डायरिया
कारणः
1 सड़ा हुआ हरा चारा, फफुंदी लगा पशु आहार या अनाज खिलाने से
2 गंदा पानी पिलाने से, पेट में कीड़ा होने से
3 पेट में किसी प्रकार के इन्फेक्शन के कारण
लक्षणः
1 बार-बार पतला पैखाना (गोबर) करना एवं उसमें दुर्गन्ध या बदबु आना
2 निर्जलीकरण (डीहाइड्रेशॅन) होना
3 बुखार आना, खाना पीना छोड़ देना
4 शरीर कमजोर हो जाना, दूध कम हो जाना
समाधानः
1 शुरूआत के समय भात के माड़ को पतला करके उसमें हल्का नमक डालकर बार-बार पिलाना चाहिए
2 दस्त बन्द नहीं होने पर पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें
चमोकन/किलनी
कारणः
1 मवेशी रखने का बथान तथा आस-पास में गन्दगी के कारण चमोकन, जुओं तथा मक्खियों का प्रकोप बढ़ जाता है।
2 कोई नया पशु जिसके शरीर में पहले से ही चमोकन या जुएँ लगा रहा हो उसी पशु से भी बथान के अन्य पशुओं में फैलने की सम्भावना होती है।
3 चमोकन, जुएँ शरीर के खून चूसती रहती है।
4 एक चमोकन एक दिन में औसतन आधा मि.ली. खून चूसती है। एक पशु के शरीर में एक दिन में औसतन 300 से 500 मि. ली. खून चूस लेती है। जिससे पशु कमजोर हो जाता है।
5 चमोकन पशु के खून में एक जहर छोड़ती है। जिससे पशुओं में पक्षाघात होने की संभावना रहती है।
लक्षणः
1 पशु का कमजोर हो जाना एवं पशु देखने में बदसूरत लगना।
2 शरीर का रोआं खड़ा हो जाता है तथा रोआं के अंदर चमोकन चमड़े में चिपका रहता है।
समाधानः
1 नीम की पत्ती गर्म पानी में उबालकर एवं सुसुम ठंढा करके लाइफबॉय साबुन से पूरे शरीर को अच्छी तरह धोना चाहिए।
2 गोमाक्सीन एवं फिनाईल नियमित रूप से बथान तथा बथान के आस-पास छिड़काना चाहिए।
3 बथान तथा बथान के आस-पास में सारी गंदगी को अच्छी तरह साफ करना चाहिए।
गलाघोंटु/घुर्रका रोग
समस्याः
यह एक जानलेवा संक्रमण रोग है, जो प्रायः गायों और भैंसों में वर्षा ऋतु में फैलता है, जिसमें मृत्यु दर अधिक होती है। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में तथा पानी जमाव वाली जगहों में इस बीमारी के कीटाणु ज्यादातर रहते हैं।
लक्षणः
1 अचानक तेज बुखार आता है, आँख लाल हो जाती हैं और जानवर काँपने लगता है। पशु का खाना-पीना बंद हो जाता है। अचानक दूध घट जाता है।
2 जबड़ों और गले के नीचे सूजन आ जाती है, साँस लेने में कठिनाई होती है और घुर्र-घुर्र की अवाज आती है।
3 जीभ सूज जाती है और बाहर निकल आती है। लगातार लार टपकती रहती है।
4 उक्त लक्षणों दिखाई देने के एक-दो दिन के भीतर पशु की मृत्यु हो जाती है।
रोकथामः
1 बरसात आने के पहले ही सारे पशुओं को ‘गलाघोंटु’ का टीका अवश्य लगवाएँ।
2 स्वस्थ पशुओं से बीमार पशुओं को अलग कर लें।
3 पशु आहार, चारा, पानी आदि को रोगी पशु से दूर रखें।
उपचारः
1 यह एक खतरनाक बीमारी है, अतः उपचार और परामर्श के लिए पशु चिकित्सक से तत्काल सलाह लेनी चाहिए।
2 दस्त बन्द नहीं होने पर पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें।
3 गलाघोंटु के टीके की पहली डोज छः माह की उम्र में तथा बाद में प्रत्येक वर्ष।
चोट/घाव में कीड़े
समस्याः
1 घाव में कीड़े।
2 सामान्य चोट, चोट की जगह पर मक्खियों का अंडे देना।
3 कीड़ों की वजह से छोटी सी चोट का बड़ा घाव बनना।
4 घाव में बैक्टीरिया के इन्फेक्शन की वजह से मवाद का पैदा होना।
लक्षणः
1 चोट लगने या कट जाने के पश्चात ध्यान नहीं देने से घाव हो जाता है तथा घाव में कीड़े पड़ जाते हैं।
2 पुराने घाव में मक्खी बैठती है तथा अण्डा देती है और कीड़ा बन जाता है।
3 घाव में इन्फेक्शन की वजह से मवाद (पीला पस) का पैदा होना।
समाधानः
1 जहाँ घाव हो जाता है वहाँ फूल जाता है, नोचते रहता है।
2 जानवर घाव को चाटते रहते हैं और घाव धीरे-धीरे बड़ा होने लगता है।
3 पक्षी द्वारा घाव में खोंचड़ मारने से भी घाव बड़ा हो जाता है।
4 चोट या कट जाने पर तुरंत लाल पोटाश से धो कर टिंचर आयोडिन लगा देना चाहिए ताकि घाव बड़ा न हो।
5 पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें।
थनैला बीमारी ;डेंजपजपेद्ध
समस्याः
यह थनों का संक्रामक रोग है, जो जानवरों को गंदे, गीले और कीचड़ भरे स्थान पर रखने से होता है। थन में चोट लगने, दूध पीते समय बछड़े/बछिया का दाँत लगने या गलत तरीके से दूध दूहने से इस रोग की संभावना बढ़ती है। यह रोग ज्यादा दूध वाली गायों/भैंसों में अधिक होता है।
लक्षणः
1 थन में सूजन तथा दर्द होता है और कड़ा भी हो जाता है।
2 दूध फट जाता है या मवाद निकलता है। कभी-कभी दूध पानी जैसा पतला हो जाता है।
रोकथाम :
इस बीमारी का टीका न होने के कारण रोकथाम के लिए ध्यान देना पड़ता हैः
1 थनों को बाहरी चोट लगने से बचाएँ।
2 पशु-घर को सूखा रखें, समय-समय पर चूने का छिड़काव करें और मक्खियों को नियंत्रित करें। दूध दूहने के लिए पशु को दूसरे स्वच्छ स्थान पर ले जायें।
3 दूध-दूहने से पहले थनों को खूब अच्छी तरह से साफ पानी से धोना न भूलें। दूध जल्दी से और एक बार में ही दूहें, ज्यादा समय न लगाएँ। दूध दूहने से पूर्व साबुन से अपने हाथ अवश्य धो लें।
4 थनैला बीमारी से ग्रस्त थन का दूध अंत में एक अलग बर्त्तन में दूहें तथा उसे उपयोग में न लायें।
5 घर में स्वस्थ पशुओं का दूध पहले और बीमार पशु का दूध बाद में दूहें।
6 दूध दूहने के पश्चात थन को कीटाणुनाशक घोल से धोयें या स्प्रे करें।
7 दूध दूहने के बाद थन नली कुछ देर तक खुली रहती है व इस समय पशु को फर्श पर बैठ जाने से रोग के जीवाणु थन नली के अन्दर प्रवेश कर बीमारी फैलाते हैं। अतः दूध दूहने के तुरंत बाद दुधारू पशुओं को पशु आहार दें जिससे कि वे कम से कम आधा घंटा फर्श पर न बैठें।
8 दूधारू पशुओं के दूध समय-समय पर (कम से कम माह मे एक बार) ‘मैस्टेक्ट’ कागज से जाँच करते रहें। पशु के रोग से प्रभावित थन में दवा लगायें।
9 दूध सूखते ही थनैला रोग से बचने वाली दवा थनों में अवश्य लगायें।
उपचारः
1 उपचार और परामर्श के लिए चिकित्सक से तत्काल सलाह लेनी चाहिए।
2 थनैला ग्रसित पशु के दूध, उपचार के दौरान तथा उपचार समाप्त होने के कम से कम चार दिन तक किसी प्रकार के उपयोग में नहीं लाना चाहिए, न तो समिति में देना चाहिए क्योंकि इस दूध को पीने से मनुष्य में गले एवं पेट की बिमारियाँ हो सकती हैं।
खुरपका-मुँहपका
पशुओं में खुरपका-मुँहपका (एफ.एम.डी.) बीमारी भारी आर्थिक क्षति पहुँचाती है।
लक्षणः
1. जीभ एवं मसूड़े में घाव
2. पशुओं के खूर में घाव
3. छीमी में घाव
इस रोग से बचाव ही एकमात्र उपाय है। अतः किसान भाई आज ही निकटतम दुग्ध समिति अथवा प्राथमिक पशु चिकित्सा केन्द्र में पशु चिकित्सक से सम्पर्क कर पशु एवं मत्स्य संसाधन विभाग, बिहार सरकार द्वारा चलाए जा रहे टीका-अभियान ‘पशु स्वास्थ्य रक्षा अभियान’ में भाग लेकर पशुओं को ‘खुरपका-मुँहपका’बीमारी का टीका लगाएँ।
पहली डोजः चार माह की उम्र में
दूसरी डोजः पहली डोज के नौ माह बाद
बाद मेंः प्रत्येक वर्ष
लंगड़ा बुखार/जहरवात/ब्लैक क्वार्टर ;बी.क्यू.द्ध
यह रोग भी जीवाणु जनित है जो प्रायः वर्षाकाल के समय अधिक देखा गया है। पशुओं में ज्यादातर जवान पशुओं (दस माह से दो वर्ष) को अधिक प्रभावित करता है।
लक्षणः
तेज बुखार, जांघों के ऊपर, कंधों या गर्दन पर दर्द एवं सूजन होती है। पशु लंगड़ा कर चलता है। बाद में चलने फिरने में असमर्थ हो जाता है। सूजन के भाग को छूने और दबाने पर चड़चड़ाहट की आवाज आती है। कभी-कभी सूजन सड़े घाव में बदल जाता है। अगर शरीर का तापमान गिरने लगे तो पशु की मृत्यु की संभावना अधिक हो जाती है। लक्षण प्रकट होने पर तुरंत पशु चिकित्सक से सम्पर्क करना चाहिये।
बचावः
उचित समय पर पशुचिकित्सक की देख-रेख में टीकाकरण करवाना चाहिये।
गिल्टी रोग/तड़का/ऐन्थ्रेक्स
लक्षणः
यह एक प्रकार की जीवाणु जनित पशुजन्य बीमारी है। कभी-कभी संक्रमित जानवर की मृत्यु बीमारी के 24 घंटे के भीतर बिना किसी लक्षण के हो जाती है। मृत्यु के पश्चात् मँुह, नाक, मल द्वार से रक्त स्त्राव होता है। सामान्यतः पशुओं में तीव्र ज्वर (106-1080थ्), भूख न लगना, श्लेष्मिक झिल्ली में लालिमा, तीव्र श्वाॅस तथा हृदय गति, शरीर में जगह-जगह सूजन आदि मुख्य लक्षण है।
बचावः
स्वस्थ पशुओं को साल में एक बार एन्थ्रेक्स का टीका अवश्य लगवाना चाहिए। सामान्य परिस्थितियों में शव परीक्षण वर्जित है। किसी भी हालत में पशु की खाल नहीं उतारनी चाहिए और न ही शव परीक्षण हेतु लाश को खोलना चाहिए। लाश को जलाने की विधि, भूमि में गाड़ने की अपेक्षा अत्याधिक उचित है।
सर्राः
यह रोग पशुओं के खून में एक प्रोटोजोआ परजीवी के उपस्थित होने के कारण होता है, जो प्रायः सभी प्रकार के पशुओं को प्रभावित करता है।
लक्षणः
सर्रा रोग अति तीव्र, अल्प तीव्र, तीव्र तथा दीर्घकालिक प्रकार का होता है। प्रभावित पशु में रूक-रूक कर बुखार का होना, सुस्ती, कमजोरी, खून की कमी, पशु द्वारा गोल चक्कर लगाना, सिर को दीवार या किसी कड़े वस्तु में टकराना, संक्रमित पशु के पिछले पैरों की पेशियों एवं तंत्रिका के कमजोर पड़ने के कारण पिछला धड़ का लकवाग्रस्त होना इत्यादि।
उपचारः
पशुचिकित्सक की देखरेख में होना चाहिए।
रोकथामः
सर्रा रोग से बचाव के लिए पशु आवास के आस-पास गन्दा पानी, घास एवं कूड़ा-करकट को जमा नहीं होने दें। आवास को हवादार एवं साफ रखना चाहिए। मध्यपोषी मक्खियों से बचाव के लिए आवास के आस-पास एवं अन्दर कीटनाशक औषधि का समयानुसार छिड़काव करते रहना चाहिए।
थेलेरिओसिस
यह एक रक्त प्रोटोजोआ परजीवी जनित रोग हैं, जो अधिकांशतः संकर नस्ल के गायों में होती है। इस रोग का फैलाव गाय-भैंस में खून चूसने वाले किलनी (अढ़ैल) के द्वारा होता है।
लक्षणः
प्रभावित पशु में लगातार तीव्र बुखार का रहना, स्केपुला के बगल वाले लिम्फ नोड में सूजन, खून की कमी, कमजोरी, पशु द्वारा पूरी इच्छा के साथ खाना नहीं खाना, कभी-कभी खूनी दस्त होना इत्यादि।
उपचार:
पशुचिकित्सक के देखरेख में होनी चाहिए।
यड्डत कृमि
यह रोग एक प्रकार के चपटा कृमि के कारण होता है।
प्रसारः
इन रोग के फैलाव में जलीय घोंघा के द्वारा होता है।
लक्षणः
प्रभावित पशु के भूख में कमी, पाचन क्रिया के बिगड़ जाने के कारण पहले कब्ज व फिर पतला दस्त, खून की कमी, जबड़े के नीचे सूजन (बोटल जाँ), दूध उत्पादन में कमी, पशु का धीरे-धीरे कमजोर हो जाना एवं पशु की मृत्यु हो जाना।
पण कृमि /ऐम्फीस्टोमिओसिस
इसे छेरा या गिल्लर पिट्ट रोग भी कहते हैं।
प्रसारः
इन रोगों का फैलाव जलीय घोंघा प्रजाति के द्वारा होता है।
लक्षणः
तीव्र बदबुदार पिचकारी के जैसा दस्त, पशु के शरीर में पानी की कमी, जिसके कारण पशु द्वारा थोड़ी-थोड़ी देर पर पानी पीना, खून की कमी, जबड़े के नीचे सूजन, दूध उत्पादन में कमी एवं जल्द उपचार नहीं होने पर पशु की मृत्यु हो जाना।
उपचारः
पशुचिकित्सक की सलाह के अनुसार करनी चाहिए। जलीय घोंघे से संक्रमित स्थानों के आस-पास पशुओं को नहीं चराना तथा घोंघे से संक्रमित तालाबों का पानी नहीं पिलाना चाहिए।
गोल कृमि /एस्केरिऐसिस
नवजात बछड़ों के पेट में पाये जाने वाले कृमि मुख्यतः एस्कैरिस है। यह नवजात बछड़ों की आंतों में पाये जाते हैं। गर्भवती मादा-भैंस व गाय के द्वारा भी यह रोग नवजात बछड़ों में पहुँच जाता है। रोग ग्रसित पशुओं में हल्के मटमैले अथवा दूधिया रंग के तेज पतले बदबूदार दस्त होते है। प्रभावित पशु में अत्याधिक शारीरिक कमजोरी हो जाती है। इस रोग से बछड़ों में मृत्यु भी हो जाती है। भैंस के बच्चों में यह रोग गाय के बच्चों की तुलना में अधिक होता है।
उपचारः
रोग का उपचार पशु-चिकित्सक की सलाह पर करना चाहिए।
बचावः
इसके बचाव हेतु बछड़ों के रहने का स्थान स्वच्छ व साफ-सूखा रहना चाहिए। रोगी पशु का उपचार तुरन्त करना आवश्यक है व उसे स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए तथा प्रभावित पशु के मल को दूर गढ़ढे में दबा देना चाहिए। गाय की गर्भावस्था के तृतीय अवस्था में उचित कृमिनाशक दवा का प्रयोग करना चाहिए।
बछड़ों में सफेद दस्त/अतिसार
यह गाय/भैंस के छोटे बच्चों का घातक रोग है जिसमें बच्चे की मृत्यु भी हो सकती है।
लक्षणः बुखार 1030 से 1050,ि भूख की कमी होना। कुछ समय बाद मटमैला सफेद बदबूदार दस्त होना। कभी-कभी पेट में मरोड़ (पेट दर्द) होने पर बीमारी अधिक घातक हो जाती है तथा बच्चे की मृत्यु भी हो सकती है।
बचावः बच्चे को साफ सुथरे वातावरण में रखें, खीस/दूध पिलाते समय सफाई का विशेष ध्यान रखें तथा पर्याप्त मात्रा में खीस पिलायें। बीमारी होने पर नमक, चीनी एवं पानी का घोल थोड़ी-थोड़ी देर पर पिलाते रहें ताकि शरीर में पानी की कमी ना हो तथा यथाशीघ्र पशुचिकित्सक से सम्पर्क करें।
पेट में कीड़े
कारणः
1 दूषित पानी पिलाने से
2 दूषित चारा खिलाने से
3 बाढ़ से ग्रसित जमीन पर चारा खिलाने से
4 बीमार मवेशियों के साथ रहने से रोग प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है।
लक्षणः
1 भूख ज्यादा लगना
2 दूध उत्पादन में कमी होना
3 चमड़ा खुरदूरी होना, पतले बदबूदार दस्त होना
4 मूँह या गर्दन के पास सूजन हो जाना, कमजोर होना
5 समय पर गर्मी में नहीं आना तथा गाभिन नहीं होना।
उपचारः
1 बरसात से पहले एवं बरसात के बाद सभी पशु को कृमिनाशक दवा खिलायें। गन्दा पानी तथा सड़ा हुआ चारा, पुआल, भूसा इत्यादि न खिलायें।
2 बीमार पशु के साथ न रखें। नियमित रूप से पशु चिकित्सक के परामर्श के अनुसार कीड़ा का दवा खिलाना और पिलाना चाहिए।
3 मवेशी का स्वास्थ्य ज्यादा खराब होने पर पशु चिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए।
बु्रसेलोसिस
रोग का परिचयः
यह रोग ब्रुसेला नामक जीवाणु से होता है। पशुओं में इस रोग से मुख्यतः गाय, भैंस, बकरी, भेंड़, सूकर इत्यादि आक्रान्त होते हैं। यह रोग पशुओं से मनुष्यों में भी फैलता है। मनुष्यों में इसे लहरिया ज्वर ;न्दकनसंदज थ्मअमतद्ध कहते हैं। अनुमानतः विश्व में प्रतिवर्ष 05 लाख व्यक्ति इस बीमारी से प्रभावित होते हैं। यह बीमारी कुछ देशों को छोड़कर सभी देशों में पाई जाती है। आक्रान्त पशुओं में दूध उत्पादन में कमी, बाँझपन, गर्भपात इत्यादि के कारण भारतवर्ष में इससे अनुमानतः प्रतिवर्ष लगभग 350 मिलियन रूपये की आर्थिक क्षति होती है।
रोग का प्रसार:
- स्वस्थ मादा पशुओं का संक्रमित नर पशुओं से प्राकृतिक गर्भाधान कराने से।
- संक्रमित पशुओं से गर्भपात के बाद निकले जेर, भू्रण द्रव्य, योनि स्राव, मूत्र, गोबर इत्यादि के सम्पर्क में स्वस्थ पशुओं के आने से।
- पशु के दूध को बिना खौलाये या बिना पाश्च्युरीकृत किये सेवन से एवं अधपके माँस के सेवन से।
- संक्रमित पशु के तरल या हिमकृत सीमेन द्वारा कृ़ित्रम गर्भाधान कराने से।
- आवारा कुत्ते, बिल्ली, चमोकन, खटमल एवं मक्खियों जैसे वाहकों से।
- इसका संक्रमण कटी-फटी त्वचा एवं आॅंख के कंजंक्टाइवा के माध्यम से।
रोग का लक्षण
- मादा पशुआंे में रोग के लक्षणः
- इस रोग से प्रभावित मादा पशुओं में गर्भावस्था के प्रायः अंतिम तीन माह में गर्भपात। समय से पहले बच्चा होना। गर्भकाल पूरा होने पर मृत बच्चा पैदा होना।
- कुछ संक्रमित पशुओं से समय पर पैदा होनेवाले बच्चे की लगभग एक सप्ताह के अंदर ही मृत्यु।
- गर्भाशय में सूजन (शोथ)। प्रसव के बाद जेर के रूकने की अधिक संभावना।
- पशु के दूध उत्पादन क्षमता में कमी।
- पहले गर्भपात के बाद दूसरी बार गर्भधारण प्रायः सामान्य। परन्तु पशुओं के दूध एवं पेशाब में जीवाणु का निकलना जारी, जिससे बीमारी का संक्रमण।
- पशु में बाँझपन। बाँझ पशु इस रोग के जीवाणु के वाहक।
नर पशु में लक्षण:- अंडकोषों में सूजन। पशु के प्रजनन क्षमता में कमी। ऐसे पशु इस रोग के जीवाणु के वाहक।
घोड़ों मे लक्षण:- गर्दन पर जख्म ;थ्पेजनसवने ूपजीमतद्ध
मनुष्यांे में लक्षण – मनुष्यों में मुख्य लक्षण तीव्र इन्फ्लूएंजा के समान। ज्वर घटता-बढ़ता है, लहरिया ज्वर ;न्दकनसंदज थ्मअमतद्ध कहते है। तीव्र ज्वर, अत्यधिक पसीना आना, सिर दर्द, जोड़ों एवं मांसपेशियों में दर्द, भूख की कमी इत्यादि लक्षण प्रमुख हैं।
कुछ पशुओ में घुटनों में सूजन ;भ्लहतवउंद्ध
ऊँट, भैंस, भेंड़, बकरी, सूकर एवं अन्य जुगाली करने वाले पशुओं में भी लक्षण उपर्युक्त वर्णित लक्षणों के समान ही।
उपचारः कोई कारगर उपचार नही। गर्भपात के बाद पशु चिकित्सक के परामर्शानुसार गर्भाशय की एंटीसेप्टिक धुलाई एवं एंटीबायोटिक दवा द्वारा उपचार।
बचाव:
- रोगग्रस्त पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना। नये पशुओं को झुण्ड मंे शामिल करने से पूर्व ब्रुसेलोसिस रोग के विरूद्ध जाँच करा लेना। बु्रसेलोसिस स्क्रीनिंग जाँच द्वारा सकारात्मक पाये गये पशुओं को स्वस्थ पशुओ से अलग कर देना।
- रोगी पशु के बाडे़ को स्प्रेईंग द्वारा कीटाणुरहित कर देना।
- संक्रमित लिटर, बेडिंग एवं अन्य संक्रमित सामानों को जला देना।
- मृत पशु या गर्भपात के बाद निकले सभी द्रव्यांे को जला देना या चूना के साथ भूमि में गहराई में गाड़ देना।
- पशु के सम्पर्क में आने से पूर्व एवं बाद में अपने हाथ को एंटीसेप्टिक से साफ कर लेना।
टीकाकरणः कारगर उपचार के अभाव मंे टीकाकरण ही एकमात्र विकल्प। हर्ड (झुण्ड) के 4-8 माह के उम्र वाले बाछियों एवं पाड़ियों का ब्रुसेला एबोर्टस (स्ट्रेन-19) का टीका दिलवाना। यह टीका पशु के जीवन काल में एक ही बार दिया जाता है।