तारियों को लाइनों में 4-5 से0मी0 की गहराई पर बो देते हैं। भूस्तारी की लम्बाई लगभग 5-6 से0मी0 होनी चाहिए, जिसमें कम से कम 3-4 आंखें (गाउँ) होनी चाहिये । बुआई से पहले भुस्तारियों को 0.2 प्रतिशत बाविस्टीन के घोल में डुबोयें, जिससे फफूदी न लगे। बुआई के तुरन्त बाद सिंचाई करें। अनुकूल परिस्थितियां होने पर 15-25 दिनों में पूरा अंकुरण हो जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्र में सीधी बुआई के लिए 4-5 क्विंटल भूस्तारियों की आवश्यकता होगी, यह मात्रा भूस्तारियों की मोटाई और बोने की दूरी के आधार पर घट बढ़ सकती है।
2)पौधे लगाकर बुआई करना
यह विधि उन क्षेत्रों के लिए उपयोगी है जहां रबी में कोई अन्य फसल ली गयी हो, उसी खेत में मेन्था की बुआई करनी हो यह पहाड़ी क्षेत्रों के लिए उपयोगी है, क्योंकि जनवरी-फरवरी में वहां तापमान बहुत कम रहता है। कम तापमान होने से अंकुरण कम होता है। इस विधि में रोगरहित खेत से भूस्तारियों को खोदकर उनके छोटे-छोटे टुकड़े कर लेते हैं तथा नर्सरी में लगाकर पौधे तैयार करते हैं। 30-40 दिन बाद पौधे रोपने लायक हो जाते हैं। उस समय नर्सरी में सिंचाई करके पौधे नर्सरी से जड़ समेत उखाड़ कर चयनित खेत में लाइनों में मार्च-अप्रैल में रोप देते हैं। रोपने के बाद खेत में सिंचाई कर देते हैं। लेकिन ध्यान रहे कि देर से बुआई नहीं करें अन्यथा उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
उपरोक्त दोनों विधियों में सीधे भूस्तारियों द्वारा बुआई करना अधिक लाभकारी है।
अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए 15-20 टन प्रति हैक्टर अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिलाएं तथा इसके अतिरिक्त 120-130 कि0ग्रा0 नाइट्रोजन, 50-60 कि0ग्रा0 फास्फोरस तथा 40-60 कि0ग्रा0 पोटास प्रति हैक्टर की दर से खेत में डालें। इसमें फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन की कुल मात्रा का 1/5 भाग बुआई से पहले तथा अन्तिम जुताई के समय खेत में मिलाएं। नाइट्रोजन की शेष मात्रा बाद में खड़ी फसल में दें। इसमें लगभग 20-25 कि0ग्रा0 बुआई के 35-40 दिन बाद इतनी ही मात्रा बुआई के 75-80 दिन बाद खड़ी फसल में दें, शेष मात्रा प्रथम कटाई और दूसरी कटाई के बाद खेत में डालें । लेकिन ध्यान रहे कि नाइट्रोजन देने के बाद सिंचाई अवश्य करें।
प्रथम सिंचाई बुआई के तुरन्त बाद करें। बाद में 15-20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करें लेकिन भूमि की किस्म के आधार पर सिंचाई का समय आगे पीछे हो सकता है। गर्मी के मौसम (अप्रैल-जून) में सिंचाई 8-10 दिन के अंतराल पर करें। नमी के अभाव में उत्पादन प्रभावित हो सकता है। कटाई केबाद सिंचाई अवश्य करें।
मेन्था का तेल आसवन संयंत्र के द्वारा निकाला जाता है। इस संयंत्र से तेल निकालने के लिए वैसल (गोल आकार का पात्र) में ताजे शाक को भर दिया जाता है। शाक को वैसल के अन्दर अच्छी तरह से दबाकर भर देते है। यह वैसल माइल्ड स्टील (एम.एस.) या स्टेनलेस स्टील (एम.एस.) के हो सकते हैं। इसमें एस. एस. के वैसल एम.एस. की अपेक्षा महंगे होते हैं। लेकिन तेल की गुणवत्ता की दृष्टि से एस. एस. के वैसल अच्छे होते हैं। यह वैसल एक पाइप के द्वारा बॉइलर से जुड़ा रहता है। बॉइलर के ऊपरी भाग में पानी भरा रहता है तथा निचले भाग में आग जलायी जाती है, आग से यह पानी गर्म होकर भाप बनती है। यह भाप पाइप के द्वारा वैसल में प्रवेश करती है। इस भाप के द्वारा मेन्था का तेल पत्तियों और तनों से उड़कर वाष्प के रूप में इकट्ठा होता है। यह वाष्प वैसल से कन्डेन्सर में एक पाइप के द्वारा आती है। कन्डेन्सर में लगातार ठंडा पानी एक अन्य पाइप के द्वारा बहता रहता है। जो कन्डेन्सर को ठंडा रखता है। कन्डेन्सर में वाष्प ठंडी होती है, जिससे तेल और पानी अलग-अलग हो जाते हैं। कन्डेन्सर से पानी मिश्रित तेल एक नली के द्वारा एक स्टील के पात्र में एकत्रित होता है। चूंकि तेल पानी से हल्का होता है। अतः तेल पानी की ऊपरी सतह पर तैरता है। जो एक नली के द्वारा बाहर आता रहता है, जिसे एल्यूमीनियम के पात्र में इकट्ठा कर लिया जाता है। इस विधि से तेल निकालने में 4-6 घंटे लगते हैं। मेन्था की फसल से शाक और तेल के उत्पादन की मात्रा जलवायु, भूमि की उर्वरता, सिंचाई, कटाई का समय, तेल निकालने की विधि आदि पर निर्भर करती है।
मेन्था के तेल को प्लास्टिक के डिब्बे या एल्युमीनियम के कनस्तरों (पात्र) में भण्डारण करें । भण्डारण करते समय इस बात का ध्यान रखें कि डिब्बे/पात्र में हवा नहीं रहे अन्यथा तेल खराब होने की संभावना रहती है। अतः अधिक समय के लिए तेल को भण्डारित करने के लिए डिब्बे को अच्छी पकार से बन्द करें ताकि इनमें हवा नहीं रहे तथा 2 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से सोडियम सल्फेट भण्डारित तेल में डालें ।
बुआई के बाद सिंचाई करने पर खरपतवार काफी मात्रा में उगते हैं उस समय खेत को खरपतवार रहित रखें अन्यथा उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई अवश्य करें। विशेष रूप से प्रथम कटाई के बाद कुदाली या फावड़े से खुदाई करें। फसल बड़ी हो जाने पर खरपतवारों का प्रभाव बहुत अधिक नहीं होता है।
मेन्था की फसल को निम्न कीट नुकसान पहुंचाते है
दीमक
दीमक द्वारा मेन्था की फसल को काफी नुकसान पहुंचाया जाता है। विशेष रूप से जब गोबर की खाद और हरी खाद भली प्रकार से सड़ी नहीं हो तथा सिंचाई का उचित प्रबंध न हो उस समय इसका प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है। दीमक मेन्था के पौधे के तने को जो कि जमीन से लगा होता है उस भाग के सेल्युलोस को काटकर अन्दर घुस जाती है तथा अन्दर तने के भीतरी भाग को काटकर चबाती है, जिससे तने के ऊपरी भाग को भोजन नहीं मिल पाता है और धीरे-धीरे पौधा सूख जाता है।
रोकथाम
1)अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में डालें।
2)हरी खाद के सूखे अवशेष जो खेत में सड़ नहीं सकते, उन्हें खेत से बाहर निकालें ।
3)सिंचाई की समुचित व्यवस्था सुनिश्चित करें।
4) दीमक का प्रकोप होने पर क्लोरोपाइरीफॉस 20 ई.सी. 4 लीटर/हेक्टेयर के हिसाब से खेत में सिंचाई के पानी के साथ डालें।
रोयेंदार सुंडी
रोयेंदार सुंडी का प्रकोप काफी क्षेत्रों में मेन्था की फसल पर देखा गया है। यह सुंडी पीले भूरे रंग की होती है। जिन पौधों पर इनका प्रभाव होता है, उनकी पत्तियां कागज की तरह सफेद जालीदार हो जाती हैं। पत्तियों के हरे भाग को इन सूड़ीयों के द्वारा खा लिया जाता है, जिससे पत्तियों के भोजन बनाने की क्षमता खत्म हो जाती है। पत्तियों का नुकसान होने के कारण तेल का उत्पादन भी कम होता है।
रोकथाम
इस सुंडी की रोकथाम के लिए फसल की प्रारंम्भिक अवस्था में 2 मि. लीटर/लीटर (१ ली./हैक्टर) की दर से इण्डोसल्फान (0.07 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए।
काला कीट
यह जापानी पुदीने पर लगने वाला प्रमुख काले रंग का बीटल या भुंग होता है। पूर्ण विकसित यह काला कीट 5 से 7 सें.मी. लम्बा होता है। इसके पंख नीले काले तथा बहुत कड़े होते हैं। इसके शरीर के ऊपरी भाग पर हल्क नीले रंग की गोल-गोल बिन्दियां होती है। इस कीट का प्रकोप विशेष रूप से पौधे की प्रारंभिक अवस्था में होता है और यह कीट पौधों की कोमल पत्तियों को खाता है। जैसे-जैसे पत्तियां निकलती हैं, यह कीट पत्तियों को खाता रहता है। कभी-कभी पौधे पर एक भी पत्ती नहीं रहती है, जिससे तेल के उत्पादन में कमी आती है।
रोकथाम
इस कीट की रोकथाम के लिए इण्डोसल्फान (0.07 प्रतिशत) 2 मि.ली. प्रति लीटर (1 ली. /हैक्टर) पानी में घोलकर खड़ी फसल पर छिडकाव करें।
सफेद मक्खी
जापानी पुदीने में इस कीट का प्रकोप विशेष रूप से मई में होता है। यह आकार में 1-1.5 मि.मी. लम्बी दूधियां सफेद रंग की होती है। यह मक्खी मेन्था के पौधों की निचली पत्तियों पर आक्रमण करके पौधों से रस-चुसती है, जिसके कारण पौधे की वृद्धि रूक जाती है। इस मक्खी के द्धारा एक विशेष प्रकार का पदार्थ भी विसर्जित किया जाता है, जिसे हनीडिव कहते हैं। इस पदार्थ पर सूटीमोल्ड नामक कवक विकसित हो जाता है। जो कि पौधों की प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को प्रभावित करता है, जिससे पत्तियां भोजन नहीं बना पाती हैं तथा पौधे की बढ़वार और उत्पादन में कमी आती है।
रोकथाम
इस मक्खी की रोकथाम के लिए आक्सीडिमेटान मिथाइल 1 मि.ली./ली. (500 मि.ली.है.) या डाइमिथोएट-1 मि.ली./ली. (500 मि.ली. है.) की दर से पानी में मिलाकर खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए ।
मेन्था से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए इसकी कटाई पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। अगर कटाई सही समय पर नहीं होती है, तो निश्चित रूप से तेल का उत्पादन तो कम होगा ही साथ ही साथ तेल की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा । इसकी कटाई का उचित समय फूल आने की अवस्था होती है। फूल आने के बाद कटाई करने पर तेल और मेन्थाल दोनों की मात्रा घटने लगती है।
देर से कटाई करने पर पंत्तियां गिर जाती हैं। मेन्था में कुल तेल का लगभग 85 प्रतिशत भाग पत्तियों में पाया जाता है। अतः पत्तियां गिरने से तेल का उत्पादन स्वतः ही कम हो जाता है। पहली कटाई बुआई के लगभग 100-110 दिन में करें । दूसरी कटाई प्रथम कटाई के लगभग 70-80 दिन के अंतराल पर करें। इस समय फूल आने की अवस्था होती है। कटाई करने से लगभग 15 दिन पहले सिंचाई हो तो कटाई नहीं करें । कटाई धारदार हंसिए या दरांती से करें । पौधे को भूमि से लगभग 8-10 सें.मी. उपर से काटें। कटाई के बाद फसल को 3-4 घंटे के लिए खेत में छोड़ दें। कटाई के बाद शाक को काटकर अधिक समय के लिए संग्रह नहीं करें अन्यथा पत्तियां सड़नी शुरू हो जायेंगी, जिससे तेल की गुणवत्ता प्रभावित होगी। कटाई से पहले खेत को खरपतवार रहित करें।
मेन्था के उत्पादन पर मृदा, जलवायु, उन्नत किस्म और वातावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है। इसके उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीक अपनाने परएक हैक्टर में लगभग 250-300 क्विंटल ताजा शाक तथा लगभग 200-250 लीटर तेल प्राप्त होता है। मेन्था आयल की कीमत में काफी उतार-चढ़ाव है। गत मौसम में तेल की दर 600/- से 1700/किलोग्राम तक रही है।
प्याज की वैज्ञानिक खेती
प्याज “ऐमारलीडेसी” परिवार का सदस्य है। इसका वैज्ञानिक नाम एलियस सेपा है। अंग्रेजी में इसे ओनियन कहा जाता है। पूरे संसार में इसकी मांग है।
प्याज की खेती 5 हजार वर्षो और इससे अधिक समय से होती आयी है। चूँकि प्याज में गंधक युक्त यौगिक पाये जाते हैं इसी वजह से प्याज में गंध और तीखापन होता है।
दवा के रूप में इसके उपयोग से खून के प्लेट बनने में अवरोध पैदा होता है जिससे मनुष्य की पतली नसों में खून के प्रवाह में बाधा पैदा नहीं होती है।
इसकी खेती के लिए समशीतोष्ण और वर्षा रहित जलवायु की सर्वोत्तम होती है। प्याज के लिए शुरू में 200 सें. गर्मी और 4 से 10 घंटे की धूप लेकिन बाद में 100 सें. गर्मी तथा 12 घंटे धूप अच्छी होती है। अन्य देशों में इसकी औसत उपज 15 टन/हें. है। वर्ष 1980 से अभी तक इसकी उपज में 65.55% की वृद्धि हुई है। भारत वर्ष में औसत उपज 10.32 टन/हें. है जबकि विश्व के अन्य देशों में औसत उपज 15 टन/हें. है।
किसी भी सब्जी के वैज्ञानिक तरीके से उत्पादन में उसके प्रभेदों का अधिक महत्व है तथा हमारी मिट्टी के लिए कौन सा अनुशंसित प्रभेद हैं इसका ध्यान रखना अधिक आवश्यक है। कुछ अनुशंसित प्रभेदों के नाम नीचे दिये जा रहे हैं। ये अधिक उपज देते हैं साथ ही साथ यहाँ की जलवायु के लिए पूर्णतया उपयुक्त हैं।
प्रभेदों के नाम |
विशेषताएं |
पूसा रेड |
लाल रंग, गोल, उपज 20-30 टन/हें., भंडारण में विशेष अच्छा तथा कहीं भी अपने को समायोजित करने की क्षमता। |
पूसा रत्नार |
गहरा लाल प्रभेद, गोलाकार बड़ा, 30-40 टन/हें. उपज क्षमता। |
पूसा माधवी |
हल्के लाल रंग, अच्छा भंडारण क्षमता, 30-35 टन/हें. उपज क्षमता। |
पंजाब सेलेक्शन |
हल्का लाल, उपज क्षमता 20 टन/हें., एन-53 गहरा लाल, उपज क्षमता 15-20 टन/हें., खरीफ फसल के लिए उपयुक्त। |
अरका निकेतन |
हल्का लाल, उपज क्षमता 33 टन/हें., भंडारण के लिए उपयुक्त। |
अरका कल्याण |
गहरा लाल, उपज क्षमता 33 टन/हें., भंडारण के लिए उपयुक्त। |
अरका बिंदु |
चमकीला गहरा लाल, 100 दिनों में तैयार, 25 टन/हें. निर्यात के लिए उपयुक्त। |
बसवंत 780 |
चमकीला लाल। |
एग्री फाउंड लाइट रेड |
हल्का लाल, भंडारण में अच्छा, उपज क्षमता 30 टन/हें. । |
पंजाब रेड राउंड |
लाल, उपज क्षमता 30 टन/हें. । |
कल्याणपुर रेड राउंड |
गहरा लाल, गोल, उपज क्षमता 30 टन/हें. । |
हिसार-II |
हल्का लाल, उपज क्षमता 20 टन/हें. । |
उजला प्रभेदों के नाम
पूसा हवाइट फ्लाइट उपज क्षमता 30-35 टन/हें., भंडारण के लिए उपयुक्त, सगा प्याज के लिए उपयुक्त। एन 257-9-1, गोलाकार चिपटा, उपज 25-30 टन/हें. ।
पीले रंग का प्रभेद
अर्ली ग्रानो बड़ा कंद, सलाद के लिए उपयुक्त, उपज क्षमता 50-60 टन/हें. ।
ब्राउन स्पेनिश उपज क्षमता 20-25 टन/हें. ।
इसके अलावे प्याज के और प्रभेद भी हैं जिसे किसान सब्जी बीज की दुकान से प्राप्त कर लगाते हैं। वे प्रभेद भी रजिस्टर्ड कम्पनी की होती है लेकिन यह उनकी विश्वसनीयता पर निर्भर करती है।
प्याज की बागवानी हेतु भूमि का चयन भी आवश्यक है क्योंकि कंद का विकास भूमि की संरचना पर भी निर्भर करती है।
जीवांशयुक्त हल्की दोमट मिट्टी सबसे अच्छी है। अधिक अम्लीय मिट्टी सर्वथा अनुपयुक्त है। जमीन की जुताई अच्छी के साथ-साथ खाद एवं उर्वरक जुताई के समय डालकर अच्छी तरह मिला दिया जाय। मिलाने के बाद पाटा देना चाहिए। इससे खेत की नमी सुरक्षित रहती है तथा खाद को मिट्टी में मिलाने में आसानी होती है। भूमि की तैयारी के साथ पौधशाला की भी तैयारी उतनी ही आवश्यक है। पौधशाला की तैयारी में ख़ास ध्यान देकर उसे खरपतवार से मुक्त कर मिट्टी को भुरभुरी बनाये। पौधशाला में जल जमाव नहीं हो इसका विशेष ध्यान दें। पौधशाला को छोटी क्यारियों में बाँट दें। पौधशाला अपनी आवश्यकता अनुसार बनावें। साधारणतया एक हेक्टेयर प्याज की खेती हेतु 1/12 हें. में बीज लगाते हैं।
पौधशाला में बीज गिराने के बाद उसे पुआल आदि से ढँक देते हैं। बिचड़े को 4-5 सेंमी. के होने के बाद, डायथेन एम-45 का छिड़काव किया जाय ताकि सड़ने गलने से बच सकें।
बीज की गुणवत्ता के आधार पर ही इसकी मात्रा निर्भर करती है। (क) बीज स्वस्थ हों, (ख) बीज की अंकुरण क्षमता प्रमाणित हो, (ग) बीज हमेशा नामांकित जगहों से प्राप्त करें।
एक हेक्टेयर प्याज लगाने के लिए 10-12 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है।
प्याज की बुआई तीन प्रकार से की जाती है:
(क) सीधे बीज डालकर: इसे बलुआही मिट्टी में उपयोग करते हैं। इस विधि में मिट्टी को अच्छे ढंग से तैयार कर बीज खेत में छोड़ देते हैं। इस विधि में बीज की मात्रा 7-8 किलो प्रति हें. लगाते हैं।
(ख) गांठों से प्याज लगाना: छोटे प्याज के गांठों को अप्रैल-मई में लगायी जाती है। प्याज की 12-14 क्विंटल प्रति हें. गाँठ लगते हैं।
(ग) बीज से पौध तैयार कर खेत में लगाना: यह प्रचलित विधि है जिसके द्वारा प्याज की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है।
बुआई का समय: पौधशाला में बोआई: अक्टूबर-नवम्बर।
खेत में रोपाई: दिसम्बर-जनवरी।
बिहार कृषि महाविद्यालय, सबौर के सब्जी विभाग में कुछ वर्षों के लगातार प्रयोग के आधार पर (खाद एवं उर्वरक) में निम्नलिखित तथ्य सामने आये है और इन तथ्यों को भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी द्वारा अनुशंसित किया गया है।
सबौर क्षेत्र में प्याज के पूसा रेड प्रभेद हेतु पंक्ति से पंक्ति की दूरी 15 सें.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सें.मी. रखने की अनुशंसा की गयी है।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा: कम्पोस्ट 10 टन, 150 किलो नेत्रजन, 60 किलो फास्फोरस एवं 30 किलो पोटाश प्रति हें. देने की अनुशंसा की गयी है।
नेत्रजन का प्रयोग तीन बार करें और वह भी सिंचाई के बाद। स्फूर एवं पोटाश की पूरी मात्रा खेत तैयारी के समय ही दी जाय।
बरसाती प्याज के लिए अनुशंसित प्रभेदों में एन.-53 की खेती ज्यादा हो रही है। इसकी अच्छी पैदावार के लिएनिम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है।
महाराष्ट्र में इसकी खेती अधिक क्षेत्र में हो रही है। मुख्य फसल से प्राप्त प्याज के गांठों को अक्टूबर-नवम्बर से आगे तक भंडारण नहीं किया जा सकता है। सभी प्राय: फूट जाती है और गाँठ खोखले हो जाते हैं। उनकी विक्री समाप्त हो जाती है।
बरसाती प्याज की खेती मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा बिहार में भी हो रही है। नेफेड के द्वारा सेट उगाकर लगाने की तकनीक भी विकसित की गई है जो लाभकारी है।
बीज बोने का समय - मई के अंतिम सप्ताह से जून तक
प्रतिरोपण - अगस्त
अलगाने का समय - दिसम्बर-जनवरी
अन्य प्रभेद जिसकी खेती बरसाती प्याज के रूप में की जाती है – एग्रीफाऊड डाकरेड, बसवंत 780, अरका कल्याण, उपज 19 -20 टन/हें. ।
बरसाती प्याज के लिए सेट तैयार करना
दिसम्बर जनवरी के माह में प्याज के बिचडों में छोटा गाँठ बाँधने पर पौधशाला से ही उखाड़ लिये जाते हैं। इन्हें गुच्छों में बांधकर रख देते हैं। रखने से पहले इसे धूप में सुखाते भी हैं। इन सेटों का प्रतिरोपण अगस्त में करते हैं। इनकी गाँठ 2 से 2.5 सें. आकार की अधिक उपयुक्त है। 25 ग्राम बीज प्रतिवर्ग मी. में बोआई करें। 12-15 क्विंटल सेट्स/हेक्टेयर के लिए आवश्यक है।
सागा प्याज उगाने के तकनीक
सागा प्याज में पूरी गाँठ बनने से पहले पौधा सहित उखाड़ना ही सागा प्याज की खेती में व्यवहार करते हैं। सागा प्याज की खपत है, प्याज की तैयार फसल की तरह करते हैं। प्रयोग के आधार पर सागा प्याज की खेती के लिए अर्ली ग्रानो, पूसा हवाइट फ़्लैट तथा पूसा हवाइट राउंड उपयुक्त पाये गये हैं।
प्याज एक ऐसी फसल है जिसमें बिचड़े की रोपनी के बाद यानि जब पौधे स्थिर हो जाते हैं तब इसमें निकौनी एवं सिंचाई की आवश्यकता पड़ती रहती है। इस फसल में अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसकी जड़ें 15-20 सें.मी. सतह पफ फैलती है।
आरम्भ में 10-12 दिनों के अंतर पर सिंचाई करें। पुन: गर्मी आने पर 5-7 दिनों पर सिंचाई करनी चाहिए।
हर दो-तीन सिंचाई के साथ घास-पात की निकासी आवश्यक है। इससे पौधों को उचित मात्रा में पोषक तत्व एवं प्रकाश मिलता रहता है।
खरपतवार के नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशी टोक ई 25 का छिड़काव 5 ली. प्रति हें. की दर से करना चाहिए।
प्रथम वर्ष |
द्वितीय वर्ष |
तृतीय वर्ष |
आलू (अगात) |
आलू (मध्य) |
प्याज |
फूलगोभी (अगात) |
आलू |
प्याज |
धान |
प्याज |
प्याज |
आलू (अगात) |
फूलगोभी (मध्य) |
प्याज |
प्याज की आंगमारी: पत्ते पर भूरे धब्बे बाद में पत्ते सूख जाते हैं – इसके लिए 0.15% डायथेन जेड-78 का छिड़काव करें।
मृदुरोमिल फफूंदी: पत्ते पहले पीले, हरे और लम्बे हो जाते हैं तथा उन पत्तों पर गोलाकार धब्बे दिखाई पड़ते हैं। बाद में ये पत्ते मुड़ने और सूखने लगते हैं।
इसकी रोक थाम के लिए 0.35% ताम्बा जनित फफूंदी नाशक दवा का छिड़काव करें।
गले का गलन: इसके प्रकोप होने पर शल्क गलकर गिरने लगते हैं।
इसकी रोकथाम के लिए फसल को कीड़े और नमी से बचावें।
प्याज का थ्रिप्स: इसके पिल्लू कीड़े पत्तों और जड़ों को छेद कर रस चूसते हैं। फलस्वरूप पत्तियों पर उजली धारियाँ दिखाई पड़ने लगते हैं और सारा फसल सफेद दिखने लगते हैं।
रोकथाम: इसके रोकथाम के लिए कीटनाशी दवा (मालाथियान) का छिड़काव करें।
फसल की कटाई: जब पौधों के तने सूखने लगे और सूखकर तना पीछे मुड़ने लगे तब प्याज के कंदों को खुरपी के सहारे उखाड़ लिया जाय।
गाँठ सहित पौधों को तीन-चार सप्ताह तक छाया में अवश्य सूखा लें।
जमीन की तैयारी पूर्व की तरह ही करें। बीज का उत्पादन
(क) कंद से बीज
(ख) बीज से बीज प्याज के कंद से ही बीज उत्पादन होता है। प्याज पर परागित पौधा है अत: एक ही किस्म के बीज एक जगह लगते हैं और दो किस्मों के बीच पर्याप्त दूरी छोड़ते हैं (कम से कम 700 मीटर) कंद लगाने का समय अक्टूबर है। फूल जनवरी में लगते हैं। समय-समय पर परागण हेतु प्याज के फल लगे डंठलों को हिलाना आवश्यक होता है, ताकि पूर्ण परागण हो सके।
(ग) पुराने एवं स्वस्थ गांठों को जमीन में रोपते हैं इन गांठों से बीज के बाल निकलते हैं। फूल लगते हैं। फूल के गुच्छे जब सूख जाते हैं तो इसे झाड़कर बीज प्राप्त करते हैं।
सूखे कंदों को हल्की मिट्टी के ऊपर फैलाकर रखते हैं। इसे अनुकरण से बचाने के लिए मैलिक हाइड्राजाइड नामक रासायनिक दवा का (1000 से 1500 पी.पी.एम.) छिड़काव कर देते हैं।
लहसुन की उन्नत खेती
लहसुन एक महत्त्वपूर्ण व पौष्टिक कंदीय सब्जी है। इस का प्रयोग आमतौर पर मसाले के रूप में कियाजाता है। लहसुन दूसरी कंदीय सब्जियों के मुकाबले अधिक पौष्टिक गुणों वाली सब्जी है। यह पेट के रोग, आँखों की जलन, कण के दर्द और गले की खराश वगैरह के इलाज में कारगर होता है। हरियाणा की जलवायु लहसुन की खेती हेतु अच्छी है।
– इस किस्म के लहसुन की गांठे सफेद, सुगठित व मध्यम के आकार की होती हैं। हर गांठ में 15-20 कलियाँ पाई जाती हैं। यह किस्म बिजाई के 160 – 180 दिनों में पक कर तैयार होती है। इस की पैदावार 40 से 45 क्विंटल प्रति एकड़ है।
- यह किस्म हरियाणा के लिए अधिक माकूल है। इस की गांठे सफेद व सुगठित होती है। गांठ का वजन 25-30 ग्राम होता है। हर गांठ में 15-20 कलियाँ पाई जाती हैं। यह किस्म बिजाई के 160-170 दिनों में पक कर तैयार होती है। पैदावार लगभग 50 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
वैसे लहसुन की खेती कई किस्म की जमीन में की जा सकती है, फिर भी अच्छी जल निकास व्यवस्था वाली रेतीली दोमट मिट्टी जिस में जैविक पदार्थों की मात्रा अधिकं हो तथा जिस का पीएच मान 6 से 7 के बीच हो, इस के लिए सब से अच्छी हैं। लहसुन की अधिक उपज और गुणवत्ता के लिए मध्यम ठंडी जलवायु अच्छी होती है।
खेत में 2 या 3 गहरी जुताई करें इस के बाद खेत को समतल कर के क्यारियाँ व सिंचाई की नालियाँ बना लें।
लहसुन की बिजाई का सही समय सितंबर के आखिरी हफ्ते से अक्टूबर तक होता है।
लहसुन की अधिक उपज के लिए डेढ़ से 2 क्विंटल स्वस्थ कलियाँ प्रति एकड़ लगती हैं। कलियों का व्यास 8-10 मिली मीटर होना चाहिए।
बिजाई के लिए क्यारियों में कतारों दूरी 15 सेंटीमीटर व कतारों में कलियों का नुकीला भाग ऊपर की ओर होना चाहिए और बिजाई के बाद कलियों को 2 सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की तह से ढक दें।
खेत की तैयारी के समय 20 टन गोबर की सड़ी हुई खाद देने के अलावा 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश रोपाई से पहले आखिरी जुताई के समय मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएँ। 20 किलोग्राम नाइट्रोजन बिजाई के 30-40 दिनों के बाद दें।
लहसुन की गांठों के अच्छे विकास के लिए सर्दियों में 10-15 दिनों के अंतर पर और गर्मियों में 5-7 दिनों के अंतर पर सिंचाई होनी चाहिए।
लहसुन की जड़ें कम गहराई तक जाती हैं। लिहाजा खरपतवार की रोकथाम हेतु 2-3 बार खुरपी से उथली निराई गुड़ाई करें। इस के अलावा फ्लूक्लोरालिन 400-500 ग्राम (बासालिन 45 फीसदी, 0.9-1.1 लीटर) का 250 लीटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ के हिसाब से बिजाई से पहले छिड़काव करें या पेंडीमैथालीन 400-500 ग्राम (स्टोम्प 30 फीसदी, 1.3-1.7 लीटर) का 250 लीटर पानी में घोल बना कर बिजाई के 8-10 दिनों बाद जब पौधे सुव्यवस्थित हो जाएँ और खरपतवार निकलने लगे, तब प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें।
फसल पकने के समय जमीन में अधिक नमी नहीं रहनी चाहिए, वर्ना पत्तियाँ फिर से बढ़ने लगती हैं और कलियाँ का अंकुरण हो जाता है। इस से इस का भंडारण प्रभावित हो सकता है।
पौधों की पत्तियों में पीलापन आने व सूखना शुरू होने पर सिंचाई बंद कर दें। इस के कुछ दिनों बाद लहसुन की खुदाई करें। फिर गांठों को 3 से 4 दिनों तक छाया में सुखाने के बाद पत्तियों को 2-3 सेंटीमीटर छोड़ कर काट दें या 25-30 गांठों की पत्तियों को बांध कर गूछियों बना लें।
लहसुन का भंडारण गूच्छीयों के रूप में या टाट की बोरियों में या लकड़ी की पेटियों में रख कर सकते हैं। भंडारण कक्ष सूखा व हवादार होना चाहिए। शीतगृह में इस का भंडारण 0 से 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान व 65 से 75 फीसदी आर्द्रता पर 3-4 महीने तक कर सकते हैं।
इस की औसतन उपज 4-8 टन प्रति हेक्टेयर ली जा सकती है।
आमतौर पर लहसुन की फसल में बैगनी धब्बा का प्रकोप हो जाता है। इस के असर से पत्तियों परजामुनी या गहरे भूरे धब्बे बनने लगते हैं। इन धब्बों के ज्यादा फैलाव से पत्तियाँ नीचे गिरने लगती हैं। इस बीमारी का असर ज्यादा तापमान और ज्यादा आर्द्रता में बढ़ता जाता है। इस बीमारी की रोकथाम के लिए इंडोफिल एम् 45 या कॉपर अक्सिक्लोराइड 400-500 ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से ले कर 200-500 लीटर पानी में घोल कर और किसी चपकने वाले पदार्थ (सैलवेट 99, 10 ग्राम, ट्रीटान 50 मिलीलीटर प्रति 100 लीटर ) के साथ मिला कर 10-15 दिनों के अन्तराल पर छिड़कें।
मिर्च की खेती
मिर्च कैप्सिकम एनम कुल-सोलेनेसी) एक गर्म मौसम का मसाला है जिसके आभाव में कोई सब्जी कितनी ही मेहनत से तैयार किया गयी हो, फीकी होती है। इसका उपयोग ताजे, सूखे एवं पाउडर-तीनों रूप में किया जाता है। इसमें विटामिन ए व सी पाया जाता है।
यह मुख्य रूप से तीन तरह का होता है- मसालों वाली साधारण, आचार वाली व शिमला मिर्च। इसकी कुछ प्रजातियाँ काफी तिक्त व कुछ कम अथवा नहीं के बराबर होती है। इसकी तिक्ता एक रसायन- कैप्सेसीन के कारण होती है जिसका उपयोग औषधि निर्माण के क्षेत्र में भी होता है। इसका चमकीला लाल रंग ‘केप्सैथीन’ नाम रसायन के कारण होता है।
मिर्च गर्म मौसम की सब्जी है। इसकी सफल खेती वैसे क्षेत्रों की जा सकती है जहाँ वार्षिक बारिश 60-150 सेंटीमीटर होती हो। ज्यादा बारिश इसे नुकसान पहुंचाती है। तापक्रम समान्य से ज्यादा एवं कम-दोनों अवस्था में इसके उपज को कम करता है। फूल आने एक समय गर्म एवं सुखी हवा फूल-फल को गिरा कर उपज कम करती है।
पोषक तत्वों से भरपूर बलुई-दोमट मिट्टी इसके लिए आदर्श है। मृदा में ऑक्सीजन की कमी इसके उपज को कम करता है। अतः इसके खेतों में जलनिकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए।
मिर्च – एन. पी, 46 ए, पूसा ज्वाला, पूसा सदाबहार।
शिमला मिर्च- पूसा दीप्ती, अर्का मोहिनी, अर्का गौरव, अर्का बसंत।
आचार मिर्च- सिंधुर ।
कैप्सेसीन उत्पादन हेतु- अपर्ना , पचास यलो।
4-5 गहरी जुताई और हर बार जुताई के उपरान्त पट्टा देकर खेत को अच्छी तरह तैयार कर लें। इसी समय अच्छी तरह सड़े गोबर की खाद 10 टन प्रति एकड़ के हिसाब से यवहार करें। खाद यदि अच्छी तरह सड़ा न होगा तो दीमक लगने का भय रहेगा।
बिचड़ा उगने के लिए नर्सरी की क्यारियाँ ऊँची व जल निकास की सुविधायुक्त होनी चाहिए। इस तरह की क्यारियों की मिट्टी अच्छी जुताई कर भुरभुरी बना लेनी चाहिए।
बरसाती मिर्च की खेती हेतु बीज नर्सरी में मई-जून के महीने में बोनी चाहिए। बिचड़ों की रोपाई मध्य जून से मध्य जुलाई तक कर देनी चाहिए। जाड़े की फसल हेतु बीच बोने का समय नवम्बर महिना है। बिचड़ों की रोपाई फरवरी के दूसरे पखवाड़े में करते हैं।
बीज की मात्रा- 200-400 ग्राम प्रति एकड़
नर्सरी खेत का क्षेत्रफल- एक एकड़ में मिर्च लगाने के लिए बिचड़ा तैयार करने हेतु ढाई डिसमिल जमीन में बीज गिराते हैं।
4-8 सप्ताह के मिर्च के बिचड़ों की रोपाई समतल खेत में अथवा मेढ़ों पर किया जा सकता है। पंक्तियों के बीच की दुरी 2 फुट तथा पौधों व बीच की दूरी डेढ़ फुट रखते हैं।
रोपाई के पूर्व नर्सरी में बिछड़ों की सिंचाई 15 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए। रोपने के लिए उखाड़ने के एक दिन पूर्व नर्सरी की क्यारियों सिंचाई कर चाहिए। ऐसा करने से जड़ नहीं टूटते। रोपाई हमेशा शाम में अथवा धूप कम रहने या नहीं रहने पर करें। रोपाई के पूर्व व बाद में थालों में पाने दे दें।
बोने के एक दिन पूर्व बीजों को पाने में भिगों देना चाहिए। भिंगोने के पूर्व इन्हें अच्छी तरह हाथों से रगड़ना चाहिए। बीजों को आर्द्रगलन से बचाव हेतु एग्रोसन जी.एन अथवा तूतिया के 1.25% घोल से उपचारित कर लेना चाहिए। बीजों को छिंट कर नहीं, बल्कि पंक्तियों में बोना चाहिए जो निकाई-गुड़ाई एवं बिचड़ा निकालने में सहायता करता है। पंक्तियों की दूरी डेढ़ से दो इंच हो। बीजों की बोवाई के उपरान्त अच्छी तरह सड़े पत्तों से ढँक देना चाहिए। यदि इसकी व्यवस्था न हो तो बालू का उपयोग किया जा सकता है। क्यारियों के चारों तरफ दीमक मार दवाई का एक घेरा बना देना चाहिए। बीज बोआई के ठीक बाद सिंचाई करें।
मिर्च की खेती हेतु उचित मात्रा में पोषक तत्वों की उपलब्धता हेतु निम्नांकित खाद प्रति एकड़ (किलोग्राम) निर्द्रिष्ट समय पर प्रयोग करते हैं।
खाद का प्रकार | कार्बनिक | रसायनिक | ||
खाद | कम्पोस्ट | अमोनियम सल्फेट | एस.एस.पी, | एम्.ओ. पी. |
प्रयोग का समय |
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खेत तैयार करते समय | 10 टन |
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अधारिय |
| 225 | 750 | 100 |
मिट्टी चढ़ाते समय (रोपाई से डेढ़ माह बाद) |
| 225 |
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मिर्च के साथ फसल चक्र में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसमें आलू, बैंगन अथवा टमाटर में से कोई न हों। कद्दूवर्गीय सब्जियों, प्याज या भिन्डी के साथ मिर्च का अंतः सस्यन किया जा सकता है।
नियमित व सावधानीपूर्वक किया गया सिंचाई अच्छी उपज हेतु जरुरी है। रोपाई के बाद शुरूआती दिनों में नमी की कमी उपज में काफी कमी लाती है। दो सिंचाइयों के बीच का अंतराल मौसम व मृदा के प्रकार पर निर्भर करता है।
निकाई-गुड़ाई के द्वारा खेत तो खरपतवारविहीन होते ही हैं, साथ ही इनके द्वारा प्रयोग होने वाले पोषक तत्व मिर्च के पौधों द्वारा उपयोग में लाये जाते हैं एवं इनके द्वारा होने वाले रोग व कीट से भी मिर्च का बचाव होता है। दो बार हाथ से निकाई व तीन बार गुड़ाई आवश्यक है। मिट्टी भी दो बार चढ़ाना उचित होता है।
यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुड़ाई का मकसद की क्या है? हरी मिर्च हेतु तुड़ाई पुर्णतः तैयार होने के बाद लाल मिर्च होने के पूर्व हरी अवस्था में ही करते हैं। यह प्रायः रोपाई से 30 वें दिन से आरंभ हो जाता है। हरी मिर्च सप्ताह में दो बार तोड़ते हैं। शिमला मिर्च सप्ताह में ही बार तोड़ा जाता है। शुरू में कच्चे फलों की तुड़ाई सिर्फ आमदनी में इजाफा ही नहीं बल्कि पौधों के विकास के साथ उपज भी बढ़ाता है। सूखे लाल मिर्च हेतु तुड़ाई हरे से लाल रंग होने पर प्रायः रोपाई से साढ़े तीन महीनें बाद करते है। तुड़ाई के उपरान्त इन्हें धूप में सुखा लेते हैं। कच्चा फल सूखने में 10-15 दिन समय लगता है। फिर इन्हें सूखे डब्बों में भंडारित कर लेते हैं। तोड़ाई प्रायः दो महीना चलता है और कुल तोड़ाई सूखे मिर्च हेतु छः बार होता है।
हरी मिर्च | वर्षा आश्रित | 12.6. क्विंटल प्रति एकड़ |
| सिंचित | 30-40 क्विंटल प्रति एकड़ |
सुखी मिर्च | वर्षा आश्रित | 2.4 क्विंटल प्रति एकड़ |
| सिंचित | 6-10 क्विंटल प्रति एकड़ |
बीज उत्पादन हेतु मिर्च की दो किस्मों के बीच की दुरी कम से कम 400 मीटर रखा जाता है। बीज उत्पादन 2032 किलो प्रति एकड़ होता है।
कीट | लक्षण | उपचार |
तेला | झालदार पंखों वाला महीन कीट। वयस्व व निम्फ-दोनों पत्तों के टुकड़े-टुकड़े कर देतें हैं। कैप्सिकम में बाह्यादलपुंज के नीचे भी खातें हैं सूखे मौसम में मिर्च की बहुत ही हानिकारक कीट | नुवाक्रान या रोगर 2-3 मी.ली. 0.1 ली. पानी में घोलकर छिड़काव करें। |
बारुथी (माईट) | खुली आँखों से दिखाई नहीं पड़ने वाले सफेद बारुथी। पत्तियां अदंर की ओर मुड़ जाती है। सूखे मौसम में मिर्च की बहुत ही हानिकारक कीट। | केलथेन या रोगर 2-3 मी, ली. 1 ली.पानी में घोलकर छिड़काव करें। |
माहू/लाही | मुलायम पत्तियों व कलिकाओं को खाते हैं | नुवाक्रान या रोगर -23 मी, ली. 0.1 ली. पानी में घोलकर छिड़काव करें। |
फलछेदक | लार्वा फल पत्तियों व कलिकाओं को खाते हैं। | नुवाक्रान 2-3 मी. ली. 01 ली. पानी में घोलकर छिड़काव करें। |
कटुवा (कटवर्म) | रात्री में कीड़े बिचडों को आधार से काट देते हैं। दिन में दरार वैगरह में छिप जाते हैं। | 1 मी. ली. क्लोरपाइरीफॉस1 ली.पानी में घोलकर छिड़काव करें। |
आर्द्रगलन/पादप गलन.डैम्पिंग ऑफ़ | जमीन के पास से तने नर्सरी में से ही गलने लगते हैं। | कैप्टान 2 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से बीजोपचार |
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| नर्सरी को कैप्टान या इंडोफिल एम्-45 के 2 ग्राम मात्रा को 1 ली. पाने के घोल से उपचारित कर लें। |
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| बीज की नर्सरी हमेशा बदला करें। |
फल सड़न व् पत्र अंगमारी | फलों पर छोटे जलक्रांत धब्बे बनते हैं जो उन्हें पुर्णतः सड़ा देते अहिं। पत्तों पर जलाक्रांत सफेद धब्बे अंगमारी के रूप में विकसित होते हैं। | रोगरहित बीज का उपयोग। इंडोफिल एम्-45 के 2-3 ग्राम प्रति घोल बीज से बीजोपचार। सड़े फलों को चुनकर नष्ट कर दें। इंडोफिल एम्-45 के 2 ग्राम प्रति ली. पानी में घोलकर 8-10 दिन अंतराल पर छिड़काव करें।
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श्यामवर्ण (एन्थ्रेकनोज) | नीचे से शाखाओं सूखने लगते हैं। शाखाओं पर लाल धब्बे बनते हैं। फलों पर गहरे भूरे या काले पनीले धब्बे बनते हैं। अधिक तापमान और अधिक वर्षा इसके बढ़ने में मदद करते हैं। | रोगरहित फलों से इकट्ठे बीज का प्रयोग। इंडोफिल एम्-45 के 2 ग्राम प्रति किलो बीज से बीजोपचार। सड़े फलों को चुनकर नष्ट कर दें। इंडोफिल एम्-45 के 2 ग्राम प्रति ली. पानी में घोल में छिड़काव करें। ग्रसित पौधों को जमकर जला दें।
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मोजैक | पत्तों पर हरे चितकबरे धब्बे बनते अहिं। बाद में पत्तें मुड़ जाते हैं। फल पीले झुर्रीदार हो जाते हैं व विगलन दर्शाते है। | फसल विन्यास अपनाएं । रोगरहित बीज का उपयोग। नर्सरी का भाप उपचार। सभी कृषि यंत्रों को रोगमुक्त रखें। रोगर 2-3 मी. ली. 01 ली. पानी में घोलकर माहू के रोकथाम हेतु 10-10 दिन अतंराल पर 3-4 बार छिड़काव करें। |
धनिया की वैज्ञानिक खेती
रबी मौसम में उगाये जानेवाले मसालों में धनिया का प्रमुख स्थान है। यह बहुवर्षों बूटी है जो 30-90 से.मी. होती है। इसमें सफेद और गुलाबी फूल छतरी के रूप में लगते हैं। फल गोल, रेशेदार, पीले-भूरे और व्यास में 2-3.5 मि.मी. होती है। दबाने से फल दो पलाशकों में बँट जाता है जिसमें एक-एक बीज होता है। धनिया भूमध्य सागरीय क्षेत्र का मूलवासी है और भारत के सभी प्रदेशों में इसकी खेती की जाती है।
धनिया की शाखाओं, पत्तियों और फलों से सुहावनी गंध आती है। जब पौधा छोटा होता है तो पूरा पौधा चटनी बनाने के काम आता है और इसकी पत्तियों से सब्जियों को सजाते हैं। फलों को पीसकर भांति-भांति की भोजन सामग्रियों, जैसे-अचार, सब्जियां, मांस इत्यादि में मसाले की तरह मिलाया जाता है। फल, कुछ मिठाइयों, पेस्ट्री एवं केक को भी स्वादिष्ट बनाने के लिए प्रयुक्त होता है।
चिकित्सा में धनिया के बीज वायुनाशक, पाचक्र , पित्तनाशक एवं तापहर समझे जाते हैं। यह विशेष रूप से दूसरी औषधियों की गंध को दबाने के काम में आता है। मुंह की दुर्गध दूर करने के लिए बीज चबाते हैं।
धनिया की खेती सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है परन्तु जल निकास वाली दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है। भूमि की तैयारी से पहले 20-25 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद समान रूप से खेत में बिखेर दें। इसके बाद मिट्टी पलटने वाले हल से जूताई करें और फिर एक-दो बार कल्टीवेटर या हैरो चलायें। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य दें ताकि मिट्टी भुरभुरी, नमी बनी रहे एवं खेत समतल हो जाय।
उचित मात्रा में उर्वरक का प्रयोग न करने से ऊपज कम मिलती है। अत: मिट्टी की जांच के बाद उर्वरकों का प्रयोग करना लाभप्रद होता है। यदि किसी कारणवश मिट्टी की जाँच नहीं हो सके तो 200 किलो सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 50 किलो म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति हेक्टर की दर से अन्तिम जूताई के समय खेत में डालें । इसके अतिरिक्त 50 किलो नेत्रजन प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। अत: 55 किलो यूरिया पहली सिंचाई के बाद तथा 55 किलो यूरिया फूल आने से पहले खड़ी फसल में उपरिवेशन करें।
राजेन्द्र स्वाति, पू डी-20, पन्त हरीतिमा एवं एल.सी.सी.-133
धनिया की बुवाई का समय इस बात पर निर्भर करता है कि आप बीज या हरी पत्तियों के उत्पादन हेतु उगा रहे हैं या दोनों के लिए । खरीफ मौसम में इसे अगस्त-सितम्बर में पत्तियों के लिए उगाया जाता है। बीज के लिए सर्वोत्तम समय अक्टूबर का तीसरा या चौथे सप्ताह है।
अधिक ऊपज हेतु धनिया की बुआई पंक्तियों में करें। पंक्तियों से पंक्तियों की दूरी 30 सेमी. एवं पौधों की दूरी 20 सेमी. रखें। जब पौधे 5-6 सेमी लम्बे हो जायें तब घने पौधों को उखाड़ कर हरी पत्ती के रूप में व्यवहार करें। बीज को बोने से पहले उन्हें कुचलकर दो भागों में कर लें और 10-12 घंटे पानी में भिंगाने के बाद बुआई करें।
पत्तियों के लिए उगायी जाने वाली फसल की तुलना में बीज वाली फसल के लिए कम मात्रा में बीज की आवश्यकता होता है। पंक्तियों में बुआई करने पर औसतन 12-18 किलो बीज एक हेक्टेयर भूमि के लिए पर्याप्त होता है।
बीज को उपचारित करने के लिए 3 ग्राम थिरम प्रति किलो बीज या 4 ग्राम ट्राइकोडरमा प्रति किलो बीज की दर से अच्छी तरह मिलाकर बुआई करें।
पहली सिंचाई बुआई के तुरन्त बाद तथा दूसरी सिंचाई अंकुरण के 7 से 10 दिनों के बाद करें। रबी की फसल के लिए 4 से 6 सिंचाई पर्याप्त होती है।
जब पौधे 4-5 सेमी. के हो जायें तब खेत से खर-पतवार निकाल दें तथा हल्की गुड़ाई कर दें। पौधों में फूल आने से पहले पौधे के चारों तरफ मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए।
साधारणतया बुआई के 40–45 दिनों के बाद पत्तियों की कटाई प्रारम्भ करते हैं तथा पुनः 15 दिनों के अन्तर पर काटें। किस्मों के अनुसार बीजोत्पादन हेतु बुआई के 120-150 दिनों के बाद फसल काटने लायक हो जाती है। जैसे ही दाने सुनहरे पीले रंग के हो जायें फसल की कटाई कर 5-6 दिनों तक छाया में सुखायें तथा उसके 7-8 दिन बाद धूप में सुखायें।
यदि वैज्ञानिक विधि से खेती की जाय तो 50-75 क्विंटल हरी पत्तियाँ एवं 12-18 क्विंटल बीज की ऊपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है।
धनिया में फफूंदी और गलने की बीमारियाँ लगती हैं। जब पौधे फूलते हैं, विशेषकर यदि मौसम नम और गीला हो, इसका प्रभावशाली उपचार इन्डोफिल एम-45 के 2.5 ग्राम प्रति ली. पानी में घोल कर छिड़काव करें।
धनिया स्वयं एक ट्रैप फसल के रूप में कार्य करता है एवं कीटों को अपनी ओर आकर्षित कर मुख्य फसल को कीटों के आक्रमण से बचाता है।
कोलियस फोर्सखोली की खेती( Ajawaen ki kheti)
कोलियस फोर्सकोली जिसे पाषाणभेद अथवा पत्थरचूर भी कहा जाता है, उस औषधीय पौधों में से है, वैज्ञानिक आधारों पर जिनकी औषधीय उपयोगिता हाल ही में स्थापित हुई है। भारतवर्ष के समस्त उष्ण कटिबन्धीय एवं उप-उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों के साथ-साथ पाकिस्तान, श्रीलंका, पूर्वी अफ्रीका, ब्राजील, मिश्र, ईथोपिया तथा अरब देशों में पाए जाने वाले इस औषधीय पौधे को भविष्य के एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधे के रूप में देखा जा रहा है। वर्तमान में भारतवर्ष के विभिन्न भागों जैसे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा राजस्थान में इसकी विधिवत खेती भी प्रारंभ हो चुकी है जो काफी सफल रही है।
कोलियस का पौधा लगभग दो फीट ऊँचा एक बहुवर्षीय पौधा होता है। इसके नीचे गाजर के जैसी (अपेक्षाकृत छोटी) जड़े विकसित होती हैं तथा जड़ों से अलग-अलग प्रकार की गंध होती है तथा जड़ों में से आने वाली गंध बहुधा अदरक की गंध से मिलती जुलती होती है। इसका काड प्रायः गोल तथा चिकना होता है तथा इसकी नोड्स पर हल्के बाल जैसे दिखाई देते है। इसी प्रजाति का (इससे मिलता जुलता) एक पौधा प्रायः अधिकांश घरों में शोभा कार्य हेतु तथा किचन गार्डन्स में लगाया जाता है। जो डोडीपत्र (कोलियस एम्बोनिक्स अथवा कोलियस एरोमेटिक्स) के रूप में पहचाना जाता है। कोलियस एरोमैटिक्स को हिन्दी में पत्ता अजवाइन कहा जाता है तथा मराठी एवं बंगाली में पत्थरचुर । इसे पत्ता अजवाइन इसलिए कहा जाता है क्योकि इसके पते से अजवाइन जैसी खुशबू आती है तथा औषधीय उपयोग के साथ-साथ कुछ घरों में लोग इसके भजिए बनाकर भी खाते है। इस प्रकार से तो कोलियस फोर्सखोली तथा कोलियस एरोमेटिक्स एक जैसे ही दिखते हैं परन्तु जहां कोलियस एरोमैटिक्स में अजवाइन जैसी खुशबू आती है वहां कोलियस फोर्सकोली में इतनी तीव्र गंध नहीं होती। दूसरे कोलियस एरोमैटिक्स के पत्ते काफी मांसल (Spongy) होते है जबकि कोलियस फोर्सखोली के पत्ते ज्यादा मांसल नहीं होते।
कोलियस फोर्सकोली में मुख्यता बार्बटुसिन, प्लैक्ट्रिन, प्लैक्ट्रिनॉन-ए : कोलियोल, एसीटोजाइकोलीसोल, एलाइलरोलीनोन, कोलियोनोन, कोलियोसोल, डीआक्सीकोलीनोल, क्रोसीटीन डायलीहाईड, नेप्थोपाईरोन्स, सीकोएबिटेन डिटरपीन 1 तथा 2 तथा फोर्सकोलीन नामक तत्व पाए जाते है।
हिन्दी - पाषाणभेद, अथवा पत्थरचुर
संस्कृत - मयनी, माकन्दी, गन्धमूलिका
कन्नड़ - मक्काड़ी बेरू, मक्काण्डी बेरू अथवा मंगना बेरू
मराठी - मैमनुल
वानस्पतिक नाम - कोलियस फोर्सकोली अथवा कोलियस बाबैट्स बैन्थ
वानस्पतिक कुल - लैबिएटी/लैमिएसी
औषधीय जगत में पाषाणभेद अथवा पत्थरचुर शब्द का उपयोग उन विभिन्न औषधीय पौधों के लिए किया जाता है जिनमें शरीर के विभिन्न भागों जैसे किडनी, ब्लैडर आदि में पाई जाने वाली पथरी अथवा पत्थर (स्टोन आदि) को तोड़ने गलाने की क्षमता होती है। इसे एक संयोग ही कहा जा सकता है कि हमारे देश के विभिन्न भागों में ऐसे दस से अधिक औषधीय पौधे पाए जाते हैं जो उनके मूलभूत गुणों में भिन्नता होने बावजुद पाषाणभेद के रूप में जाने एवं पहचाने जाते है। पिछले पृष्ठ पर दिये गये विवरणों से देखा जा सकता है कि ऐसे अनेक औषधीय पौधे है जिन्हें पाषाणभेद अथवा पत्थरचुर के रूप में जाना जाता है। ऐसे में कोलियस फोर्सकोली के लिए पत्थरचुर अथवा पाषाणभेद शब्द सुविधा की दृष्टि से प्रयुक्त तो किया जा सकता है परन्तु तकनीकी रूप से शायद यह सही होगा। फलतः प्रस्तुत चर्चा में वर्णित किए जा रहे पौधे हेतु इसके वानस्पतिक नाम फोलियस फोर्सकोली का ही यथावत उपयोग किया जा रहा है। राजनिघण्टुकार ने इसकी पहचान कामन्दी, गन्धमूलिका के नाम से की है।
औषधीय उपयोगिता की दृष्टि से कोलियस एक अत्याधिक महत्वपूर्ण पादप के रूप में उभर रहा है।
औषधीय उपयोग में मुख्यता इसकी जड़ें प्रयुक्त होती हैं जिनसे फोर्सकोलिन नामक तत्व निकाला जाता है। जिन प्रमुख औषधीय उपयोगों में इसें प्रयुक्त जा रहा है, वे निम्नानुसार हैं -
कोलियस फोर्सखोली की खेती इसकी जड़ों की प्राप्ति के लिए की जाती है। यूं तो कोलियस फोर्सखोली एक बहुवर्षीय पौधा है परन्तु कृषिकरण की दृष्टि से छ: माह की अवधि में इसकी जड़ो में उपयुक्त तत्व विकसित हो जाते है। इसकी खेती की विधि से संबंधित अन्य विवरण निम्नानुसार है-
कोलियस का प्रवर्घन बीजों से भी किया जा सकता है तथा कलमों से भी। वैसे व्यवसायिक कृषिकरण की दृष्टि से कोलियस का प्रवर्धन कलमों से किया जाना ज्यादा उपयुक्त होता है। इसके लिए कलमों को पहले नर्सरी बेड्स में भी तैयार किया जा सकता है तथा सीधे खेत में भी लगाया जा सकता है। नर्सरी में इसकी कलमों को तैयार करने की प्रक्रिया निम्नानुसार होती है -
पत्ती पलेटने वाले केटरपिलर्स, मीली बग तथा जड़ो को नुकसान पहुंचाने वाले नीमाटोड्स वे प्रमुख कीट हैं जो इस फसल को नुकसान पहुंचा सकते है। इनके नियंत्रण हेतु मिथाईल पैराथियान का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर पौधों पर छिड़काव किया जा सकता है अथवा पौधों की जड़ों की डेंचिग की जा सकती है। इसी प्रकार कार्बोफ्युरॉन 8 कि.ग्रा. ग्रेनुअल्स का प्रति एकड़ की दर से उपयोग करके सूत्रकृमियों को नियन्त्रित किया जा सकता है। कभी-कभी फसल पर बैक्टीरियल बिल्ट का प्रकोप भी हो सकता है जिसके दिखते ही केप्टान दवा के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करके इस बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है। यदि यह बीमारी नियंत्रित न हो तो एक सप्ताह के बाद पुनः इस दवा का छिड़काव किया जा सकता है।
प्रतिरोपण के दो-ढाई माह के उपरान्त कालियस के पौधों पर हल्के नीले जामुनी रंग के फूल होने लगते है। इन फूलों को नाखुनों की सहायता से तोड़/काट दिया जाना चाहिए अन्यथा जड़ों का विकास प्रभावित हो सकता है।
रोपण के लगभग 5 से 6 माह के अन्दर कोलियस की फसल कटाई/उखाड़ने के लिए तैयार हो जाती है। यद्यपि तब तक इसके पते हरे ही रहते है परन्तु यह देखते रहना चाहिए कि जब जड़े अच्छी प्रकार विकसित हो जाएँ (यह स्थिति रोपण के लगभग 5 से 6 माह के बाद आती है, तो पौधो को उखाड़ लिया जाना चाहिए। उखाड़ लिया जाना चाहिए। उखाड़ने से पूर्व खेत की हल्की सिंचाई कर दी जानी चाहिए ताकि जमीन गीली हो जाए तथा जड़ें आसानी से उखाड़ी जा सकें। पौधे उखाड़ लेने के उपरान्त इनकी जड़ों को काट कर अलग कर लिया जाता है तथा इनके साथ जो मिट्टी अथवा रेत आदि लगा हो उसे झाड़ करके इन्हें साफ कर लिया जाता है। साफ कर लेने के उपरान्त इन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है अथवा बीच में चीरा लगा दिया जाता है। इस प्रकार टुकड़ा में काट लिये जाने के उपरान्त इन्हें धुप में सुखा लिया जाता है। अच्छी प्रकार से सूख जाने पर इन्हें बोरियों में पैक करके बिक्री हेतु प्रस्तुत कर दिया जाता है। सूखने पर ये ट्युबर्स गीले ट्यूबर्स की तुलना में लगभग 12 प्रतिशित रह जाते है।
एक एकड़ की खेती से औसतन 8 क्विंटल सूखे ट्यूबर्स की प्राप्ति होती है जिनकी बिक्री दर यदि 3500 रू. प्रति क्विंटल मानी जाए तो इस फसल से लगभग 28000 रू. की प्राप्तिया होती है। इनके साथ-साथ प्लांटिग मेटेरियल की बिक्री से भी 6000 रू. की अतिरिक्त प्राप्तियां होगी। इनमें से विभिन्न कृषि क्रियाओं पर यदि 11800 रू. का खर्च होना माना जाए तो इस छ: माह की फसल से किसान को प्रति एकड़ 22000 रू. का शुद्ध लाभ प्राप्त हो सकता है। निःसंदेह कोलियस फोर्सखोली एक बहुउपयोगी औषधीय फसल है। न केवल इसके औषधीय उपयोग बहुमूल्य हैं बल्कि अपेक्षाकृत नई फसल होने के कारण इसका बाजार भी काफी समय तक बने रहने की संभावनाएं है। इस प्रकार दक्षिणी भारत तथा मध्यभारत के किसानों के लिए व्यवसायिक दृष्टि से यह एक काफी लाभकारी सिद्ध हो सकती है।
कोलियस की सूखी जड़ों की खरीदी हेतु कम्पनियों द्वारा पुर्नखरीदी करार (Buyback Agreement) किए जा रहे है। इस संदर्भ में मध्यप्रदेश में कार्यरत प्रमुख कम्पनी है मे. कस्तूरी हर्बल फार्म, भोपाल । इस कम्पनी द्वारा भारतीय स्टेट बैंक के साथ भी कोलियस की खेती के प्रोत्साहन हेतु अनुबंध करार दिया गया है। कोलियस की सूखी जड़ो की बिक्री हेतु पुर्नखरीदी करार करने के इच्छुक किसान भाई मे. कस्तूरी हर्बल फार्म, ग्राम : मिसरोद, जिला : भोपाल (म.प्र.) फोन क्र. (0755) 2499231, मोबाइल क्र. : 9826442203 पर सम्पर्क कर सकते है।
(अ) व्यय की मदें |
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1. कलमों / बीजों की लागत |
5000/- |
2.नर्सरी तैयार करने की लागत 3. खेत की तैयारी पर लागत |
1000/- 2000/- |
4. खाद की लागत |
2000/- |
5. पौध प्रतिरोपण का खर्च |
1500/- |
6. भू–टनिको/ कीटनाशकों की लागत |
1500/- |
7. निंदाई-गुड़ाई पर व्यय |
3000/- |
8. सिंचाई व्यवस्था पर व्यय |
2000/- |
9. फसल उखाड़ने पर व्यय |
2500/- |
10.फसल साफ करने, सुखाने आदि की लागत |
2000/- |
11.पैकिंग एवं ट्रांसपोर्टेशन पर व्यय |
4000/- |
योग
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26,500/-
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(ब) कुल प्राप्तियां
1. ट्यूबर्स/जड़ों की बिक्री से प्राप्तियां (800 कि.ग्रा. ट्यूबर्स 85 रू. प्रति कि.ग्रा. की दर से ।
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68000/-
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2. बीज/कलमों अथवा प्लांटिंग मेटैरियल के रूप में प्राप्तियां |
6000/
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कुल योग शुद्ध लाभ = 74000-26500
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74000/- 47500/- एकड़ |
जीरे की फसल
जीरा मसाले वाली मुख्य बीजीय फसल हैl देश का 80 प्रतिशत से अधिक जीरा गुजरात व राजस्थान राज्य में उगाया जाता हैl राजस्थान में देश के कुल उत्पादन का लगभग 28 प्रतिशत जीरे का उत्पादन किया जाता है तथा राज्य के पश्चिमी क्षेत्र में कुल राज्य का 80 पतिशत जीरा पैदा होता है लेकिन इसकी औसत उपज (380 कि.ग्रा.प्रति हे.)पड़ौसी राज्य गुजरात (550कि.ग्रा.प्रति हे.)कि अपेक्षा काफी कम हैlउन्नत तकनीकों के प्रयोग द्वारा जीरे की वर्तमान उपज को 25-50 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता हैl
किस्म | पकने की अवधि (दिनों में) | औसत उपज(कु. प्रति.हे.) | विशेषतायें |
आर जेड -19 | 120-125 | 9-11 | उखटा, छाछिया व झुलसा रोग कम लगता है l |
आर जेड-209 | 120-125 | 7-8 | छाछिया झुलसा रोग कम लगता हैl दाने मोटे होते हैंI |
जी सी-4 | 105-110 | 7-9 | उखटा बीमारी के प्रति सहनशीलl बीज बड़े आकार के l |
आर जेड-223 | 110-115 | 6-8 | यह उखटा बीमारी के प्रति रोधक तथा बीज में तेल की मात्रा 3.25 प्रतिशत |
जीरे की फसल बलुई दोमट तथा दोमट भूमि अच्छी होती हैl खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहियेl जीरे की फसल के लिए एक जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करने के बाद एक क्रॉस जुताई हैरो से करके पाटा लगा देना चाहिये तथा इसके पश्चात एक जुताई कल्टीवेटर से करके पाटा लगाकर मिटटी भुरभुरी बना देनी चाहिये l
जीरे की बुवाई के समय तापमान 24 से 28° सेंटीग्रेड होना चाहिये तथा वानस्पतिक वृद्धि के समय20 से 25°सेंटीग्रेड तापमान उपयुक्त रहता हैl जीरे की बुवाई 1 से 25 नवंबर के मध्य कर देनी चाहियेl जीरे की किसान अधिकतर छिड़काव विधि द्वारा करते हैं लेकिन कल्टीवेटर से 30 से. मी. के अन्तराल पर पंक्तियां बनाकर उससे बुवाई करना अच्छा रहता हैlएक हेक्टयर क्षेत्र के लिए 12 कि. ग्रा . बीज पर्याप्त रहता हैl ध्यान रहे जीरे का बीज 1.5 से.मी. से अधिक गहराई पर नहीं बोना चाहिये l
जीरे कि फसल के लिए खाद उर्वरकों कि मात्रा भूमि जाँच करने के बाद देनी चाहियेl सामान्य परिस्थितियों में जीरे की फसल के लिए पहले 5 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद अन्तिम जुताई के समय खेत में अच्छी प्रकार मिला देनी चाहियेl इसके बाद बुवाई के समय 65 किलो डीएपी व 9 किलो यूरिया मिलाकर खेत में देना चाहियेl प्रथम सिंचाई पर 33 किलो यूरिया प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव कर देना चहिये l
जीरे की बुवाई के तुरन्त पश्चात एक हल्की सिंचाई कर देनी चाहियेl ध्यान रहे तेज भाव के कारण बीज अस्त व्यस्त हो सकते हैंl दूसरी सिंचाई 6-7 दिन पश्चात करनी चाहियेl इस सिंचाई द्वारा फसल का अंकुरण अच्छा होता है तथा पपड़ी का अंकुरण पर कम असर पड़ता हैl इसके बाद यदि आवश्यकता हो तो 6-7 दिन पश्चात हल्की सिंचाई करनी चाहिये अन्यथा 20 दिन के अन्तराल पर दाना बनने तक तीन और सिंचाई करनी चाहियेl ध्यान रहे दाना पकने के समय जीरे में सिंचाई न करें lअन्यथा बीज हल्का बनता है l सिंचाई के लिए फव्वारा विधि का प्रयोग करना उत्तम है l
जीरे की फसल में खरपतवारों का अधिक प्रकोप होता है क्योंकि प्रांरभिक अवस्था में जीरे की बढ़वार हो जाती है तथा फसल को नुकसान होता हैI जीरे में खरपतवार नियंत्रण करने के लिए बुवाई के समय दो दिन बाद तक पेन्डीमैथालिन(स्टोम्प ) नामक खरपत वार नाशी की बाजार में उपलब्ध3.3 लीटर मात्रा का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहियेI इसके उपरान्त जब फसल 25 -30 दिन की हो जाये तो एक गुड़ाई कर देनी चाहियेI यदि मजदूरों की समस्या हो तो आक्सीडाईजारिल (राफ्ट)नामक खरपतवार-नाशी की बाजार में उपलब्ध 750 मि.ली. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चहिये I
एक ही खेत में लगातार तीन वर्षो तक जीरे की फसल नहीं लेनी चाहियेI अन्यथा उखटा रोग का अधिक प्रकोप होता है I अतः उचित फसल चक्र अपनाना बहुत ही आवश्यक हैI बाजरा-जीरा-मूंग-गेहूं -बाजरा- जीरा तीन वर्षीय फसल चक्र का प्रयोग लिया जा सकता है I
चैंपा या एफिड
इस किट का सबसे अधिक प्रकोप फूल आने की अवस्था पर होता हैI यह किट पौधों के कोमल भागों का रस चूसकर फसल को नुकसान पहुचांता है इस किट के नियंत्रण हेतु एमिडाक्लोप्रिड की 0.5 लीटर या मैलाथियान 50 ई.सी. की एक लीटर या एसीफेट की 750 ग्राम प्रति हेक्टयर की दर से 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चहिये ई आवश्यकता हो तो दूसरा छिड़काव करना चहिये i
दीमक
दीमक जीरे के पौधों की जड़ें काटकर फसल को बहुत नुकसान पहुँचाती है। दीमक की रोकथाम के लिए खेत की तैयारी के समय अन्तिम जुताई पर क्लोरोपाइरीफॉस या क्योनालफॉस की 20 -25 कि.ग्रा.मात्रा प्रति हेक्टयर कि दर से भुरकाव कर देनी चाहियेl खड़ी फसल में क्लोरोपाइरीफॉस कि 2 लीटर मात्रा प्रति हेक्टयर कि दर से सिंचाई के साथ देनी चाहियेl इसके अतिरिक्त क्लोरोपाइरीफॉस की 2 मि.ली.मात्रा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिये l
उखटा रोग
इस रोग के कारण पौधे मुरझा जाते हैं तथा यह आरम्भिक अवस्था में अधिक होता है लेकिन किसी भी अवस्था में यह रोग फसल को नुकसान पहुंचा सकता हैl इसकी रोकथाम के लिए बीज को ट्राइकोडर्मा की 4 ग्राम प्रति किलो या बाविस्टीन की 2 ग्राम प्रति किलो बीज दर से उपचरित करके बोना चाहिये l प्रमाणित बीज का प्रयोग करेंl खेत में ग्रीष्म ऋतु में जुताई करनी चाहिये तथा एक ही खेत में लगातार जीरे की फसल नहीं उगानी चाहिएl खेत में रोग के लक्षण दिखाई देने पर 2.50 कि.ग्रा.ट्राइकोडर्मा कि 100 किलो कम्पोस्ट के साथ मिलाकर छिड़काव कर देना चाहिये तथा हल्की सिंचाई करनी चाहिये l
झुलसा
यह रोग फसल में फूल आने के पश्चात बादल होने पर लगता है l इस रोग के कारण पौधों का ऊपरी भाग झुक जाता है तथा पतियों व तनों पर भूरे धब्बे बन जाते है l इस रोग के नियंत्रण के लिए मैन्कोजेब की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये l
छाछया रोग
इस रोग के कारण पौधे पर सफ़ेद रंग का पाउडर दिखाई देता है तथा धीरे -धीरे पूरा पौधा सफ़ेद पाउडर से ढक जाता है एवं बीज नहीं बनते l बीमारी के नियंत्रण हेतु गन्धक का चूर्ण 25 किलो ग्राम प्रति हेक्टयर की दर से भुरकाव करना चाहिये या एक लीटर कैराथेन प्रति हेक्टयर की दर से 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहियेl जीरे की फसल में कीट एवं बीमारियों के लगने की अधिक संभावना रहती है फसल में बीमारियों एवं कीटों द्वारा सबसे अधिक नुकसान होता है l इस नुकसान से बचने के लिए जीरे में निम्नलिखित तीन छिड़काव करने चाहिये l
जीरे का बीज उत्पादन करने हेतु खेत का चयन महत्पूर्ण होता हैl जीरे के लिए ऐसे खेत का चयन करना चाहिए जिसमें पिछले दो वर्षो से जीरे की खेती न की गई होl भूमि में जल निकास का अच्छा प्रबंध होना चाहिये l जीरे के बीज उत्पादन के लिए चुने खेत के चारो तरफ 10 से 20 मीटर की दुरी तक किसी खेत में जीरे की फसल नहीं होनी चाहियेl बीज उत्पादन के लिए सभी आवश्यक कृषि क्रियायें जैसे खेत की तैयारी, बुवाई के लिए अच्छा बीज एवं उन्नत विधि द्वारा बुवाई ,खाद एवं उर्वरकों का उचित नियंत्रण आवश्यक हैlअवांछनीय पौधों को फूल बनने एवं फसल की कटाई से पहले निकलना आवश्यक हैl फसल जब अच्छी प्रकार पक जाये तो खेत के चारोंका लगभग 10 मीटर खेत छोड़ते हुए लाटा काट कर अलग सुखाना चाहिये तथा दाने को अलग निकाल कर अलग उसे अच्छी प्रकार सुखाना चाहियेI दाने में 8 -9 प्रतिशत से अधिक नमी नहीं होनी चाहियेI बीजों का ग्रेडिंग करने के बाद उसे कीट एवं कवकनाशी रसायनों से उपचारित कर साफ बोरे या लोहे की टंकी में भरकर सुरक्षित स्थान पर भंडारित कर दिया जाना चाहियेl इस प्रकार उत्पादित बीज को अगले वर्ष के लिए उपयोग किया जा सकता है l
सामान्य रूप से जब बीज एवं पौधा भूरे रंग का हो जाये तथा फसल पूरी पक जाये तो तुरन्त कटाई कर लेनी चाहिय l पौधों को अच्छी प्रकार से सुखाकर थ्रेसर से मँड़ाई कर दाना अलग कर लेना चाहियेl दाने को अच्छे प्रकार से सुखाकर साफ बोरों में भंडारित कर लिया जाना चाहिये।
उन्नत विधियों के उपयोग करने पर उपयोग करने पर जीरे की औसत उपज 7-8 कुन्तल बीज प्रति हेक्टयर प्राप्त हो जाती हैl जीरे की खेती में लगभग 30 से 35 हज़ार रुपये प्रति हेक्टयर का खर्च आता हैI जीरे के दाने का 100 रुपये प्रति किलो भाव रहना पर 40 से 45 हज़ार रुपये प्रति हेक्टयर का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है I
स्त्रोत : राजसिंह एवं शैलेन्द्र कुमार द्वारा लिखित,निदेशक,केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान(भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) द्वारा प्रकाशित,जोधपुर,राजस्थान
हल्दी की वैज्ञानिक खेती
हल्दी बिहार की प्रमुख मसाला फसल है। क्षेत्रफल एवं उत्पादन में इसका प्रथम स्थान है। हल्दी का उपयोग हमारे भोजन मेंनित्यदिन किया जाता है इसका सभी धार्मिक कार्यों में मुख्य स्थान प्राप्त है। हल्दी का काफी औषधीय गुण है। इसका उपयोग दवा एवं सौन्दर्य प्रसाधनों में भी होता है। हल्दी के निर्यात से भारत को करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।
हल्दी की खेती उष्ण और उप-शीतोष्ण जलवायु में की जाती है। फसल के विकास के समय गर्म एवं नम जलवायु उपयुक्त होती है परन्तु गांठ बनने के समय ठंड 25-30 डिग्री से. ग्रेड जलवायु की आवश्यकता होती है।
राजेन्द्र सोनिया - इस किस्म के पौधे छोटे यानि 60-80 सेमी. ऊँची तथा 195 से 210 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्म की ऊपज क्षमता 400 से 450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा पीलापन 8 से 8.5 प्रतिशत है।
आर.एच. 5 - इसके पौधे भी छोटे यानि 80 से 100 सेमी. ऊँची तथा 210 से 220 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्म की ऊपज क्षमता 500 से 550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा पीलापन 7.0 प्रतिशत है।
आर.एच. 9/90 - इसके पौधे मध्य ऊँचाई की यानि 110-120 सेमी. ऊँचाई की होती है तथा 210 से 220 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्म की ऊपज क्षमता 500 से 550 क्विंटल प्रति हेक्टर है।
आर.एच. 13/90 - इसके पौधे मध्यम आकार यानि 110 से 120 सेमी. ऊँचाई की होती है इसके
तैयार होने में 200 से 210 दिन का समय लगता है। इस किस्म की ऊपज क्षमता 450 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टर है।
एन.डी.आर.-18 - इसके पौधे मध्यम आकार का यानि 115 से 120 सेमी. ऊँची होती है तथा इसको तैयार होने में 215 से 225 दिन का समय लगता है। इसकी ऊपज क्षमता 350 से 375 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
हल्दी की अधिक ऊपज के लिए जीवांशयुक्त जलनिकास वाली बलूई दोमट से हल्की दोमट भूमि उपयुक्त होती है। इसके गांठ जमीन के अन्दर बनते हैं इसलिए दो बार मिट्टी पलटने वाले हल से तथा तीन से चार बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई करके एवं पाटा चलाकर मिट्टी को भूरभूरी तथा समतल बना लें।
एक हेक्टर क्षेत्रफल के लिये निम्नलिखित मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का व्यवहार करना लाभदायक होता है।
सड़ा हुआ कम्पोस्ट/गोबर की खाद - 250 से 300 क्विंटल
नेत्रोजन - 100 से 150 किलोग्राम
फास्फोरस (स्फुर) - 50 से 60 किलोग्राम
पोटाश - 100 से 120 किलोग्राम
जिक सल्फेट - 20 से 25 किलोग्राम
सड़ा हुआ गोबर की खाद या कम्पोस्ट से रोपाई 15 से 20 दिन पहले खेत में छींटकर जोताई करें। फास्फोरस, पोटाश एवं जिक सल्फेट को बोआई/रोपाई से एक दिन पहले खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिये। नेत्रजन खाद को तीन बराबर भागों में बाँट कर पहला भाग रोपाई से 40 से 45 दिन बाद, दूसरा भाग 80 से 90 दिन बाद तथा तीसरा भाग 100 से 120 दिन बाद देना चाहिये।
हल्दी बोआई या रोपाई 15 मई से 30 मई का समय उपयुक्त है लेकिन विशेष परिस्थिति में 10 जून तक इसकी रोपाई की जा सकती है।
हल्दी की रोपाई दो प्रकार से की जाती है -1. समतल विधि और 2. मेड़ विधि ।
समतल विधि में भूमि को तैयार कर समतल कर लेते हैं। कुदाल से पंक्ति से पंक्ति 30 सेमी. तथा गांठ से गांठ की दूरी 20 सेमी. पर रोपाई करते हैं।
मेड़ विधि में दो तरह से बोआई की जाती है। 1. एकल पंक्ति विधि तथा 20 दो पंक्ति विधि । एकल पंक्ति विधि में 30 सेमी. के मेड़ पर बीच में 20 सेमी. की दूरी पर गांठ को रख देते हैं तथा 40 सेमी मिट्टी चढ़ा देते हैं जबकि दो पंक्ति विधि में 50 सेमी. मेड़ पर दो लाईन, जो पंक्ति से पंक्ति 30 सेमी तथा गांठ से गांठ 20 सेमी. की दूरी पर रखकर 60 सेमी. कुढ़ से मिट्टी उठाकर चढ़ा देते हैं।
हल्दी के बोआई के लिये 30-35 ग्राम के गांठ उपयुक्त होती है। गांठ को पंक्ति से पंक्ति 30 सेमी. तथा कन्द से कन्द की दूरी 20 सेमी. एवं 5-6 सेमी गहराई पर रोपाई करनी चाहिये। कन्द को रोपने के पहले इन्डोफिल एम-45 का 25 ग्राम या वेभिस्टीन का 10 ग्राम के हिसाब से प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर कन्द को 30-45 मिनट तक उपचारित करक लगाना चाहिये ।
रोपाई या बोआई के बाद खेतों को हरी शीशम की पत्तियों से (5 सेमी. मोटी परत) ढँक दें। इससे खरपतवार नियंत्रण एवं गांठों का जमाव सामान्य रूप से होता है।
हल्दी में तीन निकाई-गुड़ाई करें। पहला निकाई 35-40 दिन बाद, द्वितीय 60 से 70 दिन बाद तथा तीसरा 90 से 100 दिनों बाद करें। प्रत्येक निकाई-गुड़ाई के समय पौधों की जड़ों के चारों तरफ मिट्टी अवश्य चढ़ावें।
हल्दी की पैदावार बरसात में होता है इसलिये इस फसल में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। जबकि समय पर नहीं वर्षा होने की स्थिति में, आवश्यकतानुसार सिंचाई अवश्य करनी चाहिये।
हल्दी की खोदाई दो प्रयोजन से किया जाता है-1. उबालने यानि सोंठ बनाने तथा 2 बीज के लिये। सोंठ के लिये हल्दी की खोदाई जब पौधे पीले पड़ने लगे तब खोदाई कर सकते हैं। जबकि बीज के लिये पौधे पूर्ण रूप से सुख जाते हैं तब खोदाई करते हैं।
हल्दी की ऊपज किस्म एवं उत्पादन के तौर तरीकों पर निर्भर करता है। हल्दी की औसत ऊपज 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टर है।
कीट
श्रीप्स - छोटे लाल, काला एवं उजले रंग कीड़े पत्तियों के रस चूसते हैं एवं पत्तियों मोड़कर पाईपनुमा बना देते हैं। इससे बचाव के लिए डाईमिथियोट का 1.5 मिली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर तीन छिड़काव करें।
प्रकन्द विगलन रोग - पत्तियाँ पीली पड़कर सुखने लगती हैं तथा जमीन के ऊपर का तना गल जाता है। भूमि के भीतर का प्रकन्द भी सड़कर गोबर की खाद की तरह हो जाता है। यह बीमारी जल जमाव वाले क्षेत्रों में अधिक लगते हैं। इस रोग से बचाव के लिए इण्डोफिल एम-45 का 2.5 ग्राम एवं स्ट्रेप्से-साईक्लिन 1/4 ग्राम बनाकर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर बीज उपचारित कर लगावें र खड़ी फसल पर 15 दिन के अन्तराल पर दो से तीन छिड़काव करें तथा रोग की अधिकता में पौधों के साथ-साथ जड़ की सिंचाई (ड्रेन्विंग) करें।
पर्ण धब्बा रोग - पत्तियों के बीच में या किनारे पर बड़े-बड़े धब्बे बन जाते हैं जिससे फसल की बाढ़ रुक जाती है ।
पर्ण चित्ती रोग
इस बीमारी के प्रकोप होने पर पत्तियों पर बहुत छोटी-छोटी चितियाँ बन जाती हैं। बाद में पत्तियाँ पीली पड़ने लगती है और सूख जाती है। पर्ण धब्बा रोग एवं चित्ती रोग से बचाव के लिये 15 दिन के अन्तराल दो से तीन छिड़काव इन्डोफिल एम-45 का 2.5 ग्राम एवं बेविस्टीन का 1 ग्राम का मिश्रण बनाकर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
तेज पत्ता, बे लॉरेल के एक सुगन्धित पत्ते को सन्दर्भित करता है (लौरस नोबिलिस, लौरेसिया). ताजा या सूखे तेज पत्तों को उनके विशिष्ट स्वाद और खुशबू के लिए खाना पकाने में इस्तेमाल किया जाता है। इन पत्तों का इस्तेमाल अक्सर सूप, दमपुख्त, ब्रेजों और पैटे जैसे भूमध्यसागरीय व्यंजनों में स्वाद के लिए किया जाता है। ताजा पत्ते बहुत मंद होते हैं और तोड़े जाने और कई हफ्तों तक सुखाये जाने तक वे अपना पूरा स्वाद विकसित नहीं कर पाते हैं।
कई अन्य पौधे "बे लीफ" शब्द का उपयोग करते हैं, लेकिन वह बे लॉरेल की पत्तियों के सन्दर्भ में नहीं होता. इनमें शामिल है:
कैलिफोर्निया बे वृक्ष की पत्तियां (अम्बेल्युलारिया कैलिफोर्निका), जिन्हें 'कैलिफोर्निया लॉरेल', 'ओरेगन मायर्टल' और 'पेपरवुड' के नाम से भी जाना जाता है, भूमध्यसागरीय बे के समान होते हैं, लेकिन इसका स्वाद और अधिक कड़क होता है।
दिखने में, सिनेमोमम तेजपत्ता (मालाबाथरम) वृक्ष के पत्ते अन्य तेज पत्तों के समान होते हैं लेकिन पाक शाला संबंधी उपयोगों में यह काफी भिन्न होते है, जिसमें दालचीनी (कासिया) के जैसी खुशबू और स्वाद होता है लेकिन यह उनसे हलके होते हैं। पाक कला के सन्दर्भ में, इसे तेज पत्ता कहना भ्रामक होता है, क्योंकि यह बे लॉरेल पेड़ से एक भिन्न प्रजाति का होता है, इसका स्वाद बे लॉरेल पत्ते के समान नहीं होता और इसे खाना पकाने में बे लॉरेल पत्तों के एक विकल्प के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
सिज़िगियम पोलियैनथम के पत्ते. इसे आमतौर पर इंडोनेशिया के बाहर नहीं पाया जाता है, इस जड़ी बूटी को मांस और कभी-कभी सब्जियों में इस्तेमाल किया जाता है। भारतीय तेज पत्ते की तरह, इसे भी गलत ढंग से यह नाम दिया गया है क्योंकि यह पौधा वास्तव में मायरटेसिया परिवार का सदस्य है।
बे लॉरेल वृक्ष को लिखित इतिहास की शुरुआत से उगाया जाता रहा है। तेज पत्ता एशिया माइनर में शुरु हुआ और भूमध्य और उपयुक्त मौसम वाले अन्य देशों में फैल गया। तेज पत्ता उत्तरी क्षेत्रों में नहीं उगाया जाता है, क्योंकि ये पौधे ठंडी जलवायु में नहीं पनपते हैं। तुर्की तेज पत्ते के प्रमुख निर्यातकों में से एक है, हालांकि इन्हें फ्रांस, बेल्जियम, इटली, रूस, मध्य अमेरिका, उत्तर अमेरिका और भारत के क्षेत्रों में भी पाया जाता है। लॉरेल वृक्ष जिससे तेज पत्ता प्राप्त किया जाता है यूनान और रोम में प्रतीकात्मक और वस्तुतः दोनों ही रूप से बहुत महत्वपूर्ण था। लॉरेल को प्राचीन पौराणिक कथाओं में पाए जाने वाले केंद्रीय घटक के रूप में पाया जाता है जो इस पेड़ को सम्मान के प्रतीक के रूप में महिमा मंडित करता है। तेज पत्ता यूरोप और उत्तरी अमेरिका में पाक क्रिया में सबसे व्यापक रूप से प्रयोग किए जाने वाली जड़ी बूटीयों में से एक है।
अगर साबूत खाया जाए तो, तेज पत्ते तिक्त होते है और इसका स्वाद तेज, कड़वा होता है। जैसा की कई मसालों और स्वाद में वृद्धि करने वाले सामग्रियों के साथ होता है, तेज पत्ते की सुगंध उसके स्वाद से अधिक उल्लेखनीय है। सुखाये जाने पर, इसकी खुशबू जड़ी बूटी जैसी, थोड़ी सी पुष्प जैसी और कुछ हद तक अजवायन के पत्ते और जलनीम के जैसी होती है। माइक्रीन, जो कई सुगन्धित तेलों का घटक है जिनका इस्तेमाल परफ्यूम बनाने में किया जाता है, उसे तेज पत्ते से निकाला जा सकता है। तेज पत्ते में सुगन्धित तेल यूजेनोल भी शामिल है।
तेज पत्ता कई यूरोपीय व्यंजनों (विशेष रूप से भूमध्य क्षेत्र के) को पकाने की एक विशेषता है और साथ ही उत्तरी अमेरिका में भी इस्तेमाल किया जाता है। उनका इस्तेमाल सूप, दमपुख्त, मांस, समुद्री भोजन और सब्जियों के व्यंजन में किया जाता है। ये पत्तियां कई शास्त्रीय फ्रांसीसी व्यंजनों में भी अपना स्वाद बिखेरती हैं। इन पत्तियों को अक्सर इनके पूरे आकार में इस्तेमाल किया जाता है (कभी-कभी एक बुके गार्नि में) और परोसने से पहले हटा दिया जाता है। भारतीय (संस्कृत नाम तमालपत्र) और पाकिस्तानी पाकशालाओं में तेज पत्ते का उपयोग अक्सर बिरयानी और अन्य मसालेदार व्यंजनों में तथा गरम मसाले में एक घटक के रूप में किया जाता है - हालांकि हर रोज घरेलू रसोई में इसका इस्तेमाल नहीं होता.
तेज पत्ते को खाना पकाने से पहले कुचला या पीसा जा सकता है। कुचले हुए पत्ते खड़े पत्ते की तुलना में अपनी वांछित खुशबू को अधिक प्रदान करते हैं, लेकिन इन्हें हटाना अधिक मुश्किल होता है और इसलिए इन्हें अक्सर एक मलमल बैग या चाय की थैली के अन्दर इस्तेमाल किया जाता है। पिसी हुई पत्तियों को खड़े पत्ते की जगह इस्तेमाल किया जा सकता है और इन्हें हटाने की जरूरत नहीं होती, लेकिन यह वर्धित सतही क्षेत्र के कारण अपेक्षाकृत मजबूत होता है और कुछ व्यंजनों में बनावट वांछनीय नहीं भी हो सकता है।
तेज पत्तों को पेंट्री में खाद्य कीट, मक्खियों और तिलचट्टों को दूर भगाने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। यह भी सच है कि रोमन लोग सेंट वेलेंटाइन दिवस पर अपने तकिये के नीचे एक सूखा तेज पत्ता रखते हैं। यह माना जाता था कि इस पत्ते के कारण स्वप्न में उपयोगकर्ता की मुलाक़ात अपने भावी पति/पत्नी से होती है।
मध्य युग में तेज पत्तियों को गर्भपात कराने वाला और कई जादुई गुणों वाला माना जाता था। उनका इस्तेमाल कभी कीट-पतंगों को दूर रखने के लिए किया जाता था, जिसका कारण था पत्ते में लोरिक एसिड की मौजूदगी जो इसे कीटनाशी गुणों से युक्त करती थी। तेज पत्तियों में कई ऐसे गुण हैं जो उन्हें उच्च रक्त शर्करा, माइग्रेन सिर दर्द, बैक्टीरियल और कवक संक्रमण और गैस्ट्रिक अल्सर के इलाज में उपयोगी बनाते हैं। तेज पत्तियों और जामुन को उनके कसैले, वातहर, स्वेदजनक, पाचन, मूत्रवर्धक, उबकाई और भूख बढ़ानेवाले गुणों के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। तेज पत्ते के तेल, (ओलियम लौरी) का प्रयोग छिलने और मोच में तिला के लिए किया जाता है। सिर दर्द के लिए एक हर्बल उपचार के रूप में तेज पत्ते का इस्तेमाल किया गया है। इसमें एक यौगिक होता है जिसे पर्थेनोलाइड कहते हैं, वह माइग्रेन के उपचार में उपयोगी साबित हुआ है। तेज पत्ता शारीरिक इन्सुलिन प्रक्रिया में अधिक कुशलता से सहायक होता है जिससे रक्त में शर्करा स्तर में कमी होती है। इसका इस्तेमाल पेट के अल्सर के प्रभाव को कम करने के लिए भी किया गया है। तेज पत्ते में यूजेनोल होता है, जो जलन-विरोधी और ऑक्सीडेंट-विरोधी गुण प्रदान करता है। तेज पत्ता कवक-विरोधी और जीवाणु-विरोधी भी होता है और इसका इस्तेमाल गठिया, राजोरोध और पेट दर्द के इलाज के लिए किया गया है।
लॉरेल परिवार के कुछ सदस्यों, साथ ही असंबंधित लेकिन देखने में समान पर्वतीय लॉरेल और चेरी लॉरेल में ऐसे पत्ते होते हैं जो मनुष्यों और पशुओं के लिए जहरीले होते हैं। जबकि इन पौधों को पाक इस्तेमाल के लिए कहीं भी बेचा नहीं जाता है, तेज पत्ते के साथ उनकी समानता ने इस धारणा को बल दिया है कि तेज पत्ते को खाना पकाने के बाद भोजन से हटा दिया जाना चाहिए क्योंकि वे जहरीले होते हैं। यह सच नहीं है - तेज पत्तियों को विषाक्त प्रभाव के बिना खाया जा सकता है। हालांकि, वे पूरी तरह से खाना पकाने के बाद भी बहुत कठोर बने हुए रहते हैं और अगर इन्हें साबुत या बड़े टुकड़ों में निगल लिया जाए तो वे पाचन तंत्र में खरोंच या घुटन का जोखिम पैदा कर सकते हैं। इस प्रकार तेज पत्ते के इस्तेमाल वाले अधिकांश व्यंजनों में खाना पकाने की प्रक्रिया के बाद उन्हें हटा देने की सलाह दी जाती है।
ठंढ से मुक्त या हल्के ठंढ वाले क्षेत्रों में माली यह पाते हैं कि ज़मीन में रोपे गए बे लॉरेल पौधे स्वेच्छा से विशाल वृक्ष, 38 फीट (12 मी॰) और उनसे भी लम्बे हो जाते हैं; लेकिन छंटाई करते रहने पर बे लॉरेल पेड़ एक छोटी झाड़ी की तरह बढ़ता है। बे लॉरेल को कंटेनरों में भी विकसित किया जा सकता है, जिसका आकार पेड़ के अंतिम आकार के रूप में उसके विकास को रोकता है। नए पौधों को लेयरिंग, या कलम के द्वारा उगाया जाता है, क्योंकि बीज से उगाना मुश्किल हो सकता है।
बे पेड़ को बीज से उगाना मुश्किल होता है, जिसका आंशिक कारण है बीज का कम अंकुरण दर और लम्बी अंकुरण अवधि. फली हटाये हुए ताज़े बीज का अंकुरण दर आमतौर पर 40% होता है, जबकि सूखे बीज और/या फली सहित बीज का अंकुरण दर और भी कम होता है। इसके अलावा, बे लॉरेल के बीज की अंकुरण अवधि 50 दिन या उससे अधिक होती है, जो अंकुरित होने से पहले बीज के सड़ जाने के खतरे को बढ़ा देता है। गिबेरेलिक एसिड के साथ बीज का उपचार करना बीज की उपज को बढ़ाने में उतना ही उपयोगी हो सकता है, जितना कि जड़ संचार में नमी के स्तर की सावधानी पूर्वक निगरानी करना
अगर आप तेजपत्ता की खेती करने में दिलचस्पी रखते है तो आप आसानी से इसकी खेती कर सकते है इसे अंग्रेजी में 'बे लीफ' कहा जाता है इसकी खेती हमारे देश में एक प्रॉफिटेबल बिजनेस भी है. यह एक प्रकार का शुष्क और सुगन्धित पत्ता होता है, जिसका ज्यादातर उपयोग खाने को स्वादिष्ट बनाने के लिए मसाले के रूप में किया जाता है. इसका उत्पादन कई वर्षो से किया जा रहा है. इसकी खेती सबसे पहले भूमध्य और इसके खेती के उपयुक्त देशों में होती थी. परन्तु अब इसका उत्पादन कई देशो में किया जाता है. इसका ज्यादातर उत्पादन करने वाले देश जैसे - भारत, रूस, मध्य अमेरिका, इटली, फ्रांस और उत्तर अमेरिका और बेल्जियम आदि है.
तेजपत्ता की खेती / How to do Bay leaf Farming?
अगर आपके पास 5 बिस्वा जगह है तो आप आसानी से तेजपत्ते की खेती शुरू कर सकते है. इस खेती को करने के लिए आपको शुरुआती दौर में थोड़ी मेहनत करने पड़ेगी. जैसे-जैसे इसका पौधा बड़ा होता जाएगा आपको मेहनत भी कम करनी पड़ेगी. जब पौधा पेड़ का आकार ले लेगा तब आपको केवल पेड़ की देखभाल करनी होगी. इसकी खेती से आप हर साल अच्छी खासी आमदनी पा सकते है.
पौधा (Plants) | मुनाफा (Profit) |
1 पौधा | 3000 से 5000 प्रति वर्ष |
25 पौधे | 75,000 से 1,25,000 प्रति वर्ष |
उत्पादक राज्य :
हमारे देश में तेजपत्ता का ज्यादातर उत्पादन उत्तर प्रदेश, बिहार, केरल, कर्नाटक के अलावा उतरी पूर्वी भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में किया जाता है, तो अगर आप बिहार, उत्तर प्रदेश या फिर कर्नाटक के रहने वाले है तो आप तेजपत्ता की अच्छी खेती आसानी से कर सकते हैं.
भूमि तैयारी और मिट्टी की आवश्यकता
जलवायु के साथ-साथ पौधे के लिए मिट्टी में उपयुक्त प्रदार्थ और मिट्टी का प्रकार तेजपत्ता के विकास के लिए बहुत जरूरी है. तेजपत्ता के अच्छे विकास के लिए कार्बनिक प्रदार्थ युक्त सुखी मिट्टी की जरूरत पड़ती है, और इसके साथ ही मिट्टी का पीएच मान 6 से 8 के बीच होना जरूरी है. इसके पौधे को लगाने से पहले आवश्यकता अनुसार भूमि को तैयार करना बेहद जरूरी होता है. इसलिए पौधा को लगाने से पहले जमीन की मिट्टी को अच्छे से जोतले और सुखा लें. तब फिर मिट्टी से खरपतवारों को पूरी तरह साफ कर ले. अब पूरे खेत में जैविक खाद का छिडकाव करें. इसके बाद खाद के मिट्टी में मिलने के बाद तेजपत्ता के पौधो को जमीन में लगाए. इन पौधा को लगाते दोनों पौधो के बीच की दुरी करीब 4 से 6 मीटर रखें.
तेजपत्ता की खेती में खाद और उर्वरक / Manure and Fertilizer in Bay Leaf Farming
तेजपत्ता की पत्ती में लगने वाले कीट और रोग
साधारण कीट पतंगे ही तेजपत्ता की पत्ती में पाए जाते है. जैसे -एफिड्स (Aphids), हार्ड शैलेड स्केल (Hard shelled scale), माईट्स (Mites)
इन कीटों को तेजपत्ता के पौधो से बचाने के लिए आप पौधो पर नीम के तेल का छिड़काव कर सकते है. इसके आलावा आस -पास की जगह साफ़ रखें और खरपतवार को साफ़ करें ताकि पौधे का विकास अच्छे से हो और कीड़े लगने का संभावना भी कम हो. तेजपत्ता के पौधों में पड़ने वाले खाद को रोपण से पहले ही डाले जाते है. पौधे का सही से विकास करने के लिए हमें इसकी समय - समय पर छटाई करते रहना चाहिए. इसकी समय पर छटाई करने से पेड़ों का विकास अच्छे से और पूरी तरह होता है और अगर इसके बाद भी तेजपत्ता के पेड़ या पौधे पर किसी तरह का कीड़ा लग रहा है तो आप इससे छुटकारा पाने के लिए रसायनिक कीटनाशक का प्रयोग भी कर सकते है.
इस पर सब्सिडी
इसकी खेती करने वाले किसानों को राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड की ओर से 30 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है |