आम भारतवर्ष का राष्ट्रीय फल है। स्वाद एवं गुणों के आधार पर आम को “फलों का राजा” कहा जाता है। आम का जन्म स्थान पूर्वी भारत, वर्मा व मलाया खंड में है तथा यहाँ से यह फल सारे भारतवर्ष, लंका, उत्तरी आस्ट्रेलिया, फिलीपाइन्स, दक्षिणीय चीन, मध्य अफ्रीका, सूडान एवं विश्व के अन्य गर्म तथा नम जलवायु वाले स्थानों में फ़ैल गया। अपने देश में आम के बाग़ लगभग 18 लाख एकड़ भूमि में हैं, जिसमें आधा क्षेत्रफल उत्तर प्रदेश में ही है। शेष आधे भाग में बिहार, बंगाल, उड़िसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मद्रास एवं अन्य राज्यों में अवस्थित है।
आम सर्वोपयोगी फल है। कच्चे आम से विभिन्न प्रकार के आचार, मुरब्बे तथा चटनी बनाई जाती है। पके आम से खाने के अतिरिक्त आम स्मवायम (रस) तथा अमावट बनाने में होती है। अधपके आम से जैम बनाया जाता है।
आम से विटामिन “ए” तथा “सी” अच्छी मात्रा में प्राप्त होते हैं। इसमें शकरा का प्रतिशत 11 से 20 तक होता है तथा थोड़ा मात्रा में फ़ॉस्फोरस, लोहा एवं कैल्शियम भी मिलता है।
जलवायु
आम उष्ण कटिबन्धीय फल है। इसके लिए जून से अक्टूबर तक नम तथा शेष सात माह तक शुष्क जलवायु अति उत्तम है। अच्छे फल प्राप्त होने के लिए फल आने के कुछ सप्ताह पूर्व हल्की ठंड (औसत तापमान 150 सें. ग्रे. से 200 सें.ग्रे.) एवं शुष्क मौसम रहने से फूल अधिक संख्या में आते हैं तथा अच्छी उपज प्राप्त होती है।
ग्रीष्म ऋतु में अधिक ऊँचे तापमान से भी फलों तथा वृक्षों को हानि पहुँचती है। साधारणतय 400 सें.ग्रे. से 420 सें.ग्रे. तक तापमान आसानी से सह लेता है। साधारणतय: आम 100 से भी अधिक वार्षिक वर्षा वाले स्थानों में अधिक पाया जाता है। इससे कम वर्षा वाले क्षेत्र में आम लगाने के लिए सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।
मिट्टी
आम गहरी व फैलनेवाली जड़ों वाल बहु वार्षिक पौधा है। इसको बहुत उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता पड़ती है। मिट्टी से जल निकास उत्तम होना चाहिए। आम के लिए दोमट मिट्टी सर्वोत्तम है। अधिक चिकनी अथवा बलुई मिट्टी में आम सफलतापूर्वक उन्नत नहीं किया जा सकता है। अधिक चूने वाली मिट्टी में पौधा धीरे-धीरे बढ़ता है तथा क्षारीय होने के कारण पौधों की पत्तियाँ शीघ्र झुलस जाती है। चिकनी वाली मिट्टी भी आम के लिए बहुत उपयोगी नहीं है क्योंकि वर्षा ऋतु में इनमें कीचड़ हो जाता है तथा अधिक जल संचय के कारण जड़ें वायु की कमी के कारण मर जाती है। जिससे पौधा भी धीरे-धीरे मर जाता है।
किस्मे
भारतवर्ष में लगभग आम की 1000 किस्में पाई जाती है लेकिन व्यवसायिक स्तर पर मुख्यत: 30 किस्मों को ही उगाया जाता है। भिन्न-भिन्न राज्यों में आम की अलग-अलग किस्में हैं जो जलवायु एवं मिट्टी के आधार पर ज्यादा लोकप्रिय है। उत्तर भारत में दशहरी, लंगड़ा, समरबहिस्त, चौसा, बम्बई, हरा लखनऊ, सफेद एवं फजली, पूर्वी भारत में बम्बई, माल्दा, हिमसागर, जरदलु, किसनभोग, गोपाल ख़ास, पश्चिम भारत में अल्फान्जो, पायरो, लंगड़ा, राजापुरी, केसर, फरनादिन, मानबुराद, मलगोवा तथा दक्षिण भारत में बोगनपाली, बानीशान, लंगलोढ़ा, रूमानी, मालगोवा, आमनपुर बनेशान, हिमायुदिन, सुवर्णरेखा एवं रसपुरी किस्में प्रसिद्ध हैं।
इन किस्मों में फलों के गूदा कड़ा होता है जैसे – लंगड़ा, दशहरी, नीलम, चौसा,आल्फान्जो, मल्लिका, आम्रपाली आदि।
इन किस्मों के फल रेशदार व रसयुक्त होते हैं, जिन्हें चूसकर उपयोग किया जाता है। इन फलों का प्रवर्धन मुख्यत: बीज द्वारा किया जाता है। इनमें उत्तर प्रदेश की मिठुवा गाजीपुर, मिठुवा सुंदरशाह, शरवती, विजरौन, लखनऊ सफेदा, हरदिलअजीज और रसकुनिया।
पकने के समय के आधार पर आम की किस्में तो तीन भागों में विभाजित किया जाता है
उत्तरी भारत के किस्मों के फल दक्षिणी भारत की किस्मों की अपेक्षा गुणों में अधिक अच्छे होते हैं लेकिन इनमें फलन क्रिया एक वर्ष के अंतर पर होती है। दक्षिणी भारत के किस्मों के फल न्यून क्षणी के होते हैं। लेकिन इसमें फल परिवर्तन लगते। हाल ही में नीलम और दशहरी के संकरण से मल्लिका और आम्रपाली किस्में विकसित की गई है। इन किस्मों के फल अच्छे गुणों वाले होते हैं। यह अनुमान लगाया जाता है कि यदि पेड़ की देखरेख ठीक प्रकार से की जाय तो यह किस्में प्रतिवर्ष फल दे सकती है।
आम के कुछ प्रमुख किस्मों का वर्णन निम्नलिखित हैं
पादप प्रवर्धन या वानस्पतिक प्रसारण
आम का प्रवर्धन मुख्य रूप से दो विधियों से किया जाता है -
1.गुटी बाँधना
2. ठंठ प्ररोह दाव लगाना
3.कलम बाँधना –
(क) भेंट कलम बाँधना ईनारचिंग (ख) कलिकायन बडिंग
उपरोक्त विधियों में वर्त्तमान समय में कमल भेंट बाँधना काफी महत्वपूर्ण है। खासकर व्यवसायिक एवं सफलता को ध्यान में रखकर यह विधि काफी अपनाई जा रही है जिसके कारण आम वृक्षों का प्रसारण आसानी से किया जा रहा है।
शाखा उपरोपन जुलाई से सितम्बर माह तक किया जाता है क्योंकि इस समय शाखाओं में रस बहुतायत से बहता है। इससे कटान के स्थान पर एधा की शाखाओं की शीघ्र वृद्धि होती है तथा दोनों काट आपस में संयुक्त हो जाते हैं। अधिक वर्षा वाले स्थानों में सितम्बर तथा कम वर्षा वाले स्थानों में जुलाई का महीना इस काम के लिए उपयुक्त है। मूल वृंत पर 20 से.मी. से 30 से.मी. की ऊँचाई पर 3 से 5 से.मी. लम्बी व 6 मिमी. से 8 मिमी. चौड़ी लकड़ी छाल सहित निकाल दी जाती है। इस काट की गहराई शाखा की मोटाई की एक तिहाई हो सकती है। मूल वृंत के समान शाखा पर भी काट बनाया जाता है तथा दोनों कटे भागों को मिलाकर मोमो कपड़े, सुतली या पोलीथिन की पट्टी बाँध देते हैं। इस प्रकार दो से तीन माह में मूल वृंत व शाखा आपस में जुड़ जाते हैं। तत्पश्चात वृंत का जोड़ से ऊपर वाला भाग तथा शाखा के जोड़ से नीचे वाला भाग दो या तीन बार में अलग कर लेना चाहिए।
ईनारचिंग में सावधानी
कलिकायन
इसके लिए बीज पौधों को मूलवृंत के काम के लिए क्यारी में तैयार किया जाता है। एक वर्ष की आयु में ये पौधे कलिकायन के उपयुक्त हो जाते हैं। इसके लिए जुलाई या अगस्त माह उपयुक्त है। कली का चुनाव एक या दो वर्ष की आयु वाली शाखाओं से करना चाहिए। पत्तियों की कोख में कली पुष्ट तथा स्वस्थ दिखनी चाहिए। इन कली शाखों को काटने के पश्चात पत्तियाँ निकाल देना चाहिए तथा गीले कपड़े या मोम में लपेटकर रखना चाहिए। कली निकालकर वर्म विधि द्वारा वृंत में बैठा दी जाती है तथा केले के रेशे, रशियाँ इत्यादि से इस प्रकार बाँध देते हैं कि अंखुआ न ढंकने पाये। लगभग तीन सप्ताह में कली जुड़ जाती है तथा हरी रहती है और लगभग 6 सप्ताह बाद कली बढ़ना शुरू कर देती है। इस समय मूलवृंत के ऊपरी भाग को काट देना चाहिए। जुलाई माह में (कलिकायन) किये गये पौधे करीब एक साल में एक मीटर तक लम्बे हो जाते हैं तथा निश्चित स्थान पर लगाने योग्य हो जाते हैं।
पौधा लगाने की विधि एवं समय
आम के पौधे लगाने के लिए इच्छित स्थान पर एक मीटर लम्बे, चौड़े तथा गहरे गड्ढ़े मार्च या अप्रैल माह में 11 से 13 मीटर के अंतर पर खोदना चाहिए। लगभग एक माह पश्चात इसमें अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद 40 किलो, 2 किलो राख व 2 किलो हड्डी का चूर्ण मिट्टी में मिलाकर भरें। एक वर्ष हो जाने के पश्चात जुलाई अथवा अगस्त माह में पौधा सावधानी से गमले से निकालकर गड्ढे के बीचो बीच में सीधा लगायें। लगने के बाद तने के निकट मिट्टी को दबाएँ व पानी दें। पौधे अधिकतर जुलाई व अगस्त माह में लगायें जाते हैं किन्तु भारी वर्षा होने वाले स्थानों में सितम्बर अथवा फरवरी में लगाना उचित होगा।
आम वृक्षों की देखभाल एवं खाद का व्यवहार करें
आम के लिए बहुत कम उर्वरक परीक्षण किये गये हैं। अत: प्रत्येक क्षेत्र व भूमि में इसकी संस्तुती ठीक से कर पाना कठिन है। आम के पेड़ों को उनकी आयु के अनुसार सारिणी में दी गी खाद एवं उर्वरकों की मात्रा का प्रयोग गोविन्द वल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, पंतनगर के आम उद्यान में संतोषजनक पाया गया है।
आम के लिए गोबर की खाद/उर्वरकों की मात्रा
पौधे की आयु (वर्षो में) | गोबर की खाद (कि.ग्रा.) | नेत्रजन (कि.ग्रा.) | स्फूर (कि.ग्रा.) | पोटाश (कि.ग्रा.) |
1 | 10 | 0.100 | 0.075 | 0.100 |
2 | 20 | 0.200 | 0.150 | 0.200 |
3 | 30 | 0.300 | 0.225 | 0.300 |
4 | 40 | 0.400 | 0.375 | 0.400 |
5 | 50 | 0.500 | 0.450 | 0.500 |
6 | 60 | 0.600 | 0.525 | 0.600 |
7 | 70 | 0.700 | 0.600 | 0.700 |
8 | 80 | 0.800 | 0.675 | 0.800 |
9 | 90 | 0.900 | 0.150 | 0.900 |
10 वर्ष एवं बाद | 100 | 1.00 | 0.750 | 1.00 |
सबौर में किए गए परीक्षण के अनुसार दस वर्ष या इससे अधिक आयु के पेड़ों को 0.72 किग्रा. नेत्रजन, 0.18 किग्रा. स्फूर और 0.675 किग्रा. पोटाश प्रतिवर्ष प्रति पेड़ देना चाहिए। आम अनुसंधान केंद्र लखनऊ से 73 ग्राम नेत्रजन, 18 ग्राम फ़ॉस्फोरस तथा 68 ग्राम पोटाश प्रति पेड़ प्रतिवर्ष दस वर्ष की आयु तक बढ़ाकर प्रयोग करने की संस्तुती की गई है।
सिंचाई
आम की अच्छी उपज के लिए सिंचाई का बहुत महत्व है। नये पौधों में गर्मियों के दिनों में एक सप्ताह के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए। उत्तर भारत में फलदार पेड़ों को अक्टूबर से दिसम्बर तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए, परन्तु अगर सितम्बर में उर्वरक दिए गये हों तो एक सिंचाई कर देनी चाहिए, जिससे उर्वरक आसानी से पेड़ों को उपलब्ध हो सके। फूल आने के समय भी सिंचाई नहीं करना चाहिए क्योंकि एस समय आर्द्रता अधिक होने के कारण चूर्णी कवक का प्रकोप बढ़ जाता है। जाड़े में छोटे पौधों को पानी देते रहना चाहिए ताकि पाला का प्रकोप नहीं हो सके। सिंचाई की आवश्यकता मिट्टी के अनुसार करनी चाहिए। भारी मिट्टी कम एवं बलुआही मिट्टी में अधिक सिंचाई करनी चाहिए।
ऐसे क्षेत्रों में जहाँ पाला पड़ता हो व लू चलती हो, पौधों को पाला से या लू से बचाने में सावधानी बर्तनी चाहिए। पौधे लगाने के बाद मूल वृंत पर निकलने वाले किस्में को समय-समय पर तोड़ते रहना चाहिए। गर्मी के दिनों में बाग़ की सिंचाई 7-10 दिनों के अंतराल पर और जाड़ों में 15-20 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए।
मुख्य कीट रोग
अनियमित फलन
आम की सभी व्यवसायिक किस्मों में अनियमित फलन की समस्या है। ये किस्में दो वर्ष में एक बार फूलती-फलती है। फलने के प्रमाण पिछले वर्ष की फसल पर निर्भर करता है। जिस वर्ष आम की अच्छी फसल होती है उसे फसली वर्ष कहते हैं। जिस वर्ष फल कम या बिल्कुल नहीं आती है, उसे निष्फल वर्ष कहते हैं। उत्तर भारत की लंगड़ा और बम्बई किस्में द्विवर्षीय या अनियमित रूप से फलती हैं। दूसरी किस्में, जैसे – चौसा और फजली मध्यम श्रेणी की द्विवर्षीय फलती हैं। दशहरी, हिमसागर और सफदर पसंद किस्में इस समस्या से कुछ कम प्रभावित हैं। इन किस्मों में फल प्रतिवर्ष आते हैं। कुछ शाखाएं एक वर्ष फलती हैं, तो कुछ दूसरी वर्ष आते हैं। देश में केवल दो-तीन किस्में ऐसी है, जो प्रतिवर्ष नियमित रूप से फलती हैं, वे किस्में हैं – नीलम, बंगलोरा, तोतापरी, रेड स्माल। ये दक्षिण भारत में अच्छी तरह पनपती है। अनियमित फलनेवाली व्यवसायिक किस्में जब फलों से लदी होती हैं, तो उसमें नये प्ररोह नहीं बनते हैं। फल तोड़ने के बाद ही उसमें नये प्ररोह निकलते हैं, तो उसमें अगले वर्ष फल नहीं आते हैं, फलस्वरूप एक वर्ष का अंतर आ जाता है और द्विवर्षीय फलन का प्रादुर्भाव होता है।
अनियमित फलन के विषय में वैज्ञानिकों में काफी मतभेद है। कुछ लोगों का कहना है कि अनियमित फलन एक पैत्रिक गुण है। कुछ दूसरे वैज्ञानिकों का विचार है कि द्विवर्षीय फलन के मुख्य कारण है – नई वृद्धि में कमी तथा अपर्याप्त कार्बोहाइड्रेट में स्टार्च का विशेष महत्व है, जिसकी मात्रा अधिक होनी चाहिए। अनुसंधान कार्यों से यह पता चलता है कि फूल आने के लिए प्राराहों में ऑक्सीजन जैसे पदार्थो और निरोधक तत्वों की मात्रा अधिक तथा जिव्रेलिन जैसे पदार्थ की मात्रा कम होनी चाहिए। अभी हाल ही में इथरेल नामक दवा का प्रयोग समस्या के समाधान के लिए किया गया है, परन्तु दवा का विभिन्न क्षेत्रों में परीक्षण करने पर कुछ जगहों पर इसे सफलता मिली है। दवा का 200-250 भाग प्रति दस लाख भाग पानी में मिलाकर पुष्प कलिकाओं के बनने के पहले ही 12-15 दिनों के अंतर पर 4-5 छिड़काव करने पर फूल आने की संभावना बढ़ जाती है। छिड़काव सितम्बर माह में प्रारम्भ करनी चाहिए। उत्तर भारत में पुष्ट कलिकाएँ बनने का समय नवम्बर-दिसम्बर माह है।
फलन एवं ऊपज
उपज में द्विवार्षिक फलन की समस्या पाई जाती है। एक वर्ष वृक्ष में अधिक फल लगते हैं तो अगले वर्ष बहुत कम यह समस्या अनुवांशिक है। अत: इसका कोई बहुत कारगर नहीं है। विगत वर्षो में आम को कई संकर किस्में विकसित हुई है। जो इस समस्या से मुक्त है अत: प्रति वर्ष फल लेने के लिए संकर किस्मों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
आम के वृक्ष चार-पाँच साल की अवस्था में फलना प्रारम्भ करते हैं और 12-15 साल की अवस्था में पूर्ण रूपेण प्रौढ़ हो जाती है अगर इनमें फलन काफी हद तक स्थाई हो जाती है। एक प्रौढ़ वृक्ष से 1000 से 3000 तक फल प्राप्त होता है कलमी पौधे अच्छी देखभाल से 60-70 साल तक अच्छी तरह फलते हैं।
परिचय
लीची के फल अपने आकर्षक रंग, स्वाद और गुणवत्ता के कारण भारत में भी नही बल्कि विश्व मेंअपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है। लीची उत्पादन में भारत का विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान है। पिछले कई वर्षो में इसके निर्यात की अपार संभावनाएं विकसित हुई हैं, परन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बड़े एवं समान आकार तथा गुणवत्ता वाले फलों की ही अधिक मांग है। अत: अच्छी गुणवत्ता वाले फलों के उत्पादन की तरफ विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इसकी खेती के लिए एक विशिष्ट जलवायु की आवश्यकता होती है, जो सभी स्थानों पर उपलब्ध नहीं है। अत: लीची की बागवानी मुख्य रूप से उत्तरी बिहार, देहरादून की घाटी, उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तथा झारखंड प्रदेश के कुछ क्षत्रों में की जाती है। इसके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में इसके सफल उत्पादन का प्रयास किया जा रहा है। इसके फल 10 मई से लेकर जुलाई के अंत तक देश के विभिन्न भागों में पक कर तैयार होते हैं एवं उपलब्ध रहते है। सबसे पहले लीची के फल त्रिपुरा में पक कर तैयार होते है। इसके बाद क्रमश: राँची एवं पूर्वी सिंहभूम (झारखंड), मुर्शीदाबाद (पं. बंगाल), मुजफ्फरपुर एवं समस्तीपुर (बिहार), उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, पंजाब, उत्तरांचल के देहरादून एवं पिथौरागढ़ की घाटी में फल पक कर तैयार होते है। बिहार की लीची अपनी गुणवत्ता के लिए देश-विदेश में प्रसिद्ध हो रही हैं। लीची के फल पोषक तत्वों से भरपूर एवं स्फूर्तिदायक होते है। इसके फल में शर्करा (11%), प्रोटीन (0.7%), वसा (0.3%), एवं अनेक विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। लीची का फल मरीजों एवं वृद्धों के लिए भी उपयोगी माना गया है।
लीची के फल मुख्यत: ताजे रूप में ही खाए जाते हैं। इसके फलों से अनेक प्रकार के परिरक्षित पदार्थ जैसे – जैम, पेय पदार्थ (शरबत, नेक्टर, कार्बोनेटेड पेय) एवं डिब्बा बंद फल बनाए जाते हैं। लीची का शरबत अपने स्वाद एवं खुशबू के लिए लोकप्रिय होता जा रहा है। लीची-नट, फलों को सुखाकर बनाया जाता है जी कि चीन इत्यादि देशों में बड़े चाव से खाया जाता है। लीची के अपरिपक्व खट्टे फलों को सुखाकर खटाई के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है।
लीची का बढ़ता निर्यात
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में नवम्बर से मार्च तक आस्ट्रेलिया से फरवरी से मार्च तक मारीशस से नवम्बर से जनवरी तक दक्षिण अफ्रीका और मेडागास्कर से लीची के फल उपलब्ध होते हैं। भारत से लीची का ताजा फल मई से जुलाई तक उपलब्ध होता है जिसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्यात करके विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है। चूँकि जब भारत में लीची तैयार होती है उस समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लीची फलों का अभाव रहता है। अत: भारत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मुख्य निर्यातक के रूप में स्थापित हो सकता है। भारत से लीची निर्यात को बढ़ावा देने के लिए एपीडा की भूमिका प्रमुख है। एपीडा के रिपोर्ट के अनुसार 2000-2001 वर्ष में भारत से लगभग 1.52 करोड़ रूपये मूल्य का लीची का निर्यात किया गया जो मुख्य रूप से बेल्जियम, सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, ओमान, कुवैत एवं नार्वे देशों को हुआ।
भूमि एवं जलवायु
लीची की खेती के लिए सामान्य पी.एच.मान वाली गहरी बलुई दोमट मिट्टी अत्यंत उपयुक्त होती है। उत्तरी बिहार की कलकेरियस मृदा जिसकी जल धारण क्षमता अधिक है इसकी खेती के लिए उत्तम मानी गई है। लीची की खेती हल्की अम्लीय एवं लेटराइट मिट्टी में भी सफलतापूर्वक की जा रही है। अधिक जलधारण क्षमता एवं ह्रूमस युक्त मिट्टी में इसके पौधों में अच्छी बढ़वार एवं फलोत्पादन होता है। जल भराव वाले क्षेत्र लीची के लिए उपयुक्त नहीं होते अत: इसकी खेती जल निकास युक्त उपरवार भूमि में करने से अच्छा लाभ प्राप्त होता है।
समशीतोष्ण जलवायु लीची के उत्पादन के लिए बहुत ही उपयुक्त पायी गई है। ऐसा देखा गया है कि जनवरी-फरवरी माह में आसमान साफ़ रहने, तापमान में वृद्धि एवं शुष्क जलवायु होने से लीची में अच्छी मंजर आता है जिसमें ज्यादा फूल एवं फल लगते हैं। मार्च एवं अप्रैल में गर्मी कम पड़ने से लीची के फलों का विकास अच्छा होता है, साथ ही अप्रैल-मई में वातावरण में सामान्य आर्द्रता रहने से फलों में गूदे का विकास एवं गुणवत्ता में सुधार होता है। समआर्द्रता से फलों में चटखन भी कम हो जाती है। फल पकते समय वर्षा होने से फलों का रंग एवं गुणवत्ता प्रभावित होती है।
किस्में
परिपक्वता के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर लीची की किस्मों की संस्तुति नीचे तालिका में की गई है:
पक्वता वर्ग | परिपक्वता अवधि | किस्में |
अगेती | 15-30 मई | शाही, त्रिकोलिया, अझौली, ग्रीन, देशी। |
मध्यम | 01-20 जून | रोज सेंटेड,डी-रोज,अर्ली बेदाना, स्वर्ण रूपा। |
पछेती | 10-15 जून | चाइना, पूर्वी, कसबा। |
कुछ प्रमुख किस्मों की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है:
शाही: यह देश की एक व्यावसायिक एवं अग्रती किस्म है जो दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय होती जा रही है। इस किस्म के फल गोल एवं गहरे लाल रंग वाले होते है जो 15-30 मई तक पक जाते है। फल में सुगंधयुक्त गूदे की मात्रा अधिक होती है जो इस किस्म की प्रमुख विशेषता है। फल विकास के समय उचित जल प्रबंध से पैदावार में वृद्धि होती है। इस किस्म के 15-20 वर्ष के पौधे से 80-100 कि.ग्रा. उपज प्रति वर्ष प्राप्त की जा सकती है।
चाइना: यह एक देर से पकने वाली लीची की किस्म हिया जिसके पौधे अपेक्षाकृत बौने होते है। इस किस्म के फल बड़े, शक्वाकार तथा चटखन की समस्या से मुक्त होते है। फलों का रंग गहरा लाल तथा गूदे की मात्रा अधिक होने के कारण इसकी अत्यधिक मांग है। परन्तु इस किस्म में एकान्तर फलन की समस्या देखी गई है। एक पूर्ण विकसित पेड़ से लगभग 60-80 कि.ग्रा. उपज प्राप्त होती है।
स्वर्ण रूपा: बागवानी एवं कृषि वानिकी शोध कार्यक्रम, राँची के गहन सर्वेक्षण एवं परीक्षण के फलस्वरूप स्वर्ण रूपा किस्म का चयन किया गया है जो छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र के साथ-साथ देश के अन्य क्षेत्रों के लिए भी उपयुक्त है। इस किस्म के फल मध्यम समय में पकते है तथा चटखन की समस्या से मुक्त होते है। फल आकर्षक एवं गहरे गुलाबी रंग के होते है जिनमें बीज का आकार छोटा, गुदा अधिक,स्वादिष्ट एवं मीठा होता है।
पौधा प्रवर्धन
लीची की व्यावसायिक खेती की लिए गूटी विधि द्वारा तैयार पौधा का ही उपयोग किया जाना चाहिए। बीजू पौधों में पैतृक गुणों के अभाव के कारण अच्छी गुणवत्ता के फल नहीं आते हैं तथा उनमें फलन भी देर से होता है। गूटी तैयार करने के लिए मई-जून के महीने में स्वस्थ एवं सीधी डाली चुन कर डाली के शीर्ष से 40-50 सें.मी. नीचे किसी गांठ के पास गोलाई में 2 सें.मी. चौड़ा छल्ला बना लेते हैं। छल्ले के ऊपरी सिरे पर आई.बी.ए. के 2000 पी.पी.एम. पेस्ट का लेप लगाकर छल्ले को नम मॉस घास से ढककर ऊपर से 400 गेज की सफेद पालीथीन का टुकड़ा लपेट कर सुतली से कसकर बांध देना चाहिए। गूटी बाँधने के लगभग 2 माह के अंदर जड़े पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है। अत: इस समय डाली की लगभग आधी पत्तियों को निकालकर एवं मुख्य पौधे से काटकर नर्सरी में आंशिक छायादार स्थान पर लगा दिया जाता है। मॉस घास के स्थान पर तालाब की मिट्टी (40 कि.ग्रा.), सड़ी हुई गोबर की खाद (40 कि.ग्रा.), जूट के बोरे का सड़ा हुआ टुकड़ा (10 कि.ग्रा.), अरण्डी की खली (2 कि.ग्रा.), यूरिया (200 ग्रा.) के सड़े हुए मिश्रण का भी प्रयोग कर सकते है। पूरे मिश्रण को अच्छी तरह मिलाकर एवं हल्का नम करके एक जगह ढेर कर देते है तथा उसे जूट के बोरे या पालीथीन से 15-20 दिनों के लिए ढक देते हैं। जब गूटी बाँधनी हो तब मिश्रण को पानी के साथ आंटे के तरह गूँथ कर छोटी-छोटी लोई (200 ग्रा.) बना ले जिसे छल्लों पर लगाकर पालीथीन से बांध दें इस प्रकार गूटी बाँधने से जड़े अच्छी निकलती है एवं पौध स्थापना अच्छी होती है।
पौधा रोपण
लीची का पूर्ण विकसित वृक्ष आकार में बड़ा होता है। अत: इसे औसतन 10x 10 मी. की दूरी पर लगाना चाहिए। लीची के पौध की रोपाई से पहले खेत में रेखांकन करके पौधा लगाने का स्थान सुनिश्चित कर लेते है। तत्पश्चात चिन्हित स्थान पर अप्रैल-मई माह में 90x 90x 90 सें.मी. आकार के गड्ढे खोद कर ऊपर की आधी मिट्टी को एक तरफ तथा नीचे की आधी मिट्टी को दूसरे तरफ रख देते हैं। वर्षा प्रारम्भ होते ही जून के महीने में 2-3 टोकरी गोबर की सड़ी हुई खाद (कम्पोस्ट), 2 कि.ग्रा. करंज अथवा नीम की खली, 1.0 कि.ग्रा. हड्डी का चूरा अथवा सिंगल सुपर फास्फेट एवं 50 ग्रा. क्लोरपाइरीफ़ॉस, 10: धूल/20 ग्रा. फ्यूराडान-3 जी/20 ग्रा. थीमेट-10 जी को गड्ढे की ऊपरी सतह की मिट्टी में अच्छी तरह मिलाकर गड्ढा भर देना चाहिए। गड्ढे को खेत की सामान्य सतह से 10-15 सें.मी. ऊँचा भरना चाहिए। वर्षा ऋतु में गड्ढे की मिट्टी दब जाने के बाद उसके बीचों बीच में खुरपी की सहायता से पौधे की पिंडी के आकार की जगह बनाकर पौधा लगा देना चाहिए। पौधा लगाने के पश्चात उसके पास की मिट्टी को ठीक से दबा दें एवं पौधे के चारों तरफ एक थाला बनाकर 2-3 बाल्टी (25-30 ली.) पानी डाल देना चाहिए। तत्पश्चात वर्षा न होने पर पौधों के पुर्नस्थापना होने तक पानी देते रहना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
प्रारम्भ के 2-3 वर्षो तक लीची के पौधों को 30 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद, 2 कि.ग्रा. करंज की खली, 250 ग्रा. यूरिया, 150 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 100 ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए। तत्पश्चात पौधे की बढ़वार के साथ-साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करते जाना चाहिए। इस प्रकार 5 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद 250 ग्रा. व 150 ग्रा. करंज की खली, 150 ग्रा. यूरिया, 200 ग्रा. सि.सु.फा., एवं 0.6 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए। करंज की खली एवं कम्पोस्ट के प्रयोग से लीची के फल की गुणवत्ता एवं पैदावार में वृद्धि होती है। लीची के पौधों में फल तोड़ाई के बाद नए कल्ले आते हैं जिनपर अगले वर्ष फलन आती है। अत: अधिक औजपूर्ण एवं स्वस्थ कल्लों के विकास के लिये खाद, फ़ॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण एवं नेत्रजन की दो तिहाई मात्रा जून-जुलाई में फल की तोड़ाई एवं वृक्ष के काट-छांट के साथ-साथ देना चाहिये। परीक्षण से यह देखा गया है कि पूर्ण विकसित पौधों के तनों से 200-250 सें.मी. की दूरी पर गोलाई में 60 सें.मी. गहरी मिट्टी के मिश्रण से भर दें। इस प्रक्रिया से पौधों में नई शोषक जड़ों (फीडर रूट्स) का अधिक विकास होता है और खाद एवं उर्वरक का पूर्ण उपयोग होता है। खाद देने के पश्चात यदि वर्षा नहीं होती है तो सिंचाई करना आवश्यक है। लीची के फलों के तोड़ाई के तुरन्त बाद खाद दे देने से पौधों में कल्लों का विकास अच्छा होता है एवं फलन अच्छी होती है। शेष नत्रजन की एक तिहाई मात्रा फल विकास के समय जब फल मटर के आकार का हो जाएं सिंचाई के साथ देना चाहिए। अम्लीय मृदा में 10-15 कि.ग्रा. चूना प्रति वृक्ष 3 वर्ष के अंतराल पर देने से उपज में वृद्धि देखी गई है। जिन बगीचों में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई दे उनमें 150-200 ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति वृक्ष की दर से सितम्बर माह में अन्य उर्वरकों के साथ देना लाभकारी पाया गया है।
सिंचाई एवं जल संरक्षण
लीची के छोटे पौधों में स्थापना के समय नियमित सिंचाई करनी चाहिये। जिसके लिये सर्दियों में 5-6 दिनों तक गर्मी में 3-4 दिनों के अंतराल पर थाला विधि से सिंचाई करनी चाहिए। लीची के पूर्ण विकसित पौधे जिनमें फल लगना प्रारम्भ हो गया हो उसमें फूल आने के 3-4 माह पूर्व (नवम्बर से फरवरी) पानी नहीं देना चाहिए। लीची के पौधों में फल पकने के छ: सप्ताह पूर्व (अप्रैल के प्रारम्भ) से ही फलों का विकास तेजी से होने लगता है। अत: जिन पौधों में फलन प्रारम्भ हो गया है उनमें इस समय उचित जल प्रबंध एवं सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पानी की कमी से फल का विकास रुक जाता है एवं फल चटखने लगते हैं। अत: उचित जल प्रबंध से गूदे का समुचित विकास होता है तथा फल चटखने की समस्या कम हो जाती है। विकसित पौधों में छत्रक के नीचे छोटे-छोटे फव्वारे लगाकर लगातर नमी बनाए रखा जा सकता है। शाम के समय बगीचे की सिंचाई करने से पौधों द्वारा जल का पूर्ण उपयोग होता है। बूंद-बूंद सिंचाई विधि द्वारा प्रतिदिन सुबह एवं शाम चार घंटा पानी (40-50) लीटर देने से लीची के फलों का अच्छा विकास होता है। लीची के सफल उत्पादन के लिए मृदा में लगातार उपयुक्त जमी का रहना अतिआवश्यक है। जिसके लिए सिंचाई के साथ-साथ मल्विंग द्वारा जल संरक्षण करना लाभदायक पाया गया है। पौधे के मुख्य तने के चारों तरफ सूखे खरपतवार या धान के पुआल की अवरोध परत बिछाकर मृदा जल को संरक्षित किया जा सकता है। इससे मृदा के भौतिक दशा में सुधार, खरपतवार नियंत्रण एवं उपज अच्छी होती है।
पौधों की देख-रेख एवं काट-छांट
लीची के पौधे लगाने के पश्चात शुरुआत के 3-4 वर्षो तक समुचित देख-रेख करने की आवश्यकता पड़ती है। खातौर से ग्रीष्म ऋतु में तेज गर्म हवा (लू) एवं शीत ऋतु में पाले से बचाव के लिए कारगर प्रबंध करना चाहिए। प्रारम्भ के 3-4 वर्षो में पौधों की अवांछित शाखाओं को निकाल देना चाहिए जिससे मुख्य तने का उचित विकास हो सके। तत्पश्चात चारों दिशाओं में 3-4 मुख्य शाखाओं को विकसित होने देना चाहिए जिससे वृक्ष का आकार सुडौल, ढांचा मजबूत एवं फलन अच्छी आती है। लीची के फल देने वाले पौधों में प्रतिवर्ष अच्छी उपज के लिए फल तोड़ाई के समय 15-20 सें.मी. डाली सहित तोड़ने से उनमें अगले वर्ष अच्छे कल्ले निकलते हैं तथा उपज में वृद्धि होती है। पूर्ण विकसित पौधों में शाखाओं के घने होने के कारण पौधों के आंतरिक भाग में सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाता है जिससे अनेक कीड़ों एवं बीमारियों का प्रकोप देखा गया है। अध्ययन से यह भी देखा गया है कि लीची के पौधों में अधिकतम फलन नीचे के एक तिहाई छत्रक से होती है तथा वृक्ष के ऊपरी दो तिहाई भाग से अपेक्षाकृत कम उपज प्राप्त होती है। अत: पूर्ण विकसित पौधों के बीच की शाखाएं जिनका विकास सीधा ऊपर के तरफ हो रहा है, को काट देने से उपज में बिना किसी क्षति के पौधों के अंदर धूप एवं रोशनी का आवागमन बढ़ाया जा सकता है। ऐसा करने से तना वेधक कीड़ों का प्रकोप कम होता है तथा पौधों के अंदर के तरफ भी फलन आती है। फल तोड़ाई के पश्चात सूखी, रोगग्रसित अथवा कैची शाखाओं को काट देना चाहिए। पौधों की समुचित देख-रेख, गुड़ाई तथा कीड़े एवं बीमारियों से रक्षा करने से पौधों का विकास अच्छा होता है एवं उपज बढ़ती है।
पूरक पौधों एवं अंतरशस्यन
लीची के वृक्ष को पूर्ण रूप से तैयार होने में लगभग 15-16 वर्ष का समय लगता है। अत: प्रारम्भिक अवस्था में लीची के पौधों के बीच की खाली पड़ी जमीन का सदुपयोग अन्य फलदार पौधों एवं दलहनी फसलों/सब्जियों को लगाकर किया जा सकता है। इससे किसान भाईयों को अतिरिक्त लाभ के साथ-साथ मृदा की उर्वराशक्ति का भी विकास होता है। शोध कार्यो से यह पता चला है कि लीची में पूरक पौधों के रूप में अमरुद, शरीफा एवं पपीता जैसे फलदार वृक्ष लगाए जा सकते है। यें पौधे लीची के दो पौधों के बीच में रेखांकित करके 5 5 मी. की दूरी पर लगाने चाहिए। इस प्रकार एक हेक्टेयर जमीन में लीची के 100 पौधे तथा 300 पूरक पौधे लगाए जा सकते हैं। अंतरशस्यन के रूप में दलहनी, तिलहनी एवं अन्य फसलें जैसे बोदी, फ्रेंचबीन, भिन्डी, मूंग, कुल्थी, सरगुजा, महुआ एवं धान आदि की खेती सफलतापूर्णक की जा सकती है।
पुष्पन एवं फलन
गूटी द्वारा तैयार लीची के पौधों में चार से पाँच वर्षो के बाद फूल एवं फल आना आरम्भ हो जाता है। प्रयोग से यह देखा गया है कि फूल आने के संभावित समय से लगभग तीन माह पहले पौधों में सिंचाई बंद करने से मंजर बहुत ही अच्छा आता है। लीची के पौधों में तीन प्रकार के फूल आते हैं। शुद्ध नर फूल सबसे पहले आते है जो मादा फूल आने के पहले ही झड़ जाते है। अत: इनका उपयोग परागण कार्य में नही हो पाता है। कार्यकारी नर फूल जिनमें पुंकेसर भाग अधिक विकसित तथा अंडाशय भाग विकसित नही होता है, मादा फूल के साथ ही आते है। इन्ही नर पुष्पों से मधुमक्खियों द्वारा परागण होता है। लीची में उभयलिंगी मादा फूलों में ही फल का विकास होता है। इन फूलों में पुंकेसर अंडाशय के नीचे होता है अत: स्वयं परागण न होकर कीटों द्वारा परागण की आवश्यकता होती है इसलिये अधिक फलन के लिये मादा फूलों का समुचित परागण होना चाहिए और परागण के समय कीटनाशी दवाओं का छिड़काव नही करना चाहिए इससे फलन प्रभावित होती है।
अच्छी फलन एवं गुणवत्ता के लिये सुझाव
लीचे के बगीचे में अच्छी फलन एवं उत्तम गुणवत्ता के लिये निम्नलिखित बिन्दुओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए:
समस्याएँ एवं निदान
फलों का फटना: फल विकसित होने के समय भूमि में नमी तथा तेज गर्म हवाओं से फल अधिक फटते हैं। यह समरूप फल विकास की द्वितीय अवस्था (अप्रैल के तृतीय सप्ताह) में आती है जिसका सीधा संबंध भूमि में जल स्तर तथा नमी धारण करने की क्षमता से है। सामान्य तौर पर जल्दी पकने वाली किस्मों में फल चटखन की समस्या देर से पकने वाली किस्मों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है। इसके निराकरण के लिए वायु रोधी वृक्षों को बाग़ के चारों तरफ लगाएं तथा अक्टूबर माह में पौधों के नीचे मल्विंग करें। मृदा में नमी बनाए रखने के लिए अप्रैल के प्रथम सप्ताह से फलों के पकने एवं उनकी तोड़ाई तक बाग़ की हल्की सिंचाई करें और पौधों पर जल छिड़काव करें। परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पानी के उचित प्रबंध के साथ-साथ फल लगने के 15 दिनों के बाद से 15 दिनों के अंतराल पर पौधों पर बोरेक्स (5 ग्रा./ली.) या बोरिक अम्ल (4 ग्रा./ली.) के घोल का 2-3 छिड़काव करने से फलों के फटने की समस्या कम जो जाती है एवं पैदावार अच्छी होती है।
फलों का झड़ना: भूमि में नेत्रजन एवं पानी की कमी तथा गर्म एवं तेज हवाओं के कारण लीची के फल छोटी अवस्था में ही झड़ने लगते है। खाद एवं जल की उचित व्यवस्था करने से फल झड़ने की समस्या नहीं आती है। फल लगने के एक सप्ताह पश्चात प्लैनोफिक्स (2 मि.ली./4.8 ली.) या एन.ए.ए. (20 मि.ग्रा./ली.) के घोल का एक छिड़काव करने से फलों को झड़ने से बचाया जा सकता है।
लीची की मकड़ी (लीची माइट): सूक्ष्मदर्शी मकड़ी के नवजात और वयस्क दोनों ही कोमल पत्तियों की निचली सतह, टहनियों तथा पुष्पवृन्तों से चिपक कर लगातार रस चूसते रहते हैं, जिससे पत्तियाँ मोटी एवं लम्बी होकर मुड़ जाती है और उनपर मखमली (भेल्वेटी) रुआं सा निकल जाता है जो बाद में भूरे या काले रंग में परिवर्तित हो जाता है तथा पत्ती में गड्ढे बन जाते है। पत्तियाँ परिपक्व होने के पहले ही गिरने लगती हैं, पौधे कमजोर हो जाते हैं और टहनियों में फलन बहुत कम हो जाता है। इसकी रोकथाम के लिए समय-समय पर ग्रसित पत्तियों एवं टहनियों को काटकर जला देना चाहिए। सितम्बर-अक्टूबर में नई कोपलों के आगमन के समय केलथेन या फ़ॉसफामिडान (1.25 मि.ली./लीटर) का घोल बनाकर 7-10 दिन के अंतराल पर दो छिड़काव लाभप्रद पाया गया है।
टहनी छेदक (शूट बोरर): इसके पिल्लू पौधों की नई कोपलों के मुलायम टहनियों से प्रवेश कर उनके भीतरी भाग को खाते हैं इससे टहनियां मुर्झा कर सूख जाती हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती है। इसके निराकरण के लिए प्रभावित टहनी को तोड़कर जला देना चाहिए एवं सायपरमेथ्रिन (1.0 मि.ली./ली.) या पाडान (2 ग्रा.ली.) घोल का कोपलों के आने के समय 7 दिनों के अंतराल पर दो छिड़काव करना चाहिए।
फल एवं बीज बेधक (फ्रूट एवं सीड बोरर): फल परिपक्व होने के पहले यदि मौसम में अच्छी नमी का समावेश होता है तो फल वेधक के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है। इसके पिल्लू लीची के गूदे के ही रंग के होते हैं जो डंठल के पास से फलों में प्रवेश कर फल को खाकर उन्हें हानि पहुँचाते हैं अत: फल खाने योग्य नहीं रहते। इसके प्रकोप से बचाव के लिए फल तोड़ाई के लगभग 40-45 दिन पहले से सायपरमेथ्रिन का दो छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें।
लीची बग: अक्सर मार्च-अप्रैल एवं जुलाई-अगस्त के महीने में पौधों पर लीची बग का प्रकोप देखा जाता है। इसके नवजात और वयस्क दोनों ही नरम टहनियों, पत्तियों एवं फलों से रस चूसकर उन्हें कमजोर कर देते हैं व फलों की बढ़वार रुक जाती है। वृक्ष के पास जाने पर एक विशेष प्रकार की दुर्गंध से इस कीड़े के प्रकोप का पता लगाया जा सकता है। इससे बचाव के लिए नवजात कीड़ों के दिखाई देते ही मेटासिस्टाक्स (1.0 मि.ली./ली.) या फ़ॉस्फामिडान (1.25 मि.ली./ली.) के घोल का दो छिड़काव 10-15 दिनों के अंतराल पर करें।
छिलका खाने वाले पिल्लू (बार्क इटिंग कैटरपिलर): ये पिल्लू बड़े आकार के होते है जो पेड़ों के छिलके खाकर जीवन निर्वाह करते हैं एवं छिपकर रहते हैं। तनों में छेदक अपने बचाव के लिए टहनियों के ऊपर अपनी विष्टा की सहायता से जाला बनाते हैं। इनके प्रकोप से टहनियां कमजोर हो जाती हैं और कभी भी टूटकर गिर सकती है। इसका रोकथाम भी जीवित छिद्रों में पेट्रोल या नुवान या फार्मलीन से भीगी रुई ठूंसकर चिकनी मिट्टी से बंद करके किया जा सकता है। इन कीड़ों से बचाव के लिए बगीचे को साफ़ रखना श्रेयस्कर पाया गया है।
उपज
लीची के पौधों में जनवरी-फरवरी में फूल आते हैं एवं फल मई-जून में पक कर तैयार हो जाते है। फल पकने के बाद गहरे गुलाबी रंग के हो जाते हैं और उनके ऊपर के छोटे-छोटे उभार चपटे हो जाते है। प्रारम्भिक अवस्था में लीची के पौधों से उपज कम मिलती है। परन्तु जैसे-जैसे पौधों का आकार बढ़ता है फलन एवं उपज में वृद्धि होती है। पूर्ण विकसित 15-20 वर्ष के लीची के पौधों से औसतन 70-100 कि.ग्रा. फल प्रति वृक्ष प्रतिवर्ष प्राप्त किये जा सकते है।
लीची पौधों के उचित काट-छांट द्वारा फलन में सुधार
लीची झारखंड प्रदेश का एक महत्वपूर्ण फल होता जा रहा है। यहाँ की जलवायु एवं मिट्टी लीची की खेती के लिए सर्वथा उचित हैं। पूर्व में ऐसा मानना था कि लीची केवल उत्तरी बिहार में हो हो सकता है, परन्तु अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो गया है कि झारखंड की लीची उत्तरी बिहार के लीची से किसी मामले में कम नही है। यहाँ की लीची अन्य स्थानों में कम नहीं है। यहाँ की लीची अन्य स्थानों की तुलना में 15-20 दिन पहले पक कर तैयार हो जाती है तथा उनमें मिठास और गुणवत्ता भी अच्छी होती है। अत: झारखंड में लीची के बागीचों में विभिन्न कृषि क्रियाओं को सही समय और उचित तरीके से करना चाहिए। छोटे नवजात पौधों की उचित कांट-छांट तथा ढांचा निर्माण एवं फल देने वाले पौधा में कांट-छांट अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है अत: इस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
छोटे पौधों में काट-छांट
लीची के नवजात पौधों में कांट-छांट का मुख्य उद्देश्य ढांचा निर्माण होता है। जिससे पौधे लम्बे समय तक सतत रूप से फल दे सकें। प्रारम्भ के 3-4 वर्षो तक पौधों के मुख्य तने की अवांछित शाखाओं को निकाल देने से मुख्य तनों का अच्छा विकास होता है और अंतरशस्यन में भी आसानी रहती है। जमीन से लगभग 1 मी. ऊँचाई पर चारों दिशाओं में 3-4 मुख्य शाखाएं रखने से पौधों का ढांचा मजबूत एवं फलन अच्छी होती है। समय-समय पर कैंची व सीधा ऊपर की ओर बढ़ने वाली शाखाओं को काटते रहना चाहिए।
फल देने वाले पौधों में काट-छांट
लीची के फलों की तोड़ाई के बाद उसमें नये कल्ले निकलते हैं जिन पर दिसम्बर-जनवरी में मंजर और फूल आते हैं। यदि फलों की तोड़ाई करते समय किसी तेज धारदार औजार से गुच्छे के साथ-साथ 15 -20 सें.मी. टहनियों को भी काट दिया जाय तो उन्ही डालियों से जुलाई-अगस्त में औजपूर्ण एवं स्वस्थ कल्लों का विकास होता है जिस पर फलन अच्छी होती है।
लीची एक सदाबहार फलदार वृक्ष है जिसके पूर्ण विकसित पौधों में शाखाओं के घने होने के कारण एक तरफ तो पौधों के भीतरी भाग में सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाता वहीं दूसरी तरफ पौधों पर अनेक कीड़ों और बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है। लीची की अधिकतम फलन क्षत्रक के निचले एक तिहाई भाग में होता है। क्षत्रक के ऊपरी भाग पर लगने वाले फल या तो चिड़ियों द्वारा नष्ट कर दिये जाते है या फट जाते है जिससे कोई व्यावसायिक उपज नहीं मिल पाती। अत: पूर्ण विकसित पौधों के बीच की शाखाएं जिनका विकास सीधा ऊपर के तरफ हो रहा है, इसे काट देने से पौधों के भीतरी भाग में धूप एवं रोशनी का आवागमन बढ़ाया जा सकता है साथ ही साथ क्षत्रक के अंदर के तरफ भी गुच्छे लगने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है। लीची के शाही किस्म के पौधों के बीच वाले भाग से शाखाओं को काट देने से उसमें 74 प्रतिशत कल्लों में मंजर आये और प्रति गुच्छे में फलों की संख्या 7.2 फल/गुच्छा रही। बिना काट-छांट किये हुए पौधों में केवल 11.1 प्रतिशत कल्लों में मंजर लगे और औसतन 0.2 फल/मंजर प्राप्त हुए।
इसके अतिरिक्त लीची के पौधों के अंदर की पतली, सूखी तथा न फल देने वाली शाखाओं को उनके निकलने के स्थान से काट देने से अन्य शाखाओं में कीड़ों एवं बीमारियों का प्रकोप कम हो जाता है। कटाई के बाद शाखाओं के कटे भाग पर कॉपर-ऑक्सीक्लोराइड तथा करंज के मिश्रण तेल का लेप लगा देने से किसी भी प्रकार के संक्रमण की समस्या नहीं रहती है। काट-छांट के पश्चात पौधों की समुचित देखरेख, खाद एवं उर्वरक प्रयोग तथा पौधों के नीचे गुड़ाई करने से पौधों में अच्छे कल्लों का विकास होता है तथा उपज भी बढ़ती है
अच्छी फलत के लिए लीची बाग़ प्रबंध का माहवार कार्यक्रम
नये बगीचों का प्रबंध
लीची के नये बाग़ को लागाने से लेकर उनके फलन में आने तक समुचित बाग़ प्रबंधन करना आवश्यक होता है। रेखांकन के पश्चात उचित स्थान पर एवं ठीक ढंग से पौधा लगाने से पूर्व मिट्टी की जाँच करा कर उसके अनुरूप खाद देने तथा समय-समय पर संस्तुत कृषि क्रियाएँ करने से बाग से निरंतर एवं भरपूर पैदावार ली जा सकती है। नये बगीचों के लिए संस्तुत की गयी कृषि क्रियाओं का माहवार विवरण इस प्रकार है।
जनवरी
फरवरी
मार्च
अप्रैल
मई
जून
जुलाई
अगस्त
सितम्बर
अक्टूबर
नवम्बर
दिसम्बर
फल देनेवाले बगीचों का प्रबंध
लीची के पौधे जब फल देना प्रारम्भ कर देते है तब उनका विशेष ध्यान रखना चाहिए। समय-समय पर उचित मात्रा में खाद में उर्वरक का प्रयोग, काट-छांट, कीट बीमारियों का नियंत्रण एवं दैहिक विकारों को दूर करने से फलोत्पादन में वृद्धि एवं गुणवत्ता में सुधार होता है। फल देने वाले बागीचों में विभिन्न कृषि क्रियाओं का माहवार विवरण इस प्रकार है।
जनवरी
फरवरी
अप्रैल
मई
जून
जुलाई
अगस्त
सितम्बर
अक्टूबर
नवम्बर
दिसम्बर
बागीचे में खाद एवं पानी का प्रयोग बिल्कुल न करें।
परिचय
केला भारत वर्ष का प्राचीनतम स्वादिष्ट पौष्टिक पाचक एवं लोकप्रीय फल है अपने देश में प्राय:हर गाँव में केले के पेड़ पाए जातेहै इसमे शर्करा एवं खनिज लवण जैसे कैल्सियम तथा फास्फोरस प्रचुर मात्रा में पाए जाता हैI फलों का उपयोग पकने पर खाने हेतु कच्चा सब्जी बनाने के आलावा आटा बनाने तथा चिप्स बनाने के कम आते हैI इसकी खेती लगभग पूरे भारत वर्ष में की जाती हैI
जलवायु एवं भूमि
केला की खेती के लिए किस प्रकार की जलवायु एवं भूमि की आवश्यकता होती है?
गर्मतर एवं सम जलवायु केला की खेती के लिए उत्तम होती है अधिक वर्षा वाले क्षेत्रो में केला की खेती सफल रहती है जीवांश युक्त दोमट एवम मटियार दोमट भूमि ,जिससे जल निकास उत्तम हो उपयुक्त मानी जाती है भूमि का पी एच मान 6-7.5 तक इसकी खेती के लिए उपयुक्त होता हैI
प्रजातियाँ
कौन कौन सी प्रजातियाँ है जिनका इस्तेमाल हम केले की खेती करते वक्त करे?
उन्नतशील प्रजातियाँ केले की दो प्रकार की पाई जाती है फल खाने वाली किस्स्मो में गूदा मुलायम, मीठा तथा स्टार्च रहित सुवासित होता है जैसे कि बसराई,ड्वार्फ ,हरी छाल,सालभोग,अल्पान,रोवस्ट तथा पुवन इत्यादि प्रजातियाँ है दूसरा है सब्जी बनाने वाली इन किस्मों में गुदा कडा स्टार्च युक्त तथा फल मोटे होते है जैसे कोठिया,बत्तीसा, मुनथन एवं कैम्पिरगंज हैI
खेती की तैयारी
खेत की तैयारी कैसी होनी चाहिए व किस प्रकार करें?
खेत की तैयारी समतल खेत को 4-5 गहरी जुताई करके भुर भूरा बना लेना चाहिए उत्तर प्रदेश में मई माह में खेत की तैयारी कर लेनी चाहिए इसके बाद समतल खेत में लाइनों में गढढे तैयार करके रोपाई की जाती हैI
रोपाई हेतु गढढे की तैयारी
केला की रोपाई हेतु गढढे किस प्रकार से तैयार किए जाते हैI
खेत की तैयारी के बाद लाइनों में गढढे किस्मो के आधार पर बनाए जाते है जैसे हरी छाल के लिए 1.5 मीटर लम्बा 1.5 मीटर चौड़ा के तथा सब्जी के लिए 2-3 मीटर की दूरी पर 50 सेंटीमीटर लम्बा 50 सेंटीमीटर चौड़ा 50 सेंटीमीटर गहरा गढढे मई के माह में खोदकर डाल दिये जाते है 15-20 दिन खुला छोड़ दिया जाता है जिससे धूप आदि अच्छी तरह लग जाए इसके बाद 20-25 किग्रा गोबर की खाद 50 ई.सी. क्लोरोपाइरीफास 3 मिली० एवं 5 लीटर पानी तथा आवश्यकतानुसार ऊपर की मिट्टी के साथ मिलाकर गढढे को भर देना चाहिए गढ़ढो में पानी लगा देना चाहिएI
पे़ड़ों की रोपाई
केले के पेड़ो की रोपाई किस प्रकार की जाती है?
पौध रोपण में केले का रोपण पुत्तियों द्वारा किया जाता है, तीन माह की तलवार नुमा पुत्तियाँ जिनमे घनकन्द पूर्ण विकसित हो का प्रयोग किया जाता है पुत्तियो का रोपण 15-30 जून तक किया जाता है इन पुत्तियो की पत्तियां काटकर रोपाई तैयार गढ़ढो में करनी चाहिए रोपाई के बाद पानी लगाना आवश्यक हैI
खाद एवं उर्वरक का प्रयोग
केले की खेती के लिए किस प्रकार की खाद एवं उर्वरक का प्रयोग हमें करना चाहिए और कितनी मात्रा में करना चाहिए इस बारे में बताये?
भूमि के उर्वरता के अनुसार प्रति पौधा 300 ग्राम नत्रजन 100 ग्राम फास्फोरस तथा 300 ग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है फास्फोरस की आधी मात्रा पौध रोपण के समय तथा शेष आधी मात्रा रोपाई के बाद देनी चाहिए नत्रजन की पूरी मात्रा ५ भागो में बाँटकर अगस्त, सितम्बर ,अक्टूबर तथा फरवरी एवं अप्रैल में देनी चाहिए पोटाश की पूरी मात्रा तीन भागो में बाँटकर सितम्बर ,अक्टूबर एवं अप्रैल में देना चाहिएI
सिंचाई का समय
केले की खेती में सिचाई का सही समय क्या है और किस प्रकार सिचाई करनी चाहिए?
केले के बाग में नमी बनी रहनी चाहिए पौध रोपण के बाद सिचाई करना अति आवश्यक है आवश्यकतानुसार ग्रीष्म ऋतु 7 से 10 दिन के तथा शीतकाल में 12 से 15 दिन अक्टूबर से फरवरी तक के अन्तराल पर सिचाई करते रहना चाहिए मार्च से जून तक यदि केले के थालो पर पुवाल गन्ने की पत्ती अथवा पालीथीन आदि के बिछा देने से नमी सुरक्षित रहती है, सिचाई की मात्रा भी आधी रह जाती है साथ ही फलोत्पादन एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती हैI
निराई एवं गुड़ाई
केला की खेती में निराई गुड़ाई का सही समय क्या है और किस प्रकार करनी चाहिए?
केले की फसल के खेत को स्वच्छ रखने के लिए आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए पौधों को हवा एवं धूप आदि अच्छी तरह से निराई गुड़ाई करने पर मिलता रहता है जिससे फसल अच्छी तरह से चलती है और फल अच्छे आते हैI
मल्चिंग
केले की खेती में मल्चिंग कब और किस प्रकार करनी चाहिए?
केले के खेत में प्रयाप्त नमी बनी रहनी चाहिए, केले के थाले में पुवाल अथवा गन्ने की पत्ती की 8 से 10 सेमी० मोटी पर्त बिछा देनी चाहिए इससे सिचाई कम करनी पड़ती है खरपतवार भी कम या नहीं उगते है भूमि की उर्वरता शक्ति बढ़ जाती है साथ ही साथ उपज भी बढ़ जाती है तथा फूल एवं फल एक साथ आ जाते हैI
कटाई छंटाई
केले की कटाई छटाई और सहारा देना कब शुरू करना चाहिए और कैसे करना चाहिए?
केले के रोपण के दो माह के अन्दर ही बगल से नई पुत्तियाँ निकल आती है इन पुत्तियों को समय - समय पर काटकर निकलते रहना चाहिए रोपण के दो माह बाद मिट्टी से 30 सेमी० व्यास की 25 सेमी० ऊँचा चबूतरा नुमा आकृति बना देनी चाहिए इससे पौधे को सहारा मिल जाता है साथ ही बांसों को कैची बना कर पौधों को दोनों तरफ से सहारा देना चाहिए जिससे की पौधे गिर न सकेI
रोगों का नियंत्रण
केले की खेती में फसल सुरक्षा हेतु रोगों का नियंत्रण कैसे करते रहना चाहिए और इसमे कौन कौन से रोग लगने की संभावना रहती है?
केले की फसल में कई रोग कवक एवं विषाणु के द्वारा लगते है जैसे पर्ण चित्ती या लीफ स्पॉट ,गुच्छा शीर्ष या बन्ची टाप,एन्थ्रक्नोज एवं तनागलन हर्टराट आदि लगते है नियंत्रण के लिए ताम्र युक्त रसायन जैसे कापर आक्सीक्लोराइट 0.3% का छिडकाव करना चाहिए या मोनोक्रोटोफास 1.25 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के साथ छिडकाव करना चाहिएI
कीट नियंत्रण
केले की खेती में कौन कौन से कीट लगते है और उसका नियंत्रण हम किस प्रकार करे?
केले में कई कीट लगते है जैसे केले का पत्ती बीटिल (बनाना बीटिल),तना बीटिल आदि लगते है नियंत्रण के लिए मिथाइल ओ -डीमेटान 25 ई सी 1.25 मिली० प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिएI या कारबोफ्युरान अथवा फोरेट या थिमेट 10 जी दानेदार कीटनाशी प्रति पौधा 25 ग्राम प्रयोग करना चाहिएI
तैयार फल की कटाई
केला तैयार होने पर उसकी कटाई किस प्रकार करनी चाहिए?
केले में फूल निकलने के बाद लगभग 25-30 दिन में फलियाँ निकल आती है पूरी फलियाँ निकलने के बाद घार के अगले भाग से नर फूल काट देना चाहिए और पूरी फलियाँ निकलने के बाद 100 -140 दिन बाद फल तैयार हो जाते है जब फलियाँ की चारो घरियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई लेकर पीली होने लगे तो फल पूर्ण विकसित होकर पकने लगते है इस दशा पर तेज धार वाले चाकू आदि के द्वारा घार को काटकर पौधे से अलग कर लेना चाहिएI
पकाने की विधि
केला की कटाई करने के बाद जो घार के फल होते है उनको पकाने की क्या विधि है किस प्रकार पकाया जाता है?
केले को पकाने के लिए घार को किसी बन्द कमरे में रखकर केले की पत्तियों से ढक देते है एक कोने में उपले अथवा अगीठी जलाकर रख देते है और कमरे को मिट्टी से सील बन्द कर देते है यह लगभग 48 से 72 घण्टे में कमरें केला पककर तैयार हो जाता हैI
उत्पादन
केला की खेती से प्रति हेक्टेयर कितनी पैदावार यानी की उपज प्राप्त कर सकते है?
सभी तकनी
सेब का खेती क्षेत्र
प्राथमिक तौर पर सेब की खेती जम्मू एवं कश्मीर हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड की पहाड़ियों में की जाती है। कुछ हद तक इसकी खेती अरूणाचल प्रदेश, नगालैंड, पंजाब और सिक्किम में भी की जाती है।
वानस्पतिक नाम - मैलस प्यूपमिला
परिवार - रोसासिए
पौधा विवरण
यह एक गोलाकार पेड़ होता है जो सामान्य तौर पर 15 मी. ऊंचा होता है। ये पेड़ जोरदार और फैले हुए होते हैं। पत्ते ज्या दातर लघु अंकुरों या स्पूर्स पर गुच्छेदार होते हैं। सफेद फूल भी स्पेर्स पर उगते हैं।
उत्पति केन्द्र - पूर्वी यूरोप और पश्चिमी एशिया
परागण प्रणाली - संकर परागणित
गुणसूत्र सं. - 2n=34
सेब का पोषण स्तर
नमी (%) | प्रोटीन (%)
| वसा (%) | खनिज तत्व (%)
| फाइबर (%) | कार्बोहाइड्रेट(%) | कैलोरी (के कैल.)
|
84.6
| 0.2
| 0.5
| 0.3
| 1 | 13.4
| 59 |
खनिज | ||||||
फास्फोरस (मि.ग्रा./100ग्रा.) | पोटाशियम (मि.ग्रा. /100ग्रा.)
| कैल्शियम (मि.ग्रा./ 100ग्रा.)
| मैग्नीयशियम (मि.ग्रा./ 100ग्रा.)
| आयरन (मि.ग्रा./ 100ग्रा.)
| सोडियम (मि.ग्रा./ 100ग्रा.) | तांबा (मि.ग्रा. /100ग्रा.)
|
14 | 75 | 10
| 7 | 0.66 | 28
| 0.1
|
मैंगनीज (मि.ग्रा./100ग्रा.) | जिंक (मि.ग्रा. /100ग्रा.)
| सल्फर (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| क्लोरिन (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| मोलिबलम(मि.ग्रा./100ग्रा.)
| क्रोमलम (मि.ग्रा./ 100ग्रा.) |
|
0.14 | 0.06
| 7 | 1 | 0 | 0.008
|
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विटामिन | ||||||
कारोटिन (मि.ग्रा./100ग्रा.) | थलामिन (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| रलबोफलविन (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| नलासिन (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| विटामिन सी (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| कोलेन (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| फोलिक एसिड मुक्त (मि.ग्रा./100ग्रा.)
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0 | 0 | 0 | 0 | 0 | 321 | 0 |
फोलिक एसिड - जोड़ | ||||||
0 |
|
|
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सेब फसल की कटाई
आमतौर पर सेब सितम्बर -अक्तूबर से फसल-कटाई के लिए तैयार होते हैं लेकिन नीलगिरि में ऐसा नहीं होता है जहां मौसम अप्रैल से जुलाई होता है। विकसित की गई किस्म पर निर्भर करते हुए पूर्ण पुष्प पुंज अवस्था के बाद 130-135 दिनों के भीतर फल परिपक्व होते हैं। फलों का परिपक्व रंग में परिवर्तन , बनावट, गुणवत्ता और विशेष स्वाद के विकास से जुड़ा होता है। फसल-कटाई के समय फल एकसमान , ठोस और भुरमुरा होने चाहिएं। परिपक्वन के समय त्वचा का रंग किस्म। पर निर्भर करते हुए पीला-लाल के बीच होना चाहिए। तथापि फसल-कटाई का सर्वोत्तम समय फल की गुणवत्ता और भंडारण की अभीष्ट अवधि पर निर्भर करता है। इर्राफ रूटस्टाएक की शुरूआत की वजह से, हाथ से चुनाई की सिफारिश की गई है क्योंकि इससे अभियांत्रिक फसल-कटाई के दौरान फल गिरने की वज़ह से ब्रूजिंग में कमी आएगी।
पैदावार
सेब के पेड़ पर चौथे वर्ष से फल लगने शुरू होते हैं। किस्म और मौसम पर निर्भर करते हुए, एक सुप्रबंधित सेब का बगीचा औसतन 10-20 कि.ग्रा./पेड़/वर्ष की पैदावार देता है।
परिचय
अमरूद को अंग्रेजी में ग्वावा कहते हैं। वानस्पतिक नाम सीडियम ग्वायवा, प्रजाति सीडियम, जाति ग्वायवा, कुल मिटसी)।वैज्ञानिकों का विचार है कि अमरूद की उत्पति अमरीका के उष्ण कटिबंधीय भाग तथा वेस्ट इंडीज़ से हुई है। भारत की जलवायु में यह इतना घुल मिल गया है कि इसकी खेती यहाँ अत्यंत सफलतापूर्वक की जाती है। पता चलता है कि 17 वीं शताब्दी में यह भारतवर्ष में लाया गया। अधिक सहिष्ण होने के कारण इसकी सफल खेती अनेक प्रकार की मिट्टी तथा जलवायु में की जा सकती है। जाड़े की ऋतु मे यह इतना अधिक तथा सस्ता प्राप्त होता है कि लोग इसे निर्धन जनता का एक प्रमुख फल कहते हैं। यह स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभदायक फल है। इसमें विटामिन "सी' अधिक मात्रा में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त विटामिन "ए' तथा "बी' भी पाए जाते हैं। इसमें लोहा, चूना तथा फास्फोरस अच्छी मात्रा में होते हैं। अमरूद की जेली तथा बर्फी (चीज) बनाई जाती है। इसे डिब्बों में बंद करके सुरक्षित भी रखा जा सकता है।
अमरुद नाम संस्कृत के अमरुद्ध शब्द का अपभ्रंस है । आम के प्रभाव को रुद्ध (रोकने) करने की ताकत रखने वाला फल अमरुद्ध होता है यही प्रचलित शब्द "अमरुद" है ।
भूमिका
अमरूद का फल वृक्षों की बागवानी मे एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी बहुउपयोगिता एवं पौष्टिकता को ध्यान मे रखते हुये लोग इसे गरीबों का सेब कहते हैं। इसमे विटामिन सी प्रचुर मात्रा मे पाया जाता है। इससे जैम, जैली, नेक्टर आदि परिरक्षित पदार्थ तैयार किये जाते है।
इसकी सफल खेती अनेक प्रकार की मिट्टी तथा जलवायु में की जा सकती है। जाड़े की ऋतु मे यह इतना अधिक तथा सस्ता प्राप्त होता है कि लोग इसे गरीबों का सेब कहते हैं। यह स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभदायक फल है। इसमें विटामिन सी अधिक मात्रा में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त विटामिन ए तथा बी भी पाये जाते हैं। इसमें लोहा, चूना तथा फास्फोरस अच्छी मात्रा में होते हैं। अमरूद की जेली तथा बर्फी (चीज) बनायी जाती है। इसे डिब्बों में बंद करके सुरक्षित भी रखा जा सकता है।
जलवायु
अमरूद की सफल खेती उष्ण कटीबंधीय और उपोष्ण-कटीबंधीय जलवायु में सफलतापूर्वक की जा सकती है। उष्ण क्षेत्रों में तापमान व नमी के पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहने पर फल वर्ष भर लगते हैं। अधिक वर्षा वाले क्षेत्र 1245 सेमी से अधिक इसकी बागवानी के उपयुक्त नहीं है। छोटे पौधे पर पाले का असर होता है। जब कि पूर्ण विकसित पौधे 44 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान आसानी से सहन कर सकते हैं।
अमरूद के लिए गर्म तथा शुष्क जलवायु सबसे अधिक उपयुक्त है। यह गरमी तथा पाला दोनों सहन कर सकता है। केवल छोटे पौधे ही पाले से प्रभावित होते हैं। यह हर प्रकार की मिट्टी में उपजाया जा सकता है, परंतु बलुई दोमट इसके लिए आदर्श मिट्टी है। भारत में अमरूद की प्रसिद्ध किस्में इलाहाबादी सफेदा, लाल गूदेवाला, चित्तीदार, करेला, बेदाना तथा अमरूद सेब हैं।
अमरूद का प्रसारण अधिकतर बीज द्वारा किया जाता है, परंतु अच्छी जातियों के गुणों को सुरक्षित रखने के लिए आम की भाँति भेटकलम (इनाचिंग) द्वारा नए पौधे तेयार करना सबसे अच्छी रीति हैं। बीज मार्च या जुलाई में बो देना चाहिए। वानस्पातिक प्रसारण के लिए सबसे उतम समय जुलाई अगस्त है। पौधे 20 फुट की दूरी पर लगाए जाते हैं। अच्छी उपज के लिए दो सिंचाई जाड़े में तथा तीन सिंचाई गर्मी के दिनों में करनी चाहिए। गोबर की सड़ी हुई खाद या कंपोस्ट, 15 गाड़ी प्रति एकड़ देने से अत्यंत लाभ होता है। स्वस्थ तथा सुंदर आकर का पेड़ प्राप्त करने के लिए आरंभ से ही डालियों की उचित छँटाई (प्रूनिग) करनी चाहिए। पुरानी डालियों में जो नई डालियाँ निकलती हैं उन्हीं पर फूल और फल आते हैं। वर्षा ऋतु में अमरूद के पेड़ फूलते हैं और जाड़े में फल प्राप्त होते हैं। एक पेड़ लगभग 30 वर्ष तक भली भाँति फल देता है और प्रति पेड़ 500 - 600 फल प्राप्त होते हैं। कोड़े तथा रोग से वृक्ष को साधारणत: कोई विशेष हानि नहीं होती ।
भूमि
अमरूद को लगभग प्रत्येक प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है। परंतु अच्छे उत्पादन में उपजाऊ बलुई दोमट भूमि अच्छी रहती है। बलुई भूमि मिटटी 4.5 में पीएच मान तथा चूनायुक्त भूमि में 8.2 पीएच मान पर भी इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। अधिक तापमान 6 से 6.5 पीएच मान पर प्राप्त होता है। कभी कभी क्षारीय भूमि में उकठा रोग के लक्षण नजर आते है। इलाहाबादी सफेदा में 0.35 % खारापन सहन करने कि क्षमता रहती है ।
प्रजातियां
अमरूद की प्रमुख किस्में जो बागवानी के लिए उपयुक्त पायी गयी वे इस प्रकार हैं। इलाहाबादी सफेदा, सरदार 49 लखनऊ, सेबनुमा अमरूद, इलाहाबादी सुरखा, बेहट कोकोनट आदि हैं। इसके अतिरिक्त चित्तीदार, रेड फ्लेस्ड, ढोलका, नासिक धारदार, आदि किस्में हैं। इलाहाबादी सफेदा
बागवानी हेतु उत्तम है। सरदार-49 लखनऊ व्यावसायिक दृष्टि से उत्तम प्रमाणित हो रही है। इलाहाबादी सुरखा अमरूद की नयी किस्म है। यह जाति प्राकृतिक म्युटेंट के रूप में विकसित हुई है।
पौध-रोपण
पौधे लगाने का उचित समय जुलाई-अगस्त है। जहां पर सिंचाई की वयवस्था हो वहां फरवरी मार्च में भी लगाये जा सकते हैं। पौध रोपण से पूर्व भूमि को अच्छी तरह जुताई कर के समतल कर लेना चाहिए। उसके 6.0 गुना 6.0 मीटर की दूरी पर 60 गुना 60 सेमी के 20 से 25 गड्ढों में 1 किलोग्राम सडी हुई गोबर की खाद और आर्गनिक खाद और ऊपरी मिट्टी मिश्रण में मिलाकर गड्ढे को अच्छी तरह से भर देते हैं। इसके बाद खेत की सिंचाई कर देते हैं, जिससे की गड्ढे की मिटटी बैठ जाये। इस प्रकार पौधा लगाने के लिए गड्ढा तैयार हो जाता है। इसके बाद जरूरत के अनुसार गड्ढा खोदकर उसके बीचों बीच लगाकर चारों तरफ से अच्छी प्रकार दबाकर फिर हलकी सिंचाई कर देते हैं।
सिंचाई
पौधे में सिंचाई शरद ऋतु में 15 दिन के अंतर पर तथा गर्मियों में 7 दिन के अंतर पर करते रहना चाहिए। जब कि फल देने वाले पौधे से फल लेने के समय को ध्यान में रखकर सिंचाई करनी चाहिए। उदहारण के लिए बरसात में फसल लेने के लिए गर्मी में सिंचाई की जाती है। जब कि सर्दी में अधिक फल लेने के लिए गर्मी में सिंचाई नहीं करनी चाहिए।
खर-पतवार नियंत्रण
नव स्थापित उडान में 10 से 15 दिन के अंतर पर थालों की निराई-गुडाई करके खर-पतवार को निकलते रहते हैं। जब पौधे बबड़े हो जायें। तब वर्षा ऋतु में बाग की जुताई कर देते हैं। जिससे खर-पतवार नष्ट हो जाते हैं।
कीट नियंत्रण
अमरूद में कीड़े व बीमारी का प्रकोप मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में होता है। जिससे पौधों में वृद्धि तथा फलों की गुणवत्ता दोनों पर बुरा प्रभाव पडता है। अमरूद के पेड में मुख्य रूप से छाल खाने वाले कीड़े, फल छेदक, फल में अंड़े देनेवाली मक्खी, शाखा बेधक आदि कीट लगते हैं। इन कीटों के प्रकोप से बचने के लिए नीम की पत्तियों की उबले पानी का छिडकाव करना चाहिए। आवश्यकता पडने पर कीट लगे पौधे को नष्ट कर देना चाहिए।
रोग नियंत्रण
अमरूद में बीमारियों का प्रकोप मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में होता है, जिससे की पौधों कि वृद्धि तथा फलों की गुणवत्ता दोनों पर बुरा प्रभाव पडता है। अमरूद के प्रमुख रोग उकठा रोग, तना कैंसर आदि हैं। भूमि की नमी भी उकठा रोग को फैलाने में सहायक होती है। रोगी पौधे को तुरंत निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए। तना कैंसर रोग फाइसेलोस्पोरा नामक कवक द्वारा होता है। इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रसित डालियों को काटकर जाला देना चाहिए तथा कटे भाग पर ग्रीस लगा कर बंद कर देना चाहिए।
फलों की तुड़ाई और उपज
फूल आने के लगभग 120-140 दिन बाद फल पकने शुरू हो जाते हैं। जब फलों का रंग हरा से हल्का पीला पडने लगे तब इसकी तुडाई करते हैं। अमरूद की उपज किस्म, देख-रेख और उम्र पर निर्भर होती है। एक पूर्ण विकसित अमरूद के पौधे से प्रतिवर्ष 400 से 600 फल तक प्राप्त होते हैं। जिनका वजन 125 से 150 किलो ग्राम होता है। इसकी भंडारण क्षमता बहुत ही कम होती है। इसलिए इनकी प्रति दिन तुडाई करके बाजार में भेजते रहना चाहिए।
उत्तरी व पूर्वी भारत मे वर्ष मे दो बार फलने एवं पश्चिमी व दक्षिणी भारत मे वर्ष मे तीन बार फल आता है, जिसमे प्रथम प्रकार , दूसरे प्रकार एवं तीसरे प्रकार के फल आते है। भारत मे प्रथम प्रकार जो शरद मौसम में फल देता है वह दूसरे प्रकार एवं तीसरे प्रकार से ज्यादा पसंद किये जाते है क्योंकि अन्य दोनो प्रकार की तुलना मे प्रथम प्रकार के फल गुणवत्ता, स्वाद एवं उपज मे सर्वोत्तम रहते है। फलो की गुणवत्ता के हिसाब से वैसे तो तीसरे प्रकार भी अच्छा रहता है लेकिन इससे उपज कम मिलती है। अतः प्रथम प्रकार मे अधिक फूलों/फलो का उत्पादन, स्वाद एवं गुणवत्तायुक्त फलने प्राप्त करने के लिये वर्षा ऋतु वाली फसल अर्थात दूसरे प्रकार के फूलों का नियंत्रण करना जरूरी हो जाता है क्योंकि इस फसल की गुणवत्ता अच्छी नही रहती एवं बाजार मूल्य भी नही मिल पाता।
प्रकार
| फूल लगने का समय
| फलने का समय
| गुणवत्ता
|
प्रथम प्रकार
| जून-जुलाई (वर्षा ऋतु)
| नवंबर-जनवरी (शरद ऋतु)
| फल उच्च कोटि के मीठे एवं बड़े होते है। उपज अधिक व बाजार मूल्य अधिक प्राप्त होता है। |
दूसरे प्रकार
| फरवरी-मार्च (बसंत ऋतु)
| जुलाई से सितंबर (वर्षा ऋतु)
| फल स्वाद मे कम मीठे एवं गुणवत्ता अच्छी नही रहती है ।
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तीसरे प्रकार
| अक्टूबर-नवंबर (शरद ऋतु)
| फरवरी-अप्रेल (बसंत/ग्रीष्म ऋतु)
| फलों का स्वाद अच्छा लेकिन उपज कम मिलती है।
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बसंत ऋतू के फूलोंं को नियंत्रित करने के लिये विभिन्न प्रकिया
बसंत ऋतू के फूलों को नियंत्रित करने के लिये विभिन्न प्रकिया अपनायी जाती है जो कि निम्नलिखित है-
सिंचाई पानी को रोक कर
इस प्रकिया मे पेड़ों को गर्मी मे (फरवरी- मध्य मई) पानी नही दिया जाता जिससे पत्तियां गिर जाती हैं एवं पेड़ सुसुप्तावस्था मे चले जाते हैं। इस समयावधि मे पेड़ अपनी शाखाओ मे खाघ पदार्थ का संरंक्षण करते है। इसके बाद मध्य मई मे बगीचो की गुड़ाई करके व खाद देने के बाद सिंचाई की जाती है, जिससे 25-30 दिनो बाद प्रथम प्रकार मे अधिक मात्रा मे फूल खिलते एवं शरद ऋतु मे फल तैयार हो जाते है।
जड़ों के पास की मृदा को निकाल कर
इस विधि मे जड़ो के आस-पास की ऊपरी मृदा को अप्रेल-मई मे सावधानी पूर्वक खोदकर बाहर निकाल दिया जाता है। इससे जड़ो को सूर्यप्रकाश अधिक मात्रा मे प्राप्त होता है, जिसके परिणामस्वरूप मृदा मे नमी की कमी हो जाती है एवं पत्तियां गिरने लगती है एवं पेड़ सुसुप्तावस्था मे चले जाते हैं। 20-25 दिनो बाद जड़ों को मिट्टी द्वारा फिर से ढंक दिया जाता है एवं खाद देकर सिंचाई कर दिया जाता है।
पेड़ों को झुकाकर
जिस पेड़ की शाखाएं सीधी रहती है वह बहुत कम फलने देती है अतः ऐसे पेड़ो की सीधी शाखाओ को अप्रेल-जून माह मे झुकाकर जमीन मे बांस या खूंटा गाड़कर रस्सी की सहायता से बांध दिया जाता है एवं शाखाओ की शीर्ष ऊपरी 10-12 जोड़ी पत्तियो को छोड़कर अन्य छोटी-छोटी शाखाओ, पत्तियो, फूलों व फलो को कांट-छांटकर अलग कर दिया जाता है। जिससे झुकाने के बाद मुख्य शाखाओ मे 10-15 दिनो के अंदर सहायक छोटी शाखाएं आ जाती है एवं निष्क्रिय कलियां भी सक्रिय हो जाती है। झुकाने के 40-45 दिनों बाद अधिक मात्रा मे फूल आने लगते है व फलने अच्छी प्राप्त होती है।
फूलोंं को झड़ा कर
इस विधि मे ऐसे प्रकार जिनमे हमे फल नही चाहिये उक्त प्रकार के फूलों के खिलने पर उसे झड़ाने के लिये कुछ वृ़द्धि नियामको जैसे एन।ए।ए (1000 पी.पी.एम), नेप्थिलिन एसिटामाईड (50 पी.पी.एम), 2-4-डी (50-100 पी.पी.एम) एवं यूरिया (10 प्रतिशत) आदि का छिड़काव के रूप मे प्रयोग किया जाता है।
खाद/उर्वरकों का प्रयोग
जून के महीने मे उर्वरकों का प्रयोग करके आने वाले प्रथम प्रकार में फूलोंं की संख्या को बढ़ाया जा सकता है।
अतः इन प्रकियाओ को अपनाकर किसान अच्छी,ज्यादाएवं गुणवत्तायुक्त फलने प्राप्त कर सकता है जिसे बेचकर वह उचित बाजार मूल्य प्राप्त कर सकता है एवं आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो सकता है।
परिचय
पपीते का फल थोड़ा लम्बा व गोलाकार होता है तथा गूदा पीले रंग का होता है। गूदे के बीच में काले रंग के बीज होते हैं। पेड़ के