आम की खेती
आम की खेती लगभग पूरे देश में की जाती है। यह मनुष्य का बहुत ही प्रीय फल मन जाता है इसमें खटास लिए हुए मिठास पाई जाती है। जो की अलग अलग प्रजातियों के मुताबिक फली में कम ज्यादा मिठास पायी जाती है। कच्चे आम से चटनी आचार अनेक प्रकार के पेय के रूप में प्रयोग किया जाता है। इससे जैली जैम सीरप आदि बनाये जाते हैं। यह विटामीन एव बी का अच्छा स्त्रोत है।
भूमि एव जलवायु
आम की खेती उष्ण एव समशीतोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में की जाती है। आम की खेती समुद्र तल से 600 मीटर की ऊँचाई तक सफलता पूर्वक होती है इसके लिए 23.8 से 26.6 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान अति उत्तम होता है। आम की खेती प्रत्येक किस्म की भूमि में की जा सकती है। परन्त अधिक बलुई, पथरीली, क्षारीय तथा जल भराव वाली भूमि में इसे उगाना लाभकारी नहीं है, तथा अच्छे जल निकास वाली दोमट भूमि सवोत्तम मानी जाती है।
उन्नतशील प्रजातियाँ
हमारे देश में उगाई जाने वाली किस्मों में, दशहरी, लगडा, चौसा, फजरी, बाम्बे ग्रीन, अलफांसी, तोतापरी, हिमसागर, किशनभोग, नीलम,
सुवर्णरेखा,
वनराज आदि प्रमुख उन्नतशील प्रजातियाँ है। आम की नयी उकसित किस्मों में मल्लिका, आम्रपाली, दशहरी-५ दशहरी-५१, अम्बिका, गौरव, राजीव, सौरव, रामकेला, तथा रत्ना प्रमुख प्रजातियां हैं।
गढढों की तैयारी और वृक्षों का रोपण
वर्षाकाल आम के पेड़ों को लगाने के लिए सारे देश में उपयुक्त माना गया है। जिन क्षेत्रों में वर्षा आधिक होती है वहां वर्षा के अन्त में आम का बाग लगाना चाहिए। लगभग 50 सेन्टीमीटर व्यास एक मीटर गहरे गढ़े मई माह में खोद कर उनमें लगभग 30 से 40 किलो ग्राम प्रति गढ्ढा सड़ी गोबर की खाद मिटटी में मिलाकर और 100 ग्राम क्लोरोपाइरिफास पाउडर बुरककर गड़ी की भर देना चाहिए। पौधों की किस्म के अनुसार 10 से 12 मीटर पौध से पौध की दूरी होनी चाहिए, परन्तु आम्रपाली किस्म के लिए यह दूरी 2.5 मीटर ही होनी चाहिए।
आम की फसल में प्रवर्धन या प्रोपोगेशन
आम के बीजू पौधे तैयार करने के लिए आम की गुठलियों को जून-जुलाई में बुवाई कर दी जाती है आम की प्रवर्धन की विधियों में भेट कलम, विनियर, साफ्टवुड ग्राफ्टिंग, प्रांकुर कलम, तथा बडिंग प्रमुख हैं, विनियर एवं साफ्टवुड ग्राफ्टिंग द्वारा अच्छे किस्म के पौधे कम समय में तैयार कर लिए जाते हैं।
खाद एवं उर्वरक का प्रयोग
बागी की दस साल की उम्र तक प्रतिवर्ष उम्र के गुणांक में नाइट्रोजन, पोटाश तथा फास्फोरस प्रत्येक को १०० ग्राम प्रति पेड़ जुलाई में पेड़ के चारों तरफ बनायी गयी नाली में देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त मृदा की भौतिक एवं रासायनिक दशा में सुधार हेतु 25 से 30 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद प्रति पौधा देना उचित पाया गया है। जैविक खाद हेतु जुलाई-अगस्त में 250 ग्राम एजीसपाइरिलम को 40 किलोग्राम गोबर की खाद के साथ मिलाकर थाली में डालने से उत्पादन में वृदि पाई गयी है।
सिंचाई
आम की फसल के लिए बाग़ लगाने के प्रथम वर्ष सिंचाई 2-3 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार करनी चाहिए 2 से 5 वर्ष पर 4-5 दिन के अन्तराल पर आवश्यकता अनुसार करनी चहिये। तथा जब पेड़ों में फल लगने लगे तो दो तीन सिंचाई करनी अति आवश्यक है। आम के बागों में पहली सिचाई फल लगने के पश्चात दूसरी सिचाई फली का काँच की गोली के बराबर अवस्था में तथा तीसरी सिचाई फली की पूरी बढ़वार होने पर करनी चाहिए। सिचाई नालियों द्वारा थाली में ही करनी चाहिए जिससे की पानी की बचत हो सके।
फसल में निराईगुड़ाई और खरपतवारों का नियंत्रण
आम के बाग को साफ रखने के लिए निराई गुड़ाई तथा बागों में वर्ष में दो बार जुताई कर देना चाहिए इससे खरपतवार तथा भूमिगत कीट नष्ट हो जाते हैं इसके साथ ही साथ समय समय पर घास निकलते रहना चाहिए।
रोग और उसका नियंत्रण
आम के रोगों का प्रबन्धन कई प्रकार से करते है। जैसे की पहला आम के बाग में पावडरी मिल्डयू यह एक बीमारी लगती है इसी प्रकार से खर्रा या दहिया रोग भी लगता है इनसे बचाने के लिए घुलनशील गंधक 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में या ट्राईमार्फ़ 1 मिली प्रति लीटर पानी या डाईनोकैप 1 मिली प्रति लीटर पानी घोलकर प्रथम छिड़काव बौर आने के तुरन्त बाद दूसरा छिड़काव 10 से 15 दिन बाद तथा तीसरा छिड़काव उसके 10 से 15 दिन बाद करना चाहिए आम की फसल की एन्थ्रक्नोज फोमा ब्लाइट डाईबैक तथा रेडरस्ट से बचाव के लिए कापर आक्सीक्लोराईड 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तरालपर वर्षा ऋतु प्रारंभ होने पर दो छिड़काव तथा अक्टूबर-नवम्वर में 2-3 छिड़काव करना चाहिए। जिससे की हमारे आम के बौर आने में कोई परेशानी न हो। इसी प्रकार से आम में गुम्मा विकार या माल्फमेंशन भी बीमारी लगती है इसके उपचार के लिए कम प्रकोप वाले आम के बागो में जनवरी फरवरी माह में बौर को तोड़ दें एवम अधिक प्रकोप होने पर एन.ए.ए. 200 पी.पी.एम रसायन की 900 मिली प्रति 200 लीटर पानी घोलकर छिड़काव करना चहिये। इसके साथ ही साथ आम के बागो में कोयलिया रोग भी लगता है। जिसको किसान भाई सभी आप लोग जानते हैं इसके नियंत्रण के लिए बोरेक्स या कास्टिक सोडा 10 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर प्रथम छिड़काव फल लगने पर तथा दूसरा छिड़काव 15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए जिससे की कोयलिया रोग से हमारे फल खराब न हो सके।
कीट और उनका नियंत्रण
आम में भुनगा फुदका कोट, गुझिया कोट, आम के छल खाने वाली सुंडी तथा तना भेदक कीट, आम में डासी मक्खी ये कीट है। आम की फसल की फुदका कीट से बचाव के लिए एमिडाक्लोरपिड 0.3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर प्रथम छिड़काव फूल खिलने से पहले करते है। दूसरा छिड़काव जब फल मटर के दाने के बराबर हो जाये, तब कार्बरिल 4 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलकर छिड़काव करना चाहिए। इसी प्रकार से आम की फसल की गुझिया कीट से बचाव के लिए दिसंबर माह के प्रथम सप्ताह में आम के तने के चारों ओर गहरी जुताई करे, तथा क्लोरोपईरीफ़ास चूर्ण 200 ग्राम प्रति पेड़ तने के चारो बुरक दे, यदि कीट पेड़ पर चढ़ गए हो तो एमिडाक्लोरपिड 0.3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर जनवरी माह में 2 छिड़काव 15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए तथा आम के छाल खाने वाली सुंडी तथा तना भेदक कीट के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटीफास 0.5 प्रतिशत रसायन के घोल में रूई को भिगोकर तने में किये गए छेद में डालकर छेद बंद कर देना चाहिए। एस प्रकार से ये सुंडी खत्म हो जाती है। आम की डासी मक्खी के नियंत्रण के लिए मिथाईलयूजीनाल ट्रैप का प्रयोग प्लाई लकड़ी के टुकडे की अल्कोहल मिथाईल एवम मैलाथियान के छ: अनुपात चार अनुपात एक के अनुपात में घोल में 48 घंटे डुबोने के पश्चात पेड़ पर लटकाए ट्रैप मई के प्रथम सप्ताह में लटका दें तथा ट्रैप को दो माह बाद बदल दें।
फसल की तुड़ाई
आम की परिपक्व फली की तुड़ाई 8 से 10 मिमी लम्बी डंठल के साथ करनी चाहिए, जिससे फली पर स्टेम राट बीमारी लगने का खतरा नहीं रहता है। तुड़ाई के समय फली की चोट व खरोच न लगने दें, तथा मिटटी के सम्पर्क से बचायें। आम के फली का श्रेणीक्रम उनकी प्रजाति, आकार, भार, रंग व परिपत्ता के आधार पर करना चाहिए।
औसतन उपज
रोगों एवं कीटी के पूरे प्रबंधन पर प्रति पेड़ लगभग 150 किलोग्राम से 200 किलोग्राम तक उपज प्राप्त हो सकती है। लेकिन प्रजातियों के आधार पर यह पैदावार अलग-अलग पाई गयी है।
स्त्रोत: कृषि विज्ञान केंद्र,बिस्वान तहसील,जिला-सीतापुर,उत्तरप्रदेश
सेब का खेती क्षेत्र
प्राथमिक तौर पर सेब की खेती जम्मू एवं कश्मीर हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड की पहाड़ियों में की जाती है। कुछ हद तक इसकी खेती अरूणाचल प्रदेश, नगालैंड, पंजाब और सिक्किम में भी की जाती है।
वानस्पतिक नाम - मैलस प्यूपमिला
परिवार - रोसासिए
पौधा विवरण
यह एक गोलाकार पेड़ होता है जो सामान्य तौर पर 15 मी. ऊंचा होता है। ये पेड़ जोरदार और फैले हुए होते हैं। पत्ते ज्या दातर लघु अंकुरों या स्पूर्स पर गुच्छेदार होते हैं। सफेद फूल भी स्पेर्स पर उगते हैं।
उत्पति केन्द्र - पूर्वी यूरोप और पश्चिमी एशिया
परागण प्रणाली - संकर परागणित
गुणसूत्र सं. - 2n=34
सेब का पोषण स्तर
नमी (%) | प्रोटीन (%)
| वसा (%) | खनिज तत्व (%)
| फाइबर (%) | कार्बोहाइड्रेट(%) | कैलोरी (के कैल.)
|
84.6
| 0.2
| 0.5
| 0.3
| 1 | 13.4
| 59 |
खनिज | ||||||
फास्फोरस (मि.ग्रा./100ग्रा.) | पोटाशियम (मि.ग्रा. /100ग्रा.)
| कैल्शियम (मि.ग्रा./ 100ग्रा.)
| मैग्नीयशियम (मि.ग्रा./ 100ग्रा.)
| आयरन (मि.ग्रा./ 100ग्रा.)
| सोडियम (मि.ग्रा./ 100ग्रा.) | तांबा (मि.ग्रा. /100ग्रा.)
|
14 | 75 | 10
| 7 | 0.66 | 28
| 0.1
|
मैंगनीज (मि.ग्रा./100ग्रा.) | जिंक (मि.ग्रा. /100ग्रा.)
| सल्फर (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| क्लोरिन (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| मोलिबलम(मि.ग्रा./100ग्रा.)
| क्रोमलम (मि.ग्रा./ 100ग्रा.) | |
0.14 | 0.06
| 7 | 1 | 0 | 0.008
| |
विटामिन | ||||||
कारोटिन (मि.ग्रा./100ग्रा.) | थलामिन (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| रलबोफलविन (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| नलासिन (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| विटामिन सी (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| कोलेन (मि.ग्रा./100ग्रा.)
| फोलिक एसिड मुक्त (मि.ग्रा./100ग्रा.)
|
0 | 0 | 0 | 0 | 0 | 321 | 0 |
फोलिक एसिड - जोड़ | ||||||
0 |
सेब फसल की कटाई
आमतौर पर सेब सितम्बर -अक्तूबर से फसल-कटाई के लिए तैयार होते हैं लेकिन नीलगिरि में ऐसा नहीं होता है जहां मौसम अप्रैल से जुलाई होता है। विकसित की गई किस्म पर निर्भर करते हुए पूर्ण पुष्प पुंज अवस्था के बाद 130-135 दिनों के भीतर फल परिपक्व होते हैं। फलों का परिपक्व रंग में परिवर्तन , बनावट, गुणवत्ता और विशेष स्वाद के विकास से जुड़ा होता है। फसल-कटाई के समय फल एकसमान , ठोस और भुरमुरा होने चाहिएं। परिपक्वन के समय त्वचा का रंग किस्म। पर निर्भर करते हुए पीला-लाल के बीच होना चाहिए। तथापि फसल-कटाई का सर्वोत्तम समय फल की गुणवत्ता और भंडारण की अभीष्ट अवधि पर निर्भर करता है। इर्राफ रूटस्टाएक की शुरूआत की वजह से, हाथ से चुनाई की सिफारिश की गई है क्योंकि इससे अभियांत्रिक फसल-कटाई के दौरान फल गिरने की वज़ह से ब्रूजिंग में कमी आएगी।
पैदावार
सेब के पेड़ पर चौथे वर्ष से फल लगने शुरू होते हैं। किस्म और मौसम पर निर्भर करते हुए, एक सुप्रबंधित सेब का बगीचा औसतन 10-20 कि.ग्रा./पेड़/वर्ष की पैदावार देता है।
लीची की वैज्ञानिक खेती
परिचय
बिहार का लीची उत्पादन के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान है। यहाँ देश को सर्वोत्कृष्ट लीची पैदा होती है। भारत में लीची के अंतर्गत कुल क्षेत्र का आधा से अधिक भाग इसी राज्य खासकर इसके उत्तरी हिस्से (मुजफ्फरपुर, वैशाली, चम्पारण एवं समस्तीपुर) में स्थित है। आज इस राज्य में करीब 25,000 हेक्टेयर क्षेत्र में लीची के बाग़ हैं।
लीची के ताजे फल में 70 प्रतिशत भाग गुद्दा का होता है, जो खाने में स्वादिष्ट एवं मीठा होता है। इसमें चीनी 10-15 प्रतिशत तथा प्रोटीन 1.1 प्रतिशत होती है। यह विटामिन ‘सी’ का अच्छा स्रोत है।
जलवायु
लीची की फसल बागवानी के लिए आर्द्र जलवायु उपयुक्त है। वर्षा की कमी में भी आर्द्र जलवायु वाले क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है। इसके लिए हर दृष्टिकोण से उत्तरी बिहार उपयुक्त क्षेत्र है।
मिट्टी
लीची विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में सफलतापूर्वक उगायी जा सकती है, परन्तु इसके लिए दोमट अथवाबलुवाही दोमट मिट्टी, जिसका जलस्तर 2 से 3 मीटर नीचे हो, उपयुक्त समझी जाती है। भूमि काफी उपजाऊ, गहरी एवं उत्तम जल निकास वाली होनी चाहिए। इसके लिए हल्की क्षारीय एवं उदासीन मिट्टी अधिक उपयुक्त समझी जाती है।
लीची की जड़ों में लीची माइकोराईजा नामक फफूंद पाये जाते है। ये फफूंद अपना भोजन पेड़ से प्राप्त करते है एवं बदले में पेड़ों के लिए खाद्य पदार्थ तैयार करते है। साथ-ही-साथ ये कुछ अप्राप्य पोषक तत्वों को भी प्राप्य रूप में परिवर्तित कर देती है जिससे पेड़ों की वृद्धि अच्छी होती है एवं फल अधिक लगते हैं। अत: पौधा लगाते समय फरानी लीची के पौधों की जजड़ के पास की थोड़ी मिट्टी का व्यवहार करना चाहिए।
नया बाग़ लगाना
अप्रैल के शुरू में जमीन का चुनाव कर दो-तीन बार जुताई कर समतल कर दें। लीची का बाग़ वर्गाकार पद्धति में लगायें अर्थात वृक्षों की कतारों तथा हर कतार में दो वृक्षों के बीच की दूरी बराबर हो। मई के प्रथम या द्वितीय सप्ताह में 9 या 10 मी. की दूरी पर 90 से.मी. व्यास एवं 90 सें.मी. गहराई वाले गड्ढ़े खोदकर खुला छोड़ दें।
जून के द्वितीय सप्ताह में निम्नलिखित खाद गड्ढ़े से निकाली गई मिट्टी में मिलाकर पुन: गड्ढ़े में भर दें।
कम्पोस्ट : 40 किलोग्राम
चूना (जहाँ चूने की कमी हो) : 2-3 किलोग्राम
सिंगल सुपर फास्फेट : 2-3 किलोग्राम
मयूरियेट ऑफ़ पोटाश : 1 किलोग्राम
थीमेट : 50 ग्राम
किस्में
मन पसंद किस्मों का चुनाव कर पौधे जून-जुलाई में लगायें। 1-2 वर्ष उम्र के गुट्टी द्वारा तैयार किये गये भरपूर जड़ वाले स्वस्थ पौधों का चुनाव करें। बाग़ में लीची की विभिन्न किस्में जिससे फल शुरू से अंत तक मिलते रहें। गड्ढ़े की मिट्टी बैठने पर ही पौधे लगायें। पौधे लगाने के बाद जड़ की बगल में मिट्टी अच्छी तरह भर दे एवं शीघ्र सिंचाई कर दें। अगर वर्षा नही हो तो हर 3-4 दिनों के अंतर पर पानी दें।
बगीचे की देखभाल
खाद एवं उर्वरक
प्राय: लीची 5-6 वर्षो में फूलने लगती है, लेकिन अच्छी फसल 9-10 वर्षो के बाद मिलती है। खाद देने का उपयुक्त समय वर्षा ऋतु का आरम्भ है। वृक्ष रोपने के बाद तालिका 1 में बतायी गई मात्रा के अनुसार खाद डालें।
ऐसी मिट्टी में जहाँ जस्ते की कमी होती है और पत्तियों का रंग काँसे का सा होने लगता है, वृक्षों पर 4 किलो जिंक सल्फेट तथा 2 किलो बुझे चूने का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
पौधों का आकार
प्रारम्भिक अवस्था में पौधों को अच्छा आकार देने की दृष्टि से शाखाओं को समुचित दूरी पर व्यवस्थित करने हेतु छंटाई करें जिससे पौधों को सूर्य की रोशनी एवं हवा अच्छी तरह मिल सके।
तालिका 1: लीची के लिए खाद की मात्रा
खाद का नाम |
प्रथम वर्ष |
प्रतिवर्ष बढ़ाने वाली मात्रा (5-6 वर्ष तक) |
प्रौढ़ वश्क्ष के लिए खाद की मात्रा |
कम्पोस्ट या सड़ी खाद |
20 किलो |
10 किलो |
60 किलो |
अंडी की खल्ली |
1 किलो |
½ किलो |
5 किलो |
नीम की खल्ली |
½ किलो |
½ किलो |
3 किलो |
सिंगल सुपर फास्फेट |
½ किलो |
¼ किलो |
5 किलो |
मयूरियेट ऑफ़ पोटाश |
100 ग्राम |
50 ग्राम |
1 किलो |
कैल्सियम अमोनियम नाइट्रेट |
- |
½ किलो |
4 किलो |
फूलते हुए वृक्षों में किये जाने वाले कार्य
कटाई-छंटाई
साधारणत: लीची में किसी प्रकार की कटाई-छंटाई की आवश्यकता नहीं होती है। फल तोड़ने समय लीची के गुच्छे के साथ टहनी का भाग भी तोड़ लिया जाता है। इस तरह इसकी हल्की कांट-छांट अपने आप हो जाती है। ऐसा करने से अगले साल शाखाओं की वृद्धि ठीक होती है और नयी शाखाओं में फूल-फल भी अच्छे लगते है। घनी, रोग एवं कीटग्रस्त, आपस में रगड़ खाने वाली, सूखी एवं अवांछित डालो की छंटाई करते रहें।
फलों का फटना
लीची की कुछ अगात किस्मों, जैसे शाही, रोजसेंटेड, पूर्वी आदि में फल पकने के समय फट जाते है जिससे इनका बाजार भाव कम हो जाता है। लीची की सफल खेती में फल फटने की समस्या अत्यंत घातक है। इसके लिए निम्न उपचार करे: 1. फल लगने के बाद पेड़ों के नजदीक नमी बनायें रखे। 2. जब फल लौंग के आकार के हो जाएं तब नेफ्थेलीन एसीटीक नामक वृद्धि नियामक के 20 पी.पी.एम. घोल का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें। इससे फल कम गिरेगे एवं नहीं फटेंगे।
फलन एवं आय
प्राय: 5-6 वर्ष बाद फूल लगना आरम्भ हो जाता है। फल तैयार हो जाने पर इसे गुच्छे में तोड़ें और अच्छी तरह पैकिंग कर बाजार में भेजें। प्रत्येक वृक्ष से 4000 से 6000 तक फल प्राप्त होते है। लीची में अनियमित फलन की समस्या आम की तरह गंभीर नहीं है। अत: इसकी खेती से हर साल आय मिलती रहती है। लीची के बागों से प्रतिवर्ष औसतन 50,000 से 60,000 रूपये प्रति हेक्टेयर की आमदनी होती है।
औद्योगिक दृष्टिकोण
लीची के फलों से जैम, शरबत, डिब्बा-बंदी एवं सुखौता आदि तैयार किया जा सकता है। पर्याप्त लीची फलों का उत्पादन बढ़ाकर उत्तर बिहार में लीची पर आधारित उद्योग खड़े किये जा सकते है एवं इनका निर्यात कर विदेशी मुद्रा का अर्जन किया जा सकता है।
लीची से संबंधित एक महत्वपूर्ण उद्योग मधुमक्खी पालन है। लीची के बाग़ के मधु का मूल्य साधारण मधु से अधिक होता है। लीची के बाग़ में मधुमक्खी पालने से फूलों के परागण में काफी सहायता मिलता है जिससे अधिक फल प्राप्त होते हैं।
कीड़ों एवं रोगों की रोकथाम
(क) लीची माइट: इस सूक्ष्म कीट द्वारा रस चूसने पर पत्तियाँ सिकुड़ जाती हैं और उनकी निचली सतह पर लाल मखमली गद्दा बन जाता है। आक्रान्त पत्तियाँ मिलकर गुच्छे बना लेती है।
नियंत्रण
(ख) धड़छेदक: लीची वृक्ष के तना तथा शाखाओं के अंदर ये कीड़े रहते हैं और स्थान-स्थान पर छेद से इन्हें पहचाना जा सकता है।
नियंत्रण
(ग) फल एवं पत्तीछेदक: यह कोमल पत्तियों की दोनों सतहों को बीच से खाता है एवं टहनियों में छेद कर देता है। फलस्वरूप कोमल टहनियाँ मुरझाकर लटक जाती है। पिल्लू निकलते ही फल में छेद कर देता है जिससे कच्चा फल पेड़ से टूटकर नीचे गिर जाता है।
नियंत्रण
(घ) लीचेन: वृक्ष के तनों तथा शाखाओं पर सफेद या हरे रंग का कई जैसा लीचेन लगता है। जुलाई-अगस्त में एक बार कास्टिक सोडा का 1 प्रतिशत (1 लीटर पानी में 10 ग्राम) घोल बनाकर ग्रसित अंगों पर छिडकें।
(ङ) गमोसिस: विशेषकर बाढ़ के इलाकों में शाखाओं की छाल फटकर रस निकालती हैं जो बाद में काली गोद जैसा हो जाता है। ग्रसित स्थान के आसपास की छाल छीलकर हटा दें। कटे स्थान पर ब्लाइटांक्स का पेस्ट बनाकर लेप दें। बगीचे से पानी का निकास ठीक रखें।
निर्यात से संबंधित कुछ आवश्यक निर्देश
बिहार राज्य के अंतर्गत फलों का क्षेत्रफल, उत्पादन एवं उत्पादकता
क्रसं |
|
वर्ष 2005-06 |
वर्ष 2006-07 |
वर्ष 2007-08 |
वर्ष 2009 – 010 |
||||||||
|
|
क्षेत्रफल हे. |
उत्पादन टन |
उत्पादकता टन/हे. |
क्षेत्रफल हे. |
उत्पादन टन |
उत्पाद्का टन/हे. |
क्षेत्रफल हे. |
उत्पादन टन |
उत्पाद्का टन/हे. |
क्षेत्रफल हे. |
उत्पादन टन |
उत्पाद्का टन/हे. |
1 |
आम |
140221 |
12222727 |
8.72 |
140786 |
1306944 |
9.28 |
142.21 |
870.35 |
6.12 |
146032 |
995938 |
6.81 |
2 |
अमरुद |
27709 |
198951 |
7.18 |
27994 |
247960 |
8.86 |
82.67 |
255.72 |
8.92 |
292260 |
231478 |
7.92 |
3 |
लीची |
28428 |
200133 |
7.04 |
28758 |
211905 |
7.37 |
29.84 |
223.23 |
7.48 |
30602 |
215132 |
7.03 |
4 |
नींबू |
16844 |
112349 |
6.67 |
17122 |
121601 |
7.12 |
17.57 |
125.84 |
7.16 |
17853 |
131219 |
7.35 |
5 |
केला |
28042 |
959317 |
34.21 |
29013 |
1125099 |
38.78 |
30.46 |
1329.36 |
43.64 |
31456 |
1435337 |
45.63 |
6 |
अन्नास |
4227 |
107958 |
25.54 |
4454 |
121057 |
27.18 |
44.64 |
126.77 |
27.31 |
4737 |
124962 |
26.38 |
7 |
नारियल |
15166 |
123755 |
8.16 |
- |
- |
- |
15.19 |
7755.54 |
51.03 |
15226 |
780028 |
51.23 |
8 |
अन्य |
30973 |
266987 |
8.62 |
29014 |
255894 |
8.80 |
30.25 |
278.65 |
9.21 |
30717 |
281693 |
9.71 |
केले की खेती
केला भारत वर्ष का प्राचीनतम स्वादिष्ट पौष्टिक पाचक एवं लोकप्रीय फल है अपने देश में प्राय: हर गाँव में केले के पेड़ पाए जाते हैं। इसमें शर्करा एवं खनिज लवण जैसे कैल्सियम तथा फास्फोरस प्रचुर मात्रा में पाए जाता है। फली का उपयोग पकने पर खाने हेतु कच्चा सब्जी बनाने के आलावा आटा बनाने तथा चिप्स बनाने के कम आते हैं। इसकी खेती लगभग पूरे भारत वर्ष में की जाती है।
जलवायु एवं भूमि की आवश्यकता
गर्मतर एवं सम जलवायु केला की खेती के लिए उत्तम होती है अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में केला की खेती सफल रहती है। जीवांश युक्त दोमट एवम मटियार दोमट भूमि जिससे जल निकास उत्तम ही उपयुक्त मानी जाती है भूमि का पी एच मान 6-7.5 तक इसकी खेती के लिए उपयुक्त होता है।
प्रजातियाँ
उन्नतशील प्रजातियाँ केले की दो प्रकार की पाई जाती है फल खाने वाली किस्मों में गूदा मुलायम, मीठा तथा स्टार्च रहित सुवासित होता है। जैसे कि बसराईड्वार्फ हरी छालसालभोग,अल्पानरोवस्ट तथा पुवन इत्यादि प्रजातियाँ हैं। दूसरा है सब्जी बनाने वाली इन किस्मों में गुदा कड़ा स्टार्च युक्त तथा फल मोटे होते है जैसे कोठियाबत्तीसा, मुनथन एवं कैम्पिरगंज है।
खेत की तैयारी
खेत की तैयारी समतल खेत को 4-5 गहरी जुताई करके भुर भूरा बना लेना चाहिए उत्तरप्रदेश में मई माह में खेत की तैयारी कर लेनी चाहिए इसके बाद समतल खेत में लाइनों में गढढे तैयार करके रोपाई की जाती है।
रोपाई हेतु गढढे की तैयारी
खेत की तैयारी के बाद लाइनों में गढढ़े किस्मों के आधार पर बनाए जाते हैं जैसे हरी छाल के लिए 1.5 मीटर लम्बा 1.5 मीटर चौड़ा के तथा सब्जी के लिए 2-3 मीटर की दूरी पर 50 सेंटीमीटर लम्बा 50 सेंटीमीटर चौड़ा 50 सेंटीमीटर गहरा गढढे मई के माह में खोदकर डाल दिये जाते हैं। 15-20 दिन खुला छोड़ दिया जाता है जिससे धूप आदि अच्छी तरह लग जाए इसके बाद 20-25 किग्रा गोबर की खाद 50 ई.सी. क्लोरोपाइरीफास 3 मिली० एवं 5 लीटर पानी तथा आवश्यकतानुसार ऊपर की मिट्टी के साथ मिलाकर गढ़ढे को भर देना चाहिए गढ़ढों में पानी लगा देना चाहिए।
पौध की रोपाई
पौध रोपण में केले का रोपण पुतियों द्वारा किया जाता है, तीन माह की तलवार नुमा पुतियाँ जिनमें घनकन्द पूर्ण विकसित ही का प्रयोग किया जाता है पुतियों का रोपण 15-30 जून तक किया जाता है इन पुतियों की पत्तियां काटकर रोपाई तैयार गढ़ढी में करनी चाहिए रोपाई के बाद पानी लगाना आवश्यक है।
खाद एवं उर्वरक का प्रयोग
भूमि के उर्वरता के अनुसार प्रति पौधा 300 ग्राम नत्रजन 100 ग्राम फास्फोरस तथा 300 ग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है फास्फोरस की आधी मात्रा पौध रोपण के समय तथा शेष आधी मात्रा रोपाई के बाद देनी चाहिए नत्रजन की पूरी मात्रा ५ भागों में बाँटकर अगस्त, सितम्बर अक्टूबर तथा फरवरी एवं अप्रैल में देनी चाहिए पोटाश की पूरी मात्रा तीन भागों में बाँटकर सितम्बर,अक्टूबर एवं अप्रैल में देना चाहिए।
सिंचाई
केले के बाग में नमी बनी रहनी चाहिए पौध रोपण के बाद सिचाई करना अति आवश्यक है। आवश्यकतानुसार ग्रीष्म ऋतु 7 से 10 दिन के तथा शीतकाल में 12 से 15 दिन अक्टूबर से फरवरी तक के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए मार्च से जून तक यदि केले के थाली पर पुवाल गने की पत्ती अथवा पालीथीन आदि के बिछा देने से नमी सुरक्षित रहती है, सिचाई की मात्रा भी आधी रह जाती है साथ ही फलोत्पादन एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
निराई-गुड़ाई
केले की फसल के खेत को स्वच्छ रखने के लिए आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए पौधों को हवा एवं धूप आदि अच्छी तरह से निराई गुड़ाई करने पर मिलता रहता है जिससे फसल अच्छी तरह से चलती है और फल अच्छे आते हैं।
खेती में मलिचग
केले के खेत में प्रयाप्त नमी बनी रहनी चाहिए, केले के थाले में पुवाल अथवा गने की पत्ती की 8 से 10 सेमी० मोटी पर्त बिछा देनी चाहिए इससे सिचाई कम करनी पड़ती है खरपतवार भी कम या नहीं उगते है।भूमि की उर्वरता शक्ति बढ़ जाती है साथ ही साथ उपज भी बढ़ जाती है तथा फूल एवं फल एक साथ आ जाते हैं।
केले की कटाई छटाई और सहारा देना
केले के रोपण के दो माह के अन्दर ही बगल से नई पुतियाँ निकल आती है इन पुतियों को समय-समय पर काटकर निकलते रहना चाहिए रोपण के दो माह बाद मिट्टी से 30 सेमी० व्यास की 25 सेमी० ऊँचा चबूतरा नुमा आकृति बना देनी चाहिए इससे पौधे की सहारा मिल जाता है साथ ही बांसों को कैंची बना कर पौधों की दोनों तरफ से सहारा देना चाहिए जिससे की पौधे गिर न सकें।
रोगों का नियंत्रण
केले की फसल में कई रोग कवक एवं विषाणु के द्वारा लगते हैं जैसे पर्ण चित्ती या लीफ स्पॉट गुच्छा शीर्ष या बन्ची टापएन्ध्रक्नोज एवं तनागलन हर्टराट आदि लगते हैं नियंत्रण के लिए ताम्रयुक्त रसायन जैसे कापर आक्सीक्लोराइट 0.3% का छिड़काव करना चाहिए या मोनोक्रोटोफास 1.25 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के साथ छिड़काव करना चाहिए।
कीट नियंत्रण
केले में कई कीट लगते हैं जैसे केले का पत्ती बीटिल (बनाना बीटिल)तना बीटिल आदि लगते हैं। नियंत्रण के लिए मिथाइल ओ-डीमेटान 25 ई सी 1.25 मिली० प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए या कारबोफ्युरान अथवा फोरेट या थिमेट 10 जी दानेदार कीटनाशी प्रति पौधा 25 ग्राम प्रयोग करना चाहिए।
कटाई
केले में फूल निकलने के बाद लगभग 25-30 दिन में फलियाँ निकल आती हैं पूरी फलियाँ निकलने के बाद घार के अगले भाग से नर फूल काट देना चाहिए और पूरी फलियाँ निकलने के बाद 100-140 दिन बाद फल तैयार ही जाते हैं जब फलियाँ की चारों घरियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई लेकर पीली होने लगे तो फल पूर्ण विकसित होकर पकने लगते हैं इस दशा पर तेज धार वाले चाकू आदि के द्वारा घार को काटकर पौधे से अलग कर लेना चाहिए।
पकाने की विधि
केले को पकाने के लिए घार को किसी बन्द कमरे में रखकर केले की पत्तियों से ढक देते हैं एक कोने में उपले अथवा अगीठी जलाकर रख देते हैं और कमरे को मिट्टी से सील बन्द कर देते हैं यह लगभग 48 से 72 घण्टे में कमरे केला पककर तैयार हो जाता है।
पैदावर
सभी तकनीकी तरीके अपनाने से की गई केले की खेती से 300 से 400 कुन्तल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
नाशपाती की खेती
नाशपाती की खेती भारत में ऊँचे पर्वतीय क्षेत्र से लेकर घाटी, तराई और भावर क्षेत्र तक में की जाती है| नाशपाती के फल खाने में कुरकुरे, रसदार और स्वदिष्ट होते हैं| इसके फल में पौषक तत्व प्रचुर मात्रा में होते है| यह सयंमी क्षेत्रों का महत्वपूर्ण फल है| नाशपाती की खेती भारत में अधिकतर हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश और कम सर्दी वाली किस्मों की खेती उप-उष्ण क्षेत्रों में की जा सकती है| कृषकों को नाशपाती की खेती वैज्ञानिक तकनीक से करनी चाहिए| ताकि उनको इसकी फसल से अधिकतम और गुणवत्तायुक्त उत्पादन प्राप्त हो सके| इस लेख में नाशपाती की वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी कैसे करें की पूरी जानकारी का उल्लेख किया गया है|
नाशपाती की खेती या बागवानी लगभग पूरे देश में गर्म आर्द्र उपोष्ण मैदानी क्षेत्रों से लेकर शुष्क शीतोष्ण ऊँचाई वाले क्षेत्रों में बिना किसी बाधा के की जा सकती है| नाशपाती समुद्रतल से लगभग 600 मीटर से 2700 मीटर तक इसका फल उत्पादन सम्भव है| इसके लिए 500 से 1500 घण्टे शीत तापमान 7 डिग्री सेल्सियस से नीचे होना आवश्यक है|
निचले क्षेत्रों में इसकी बागबानी की सम्भावना उत्तर से पूर्व दिशा वाले क्षेत्रों में और ऊँचाई वाले दक्षिण से पश्चिम दिशा के क्षेत्रों में अधिक है| सर्दी में पड़ने वाले पाले, कोहरे और ठण्ड से इसके फूलों को भारी क्षति पहुँचती है| इसके फूल 3.50 सेल्सियस से कम तापमान पर मर जाते हैं|
भूमि का चयन
नाशपाती की खेती के लिए मध्यम बनावट वाली ब्लुई दोमट तथा गहरी मिट्टी की आवश्यकता होती है| जिसमें जल निकास सरलता से हो| दूसरे पर्णपाती फल पौधों की अपेक्षा नाशपाती के पौधे चिकनी और अधिक पानी वाली भूमि पर भी उगाये जा सकते हैं, परन्तु पौधों की जड़ों की अच्छी बढ़ौतरी के लिए मिट्टी दो मीटर गहराई तक पथरीली या कंकर वाली नहीं होनी चाहिए|
नाशपाती की खेती के लिए व्यावसायिक तौर पर अनुमोदित ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों की किस्में इस प्रकार है, जैसे-
अगेती किस्में- अर्ली चाईना, लेक्सटन सुपर्ब, थम्ब पियर, शिनसुई, कोसुई और सीनसेकी आदि|
मध्यम किस्में- बारटलैट, रैड बारटलैट, मैक्स-रैड बारटलैट, कलैप्स फेवरट, फ्लैमिश ब्यूटी (परागण) और स्टारक्रिमसन आदि|
पछेती किस्में- कान्फ्रेन्स (परागण), डायने डयूकोमिस, काश्मीरी नाशपाती और विन्टर नेलिस आदि|
मध्यवर्ती, निचले क्षेत्र व घटियों हेतु- पत्थर नाख, कीफर (परागण), चाईना नाशपाती, गोला, होसुई, पंत पीयर-18, विक्टोरिया और पंत पियर-3 आदि|
नाशपाती की प्रमुख किस्मों का वर्णन इस प्रकार है, जैसे-
अर्ली चाईना- सभी किस्मों से पहले पकने वाली किस्म, पौधों की बढ़ौतरी मध्यम रूप से, ऊपरी भाग फैलावदार, फल छोटे और गोल आकार वाले, मीठे व कम भण्डारण क्षमता वाले, जून महीने में फल पक कर तैयार हो जाती है|
लेक्सटन सुपर्ब- फल लम्बूतरा, खुरदरा, पतला तथा पीले के साथ-साथ हरे रंग के छिलके वाला, मीठा, रसदार तथा उत्तम गुणवत्ता वाला, पौधे की बढ़ौतरी मध्यम तथा ऊपरी भाग फैलावदार, अधिक पैदावार देने वाली किस्म किस्म है|
बारटलैट- सर्वाधिक लोकप्रिय व्यावसायिक किस्म, फल बड़े आकार वाला, छिलका पतला साफ पीले रंग का, कोमल, गूदा उत्तम श्रेणी का, बहुत रसीला, खुशबूदार, पौधे अधिक पैदावार देने वाले, मध्यम आकार के होते है|
रैड बारटलैट- नाशपाती का मध्यम से बड़े आकार का फल, गूदा सफेद रंग का, रसीला, कुरकुरा, खुशबूदार, घुलने वाला, नरम, जून के अन्तिम सप्ताह से मध्यम जुलाई तक पकने वाली किस्म, व्यापारिक स्तर पर अधिक लाभदायक, पौधे की वृद्धि दर मध्यम, मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में भी उगाने योग्य किस्म है|
मैक्स रैड बारटलैट- फल उत्तम गुणवत्ता वाला, रसीला, गूदा सफेद, लालिमा युक्त, बारटलैट की सुधरी किस्म किस्म है|
कलैप्स फेवरट- बारटलैट की तरह बड़े आकार का फल, नीम्बू की तरह पीला, भूरे बिन्दुओं वाला, गूदा उत्कृष्ट, चिकना, सुगन्धी वाला व मीठा, पेड़ बड़े आकार का और बहुफलदायक है|
फ्लेमिश ब्यूटी- नाशपाती के फल बड़े आकार के, एक समान गोलाकार, स्वादिष्ट, फल का रंग साफ, पीला, ऊपर से लालिमा युक्त बिन्दुओं वाला, पौधे की शाखायें नीचे की ओर झुकी, फैलावदार, अच्छे उत्पादन वाली किस्म, सितम्बर में पककर तैयार होती है|
स्टारक्रिमसन- फल मध्यम आकार का, आकर्षित लाल रंग का, अधिक समय तक रखने पर कलेजी रंग का, गूदा सफेद एवं नरम, मीठा, फल जुलाई के दूसरे सप्ताह में पक कर तैयार, पौधे ओजस्वी, मध्य पर्वतीय क्षेत्रों के लिए अनुकूल किस्म है|
कान्फ्रेन्स- नाशपाती का मध्य आकार का फल, छिलका हरा, पकने पर पीला, गूदा सफेद हल्के गुलाबी रंग का, मीठा, रसदार, अच्छी सुगन्ध वाला, पौधे की शाखायें ऊपर की ओर फैलावदार, बढ़ौतरी मध्यम होती है|
डायने डयूकोमिस- इस किस्म का फल आयताकार, थोड़ी गोलाई वाला, छिलका खुरदरा, दानेदार, पीले रंग का थोड़ा गेहूँआ रंग वाला, गूदा मीठा, स्वादिष्ट, सुगंधित, कोमल, रसीला, पेड़ की वृद्धि दर मध्यम, पेड़ ऊपर की ओर सीधे बढ़ने वाला, सघन, अधिक फल देने वाला, फल अक्तूबर में पक कर तैयार होती है|
काश्मीरी नाशपाती- फल छोटे आकार का, हरे रंग का, फल का रंग तोड़ने पर पीला, गूदा बिल्कुल साफ सफेद, खुशबूदार, मीठा तथा रसीला, पेड़ मध्यम आकार का, नियमित रूप से अधिक फल देने वाली किस्म है|
पत्थर नाख- मध्यम आकार का पीले रंग का गोलाकार फल जिस पर हल्के सफेद रंग के बिन्दु, गूदा सफेद, गुणवत्ता मध्यम, खाने में कुरकुरा, पेड़ सीधा ऊपर को बढ़ने वाला, पौधे की वृद्धि दर मध्यम तथा मध्यम आकार के पौधे होते है|
कीफर- फल बड़े आकार का, सुनहरे पीले रंग का, कुरकुरा, निम्न कोटि की गुणवत्ता वाला, संसाधन के लिए उपयोगी किस्म है|
थम्ब पियर- फल छोटा, छिलका हरा-पीला होता है, जिस पर हल्का बैंगनी और कत्थई रंग चढ़ा, पकने पर फल का अधिकांश भाग चमकदार पीला हो, गूदा रसदार, मुलायम और बहुत मीठा, फल जून के प्रथम सप्ताह में पकने प्रारम्भ हो जाते हैं|
शिनसुई- फल मध्यम से बड़े आकार के गोल और हरे, गूदा हल्का सफेद, रसदार, ग्रिट कोशाओं की संख्या अधिक, मीठा, पेड़ अधिक वृद्धि करने वाला उपजाऊ, फल जुलाई के दूसरे सप्ताह में पककर तैयार हो जाते है|
कोसुई- जल्दी तैयार होने वाली, छिलका हरापन लिए हुए सुनहरा, गूदा मीठा रसदार, फल मध्यम आकार के गोल होते है|
विक्टोरिया- फल मध्यम से बड़े आकार का पीलापन लिये हरा तथा प्रत्यक्ष सूर्य के प्रकाश की तरह, धब्बो से परिपूर्ण, पकने पर गूदा अत्यन्त मुलायम, रसदार, मीठा और स्वादिष्ट, अच्छी फलत वाली किस्म हैं, जुलाई के तीसरे सप्ताह में पककर तैयार हो जाती हैं|
पंत पियर 3- पेड़ मध्यम आकार के, अधिक उपज देने वाली, मध्यम से देर में पकने वाली, फल मध्यम आकार के नाशपाती की बनावट में गूदा मुलायम व मीठा, छिलका पतला हल्का पीलापन लिए हुए हरा, तराई-भावर और घाटियों के लिए उपयुक्त किस्म है|
नाशपाती की खेती हेतु सामान्य स्थिति में नाशपाती के पौधे कैन्थ या शियारा के बीज से बने मूलवृन्त पर कलम करके तैयार किये जाते हैं| केन्थ के बीजों को स्थानीय स्त्रोतों से एकत्र करके उन्हें बिना स्तरित (स्ट्रैटीफिकेशन) किये ही दिसम्बर से जनवरी में खेत में बोया (उगाना) जाता है| अधिक अंकुरण के लिए कैन्थ के बीजों को 35 से 45 दिनों तक 2 से 5 डिग्री सेल्सियस तापमान पर नमी वाले रेत में स्तरित भी किया जा सकता है| एक वर्षीय पौधे पर कलम आरोपित की जाती है| फरवरी से मार्च में जिहा पैबन्द लगाया जाता है और जून से जुलाई में चश्मा चढाया जा सकता है|
मूलवृंत (रूट स्टॉक)
कैन्थ- यह एक जंगली पौधा है, जो गहरी जड़ों वाला, सूखे की स्थिति को झेलने वाला तथा मध्यम बढ़त वाला होता है| कैन्थ में कल्ले बहुत निकलते हैं|
शियारा- शियारा पर पौधे कैन्थ की अपेक्षा अधिक बढ़ते हैं|
क्लोनल रूट स्टॉक- आजकल नाशपाती का प्रमुख रूप से ‘क्वींश ए’ मूलवृन्त पर प्रवर्धन किया जाता है| यह एक मध्य बौना मूलवृंत है, जिस पर पौधों का आकार लगभग दूसरे मूलवृतों पर तैयार किये गये पेड़ों से 50 से 60 प्रतिशत कम होता है| इस मूलवृत की योग्यता अन्य व्यावसायिक किस्मों से कम हैं| इस असंगति को दूर करने के लिए नाशपाती का अन्तराल ओल्ड ह्यूम या ब्यूरो हार्डी (इंटर स्टॉक) लगाना चाहिए|
क्लैफ्ट ग्राफ्टिंग- सुरक्षित क्षेत्रों में जहां जंगली कैथ हो वहां पर जनवरी से फरवरी में क्लैफ्ट ग्राफ्टिंग द्वारा नाशपाती की उन्न्त किस्मों के पौधों में बदला जा सकता है| जंगली पेड़ों पर टाप वर्किग द्वारा कलम लगानी चाहिए|
नाशपाती की खेती के लिए सामान्य रूप से बीजू मूलवृत पर तैयार किये गये पौधों के बीच 5 x 5 मीटर की दूरी और क्लोनल मूलवृत में यही दूरी 3 x 3 मीटर तक रखी जाती है| ढलानदार क्षेत्रों में नाशपाती के पोधे छोटे-छोटे खेत बनाकर लगाए जाने चाहिए, परन्तु समतल घाटियों वाले क्षेत्रों में वर्गाकार, षट्कोणाकार, आयताकार विधि, आदि से पौधे लगाये जा सकते हैं|
कटाई-छटाई
आपस में उलझी हुई, सूखी, टूटी तथा रोग ग्रस्त शाखाओं को पेड़ों से अलग कर दें और सुसुप्तावस्था में शाखाओं के ऊपर का एक चौथाई भाग काट दें ताकि अधिक वानस्पतिक वृद्धि न हो| नाशपाती के पौधे पर बीमों पर फल आते हैं| इसलिए 8 से 10 वर्षों के पश्चात् इनका नवीनीकरण करना आवश्यक है ताकि स्वस्थ बीमे नई शाखाओं पर आ सके| इन शाखाओं का विरलन करके भी बीमों का नवीनीकरण कर सकते हैं|
खाद और उर्वरक
नाशपाती की खेती के लिए खाद तथा उर्वरकों की प्रयोगों पर आधारित प्रमाणित सिफारिशें नहीं हैं, तथापि इसमें सेब की ही भांति उर्वरक तथा खाद डाली जाती है| बोरोन की कमी के लिए नाशपाती के पौधे संवेदनशील है, और इसके अभाव में छोटी अवस्था के कच्चे फल फट जाते हैं| परिपक्वता अवस्था तक पहुचते पहुंचते फल पर जगह जगह पर धब्बे पड़ जाता है| इसलिए बोरिक एसिड 1 ग्राम प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिए|
नाशपाती की खेती के लिए पूरे साल में 75 से 100 सैंटीमीटर वितरित बारिश की जरूरत होती है| रोपाई के बाद इसको नियमित पानी की आवश्यकता होती है| गर्मियों में 5 से 7 दिनों के फासले पर जबकि सर्दियों में 15 दिनों के फासले पर सिंचाई करें| जनवरी महीने में सिंचाई ना करें| फल देने वाले पौधों को गर्मियों में खुला पानी दें| इससे फल की गुणवत्ता और आकार में वृद्धि होती है|
खरपतवार नियंत्रण
जब पौधे 20 से 25 सैंटीमीटर के हो, तो खरपतवार रोकथाम के लिए ग्लाइफोसेट 1.2 लीटर प्रति एकड़ और पैराकुएट 1.2 को 200 लीटर पानी में मिला के प्रति एकड़ में छिड़काव करें|
अंतर-फसलें
जब तक बाग में फल ना लगने लगे खरीफ ऋतु में उड़द, मूंग, तोरियों जैसे फसलें और रब्बी में गेंहू, मटर, चने या सब्जियां आदि फसलें अंतर-फसलों के रूप में इनकी खेती की जा सकती है|
सैंजो स्केल- यह सेब का भयंकर नवजात रेंगते हुए स्केल को नष्ट नाशीकीट है। इससे कम प्रकोपित करने के लिए मई महीने में पौधों की छाल पर छोटे-छोटे सुई की नोक जैसे भूरे रंग के धब्बे नजर आते हैं और अधिक प्रभावित पौधों पर यही धब्बे एक दूसरे से मिलकर ऐसे दिखाई पड़ते हैं जैसे पौधे पर राख का छिड़काव किया गया हो। पौधों की बढ़ौतरी रूक जाती है और पौधे सूखने लगते है|
रोकथाम- इसके लिए क्लोरपाइरीफॉस 0.04 प्रतिशत, 400 मिलीलीटर 20 ईसी या डाइमैथोएट 30 ईसी 0.03 प्रतिशत 200 मिलीलीटर का 200 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें| अधिकतर क्षेत्रों में मई के महीने में यह छिड़काव करना उपयुक्त रहता है|
व्हाईट स्केल- यह कई क्षेत्रों में नाशपाती वृक्ष की छोटी शाखाओं, बीमों और फल के बाहरी दलपुंज में देखा जाता है| स्केल के प्रकोप से पौधे के भाग प्रायः सूख जाते हैं|
रोकथाम- प्रभावित पौधों पर सितम्बर और अक्तूबर में फल तोड़ने के बाद क्लोरपाइरीफॉस का छिड़काव करें| घोल से पूरा पौधा तर हो जाना चाहिए| यदि छिड़काव के 24 घण्टे के भीतर वर्षा हो जाये तो छिड़काव दुबारा करें| एक बड़े पेड़ के लिए 6 से 8 लिटर घोल की आवश्यकता होती है|
चेपा और थ्रिप्स- यह नाशपाती पौधे के पत्तों का रस चूसते है, जिससे पत्ते पीले पड़ जाते हैं| यह शहद जैसा पदार्थ छोड़ते हैं, जिस कारण प्रभावित भागों पर काले रंग की फंगस बन जाती है|
रोकथाम- फरवरी के आखिरी हफ्ते जब पत्ते झड़ना शुरू हो तो इमीडाक्लोप्रिड 60 मिलीलीटर या थाईआमिथोकसम 80 ग्राम को प्रति 150 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें| दूसरी तर छिड़काव मार्च महीने में करें और तीसरा छिड़काव फल के गुच्छे बनने पर करें|
मकोड़ा जूं- यह नाशपाती के पौधे के पत्तों को खाते है और इनका रस चूसते है, जिस से पत्तें पीले पड़ने शुरू हो जाते है|
रोकथाम- घुलनशील सल्फर या फेनेजाक्वीन को पानी में मिलाकर छिड़काव करें|
जड़ का गलना- इस बीमारी के साथ पौधे की छाल और लकड़ी भूरे रंग की हो जाती है और इस पर सफेद रंग का पाउडर दिखाई देता है| प्रभावित पौधे सूखना शुरू हो जाते है| इनके पत्ते जल्दी झड़ जाते है|
रोकथाम- कॉपर आक्सीक्लोराइड 400 ग्राम को 200 लीटर पानी में मिला कर मार्च महीने में छिड़काव करें| जून महीने में दोबारा छिड़काव करें| कार्बेन्डाजिम 10 ग्राम+ कार्बोक्सिन(वीटावैक्स) 5 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिला कर, इस घोल से पूरे वृक्ष को दो बार तर कर दें| पहला अप्रैल से मई मानसून से पहले और दूसरा मानसून के बाद सितंबर से अक्तूबर में डालें| इसके बाद पौधे की हल्की सिंचाई करें|
नाशपाती की खेती से फल जून के प्रथम सप्ताह से सितम्बर के मध्य तोड़े जाते है| नज़दीकी मंडियों में फल पूरी तरह से पकने के बाद और दूरी वाले स्थानों पर ले जाने के लिए हरे फल तोड़े जाते है| तुड़ाई देरी से होने से फलों को ज्यादा समय के लिए स्टोर नहीं किया जा सकता है और इसका रंग और स्वाद भी खराब हो जाता है|
पैदावार
नाशपाती की खेती से साधारणतया नाशपाती के एक वृक्ष से 1 से 2 क्विटंल तक फल प्राप्त हो जाते है, अतः प्रति हैक्टर क्षेत्र से 400 से 750 क्विंटल फल उत्पादित हो सकते है|
पपीते की खेती परिचय पपीते का फल थोड़ा लम्बा व गोलाकार होता है तथा गूदा पीले रंग का होता है। गूदे के बीच में काले रंग के बीज होते हैं। पेड़ के ऊपर के हिस्से में पत्तों के घेरे के नीचे पपीते के फल आते हैं ताकि यह पत्तों का घेरा कोमल फल की सुरक्षा कर सके। कच्चा पपीता हरे रंग का और पकने के बाद हरे पीले रंग का होता है। आजकल नयी जातियों में बिना बीज के पपीते की किस्में ईजाद की गई हैं। एक पपीते का वजन 300, 400 ग्राम से लेकर 1 किलो ग्राम तक हो सकता है। पपीते के पेड़ नर और मादा के रुप में अलग-अलग होते हैं लेकिन कभी-कभी एक ही पेड़ में दोनों तरह के फूल खिलते हैं। हवाईयन और मेक्सिकन पपीते बहुत प्रसिद्ध हैं। भारतीय पपीते भी अत्यन्त स्वादिष्ट होते हैं। अलग-अलग किस्मों के अनुसार इनके स्वाद में थोड़ी बहुत भिन्नता हो सकती है। भूमिका पपीता स्वास्थ्यवर्द्धक तथा विटामिन ए से भरपूर फल होता है। पपीता ट्रापिकल अमेरिका में पाया जाता है। पपीते का वानस्पतिक नाम केरिका पपाया है। पपीता कैरिकेसी परिवार का एक महत्त्वपूर्ण सदस्य है। पपीता एक बहुलिडीस पौधा है तथा मुरकरटय से तीन प्रकार के लिंग नर, मादा तथा नर व मादा दोनों लिंग एक पेड़ पर होते हैं। पपीता के पके व कच्चे फल दोनो उपयोगी होते हैं। कच्चे फल से पपेन बनाया जाता है। जिसका सौन्दर्य जगत में तथा उद्योग जगत में व्यापक प्रयोग किया जाता है। पपीता एक सदाबहार मधुर फल है, जो स्वादिष्ट और रुचिकर होता है। यह हमारे देश में सभी जगह उत्पन्न होता है। यह बारहों महीने होता है, लेकिन यह फ़रवरी-मार्च और मई से अक्टूबर के मध्य विशेष रूप से पैदा होता है। इसका कच्चा फल हरा और पकने पर पीले रंग का हो जाता है। पका पपीता मधुर, भारी, गर्म, स्निग्ध और सारक होता है। पपीता पित्त का शमन तथा भोजन के प्रति रुचि उत्पन्न करता है। पपीता बहुत ही जल्दी बढ़ने वाला पेड़ है। साधारण ज़मीन, थोड़ी गरमी और अच्छी धूप मिले तो यह पेड़ अच्छा पनपता है, पर इसे अधिक पानी या ज़मीन में क्षार की ज़्यादा मात्रा रास नहीं आती। इसकी पूरी ऊँचाई क़रीब 10-12 फुट तक होती है। जैसे-जैसे पेड़ बढ़ता है, नीचे से एक एक पत्ता गिरता रहता है और अपना निशान तने पर छोड़ जाता है। तना एकदम सीधा हरे या भूरे रंग का और अन्दर से खोखला होता है। पत्ते पेड़ के सबसे ऊपरी हिस्से में ही होते हैं। एक समय में एक पेड़ पर 80 से 100 फल तक भी लग जाते हैं। पपीता पोषक तत्वों से भरपूर अत्यंत स्वास्थ्यवर्द्धक जल्दी तैयार होने वाला फल है । जिसे पके तथा कच्चे रूप में प्रयोग किया जाता है । आर्थिक महत्व ताजे फलों के अतिरिक्त पपेन के कारण भी है । जिसका प्रयोग बहुत से औद्योगिक कामों में होता है । अतः इसकी खेती की लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है और क्षेत्रफल की दृष्टि से यह हमारे देश का पांचवा लोकप्रिय फल है, देश की अधिकांश भागों में घर की बगिया से लेकर बागों तक इसकी बागवानी का क्षेत्र निरंतर बढ़ता जा रहा है । देश की विभिन्न राज्यों आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, असम, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तरांचल और मिजोरम में इसकी खेती की जा रही है।अतः इसके सफल उत्पादन के लिए वैज्ञानिक पद्धति और तकनीकों का उपयोग करके कृषक स्वयं और राष्ट्र को आर्थिक दृष्टि से लाभान्वित कर सकते हैं। इसके लिए तकनीकी बातों का ध्यान रखना चाहिए । पपीते की किस्में पपीते की मुख्य किस्मों का विवरण निम्नवत है- पूसा डोलसियरा यह अधिक ऊपज देने वाली पपीते की गाइनोडाइसियश प्रजाति है। जिसमें मादा तथा नर-मादा दो प्रकार के फूल एक ही पौधे पर आते हैं पके फल का स्वाद मीठा तथा आकर्षक सुगंध लिये होता है। पूसा मेजेस्टी यह भी एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। इसकी उत्पादकता अधिक है, तथा भंडारण क्षमता भी अधिक होती है। 'रेड लेडी 786' पपीते की एक नई किस्म पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना द्वारा विकसित की गई है, जिसे 'रेड लेडी 786' नाम दिया है। यह एक संकर किस्म है। इस किस्म की खासीयत यह है कि नर व मादा फूल ही पौधे पर होते हैं, लिहाजा हर पौधे से फल मिलने की गारंटी होती है। पपीते की अन्य किस्मों में नर व मादा फूल अलग-अलग पौधे पर लगते हैं, ऐसे में फूल निकलने तक यह पहचानना कठिन होता है कि कौन सा पौध नर है और कौन सा मादा। इस नई किस्म की एक खासीयत यह है कि इसमें साधरण पपीते में लगने वाली 'पपायरिक स्काट वायरस' नहीं लगता है। यह किस्म सिर्फ 9 महीने में तैयार हो जाती है। इस किस्म के फलों की भंडारण क्षमता भी ज्यादा होती है। पपीते में एंटी आक्सीडेंट पोषक तत्त्व कैरोटिन,पोटैशियम,मैग्नीशियम, रेशा और विटामिन ए, बी, सी सहित कई अन्य गुणकारी तत्व भी पाए जाते हैं, जो सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होते हैं। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने तकरीबन 3 सालों की खोज के बाद इसे पंजाब में उगाने के लिए किसानों को दिया। वैसे इसे हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड और राजस्थान में भी उगाया जा रहा है। पपीते का फूल पूसा जाइन्ट यह किस्म बहुत अधिक वृद्धि वाली मानी जाती है। नर तथा मादा फूल अलग-अलग पौधे पर पाये जाते हैं। पौधे अधिक मज़बूत तथा तेज़ हवा से गिरते नहीं हैं।। पूसा ड्रवार्फ यह छोटी बढ़वार वाली डादसियश किस्म कही जाती है।जिसमें नर तथा मादा फूल अलग अलग पौधे पर आते हैं। फल मध्यम तथा ओवल आकार के होते हैं। पूसा नन्हा इस प्रजाति के पौधे बहुत छोटे होते हैं। तथा यह गृहवाटिका के लिए अधिक उपयोगी होता है। साथ साथ सफल बागवानी के लिए भी उपयुक्त है। कोयम्बर-1 पौधा छोटा तथा डाइसियरा होता है। फल मध्य आकार के तथा गोलाकार होते हैं। कोयम्बर-3 यह एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। पौधा लम्बा, मज़बूत तथा मध्य आकार का फल देने वाला होता है। पके फल में शर्करा की मात्रा अधिक होती है। तथा गूदा लाल रंग का होता है। हनीइयू (मधु बिन्दु) इस पौधे में नर पौधों की संख्या कम होती है,तथा बीज के प्रकरण अधिक लाभदायक होते हैं। इसका फल मध्यम आकार का बहुत मीठा तथा ख़ुशबू वाला होता है। पपीते का पेड़ कूर्गहनि डयू यह गाइनोडाइसियश जाति है। इसमें नर पौधे नहीं होते हैं। फल का आकार मध्यम तथा लम्बवत गोलाकार होता है। गूदे का रंग नारंगी पीला होता है। वाशिगंटन यह अधिक उपज देने वाली विभिन्न जलवायु में उगाई जाने वाली प्रजाति है। इस पौधे की पत्तियों के डंठल बैगनी रंग के होते हैं। जो इस किस्म की पहचान कराते हैं। यह डाइसियन किस्म हैं फल मीठा,गूदा पीला तथा अच्छी सुगंध वाला होता है। पन्त पपीता-1 इस किस्म का पौधा छोटा तथा डाइसियरा होता है। फल मध्यम आकार के गोल होते हैं। फल मीठा तथा सुगंधित तथा पीला गूदा होता है। यह पककर खाने वाली अच्छी किस्म है तथा तराई एवं भावर जैसे क्षेत्र में उगाने के लिए अधिक उपयोगी है। पपीते के लिए आबोहवा पपीता एक उष्ण कटिबंधीय फल है,परंतु इसकी खेती समशीतोष्ण आबोहवा में भी की जा सकती है। ज्यादा ठंड से पौधे के विकास पर खराब असर पड़ता है। इसके फलों की बढ़वार रूक जाती है। फलों के पकने व मिठास बढ़ने के लिए गरम मौसम बेहतर है। पपीता की खेती योग्य भूमि या मृदा इस पपीते के सफल उत्पादन के लिए दोमट मिट्टी अच्छी होती है। खेत में पानी निकलने का सही इंतजाम होना जरूरी है, क्योंकि पपीते के पौधे की जड़ों व तने के पास पानी भरा रहने से पौधे का तना सड़ने लगता है। इस पपीते के लिहाज से मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 तक होना चाहिए। पपीता के लिए हलकी दोमट या दोमट मृदा जिसमें जलनिकास अच्छा हो सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए इसके लिए दोमट, हवादार, काली उपजाऊ भूमि का चयन करना चाहिए और इसका अम्ल्तांक 6.5-7.5 के बीच होना चाहिए तथा पानी बिलकुल नहीं रुकना चाहिए। मध्य काली और जलोढ़ भूमि इसके लिए भी अच्छी होती है । यह मुख्य रूप से उष्ण प्रदेशीय फल है इसके उत्पादन के लिए तापक्रम 22-26 डिग्री से०ग्रे० के बीच और 10 डिग्री से०ग्रे० से कम नहीं होना चाहिए क्योंकि अधिक ठंड तथा पाला इसके शत्रु हैं, जिससे पौधे और फल दोनों ही प्रभावित होते हैं। इसके सकल उत्पादन के लिए तुलनात्मक उच्च तापक्रम, कम आर्द्रता और पर्याप्त नमी की जरुरत है। पपीता में नियंत्रित परगन के अभाव और बीज प्रवर्धन के कारण क़िस्में अस्थाई हैं और एक ही क़िस्म में विभिन्नता पाई जाती है। अतः फूल आने से पहले नर और मादा पौधों का अनुमान लगाना कठिन है। इनमें कुछ प्रचलित क़िस्में जो देश के विभिन्न भागों में उगाई जाती हैं और अधिक संख्या में मादा फूलों के पौधे मिलते हैं मुख्य हैं। हनीडियू या मधु बिंदु, कुर्ग हनीडियू, वाशिंगटन, कोय -1, कोय- 2, कोय- 3, फल उत्पादन और पपेय उत्पादन के लिए कोय-5, कोय-6, एम. ऍफ़.-1 और पूसा मेजस्टी मुख्या हैं। उत्तरी भारत में तापक्रम का उतर चढ़ाव अधिक होता है। अतः उभयलिंगी फूल वाली क़िस्में ठीक उत्पादन नहीं दे पाती हैं। कोय-1, पंजाब स्वीट, पूसा देलिसियास, पूसा मेजस्टी, पूसा जाइंट, पूसा ड्वार्फ, पूसा नन्हा (म्यूटेंट) आदि क़िस्में जिनमे मादा फूलों की संख्या अधिक होती है और उभयलिंगी हैं, उत्तरी भारत में काफी सफल हैं। हवाई की 'सोलो' क़िस्म जो उभयलिंगी और मादा पौधे होते है, उत्तरी भारत में इसके फल छोटे और निम्न कोटि के होते हैं। पपीते की बोआई पपीते का व्यवसाय उत्पादन बीजों द्वारा किया जाता है। इसके सफल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि बीज अच्छी क्वालिटी का हो। बीज के मामले में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए : 1. बीज बोने का समय जुलाई से सितम्बर और फरवरी-मार्च होता है। 2. बीज अच्छी किस्म के अच्छे व स्वस्थ फलों से लेने चाहिए। चूंकि यह नई किस्म संकर प्रजाति की है, लिहाजा हर बार इसका नया बीज ही बोना चाहिए। 3. बीजों को क्यारियों, लकड़ी के बक्सों, मिट्टी के गमलों व पोलीथीन की थैलियों में बोया जा सकता है। 4. क्यारियाँ जमीन की सतह से 15 सेंटीमीटर ऊंची व 1 मीटर चौड़ी होनी चाहिए। 5. क्यारियों में गोबर की खाद, कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट काफी मात्रा में मिलाना चाहिए। पौधे को पद विगलन रोग से बचाने के लिए क्यारियों को फार्मलीन के 1:40 के घोल से उपचारित कर लेना चाहिए और बीजों को 0.1 फीसदी कॉपर आक्सीक्लोराइड के घोल से उपचारित करके बोना चाहिए। 6. जब पौधे 8-10 सेंटीमीटर लंबे हो जाएँ, तो उन्हें क्यारी से पौलीथीन में स्थानांतरित कर देते हैं। 7. जब पौधे 15 सेंटीमीटर ऊँचे हो जाएँ, तब 0.3 फीसदी फफूंदीनाशक घोल का छिड़काव कर देना चाहिए। पपीते के उत्पादन के लिए नर्सरी में पौधों का उगाना बहुत महत्व रखता है। इसके लिए बीज की मात्रा एक हेक्टेयर के लिए 500 ग्राम पर्याप्त होती है। बीज पूर्ण पका हुआ, अच्छी तरह सूखा हुआ और शीशे की जार या बोतल में रखा हो जिसका मुँह ढका हो और 6 महीने से पुराना न हो, उपयुक्त है। बोने से पहले बीज को 3 ग्राम केप्टान से एक किलो बीज को उपचारित करना चाहिए। बीज बोने के लिए क्यारी जो जमीन से ऊँची उठी हुई संकरी होनी चाहिए इसके अलावा बड़े गमले या लकड़ी के बक्सों का भी प्रयोग कर सकते हैं। इन्हें तैयार करने के लिए पत्ती की खाद, बालू, तथा सदी हुई गोबर की खाद को बराबर मात्र में मिलाकर मिश्रण तैयार कर लेते हैं। जिस स्थान पर नर्सरी हो उस स्थान की अच्छी जुताई, गुड़ाई,करके समस्त कंकड़-पत्थर और खरपतवार निकाल कर साफ़ कर देना चाहिए तथा ज़मीन को 2 प्रतिशत फोरमिलिन से उपचारित कर लेना चाहिए। वह स्थान जहाँ तेज़ धूप तथा अधिक छाया न आये चुनना चाहिए। एक एकड़ के लिए 4059 मीटर ज़मीन में उगाये गए पौधे काफी होते हैं। इसमें 2.5 x 10 x 0.5 आकर की क्यारी बनाकर उपरोक्त मिश्रण अच्छी तरह मिला दें, और क्यारी को ऊपर से समतल कर दें। इसके बाद मिश्रण की तह लगाकर 1/2' गहराई पर 3' x 6' के फासले पर पंक्ति बनाकर उपचारित बीज बो दे और फिर 1/2' गोबर की खाद के मिश्रण से ढ़क कर लकड़ी से दबा दें ताकि बीज ऊपर न रह जाये। यदि गमलों या बक्सों का उगाने के लिए प्रयोग करें तो इनमे भी इसी मिश्रण का प्रयोग करें। बोई गयी क्यारियों को सूखी घास या पुआल से ढक दें और सुबह शाम होज द्वारा पानी दें। बोने के लगभग 15-20 दिन भीतर बीज जम जाते हैं। जब इन पौधों में 4-5 पत्तियाँ और ऊँचाई 25 से.मी. हो जाये तो दो महीने बाद खेत में प्रतिरोपण करना चाहिए, प्रतिरोपण से पहले गमलों को धूप में रखना चाहिए, ज्यादा सिंचाई करने से सड़न और उकठा रोग लग जाता है। उत्तरी भारत में नर्सरी में बीज मार्च-अप्रैल,जून-अगस्त में उगाने चाहिए। पपीते का रोपण अच्छी तरह से तैयार खेत में 2 x2 मीटर की दूरी पर 50x50x50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे मई के महीने में खोद कर 15 दिनों के लिए खुले छोड़ देने चाहिएं, ताकि गड्ढों को अच्छी तरह धूप लग जाए और हानिकारक कीड़े-मकोड़े, रोगाणु वगैरह नष्ट हो जाएँ। पौधे लगाने के बाद गड्ढे को मिट्टी और गोबर की खाद 50 ग्राम एल्ड्रिन मिलाकर इस प्रकार भरना चाहिए कि वह जमीन से 10-15 सेंटीमीटर ऊँचा रहे। गड्ढे की भराई के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए, जिससे मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाए। वैसे पपीते के पौधे जून-जुलाई या फरवरी -मार्च में लगाए जाते हैं, पर ज्यादा बारिश व सर्दी वाले इलाकों में सितंबर या फरवरी -मार्च में लगाने चाहिए। जब तक पौधे अच्छी तरह पनप न जाएँ, तब तक रोजाना दोपहर बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए। प्लास्टिक थैलियों में बीज उगाना इसके लिए 200 गेज और 20 x 15 सेमी आकर की थैलियों की जरुरत होती है । जिनको किसी कील से नीचे और साइड में छेड़ कर देते हैं तथा 1:1:1:1 पत्ती की खाद, रेट, गोबर और मिट्टी का मिश्रण बनाकर थैलियों में भर देते हैं । प्रत्येक थैली में दो या तीन बीज बो देते हैं। उचित ऊँचाई होने पर पौधों को खेत में प्रतिरोपण कर देते हैं । प्रतिरोपण करते समय थाली के नीचे का भाग फाड़ देना चाहिए। गड्ढे की तैयारी तथा पौधारोपण पौध लगाने से पहले खेत की अच्छी तरह तैयारी करके खेत को समतल कर लेना चाहिए ताकि पानी न भर सकें। फिर पपीता के लिए 50x50x50 से०मी० आकार के गड्ढे 1.5x1.5 मीटर के फासले पर खोद लेने चाहिए और प्रत्येक गड्ढे में 30 ग्राम बी.एच.सी. 10 प्रतिशत डस्ट मिलकर उपचारित कर लेना चाहिए। ऊँची बढ़ने वाली क़िस्मों के लिए1.8x1.8 मीटर फासला रखते हैं। पौधे 20-25 से०मी० के फासले पर लगा देते हैं। पौधे लगते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि गड्ढे को ढक देना चाहिए जिससे पानी तने से न लगे। खाद व उर्वरक का प्रयोग पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है। इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरुरत है। अतः अच्छी फ़सल लेने के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फ़ॉस्फ़रस एवं 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधे की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष प्रति पौधे 20-25 कि०ग्रा० गोबर की सड़ी खाद, एक कि०ग्रा० बोनमील और एक कि०ग्रा० नीम की खली की जरुरत पड़ती है। खाद की यह मात्र तीन बार बराबर मात्रा में मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त और अक्तूबर महीनों में देनी चाहिए। पपीता जल्दी बढ़ने व फल देने वाला पौधा है, जिसके कारण भूमि से काफी मात्रा में पोषक तत्व निकल जाते हैं। लिहाजा अच्छी उपज हासिल करने के लिए 250 ग्राम नाइट्रोजन, 150 ग्राम फास्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधे हर साल देना चाहिए। नाइट्रोजन की मात्रा को 6 भागों में बाँट कर पौधा रोपण के 2 महीने बाद से हर दूसरे महीने डालना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की आधी-आधी मात्रा 2 बार में देनी चाहिए। उर्वरकों को तने से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधें के चारों ओर बिखेर कर मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की आधी मात्रा फरवरी-मार्च और आधी जुलाई-अगस्त में देनी चाहिए। उर्वरक देने के बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। पाले से पेड़ की रक्षा पौधे को पाले से बचाना बहुत आवश्यक है। इसके लिए नवम्बर के अंत में तीन तरफ से फूंस से अच्छी प्रकार ढक दें एवं पूर्व-दक्षिण दिशा में खुला छोड़ दें। बाग़ के चारों तरफ रामाशन से हेज लगा दें जिससे तेज़ गर्म और ठंडी हवा से बचाव हो जाता है। समय-समय पर धुआँ कर देना चाहिए। उष्ण प्रदेशीय जलवायु में जाड़े और गर्मी के तापमान में अधिक अंतर नहीं होता है और आर्द्रता भी साल भर रहती है। पपीता साल भर फलता फूलता है। लेकिन उत्तर भारत में यदि खेत में प्रतिरोपण अप्रैल-जुलाई तक किया जाय तो अगली बसंत ऋतू तक पौधे फूलने लगते हैं और मार्च-अप्रैल या बाद में लगे फल दिसम्बर-जनवरी में पकने लगते हैं। यदि फल तोड़ने पर दूध, पानी से तरह निकलने लगता है तब पपीता तोड़ने योग्य हो जाता है। अच्छी देख-रेख करने पर प्रति पौधे से 40-50 किलो उपज मिल जाती है। पपीते में कीट, बीमारी व उनकी रोकथाम प्रमुख रूप से किसी कीड़े से नुकसान नहीं होता है परन्तु वायरस, रोग फैलाने में सहायक होते हैं। इसमें निम्न रोग लगते हैं- तने तथा जड़ के गलने से बीमारी इसमें भूमि के तल के पास तने का ऊपरी छिलका पीला होकर गलने लगता है और जड़ भी गलने लगती है। पत्तियाँ सुख जाती हैं और पौधा मर जाता है। इसके उपचार के लिए जल निकास में सुधार और ग्रसित पौधों को तुंरत उखाड़कर फेंक देना चाहिए। पौधों पर एक प्रतिशत वोरडोक्स मिश्रण या कोंपर आक्सीक्लोराइड को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करने से काफ़ी रोकथाम होती है। डेम्पिग ओंफ इसमें नर्सरी में ही छोटे पौधे नीचे से गलकर मर जाते हैं। इससे बचने के लिए बीज बोने से पहले सेरेसान एग्रोसन जी.एन. से उपचारित करना चाहिए तथा सीड बेड को 2.5 % फार्मेल्डिहाइड घोल से उपचारित करना चाहिए। मौजेक (पत्तियों का मुड़ना) : इससे प्रभावित पत्तियों का रंग पीला हो जाता है व डंठल छोटा और आकर में सिकुड़ जाता है। इसके लिए 250 मि. ली. मैलाथियान 50 ई०सी० 250 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करना काफ़ी फायदेमंद होता है। चैंपा : इस कीट के बच्चे व जवान दोनों पौधे के तमाम हिस्सों का रस चूसते हैं और विषाणु रोग फैलाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए डायमेथोएट 30 ईसी 1.5 मिलीलीटर या पफास्पफोमिडाल 5 मिलीलीटर को 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें। लाल मकड़ी : इस कीट का हमला पत्तियों व फलों की सतहों पर होता है। इसके प्रकोप के कारण पत्तियाँ पीली पड़ जाती है और बाद में लाल भूरे रंग की हो जाती है। इसकी रोकथाम के लिए थायमेथोएट 30 ईसी 1.5 मिलीलीटर को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। पद विगलन : यह रोग पीथियम फ्रयूजेरियम नामक पफपफूंदी के कारण होता है। रोगी पौधें की बढ़वार रूक जाती है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं और पौध सड़कर गिर जाता है। इसकी रोकथाम के लिए रोग वाले हिस्से को खुरचकर उस पर ब्रासीकोल 2 ग्राम को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। श्याम वर्ण: इस रोग का असर पत्तियों व फलों पर होता है, जिससे इनकी वृद्धि रूक जाती है। इससे फलों के ऊपर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए ब्लाईटाक्स 3 ग्राम को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। पपीते के अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई पानी की कमी तथा निराई-गुड़ाई न होने से पपीते के उत्पादन पर बहुत बुरा असर पड़ता है। अतः दक्षिण भारत की जलवायु में जाड़े में 8-10 दिन तथा गर्मी में 6 दिन के अंतर पर पानी देना चाहिए। उत्तर भारत में अप्रैल से जून तक सप्ताह में दो बार तथा जाड़े में 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पानी तने को छूने न पाए अन्यथा पौधे में गलने की बीमारी लगने का अंदेशा रहेगा इसलिए तने के आस-पास मिट्टी ऊँची रखनी चाहिए। पपीता का बाग़ साफ़ सुथरा रहे इसके लिए प्रत्येक सिंचाई के बाद पेड़ों के चारो तरफ हल्की गुड़ाई अवश्य करनी चाहिए। पपीते के अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई का सही इंतजाम बेहद जरूरी है। गर्मियों में 6-7 दिनों के अंदर पर और सर्दियों में 10-12 दिनों के अंदर सिंचाई करनी चाहिए। बारिश के मौसम में जब लंबे समय तक बरसात न हो, तो सिंचाई की जरूरत पड़ती है। पानी को तने के सीधे संपर्क में नहीं आना चाहिए। इसके लिए तने के पास चारों ओर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। खरपतवार नियंत्रण पपीते के बगीचे में तमाम खरपतवार उग आते हैं, जो जमीन से नमी, पोषक तत्त्वों, वायु व प्रकाश वगैरह के लिए पपीते के पौधे से मुकाबला करते हैं, जिससे पौधे की बढ़वार व उत्पादन पर उल्टा असर पड़ता है। खरपतवारों से बचाव के लिए जरूरत के मुताबिक निकाई-गुड़ाई करनी चाहिए। बराबर सिंचाई करते रहने से मिट्टी की सतह काफी कठोर हो जाती है, जिससे पौधे की बढ़वार पर उल्टा असर पड़ता है। लिहाजा 2-3 बार सिंचाई के बाद थालों की हल्की निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए। पपीते की उपज आमतौर पर पपीते की उन्नत किस्मों से प्रति पौध 35-50 किलोग्राम उपज मिल जाती है, जबकि इस नई किस्म से 2-3 गुणा ज्यादा उपज मिल जाती है।
अमरूद बहुतायत में पाया जाने वाला एक आम फल है और यह माइरेटेसी कुल का सदस्य है| अमरुद की बागवानी भारतवर्ष के सभी राज्यों में की जाती है| उत्पादकता, सहनशीलता तथा जलवायु के प्रति सहिष्णुता के साथ-साथ विटामिन ‘सी’ की मात्रा की दृष्टि से अन्य फलों की अपेक्षा यह अधिक महत्वपूर्ण है| अधिक पोषक महत्व के अलावा, अमरूद बिना अधिक संसाधनों के भी हर वर्ष अधिक उत्पादन देता है, जिससे पर्याप्त आर्थिक लाभ मिलता है| इन्हीं सब कारणों से किसान अमरूद की व्यावसायिक बागवानी करने लगे हैं|
इसकी बागवानी अधिक तापमान, गर्म हवा, वर्षा, लवणीय या कमजोर मृदा, कम जल या जल भराव की दशा से अधिक प्रभावित नहीं होती है| किन्तु लाभदायक फसल प्राप्त करने के लिए समुचित संसाधनों का सही तरीके से उपयोग करना आवश्यक है| आर्थिक महत्व के तौर पर अमरूद में विटामिन ‘सी’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो सन्तरे से 2 से 5 गुना तथा टमाटर से 10 गुना अधिक होता है|
अन्य फलों की अपेक्षा अमरूद कैल्शियम, फॉस्फोरस एवं लौह तत्वों का एक बहुत अच्छा श्रोत है| इसका मुख्य रूप से व्यावसायिक उपयोग कई प्रकार के संसाधित उत्पाद जैसे जेली, जैम, चीज, गूदा, जूस, पाउडर, नेक्टर, इत्यादि बनाने में किया जाता है| भारत के लगभग हर राज्य में अमरूद उगाया जाता है, परन्तु मुख्य राज्य बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात और आन्ध्रप्रदेश हैं|
अमरूद विभिन्न प्रकार की जलवायु में असानी से उगाया जा सकता है| हालाँकि, उष्णता (अधिक गर्मी) इसे प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है, किन्तु उष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों की अपेक्षा यह स्पष्ट रूप से सर्दी तथा गर्मी वाले क्षेत्रों में प्रचुर व उच्च गुणवत्तायुक्त फल देता है| अन्य फलों की अपेक्षा अमरूद में सूखा सहने की क्षमता अधिक होती है|
भूमि का चयन
अमरूद एक ऐसा फल है, जिसकी बागवानी कम उपजाऊ और लवणीय परिस्थितियों में भी बहुत कम देख-भाल द्वारा आसानी से की जा सकती है| यद्यपि यह 4.5 से 9.5 पी एच मान वाली मिट्टी में पैदा किया जा सकता है| परन्तु इसकी सबसे अच्छी बागवानी दोमट मिट्टी में की जाती है| जिसका पी एच मान 5 से 7 के मध्य होता है|
खेत की तैयारी
अमरूद की खेती के लिए पहली जुताई गहराई से करनी चाहिए| इसके साथ साथ दो जुताई देशी हल या अन्य स्रोत से कर के खेत को समतल और खरपतवार मुक्त कर लेना चाहिए| इसके बाद कम उपजाऊ भूमि में 5 X 5 मीटर और उपजाऊ भूमि में 6.5 X 6.5 मीटर की दूरी पर रोपाई हेतु पहले 60 सेंटीमीटर चौड़ाई, 60 सेंटीमीटर लम्बाई, 60 सेंटीमीटर गहराई के गड्ढे तैयार कर लेते है|
इलाहाबाद सफेदा तथा सरदार (एल- 49) अमरूद की प्रमुख किस्में हैं| जो व्यावसायिक दृष्टि से बागवानी के लिए महत्वपूर्ण हैं| किस्म ‘इलाहाबाद सफेदा उच्च कोटि का अमरूद है| इसके फल मध्यम आकार के गोल होते हैं| इसका छिलका चिकना और चमकदार, गूदा सफेद, मुलायम, स्वाद मीठा, सुवास अच्छा और बीजों की संख्या कम होती है तथा बीज मुलायम होते हैं| सरदार अमरूद अत्यधिक फलत देने वाले होते हैं और इसके फल उच्चकोटि के होते हैं|
उपरोक्त दो किस्मों के अलावा कुछ अन्य किस्में भी अलग-अलग क्षेत्रों में उगायी जाती हैं| जो इस प्रकार है, जैसे- चयन ललित, श्वेता, पन्त प्रभात, धारीदार, अर्का मृदुला व तीन संकर किस्में, अर्का अमूल्य, सफेद जाम एवं कोहिर सफेदा विकसित की गयी हैं| अमरूद की सामान्य और संकर किस्मों की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें-
प्रवर्धन की विधि
आज भी बहुत से स्थानों में अमरूद का प्रसारण बीज द्वारा होता है| परन्तु इसके वृक्षों में भिन्नता आ जाती है| इसलिए यह जरूरी है कि वानस्पतिक विधि द्वारा पौधे तैयार किये जाएं| चूँकि अमरूद प्रसारण की अनेक विधियां हैं, परन्तु आज-कल प्रसारण की मुख्यरूप से कोमल शाख बन्धन एवं स्टूलिंग कलम द्वारा की जा सकती है| अमरूद प्रवर्धन की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अमरूद का प्रवर्धन कैसे करें, जानिए उपयोगी और आधुनिक व्यावसायिक तकनीक
अमरूद की खेती हेतु पौधा रोपण का मुख्य समय जुलाई से अगस्त तक है| लेकिन जिन स्थानों में सिंचाई की सुविधा हो वहाँ पर पौधे फरवरी से मार्च में भी लगाये जा सकते हैं| बाग लगाने के लिये तैयार किये गये खेत में निश्चित दुरी पर 60 सेंटीमीटर चौड़ाई, 60 सेंटीमीटर लम्बाई, 60 सेंटीमीटर गहराई आकार के जो गड्ढे तैयार किये गये है|
उन गड्ढों को 25 से 30 किलोग्राम अच्छी तैयार गोबर की खाद, 500 ग्राम सुपर फॉस्फेट तथा 100 ग्राम मिथाईल पैराथियॉन पाऊडर को अच्छी तरह से मिट्टी में मिला कर पौधे लगाने के 15 से 20 दिन पहले भर दें और रोपण से पहले सिंचाई कर देते है|इसके पश्चात पौधे की पिंडी के अनुसार गड्ढ़े को खोदकर उसके बीचो बीच पौधा लगाकर चारो तरफ से अच्छी तरह दबाकर फिर हल्की सिचाई कर देते है| बाग में पौधे लगाने की दूरी मृदा की उर्वरता, किस्म विशेष एवं जलवायु पर निर्भर करती है|
अमरूद की सघन बागवानी के बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त हुये हैं| सघन रोपण में प्रति हैक्टेयर 500 से 5000 पौधे तक लगाये जा सकते हैं, तथा समय-समय पर कटाई-छँटाई करके एवं वृद्धि नियंत्रकों का प्रयोग करके पौधों का आकार छोटा रखा जाता है| इस तरह की बागवानी से 30 से 50 टन प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन लिया जा सकता है| जबकि पारम्परिक विधि से लगाये गये बागों का उत्पादन 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर होता है| सघन बागवानी के लिए जो विधियां सबसे प्रभावी रही है| वो इस प्रकार है, जैसे-
1. 3 मीटर लाइन से लाइन की दुरी, और 1.5 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 2200 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
2. 3 मीटर मीटर लाइन से लाइन की दुरी, 3 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 1100 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
3. 6 मीटर लाइन से लाइन की दुरी, 1.5 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 550 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
अमरूद अत्यधिक सहनशील पौधा है तथा इसे विभिन्न प्रकार की मृदाओं और अलग-अलग प्रकार की जलवायु वाले क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है, किन्तु पोषण का फल उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है| पौधों को दी जाने वाली खाद व उर्वरक की मात्रा पौधों की आयु, दशा व मृदा के प्रकार पर निर्भर करती है| पौधों की उचित वृद्धि तथा लाभदायक उत्पादन प्राप्त करने के लिए उर्वरकों को आवश्यक एवं उचित मात्रा में डालना चाहिए| अमरूद में उर्वरक डालने की प्रक्रिया पौधे रोपण के समय से ही शुरू हो जाती है| गड्ढे भरते समय गोबर की खाद 25 से 35 किलोग्राम तथा 500 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट डालनी चाहिए|
खाद के मिश्रण को दो बराबर भागों में बाँट कर जून तथा सितम्बर माह में डाला जाता है| म्यूरेट ऑफ पोटाश की पूरी मात्रा तथा यूरिया की आधी मात्रा जून माह में तथा यूरिया की शेष मात्रा तथा सिंगल सुपर फॉस्फेट की पूरी मात्रा सितम्बर माह में डालते हैं| उर्वरक पौधे के तने से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर तथा पेड़ द्वारा आच्छादित पूरे क्षेत्र में डालते हैं| इसके बाद 8 से 10 सेंटीमीटर गहरी गुड़ाई करते हैं, ताकि खाद पूर्णरूप से जड़ को मिल सके| अमरूद के पौधों को दी जाने वाली खाद व उर्वरक की मात्रा समय के अनुसार इस प्रकार है, जैसे-
खाद व उर्वरक की मात्रा
पौधे की उम्र | गोबर की खाद (किलोग्राम) | यूरिया (ग्राम) | सुपर फास्फेट (ग्राम) | पोटाश (ग्राम) |
रोपण के समय | 25 से 35 | – | 500 | – |
एक वर्ष | 15 | 260 | 325 | 100 |
दो वर्ष | 30 | 520 | 750 | 200 |
तीन वर्ष | 45 | 780 | 1125 | 300 |
चार वर्ष | 60 | 1040 | 1500 | 400 |
पांच वर्ष | 75 | 1300 | 1875 | 500 |
आमतौर पर अमरूद में जिंक या बोरॉन की कमी देखी जाती है| अमरूद में सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी के लक्षण और प्रबंधन इस प्रकार है, जैसे-
जिंक- जिंक की कमी से ग्रसित पौधों की बढ़त रुक जाती है, टहनियाँ ऊपर से सूखने लगती हैं, कम फूल बनते हैं और फल फट जाते हैं| जिंक की कमी से ग्रसित पौधे में सामान्य रूप से फूल नहीं लगते तथा पौधे खाली नज़र आते हैं| इससे फल की गुणवत्ता और उपज में भारी कमी आती है|
प्रबंधन
1. सर्दी व वर्षा ऋतु में फूल आने के 10 से 15 दिन पहले मृदा में 800 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति पौधा डालना चाहिए|
2. फूल खिलने से पहले दो बार 15 दिनों के अन्तराल पर 0.3 से 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट का छिड़काव किया जाना चाहिए|
बोरॉन- फलों का आकार छोटा रह जाता है और पत्तियों का गिरना आरम्भ हो जाता है| अधिक कमी होने से फल फटने लगते हैं| पौधे में बोरॉन की कमी होने पर शर्करा का परिवहन कम हो जाता है और कोशिकाएँ टूटने लगती हैं| गुजरात व राजस्थान में नयी पत्तियों पर लाल धब्बे पड़ जाते हैं, जिसे फैटियो रोग कहा जाता है|
प्रबंधन
1. फूल आने के पहले 0.3 से 0.4 प्रतिशत बोरिक अम्ल का छिड़काव करना चाहिए|
2. फल की अच्छी गुणवत्ता के लिए 0.5 प्रतिशत बोरेक्स (गर्म पानी में घोलने के बाद) का जुलाई से अगस्त में छिड़काव करना लाभदायक है, इससे फलों में गुणवत्ता आती है| पोषक तत्व प्रबंधन की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अमरूद के बागों में एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन कैसे करें, जानिए उपयोगी जानकारी
अन्य फलों की अपेक्षा अमरूद को कम सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है| यह लम्बे सूखे काल के साथ विभिन्न वर्षाकाल को आसानी से सह सकता है| वानस्पतिक वृद्धि तथा फूलों व फलों के विकास के समय उचित नमी को होना आवश्यक होता है| मानसून के दौरान वर्षा के अलावा सर्दियों में 25 दिनों के अन्तराल पर एवं गर्मियों में 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर की गई सिंचाई पौधों के उचित विकास एवं फलन में सहायता करती है|
सूखे की स्थिति में नये पौधों में उचित सिंचाई पर ध्यान दिया जाना चाहिए| प्रतिदिन होने वाले जल ह्रास को कम करने में टपक सिंचाई प्रणाली उचित साधन है| इस विधि से बाग में प्रतिदिन आवश्यकतानुसार हर पौधे में पर्याप्त मात्रा में पानी दिया जाता है| अमरूद में टपक सिंचाई प्रणाली में जल की आवश्यकता पौधे की आयु के अनुसार इस प्रकार होती है, जैसे-
टपक सिंचाई प्रबंधन
पौधे की आयु (वर्ष) | जल की आवश्यकता (ग्रीष्मकालीन) | जल की आवश्यकता (शरदकालीन) |
एक | 4 से 5 लीटर प्रति दिन | 2 से 4 लीटर प्रति दिन |
दो | 8 से 12 लीटर प्रति दिन | 6 से 8 लीटर प्रति दिन |
तीन | 15 से 20 लीटर प्रति दिन | 10 से 12 लीटर प्रति दिन |
चार | 25 से 30 लीटर प्रति दिन | 14 से 16 लीटर प्रति दिन |
पांच | 30 से 35 लीटर प्रति दिन | 18 से 20 लीटर प्रति दिन |
पांच से अधिक | 35 से 40 लीटर प्रति दिन | 22 से 24 लीटर प्रति दिन |
बाग लगाने के प्रथम 2 से 3 वर्षों के दौरान खरपतवार नियंत्रण बेहद महत्वपूर्ण है| इसके बाद पौधे स्वतः इतनी छाया आच्छादित करते हैं कि खरपतवार पनप नहीं पाते| काली पॉलीथीन (100 माइक्रोन) या कार्बनिक पदार्थों, जैसे, धान के अवशेष, सूखी घास, केले की पत्तियाँ तथा लकड़ी के बुरादे को तने के आस पास के क्षेत्र में फैला देने से खरपतवार नियंत्रण में काफी सहायता मिलती है और नमी बनी रहती है| जिससे पानी की कम आवश्यकता होती है|
कटाई-छंटाई एवं सधाई
अधिकतम उत्पादन हेतु, पौध रोपण के ठीक 3 से 4 माह के अन्दर ही अमरूद के पौधों को कटाई-छंटाई की आवश्यकता पड़ती है| प्रारम्भ में पौधे को 90 सेंटीमीटर से 1 मीटर की ऊँचाई तक सीधे बढ़ने दिया जाता है तथा इस ऊँचाई के बाद शाखाएँ निकलने देते हैं| जड़ के पास निकलने वाली शाखाओं को हटाते रहना चाहिए| सही तरीके से सधाई तथा छंटाई द्वारा तैयार किये गये पेड़ का व्यास 4 मीटर तक सीमित होना चाहिए| टहनियों के बीच का कोण अधिक रखा जाता है, ताकि पौधे के हर हिस्से को पर्याप्त सूर्य का प्रकाश मिल सके|
अन्तः फसलें
नये बाग में खाली पड़े स्थान पर कुछ फसल या सब्जियाँ उगा कर अतिरिक्त आर्थिक लाभ लिया जा सकता है| अतः सब्जियाँ एवं दलहनी फसलें अमरूद में अन्तः खेती के लिए उपयुक्त हैं| दलहनी फसलों से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है| मटर, चना, लोबिया, अरहर, आदि दलहनी फसलों को अमरूद के लिए प्राथमिकता दी जाती है, लेकिन कोई भी फसल फल वृक्ष के थाले में नहीं बोनी चाहिए| इसके अतिरिक्त हरी खाद फसलें, जैसे, सनई तथा ढेंचा भी भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं|
अमरूद में फूल आने के दो प्रमुख मौसम हैं| पहला मार्च से मई, जिसके फल बरसात के मौसम (जुलाई अंत से मध्य अक्टूबर) में तोड़े जाते हैं और दूसरा जुलाई से अगस्त, जिसके फल सर्दी (आखिरी अक्टूबर से मध्य फरवरी) में तोड़े जाते हैं| लेकिन, कभी-कभी एक तीसरी फसल भी ली जाती है, जिसमें फूल अक्टूबर एवं फल मार्च में प्राप्त होते हैं| वर्षा ऋतु के फूल, सर्दी में भरपुर तथा स्वादिष्ट फल देते हैं, जबकि वर्षा ऋतु की फसल अच्छी नहीं होती है|
विभिन्न प्रकार के फफूंद जनित रोग जैसे, एन्छेक्नोज तथा कीड़े जैसे, फल-मक्खी फलों को बेहद नुकसान पहुंचाते हैं| वर्षा ऋतु के फल शीघ्र खराब हो जाते हैं और फलों में कम चमक होती है| फलन नियमन की एक तकनीक विकसित की गयी है, जिसमें कम गुणवत्तायुक्त वर्षा ऋतु की फसल को किस्म इलाहाबाद सफेदा में 10 प्रतिशत यूरिया तथा किस्म सरदार में 15 प्रतिशत यूरिया का अप्रैल से मई के महीने में 10 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करने से रोका जा सकता है|
इस विधि में शीत ऋतु में गुणवत्तायुक्त फसल द्वारा उत्पादन में तीन से चार गुनी वृद्धि पायी गयी जो अतिरिक्त आय प्रदान करती है| एक अनुसंधान में देखा गया कि मई माह में पूरे पेड़ की शाखाओं को 50 प्रतिशत तक काट देने से नई शाखाओं का सृजन होता है, जिससे शीत ऋतु में भरपूर फसल मिलती है|
पुराने बाग जो निम्न गुणवत्तायुक्त फल देते हैं या न्यूनतम उत्पादन देते हैं| उनका जीर्णोद्धार करके उनसे अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है| जीर्णोद्धार के लिए सही विधि से पूनिंग की जाती है तथा पौधों में उचित उर्वरक एवं फसल संरक्षण प्रदान किया जाता है| मई माह में पुराने और कम उत्पादन देने वाले बाग के पौधों को ऊपर से काट दिया जाता है तथा अक्टूबर माह में नयी निकलने वाली शाखाओं का चुनाव करके अतिरिक्त शाखाओं का विरलीकरण किया जाता है| इन चुनी गयी शाखाओं पर ही शीत ऋतु में फसल ली जाती है|
रोग एवं नियंत्रण
विभिन्न रोगजनक विशेषतः कवक, अमरूद की फसल को प्रभावित करते हैं| उकठा रोग अमरूद का सबसे प्रमुख रोग है और इससे भारी हानि होती है| तुड़ाई से पहले एवं बाद में फलों का विगलन भी प्रमुख रोग है| अमरूद फलों में एन्ट्रेकनोज रोग से भी भारी हानि होती है|
उकठा- रोग का पहला बाहरी लक्षण ऊपरी टहनियों की पत्तियों का पीला पड़ना एवं उनके किनारों का थोड़ा मुड़ना होता है| इसमें पत्तियाँ मुरझाने लगती हैं और रंग पीला-लाल सा हो जाता है तथा टहनियाँ पर्णविहीन हो जाती हैं एवं अन्त में सम्पूर्ण पौधा पत्तीरहित व मृत हो जाता है| पुराने पेड़ों को अधिक क्षति होती है| उकठा मुख्यतः दो प्रकार का होता है, धीमा उकठा और शीघ्र उकठा|
1. अमरूद के बाग को साफ-सुथरा रखना चाहिए|
2. रोगग्रसित पौधों को उखाड़ कर जला देना चाहिए|
3. पौध लगाते समय जड़े क्षतिग्रस्त नहीं होनी चाहिए|
4. पौधों को प्रतिरोपित करने से पहले गड्ढों को फार्मलीन से उपचारित करना चाहिए|
5. रोग रोधक मूलवृंत सीडियम मोले x सीडियम ग्वाजावा का प्रयोग किया जा सकता है|
6. एस्परजिलस नाइजर स्ट्रेन ए एन 17 द्वारा जैविक नियंत्रण काफी प्रभावी पाया गया है| एस्परजिलस नाइजर को गोबर की खाद में विकसित कर 5 किलोग्राम खाद प्रति पौध की दर से नए पौधों को लगाते समय डालना चाहिए| पुराने पेड़ों के लिए यह खाद 10 किलोग्राम प्रति पेड़, प्रति वर्ष जून में डालना चाहिए|
एन्ट्रेकनोज- यह फल का संक्रमण आम तौर पर बरसात के महीने में देखा जाता है| फलों पर धब्बे गहरे भूरे रंग के, धंसे हुए, गोलाकार होते हैं तथा इन धब्बों के बीच में अधिक मात्रा में बीजाणु बनते हैं| ऐसे छोटे धब्बे आपस में मिल कर बड़े धब्बे बनाते हैं|
नियंत्रण
1. कॉपर आक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का सात दिनों के अन्तराल पर छिड़काव लाभकारी है|
2. डाइथेन जेड- 78 (0.2 प्रतिशत) का मासिक छिड़काव भी रोग नियंत्रण में उपयोगी पाया गया है|
अमरूद में फल-मक्खी, छाल-भक्षी कैटरपिलर एवं फल-भेदक मुख्य नाशी कीट माने जाते हैं|
फल-मक्खी- अमरूद के उत्पादन में फल मक्खी सबसे अधिक हानिकारक कीट है, विशेषकर वर्षा ऋतु के मौसम में यह अत्यन्त हानि पहुँचाती है| उत्तर भारत में अमरूद को ग्रसित करने वाली जिन मुख्य फल-मक्खियों की प्रजातियों की पहचान की गयी है, वे हैं कोरेक्टा और जोनेटा| इनके द्वारा अण्डे पकते फलों में दिए जाते हैं तथा मैगट गूदे को खाते हैं|
फल मक्खी की संख्या जुलाई से अगस्त में सबसे अधिक होती है| ग्रसित स्थान पर फूल मुलायम पड़ जाते हैं| प्रभावित फल सड़ जाते हैं और पकने से पहले ही गिर जाते हैं| अण्डे दिये जाने के कारण बने छिद्रों द्वारा फलों पर कई रोगकारकों का संक्रमण हो जाता है|
नियंत्रण
1. ग्रसित फलों को फल-मक्खी के मैगट सहित एकत्र कर नष्ट कर देना चाहिए|
2. मिथाइल यूजीनॉल बोतल ट्रैप्स (0.1 प्रतिशत मिथाइल यूजीनॉल + 0.1 प्रतिशत मैलाथियान का 100 मिलीलीटर घोल) को लटकाना इस नाशी जीव के नियन्त्रण में बहुत प्रभावशाली है|
3. फल के पकने से काफी पहले ऐसे 10 ट्रैप्स प्रति हेक्टेयर की दर से 5 से 6 फुट ऊँचाई पर लगाये जा सकते हैं|
छाल-भक्षी कीट- यह नाशी कीट मुख्यत: तनों तथा शाखाओं में छेद करता है और छाल को खाता है| यह नाशी कीट सामान्य तौर पर उन बागों में अधिक पाया जाता है| जिनकी देख-भाल ठीक से नहीं की जाती है| इसके प्रकोप की पहचान लार्वी द्वारा प्ररोहों, शाखाओं और तनों पर बनायी गयी अनियमित सुरंगों से होती है, जो रेशमी जालों, जिसमें चबायी हुई छाल के टुकड़े और इनके मल सम्मिलित होते हैं से ढकी होती हैं| इनके आवासी छिद्र विशेष कर प्ररोहों एवं शाखाओं के जोड़ पर देखे जा सकते हैं|
1. प्रकोप की शुरूआत में ही, आवासी छिद्रों को साफ कर, उनमें तार डाल कर लार्वी को नष्ट कर देना चाहिए|
2. अधिक प्रकोप होने पर सुरंगों एवं आवासीय छिद्रों को साफ कर रुई के फाये को 0.05 प्रतिशत डाइक्लोरवास के घोल में भिगो कर छिद्रों में रख कर, गीली मिट्टी से बन्द कर देना चाहिए या 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस या 0.05 प्रतिशत क्लोरपाइरीफॉस का घोल बना कर छिद्रों में डाल कर गीली मिट्टी से बन्द कर देना चाहिए|
अनार तितली- इस नाशी कीट का प्रकोप अमरूद में बरसाती तथा शीत ऋतु दोनों फसलों में होता है| मादा तितली फलों पर अण्डे देती है| लार्वे फल को भेदते हैं और गूदे एवं बीज को खा कर इसे अन्दर से खोखला कर देते हैं| इस कीट के द्वारा फल खराब हो जाते हैं|
कैस्टर कैप्सूल भेदक- यह एक दूसरा बहुभक्षी कीट है, जिसके लार्वी अमरूद के फल को हानि पहुँचाते हैं| लार्वी बढ़ते हुए फल के गूदे और बीजों को खाते हैं, जिससे फल पकने से पहले ही गिर जाते हैं| फल के निचले हिस्से में प्यूपा-कोष्ठ में प्यूपा बनता है| इस नाशी कीट का प्रकोप बरसाती अमरूद में होता है| लार्वी द्वारा छिद्रों से विसर्जित मल निकलता हुआ देखा जा सकता है|
1. ग्रसित फलों को एकत्र कर नष्ट करना चाहिए|
2. फलों के पकने से पहले 0.2 प्रतिशत कार्बारिल या 0.04 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस या इथौफेन्प्रोक्स 0.05 प्रतिशत कीट नाशी का 2 छिड़काव करना चाहिए|
3. अन्तिम छिड़काव के बाद कम से कम 15 दिनों की प्रतीक्षा के बाद ही फलों की तुड़ाई की जानी चाहिए| अमरूद में कीट और रोग रोकथाम की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- अमरूद में कीट एवं रोग की रोकथाम कैसे करें, जानिए उपयोगी तकनीक
फल तुड़ाई
उत्तरी भारत में अमरूद की दो फसलें होती हैं| एक वर्षा ऋतु में एवं दूसरी शीत ऋतु में, शीतकालीन फसल के फलों में गुणवत्ता अधिक होती है| फलों की व्यापारिक किस्मों के परिपक्वता मानक स्थापित किए जा चुके हैं| आमतौर पर फूल लगने के लगभग 4 से 5 महीने में अमरूद के फल पक कर तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं| इस समय फल का गहरा हरा रंग पीले-हरे या हल्के पीले रंग में बदल जाता है| अमरूद के फल अधिकतर हाथ द्वारा ही तोड़े जाते हैं|
वर्षा ऋतु की फसल को प्रत्येक दूसरे या तीसरे दिन तोड़ने की आवश्यकता रहती है| जबकि सर्दी की फसल 4 से 5 दिनों के अंतराल पर तोड़नी चाहिए| फलों को एक या दो पत्ती के साथ तोड़ना अधिक उपयोगी पाया गया है| फलों को तोड़ते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनमें किसी प्रकार की खरोंच अथवा चोट न लगे और वे ज़मीन पर न गिरने पाएं|
अमरूद के पौधे, दूसरे साल के अन्त या तीसरे साल के शुरूआत से फल देना आरम्भ कर देते हैं| तीसरे साल में लगभग 8 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है, जो सातवें वर्ष में 25 टन प्रति हेक्टेयर तक बढ़ जाता है| उपयुक्त तकनीक का प्रयोग करके 40 वर्षों तक अमरूद के पौधों से फसल ली जा सकती है| आर्थिक दृष्टि से 20 वर्षों तक अमरूद के पौधों से लाभकारी उत्पादन लिया जा सकता है| सघन बागवानी से 30 से 40 टन तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है|
पेटीबंदी
गत्ते की पेटियां (सी एफ बी बक्से) अमरूद के फलों को पैक करने के लिए उचित पायी गयी हैं| इन पेटियों में 0.5 प्रतिशत छिद्र, वायु संचार के लिए उपयुक्त होते हैं| नए शोधों से ज्ञात होता है, कि फलों को 0.5 प्रतिशत छिद्रयुक्त पॉलीथीन की पैकिंग में भी रखा जा सकता है|
अमरूद की लाभकारी बागवानी एवं उत्पादन के लिए संक्षेप में कुछ सुझाव इस प्रकार है, जैसे-
1. अधिक उत्पादन देने वाली विश्वसनीय किस्मों का चयन करना|
2. सघन बागवानी पद्धति को अपनाना|
3. प्रारम्भिक अवस्था से ही पौधों को विशेष आकार देने तथा मजबूत ढाँचे के लिए कटाई-छंटाई प्रक्रिया अपनाना, ताकि पौधे ऊँचाई में अधिक न बढ़े|
4. पानी के समुचित उपयोग के लिए टपक (ड्रिप) सिंचाई प्रणाली का प्रयोग|
5. बाग की समुचित सफाई, एन्थ्रेकनोज एवं उकठा रोग तथा फल-मक्खी एवं छाल-भक्षी कीट का प्रबन्धन|
6. उकठा रोग नियंत्रण हेतु एस्परजिलस नाइजर एवं ट्राइक, प्रयोग करना|
7. बाग स्थापन हेतु उकठा रोग प्रतिरोधी मूलवृन्त पर प्रसारित पौधों का उपयोग|
8. समय पर अमरूद के फलों की तुड़ाई|
9. फसल नियमन हेतु यूरिया का प्रयोग अथवा मई माह में शाखाओं की 50 प्रतिशत तक कटाई|
11. अमरूद के पुराने बागों का जीर्णोद्धार करें|
12. फल बिक्री हेतु बाजार का सर्वेक्षण तथा वहाँ फलों को भेजने की व्यवस्था करना|
शरीफा की खेती
परिचय
झारखंड की भूमि और जलवायु शरीफा की खेती के लिये अत्यंत उपयुक्त है। यहाँ के जंगलों में इसके पौधे अच्छे फल देते है जिसे इक्ट्ठा करके स्थानीय बाजारों में अगस्त-अक्टूबर तक बेचा जाता है। यदि इसकी वैज्ञानिक विधि से खेती की जाय तो यहाँ के किसान इससे अच्छी आमदनी प्राप्त कर सकते है साथ ही पोषण सुरक्षा में भी मदद मिलेगी।
शरीफा एक मीठा व स्वादिष्ट फल है। इसे “सीताफल” भी कहा जाता है। इसका वानस्पतिक नामअनोनस्क्चैमोसा है। इसकी पत्तियाँ गहरी हरी रंग की होती है। जिसमें एक विशेष महक होने की वजह से कोई जानवर इसे नहीं खाते हैं। इसलिये उसके पौधे को विशेष देखभाल की आवश्यकता नहीं होती है। साथ ही इसके पौधों पर हानिकारक कीड़े एवं बीमारियाँ भी नही लगते हैं। शरीफा औषधीय महत्व का भी पौधा है। इसकी पत्तियाँ हृदय रोग में टॉनिक का कार्य करता है क्योंकि इसकी पत्तियों में टेट्राहाइड्रो आइसोक्विनोसीन अल्कलायड पाया जाता है। इसकी जड़े तीव्र दस्त के उपचार में लाभकारी होती हैं। शरीफे के बीजों से निकालकर सुखाई हुई गिरी में 30 प्रतिशत तेल पाया जाता है, इससे साबुन तथा पेन्ट बनाया जाता है। पोषण की दृष्टि से भी शरीफा का फल काफी अच्छा माना गया है। फलों में 14.5 प्रतिशत शर्करा पाई जाती है जिसमें ग्लूकोज की अधिकता होती है। फलों के गूदे को दूध में मिलाकर पेय पदार्थ के रूप में उपयोग किया जाता है एवं आइस्क्रीम इत्यादि बनाया जाता है।
भूमि एवं जलवायु
शरीफा के पौधे लगभग सभी प्रकार के भूमि में पनप जाते हैं परन्तु अच्छी जल निकास वाली दोमट मिट्टी इसकी बढ़वार एवं पैदावार के लिये उपयुक्त होती है। कमजोर एवं पथरीली भूमि में भी इसकी पैदावार अच्छी होती है। इसका पौधा भूमि में 50 प्रतिशत तक चूने की मात्रा सह लेता है। भूमि का पी.एच.मान 5.5 से 6.5 के बीच अच्छा माना जाता है। शरीफा के पौधे के लिये गर्म और शुष्क जलवायु वाले क्षेत्र जहाँ पाला नहीं पड़ता है, अधिक उपयुक्त होता है। पाले वाले क्षेत्र में इसकी फसल को हानि होती है। झारखंड के हजारीबाग, राँची, साहेबगंज, पाकुड़, गोड्डा इत्यादि जिलों में इसकी अच्छी खेती की जा सकती है।
किस्में
शरीफा की किस्में स्थान, फलों के आकार, रंग, बीज की मात्रा के आधार पर वर्गीकृत किये गये है। प्रमुखत: बीज द्वारा प्रसारित होने के कारण अभी तक शरीफा की प्रमाणिक किस्मों का अभाव है। परन्तु फलन एवं गुणवत्ता के आधार पर कुछ किस्मों का चयन किया गया है।
बाला नगर
झारखंड क्षेत्र के लिए यह एक उपयुक्त किस्म है। इसके फल हल्के हरे रंग के होते हैं। यहाँ के जंगलों में इसके अनेक स्थानीय जननद्रव्य पाये गये है।
अर्का सहन
यह एक संकर किस्म है जिसके फल अपेक्षाकृत चिकने और अधिक मीठे होते है।
लाल शरीफा
यह एक ऐसी किस्म है जिसके फल लाल रंग के होते हैं तथा औसतन प्रति पेड़ प्रति वर्ष लगभग 40-50 फल आते हैं। बीज द्वारा उगाये जाने पर भी काफी हद तक इस किस्म की शुद्धता बनी रहती है।
मैमथ
इसकी उपज लाल शरीफा की अपेक्षा अधिक होती है। इस किस्म में प्रतिवर्ष प्रति पेड़ लगभग 60-80 फल आते हैं। इस किस्म के फलों में लाल शरीफा की अपेक्षा बीजों की संख्या कम होती है।
पौधा प्रसारण
शरीफा मुख्य रूप से बीज द्वारा ही प्रसारित किया जाता है। किन्तु अच्छी किस्मों की शुद्धता बनाये रखने, तेजी से विकास एवं शीध्र फसल लेने के लिये वानस्पतिक विधि द्वारा पौधा तैयार करना चाहिए। वानस्पतिक विधि में बडिंग एवं ग्राफ्टिंग से अधिक फसल पायी गई है। ग्राफ्टिंग के लिये अक्टूबर-नवम्बर एवं बडिंग के लिए फरवरी मार्च का महीना छोटानागपुर क्षेत्र के लिये उचित पाया गया है।
शील्ड बडिंग जनवरी से जून तथा सितम्बर-अक्टूबर के महीने में अच्छी सफलता प्राप्त होती है। शरीफा में शील्ड बडिंग के द्वारा पौधा तैयार करना सबसे आसान है। पिछली ऋतु में निकली स्वस्थ एवं परिपक्व कालिका काष्ठ का चुनाव कर लेते है। मूलवृंत एक वर्ष पुराना तथा पेंसिल की मोटाई का होना चाहिये। प्रतिरोपण के बाद लगभग 15 दिन तक कलिका को पॉलीथीन की पतली मिट्टी या केले के रेशे द्वारा बांध देते है।
पौधा रोपण
शरीफा लगाने के लिये जुलाई का महीना उपयुक्त रहता है। शरीफा का बीज जमने में काफी समय लगता है। अत: बोने से पहले बीजों को 3-4 दिनों तक पानी में भिगा देने पर जल्दी अंकुरण हो जाता है। इसके पौधे को सीधे बगीचे में जहाँ लगाना हो वहीं पर थाले बनाकर एक स्थान पर 3-4 बीज बोते हैं। जब पौधे लगभग 15 सें.मी. के हो जायें तो अतिरिक्त पौधे निकालकर केवल एक पौधा को बढ़ने के लिए छोड़ देना चाहिये। नर्सरी में बीज बोकर बाद में पौधों की रोपाई करने पर शरीफा का काफी पौधा मर जाता है इसको लगाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि पॉलीथीन के थैलियों में मिट्टी भरकर बीज लगाये और जब पौधे जमकर तैयार हो जायें तब पॉलीथीन के थैलियों को नीचे को अलग कर दें। पौधें को पिंडी सहित बगीचे में तैयार गड्ढे में लगा दें। शरीफा के पौधे के लिये गर्मी के दिनों में 60 x 60 x 60 सें.मी. आकार के गड्ढे 5 x 5 मी. की दूरी पर तैयार किये जाते हैं। इन गड्ढों को 15 दिन खुला रखने के बाद ऊपरी मिट्टी में 5-10 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद, 500 ग्राम करंज की खली तथा 50 ग्राम एन.पी.के. मिश्रण को अच्छी तरह मिलाकर भर देना चाहिये। इसके बाद गड्ढे की अच्छी तरह दबा दें और उसके चारों तरफ थाला बनाकर पानी दे दें। यदि वर्षा न हो रही हो तो पौधों की 3-4 दिन पर सिंचाई करने से पौधा स्थापना अच्छी होती है।
खाद एवं उर्वरक
शरीफा के पेड़ में प्रत्येक वर्ष फलन होती है अत: अच्छी पैदावार के लिये उचित मात्रा में सड़ी हुई गोबर की खाद एवं रासायनिक उर्वरक देनी चाहिये। शरीफे की पूर्ण विकसित पेड़ में 20 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 40 ग्रा. नाइट्रोजन, 60 ग्रा. फास्फोरस और 60 ग्रा. पोटाश प्रति पेड़ प्रति वर्ष देना चाहिए।
सिंचाई
शरीफा के पौधों को गर्मियों में पानी देना आवश्यक होता है। अत: इस समय 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिये। वर्षा की समाप्ति के बाद एक या दो सिंचाई करने से फलों का आकार बड़ा होता है।
पौधों की देख-रेख एवं काट-छांट
पौधा लगाने के बाद से पौधे की नियमित रूप से देखभाल की जानी चाहिये। पौधे के थालों में समय-समय पर खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। पौधों में जुलाई-अगस्त में खाद एवं उर्वरक प्रयोग तथा आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिये। नये पौधों में 3 वर्ष तक उचित ढाँचा देने के लिये कांट-छांट करना चाहिये। कांट-छांट करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि तने पर 50-60 सें.मी. ऊँचाई तक किसी भी शाखा को नहीं निकलने दें उसके ऊपर 3-4 अच्छी शाखाओं को चारों तरफ बढ़ने देना चाहिये जिससे पौधा का अच्छा ढांचा तैयार होता है। शरीफा में फल मुख्यत: नई शाखाओं पर आते हैं। अत: अधिक संख्या में नई शाखायें विकसित करने के लिये पुरानी, सूखी तथा दूसरों से उलझ कर निकलती हुई शाखाओं को काट देना चाहिये।
पुष्पन एवं फलन
शरीफा में पुष्पन काफी लम्बे समय तक चलता है। उत्तर भारत में मार्च से ही फूल निकलना प्रारंभ हो जाता है और जुलाई तक आता है। पुष्प कालिका के आँखों से दिखाई पड़ने की स्थिति से लेकर पूर्ण पुष्पन में लगभग एक महीने तथा पुष्पन के बाद फल पकने तक लगभग 4 महीने का समय लगता है। पके फल सितम्बर-अक्टूबर से मिलना शुरू हो जाते है। बीज द्वारा तैयार किये गये पौधे तीसरे वर्ष फल देना प्रारंभ करते हैं जबकि बडिंग एवं ग्राफ्टिंग द्वारा तैयार पौधे दूसरे वर्ष में अच्छी फलन देने लगते है। फूल खिलने के तुरन्त बाद 50 पी.पी.एम. जिबरेलिक एसिड के घोल का छिड़काव कर देने से फलन अच्छी होती है।
फलों की तुड़ाई
शरीफा के फल जब कुछ कठोर हों तभी लेना चाहिए क्योंकि पेड़ पर काफी दिनों तक छुटे रहने पर वे फट जाते हैं। अत: इसकी तुड़ाई के लिये उपयुक्त अवस्था का चुनाव करना चाहिये। इसके लिये जब फलों पर दो उभारों के बीच रिक्त स्थान बढ़ जाय तथा उनका रंग परिवर्तित हो जाय तब समझना चाहिये फल पकने की अवस्था में हैं। अपरिपक्व फल नहीं तोड़ना चाहिये क्योंकि ये फल ठीक से पकते नहीं और उनसे मिठास की मात्रा भी कम हो जाती है।
अंत: सस्य फसलें
शरीफा के पौधे जब छोटे हों तो उसके बीच में सब्जियाँ व अन्य फसलें उगा सकते हैं। शरीफा के बाग़ में फ्रेंचबीन एवं बोदी आदि फसलें झारखंड के लिए अधिक उपयुक्त पायी गयी है।
उपज
पौधा लगाने के तीसरे वर्ष से यह फल देना प्रारंभ कर देता है। एक 4-5 वर्ष पुराने पौधे में 50-60 फल लगता है जबकि पूर्ण विकसित पौधे से 100 फल तक उपज मिलता है।
नींबू की वैज्ञानिक खेती
परिचय
लाईम एवं लेमन का उत्पादन व्यापारिक दृष्टिकोण से उष्णकटिबंधीय एवं उप-उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में की जाती है जहाँ इस जाति में एसिड लाईम (साईट्रस ओरंटीफोलिया) मौसमी एवं मीठे नारंगी के बाद तीसरा मुख्य फसल है, वहीँ दूसरी तरफ नींबू (साईट्रस लिमोन) का उत्पादन सिमित क्षेत्रों में किया जाता है। भारत दुनिया के देशों में लाईम एवं लेमन उत्पाद में 5वां स्थान रखता है। भारत संभवतः दुनिया में एसिड लाईम का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। इसका उत्पादन प्रायः भारत के सभी प्रदेशों में होता है। तमिलनाडु, कर्नाटका, गुजरात, बिहार, हिमाचल प्रदेश में इसकी प्रचुर मात्रा में खेती होती है। भारत में लेमन, लाईम की अपेक्षा कम लोकप्रिय है, फिर भी इसकी खेती व्यापारिक दृष्टिकोण से पर्याप्त मात्रा में पंजाब, राजस्थान एवं उत्तरप्रदेश के तराई क्षेत्रों में की जाती है।
एसिड लाईम के अतिरिक्त स्वीट लाईम (साईट्रस लाईमटवाडीस) टाहिटी लाईम (साईट्रस लैटीफोलिया) एंव रंगपुर लाईम साइट्रस लिमोनिया) की सिमित खेती भी भारत में की जाती है। उत्तर भारत में स्वीट लाईम इस जाती का मुख्य फल है टाहिटी लाईम का कर्नाटका एंव तमिलनाडु प्रदेश में अच्छा उत्पादन होता है, फिर भी मीठा एवं टाहिटी लाईम व्यापारिक उत्पादन दृष्टिकोण से एसिड लाईम को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है। रंगपुर लाईम की खेती मुख्यतः प्रकन्द के लिए की जाती है।
जलवायु एवं मिट्टी
एसिड लाईम के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु की आवश्यकता होती है नींबू के सबसे कोमल फल होने के कारण इसकी खेती देश के सभी भागों में की जाती है, जो पाला से प्रभावित नहीं है इसकी खेती मुख्यतया सूखे क्षेत्रों में की जाती है इसकी खेती के लिए गर्भ, मध्यवर्त्ती आर्द्र, तेज हवा एवं पालारहित जलवायु आदर्श मानी जाती है। उत्तरी भारत में जहाँ का तापक्रम विशेष अवसरों पर शून्य से नीचे गिर जाता है एसिड लाईम के व्यापारिक उत्पादन के लिए घातक सिद्ध हो जाता है। दक्षिण एवं मध्य भारत के पालारहित क्षेत्रों में जहाँ की वर्षा 750 मि. मि. ज्यादा नहीं होती, इस फसल का अच्छा प्रदर्शन होता है। इसकी खेती औसत समुद्री सतह से 1000 मीटर की ऊंचाई पर भली प्रकार की जा सकती है बशर्ते कि आर्द्रता कम एवं अनुकूल हो। असम एवं बंगाल के अधिक आर्दता वाले क्षेत्रों में जहाँ वर्षा 1200 मिमि० से अधिक है, लाईम –साइट्रस कैंकर एवं पाउडरी मिल्ड्यू से ज्यादा प्रभावित हो जाता है। जिसके कारण इसके पेड़ अनुत्पादक एवं कम अवधि के हो जाते हैं।
एसिड लाईम के विपरीत मीठा लाईम का उत्पादन विपरीत जलवायु परिस्थिति में भी की जा सकती है। चूँकि या एसिड लाईम से ज्यादा कठोर प्रवृति वाला है। इसलिए यह पाला अवस्था को भी कुछ हद तक सह सकता है। यह उत्तरी भारत के शुष्क में अवस्था में दक्षिण भारत के समान जलवायु रहने पर भी ज्यादा उपज देता है।
रंगपुर लाईम की खेती पूरे भारत में विशेषकर शुष्क क्षेत्रों में की जाती है। रंगपुर लाईम के लिए अनुकूल तापक्रम 20-30 से०ग्रे० है आर्द क्षेत्रों में यह स्कैब रोग ग्रसित हो जाता है।
एसिड लाईम की अपेक्षा लेमन अपने जलवायु परिस्थिति में ज्यादा उदार देती है. लेमन लाइम की अपेक्षा अधिक गर्मी एवं ठण्ड सह सकते हैं। इनकी अनुकूलनशीलता अधिक होती है क्योंकि ये आर्द्र एवं कम आर्द्र क्षेत्रों, समतल एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छी प्रकार फूल-फल सकते हैं।
लेमन औसत समुद्री सतह से 1200 मीटर की ऊंचाई पर भी अच्छा उत्पादन देते हैं एसिड लाईम की अपेक्षा ये पाला को अधिक सह सकते हैं, इसलिए पाला प्रभावित क्षेत्रों में लेमन द्वारा लाईम को प्रतिस्थापित किया जाता है।
एसिड लाईम की खेती अनेक प्रकार की मिट्टियों में की जा सकती है। इसकी खेती काली मिट्टी एवं हल्की दोमट मिट्टी में भली प्रकार की जा सकती है। लाईम के लिए 2.0 -2.5 मीटर गहरी मिट्टी, व्यवस्थित जल-निकास, जैविक पदार्थ सम्पन्न, एवं उर्वरता वाली दोमट मिट्टी अनुकूल पायी गयी है। यह जल-जमाव के प्रति ज्यादा संवेदनशील होता है। इसके लिए अस्थिर भू-गर्भीय जलस्तर, निचला क्षेत्र, जलजमाव आदि हानिकारक हैं। उचित जल-निकास सहित भारी मिट्टी इसकी अच्छी पैदावार दे सकती है। पर खेत काफी थकानेवाली तथा नीरस हो जाती है। इससे अधिक विकास एवं उपज के लिए अच्छी जल निकास, 6.5 से 7.0 पी० एच० वाली मिट्टी अच्छी होती है। क्षारीय या अधिक चूनावाली मिट्टी इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है क्योंकि इस परिस्थिति में सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता कम हो जाती है।
लाईम की खेती अनेक प्रकार की मिट्टियों की की जा सकती है एवं दो दोषपूर्ण मिट्टी को भी सह सकता है, फिर भी इसकी खेती जल निकास वाली गहरी दोमट मिट्टी में सफलतापूर्वक की जा सकती हैं।
लेमन की खेती भी उपरोक्त की भांति अनेक प्रकार की मिट्टियों में की जा सकती है। बलुआही दोमट या दोमट मिट्टी अच्छे जल निकास के साथ, इसकी खेती के लिए उपयुक्त है। लेमन की खेती अधिक उत्पादन सहित छिछली गहराईवाली मिट्टी में भी हो सकती है जहाँ 1.0 मीटर गहराई तक जल एवं हवा की काफी मात्रा उपलब्ध स्थिति में हो।
प्रभेद
एसिड लाईम
यूँ तो लाईम की खेती सदियों से की जा रही है, फिर भी इसकी कोई उन्नत किस्म उपलब्ध नहीं है। साधारणतः खेती की जानेवाली लाईम एसिड लाईम है जिसे कागजी नींबू कहा जाता है। लाईम के विभिन्न प्रभेदों के पेड़ों में अधिक बदलाव नहीं होता है। महाराष्ट्रमें विक्रम दो प्रभेद एक पूर्वजक द्वारा पह्चानित किये गये हैं एवं उन्हें व्यापारिक तौर पर उत्पादन हेतु विमुक्त किया गया है, क्योंकि या कैंकर से मुक्त तथा प्रचुर मात्रा में फल देते हैं।
प्रभालिनी
इसके फल 3.7 के गुच्छे में होते हैं तथा साधारण कागजी नींबू से 30% अधिक उपज देते हैं। इनके फलों में 57% रस होता है जो कि विक्रम (53%) एवं साधारण नींबू (52%) से अधिक होता है।
विक्रम
इसके फल 3.7 के गुच्छे में होते हैं तथा बेमौसमी फल भी सितम्बर, मई एवं जून माह में प्राप्त हो जाते हैं। इसका उत्पादन साधारण लाइम से 30-32% ज्यादा होता है।
चक्रधर
यह बीज रहित होता होता है इसके पौधे सीधे, घने होते है। इसके फल गोल होते हैं। इसमें 60 -66% बीज रहित रस होता है, जबकि दूसरे प्रभेद में 52-62% रस होता है तथा प्रतिफल 6-8 बीज होते हैं। पौधा-रोपण के चार साल पश्चात फल आना प्रारंभ हो जाता है इसके फल जनवरी--फरवरी जून-जुलाई तथा सितम्बर-अक्तूबर में आते हैं।
पी० के० एम० 1
इसके फल गोल, मध्यम- बड़े आकार एवं आकर्षक पीले रंग का छिलका लिए होता है। इसमें 52.31% रस होता है। स्थानीय प्रभेदों से इसकी उपज अधिक होती है।
स्लेकशन 49 – यह प्रचुर मात्रा में फल देता है। इसके फहल बड़े आकार के होते है, इसके फल ग्रीष्मकाल में आते हैं। तथा कैंकर, ट्रिसटेजा एवं पत्ती छेदक रोग के प्रतिरोधी हैं।
सीडलेस लाईम
यह लाईम का नया सलेक्शन है। इसके फल का आकर अंडाकार, छिलका –पताला, गेंदाफूल का रंग प्रचुर फल होने के कारण देर से एंव स्थानीय प्रभेदों से दुगुना उपज देता है।
स्वीट-लाईम
स्वीट लाईम उपरोक्त लाईम से एकदम अलग का समूह है जिसका जन्म स्थान संदेहात्मक है। इसका स्वाद मीठा होता है, इसके फल गोलाकार, पीला, हल्का, छिलका, चिकना, पीलापन लिए उजला गूदा, रसदार एवं मीठा तथा बीज हल्के रंग के होते हैं। स्वीट लाईम का उत्पादन मुख्य रूप से प्रकन्द एवं अम्ल रहित फलों के लिए किया जाता है इसके दो प्रभेदों की खेती भारत्त में होती है।
मीठा चिकना
इसके फल गोलाकार, पीला रंग, चिकना चमकदार सतह, तेल ग्रंथि युक्त, छिलका पतला, कठोर, मध्य कड़ा गुदा, रसदार, एवं कम बीज वाले होते हैं।
मीठोट्रा
इसके फल बड़े, चोटी दबी हुई, लेमन पीला रंग, छिलका मोटा एवं कड़ा, तेल ग्रंथि युक्त, पीलापन-उजला गुदा, मीठा, अच्छे गंधवाले होते हैं। रस का गंध मीठा चिकना के अपेक्षा काफी सुहावना होता है।
रंगपुर लाईम
यह स्वदेशी फल है। इसके पेड़ हमेशा हरे, फैले हुए एवं काफी उत्पादन देनेवाले होते है। इसका चिल्का एवं गुदा नारंगी रंग का, छिलका पतला एवं गुदे से जल्द अलग हो जानेवाला होता है। इसकी खेती मुख्यतया प्रकन्द के लिए की जाती है। कुछ अंश तक इसकी खेती फूलदार पौधों के रूप में तथा फल के लिए की जाती है। इससे लाईमनेड बनाया जाता है। रंगपुर लाईम के अनेक उभेद है पर इसकी पह्चानित प्रभेद नहीं है।
लेमन
सही लेमन को दो अलग-अलग समूहों में बांटा गया है- एसिडलेमन एवं स्वीट लेमन। एसिड लेमन की खेती भारत में होती है वहीं स्वीट लेमन की खेती दक्षिण अमेरिका एवं मिश्र में होती है। फल एवं पेड़ की विशेषताओं के आधार पर सही लेमन के चार समूहों में विभाजित किया गया है- यूरेका, लिसबान, एनामालस एवं स्वीट लेमन।
युरेका
इसके फल का रंग लेमन पीला, झुरीदार सतह, खुरदरा, अंडाकार, मध्य आकार, गोल आधार, ग्रीवायुक्त, 9-10 हिस्सों में बंटा हुआ, अधिक रसदार, पूरा अम्लीय, गुणवत्ता एंव सुहावना एवं 6-10 बीज होए है, इसमें पूर्व में फल आ जाते है तथा पैदावार अधिक होती है। इसके फल डाली के अंत में दो पत्तियों के साथ आते हैं। पंजाब में इसके फल अगस्त पश्चात पकते हैं।
लिसबान
इसके फल लेमन पीला, चिकना, सतह, फल का आकार अंडाकार, मध्यम आकार, आधार पतले गर्दन की तरह ऊपर का भाग गोला, छिलका खुरखरा, 7-10 हिस्सों में बंटा हुआ, अधिक रसदार, पूरा अम्लीय एवं बीज की संख्या 0-10 होती है।
विलाफ्रांका
यह यूरेका लेमन जाति का होता है। इसके फल अंडाकार, मध्य-बढ़ा आकार, तेज लेमन पीला रंग, नुकीलीदार चोटी, आधार गोल, छिलका पतला एवं चिकना, 10-12 हिस्सों में बंटा हुआ, रंगहीन रस, अच्छा गंध एवं 25-30 बीज होते हैं।
लखनऊ सीडलेस
इसके फल अंडाकार, लेमन पीला, चिकना शीर्षनुकिला, पतला छिलका, खाली मध्य रेखा, 10-13 हिस्सों में बंटा हुआ, रसदार, गंध अच्छा एवं खट्टा, लगभग बीज रहित होते हैं तथ नवम्बर-जनवरी तक पकते हैं।
कागजी कलान
इसके फल का आकार मध्यम, गोल, पीला, आधार गोल, पतला चिलका, चिकना, गुदा अम्लीय, हल्का, पीला, रसदार एवं 8-13 बीज होते हैं।
नेपाली आबलौंग (आसाम लेमन)
इसके फल लेमन पीला, आधार गोल, ऊपरी हिस्सा नोंकदार, पतला छिलका, चिकना खाली मध्य रेखा, 10-13 हिस्सों में बंटा हुआ, गुदा, हल्का पीला, रसदार, अच्छा गंध, खट्टा तथा लगभग बीज रहित होते है। इसके फल दिसम्बर-जनवरी तक पकते हैं।
नेपाली राउंड
इसके फल गोल एवं रसदार होते हैं।
पन्त लेमन – यह कागजी कलान का सलेक्शन है। इसके फल मध्यम आकार (80-100), गोल एवं चिकना पतला छिलका, रसदार, कैंकर ट्रिसटेजा, डाईबैक प्रतिरोधी होते हैं। यह उत्तरप्रदेश के तराई क्षेत्र के लिए कागजी कलान का प्रतिस्थानी है क्योंकि कागजी कलान ट्रिसटेजा, कैंकर, एवं डाइबैक बीमारियों के लिए ग्रहणशील है।
प्रजनन
एसिड लाईम
एसिड लाईम का व्यापारिक उत्पादन हेतु प्रजनन बीज द्वारा होता है। इसे कटिंग, लेयरिंग एवं बडिंग द्वारा भी प्रजनित किया जा सकता है। इस विधि में वायरस बीमारी की संभावना कम हो जाती है, पर बीज द्वारा प्रजनन आसान एवं सस्ता होता है। साधारणतया बीज प्रजनन का प्रदर्शन बडिंग प्रजनन से अच्छा होता है क्योंकि इसमें पौधों के सूखने का दर कम होता है, प्रकृति के कुप्रभाव की क्षमता कम होती है तथा पौधे की आयु अधिक होती है।
प्रजनन हेतु चुनिन्दा पेड़ को चयनित किया जाता है जो बीमारी रहित हो तथा बड़े फल का उत्पादन करता हो। जून-जुलाई या नवम्बर-दिसम्बर में पूरे पक्के हुए फल को तोड़कर इकट्ठा किया जाता है। फल बड़े आकार, पूर्ण विकसित, प्रभेद के अनुसार अच्छे होता है। महत्तम अंकुरण प्राप्त करने के लिए दो दिन के ताजे निकाले गये बीज का ही प्रयोग किया जाना चाहिए। आगे ताजा बीज की बुआई में देर होती है तो अंकुरण अच्छी प्रकार नहीं हो पाता है।
पौध तैयार करने हेतु पहले बीज की डैम्पिंग ऑफ़ बीमारी से बचने के लिए उचित फंगी साईड से उपचारित करना चाहिए। फिर इसे ऊपर उठे हुए बीज-बेड एन 15 सेंटीमीटरX 2.5 सेंटीमीटर अंतराल पर बुआई कर देनी चाहिए बीज-बेड के लिए बलुआही दोमट मिट्टी का चुनावकर उसे चूर-चूर कर पूरी मात्रा में कम्पोस्ट तथा फार्मयार्ड मैन्युर मिला देना चाहिए। फिर जून-जुलाई या नवम्बर-दिसम्बर में बीज की बुआई करनी चाहिए डैम्पिंग ऑफ़ बीमारी के नियंत्रण हेतु बीज को 1% बरडीजो मिश्रण से उपचारित कर देना श्रेयस्कर होता है बोये गये बीज में उचित अंतराल पर पानी देते रहना चाहिए। फिर पौध को पौधशाला में स्थानान्तरण कर देना चाहिए। पौध को पंक्ति से पंक्ति 46-50 सेंटीमीटर तथा पौधा से पौधा 20-30 सेंटीमीटर पर लगाना चाहिए। तत्पश्चात पौधशाला बेड में सिंचाई देते रहना चाहिए तथा जल्दी विकास के लिए नेत्रजनीय उर्वरक का प्रयोग कर खरपतवार बाहर निकाल देना चाहिए। एसिड लाईम पौध को 9-12 माह तक पौधशाला में रखना चाहिए फिर उसे पोलोथिन थैला या मिट्टी के गमले में स्थान्तरित कर वितिरित बिक्री कर देनी चाहिए।
पौधशाला के माली को पौध के धीरे विकास का भी सामना करना पड़ सकता है। कागजी लाईम को मुख्य जगह पर लगाने हेतु 12-14 महीने का समय लग जाता है। 1-1.5 यूरिया घोल का एक माह के अंतराल पर छिड़काव्
पौधा-विकास में गति प्रदान करता है। पौध विकास को त्वरित करने हेतु 40 पी० पी० एम० जीए से बीजोपचार करना लाभप्रद पाया गया है।
स्वीट लाईम
स्वीट लाईम का प्रजनन मुख्यतया लेयरिंग या कटिंग द्वारा होता है। या पौधा को कम समय में स्थापित कर देता है। शीर्ष की 3-4 पत्तियों सहित कटिंग करने पर इसमें 100% जड़ आने की संभावना रहती है, अगर इसे 50 एवं 100 पी० पी० एम० आईबीए के घोल में २४ घंटे या 200 पी० पी० एम० में 10 सेकेण्ड डुबाकर उपचारित किया जाए। इस प्रकार के प्रजनन से पौधे की जड़ ऊपरी सतह पर ही फैलती है क्योंकि वहीं से वे अपना भोजन प्राप्त करते हैं। वहीं रंगपुर लाईम का प्रजनन केवल बीज द्वारा किया जाता है।
लेमन- यों तो लेमन का प्रजनन बडिंग, लेयरिंग, मारकटिग, स्टेम कटिंग एवं बीज द्वारा किया जाता है, फिर भी बडिंग ज्यादा लोकप्रिय है क्योंकि इसके पौधे अवधि के पूर्व फल देना प्रारंभ कर देते हैं।
प्रकन्द
एसिड लाईम
गाजा नीमा (साइट्रस पेनीमेसीकुलता) एसिड लाईम का एक अच्छा प्रकन्द है, फिर रफ लेमन का नाम आता है। परिक्षण द्वारा पाया गया है कि रफ लेमन एफं स्वीट लाईम क्रमशः अच्छे प्रकन्द हैं इसी कारण रफ लेमन का आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र में एसिड लाईम के लिए प्रकन्द के रूप में उपयोगी किया जाता है।
बीज प्रजनन वर्तमान में भी आसान एवं कम कम खर्चीला होने के कारण ज्यादा प्रचलित है। फिर भी एसिड लाईम के लिए सुखा क्षेत्र के लवण युक्त, क्षारीय एवं कैलकेरियस मिट्टी में प्रकन्द का ही उपयोग किया जाता है। साधारणतया एसिड लाईम के प्रजनन के लिए पौध ही ज्यादा प्रचलित है।
लेमन- उत्तरप्रदेश के तराईवाले क्षेत्र में लेमन का प्रजनन ट्राईफोलियेट औरेंज एवं जाटी खट्टी द्वारा करने पर अच्छा प्रदर्शन होता है।
खेती
खेत की तैयारी
खेत की तैयारी वर्तमान परिस्थिति, विगत इतिहास एवं विकास की योजना पर निर्भर करता है। अगर भूमि पूर्व से खेती के अंतर्गत है एव्वं अच्छा प्रबन्धन है तो कोई खास प्रक्रिया करना जरुरी नहीं है। वहीं दूसरी तरफ अगर मिट्टी नई हो तथा पूर्व में खेती नहीं की जा रही है तो इस मिट्टी को अच्छी प्रकार जोत-कोड़कर बोआई के लिए तैयार करना होगा। इस मिट्टी पर आये हुए अनावश्यक वनस्पति, खरपतवार को अच्छी प्रकार साफ कर देना चाहिए, इसके बाद 2-3 बार गहरी जुताई करनी चाहिए तथा एक मौसम पूर्व मिट्टी को बराबर कर देना चाहिए।
अंतराल एवं रूपरेखा
लाईम की बुआई 4-6 मीटर दूरी पर करनी चाहिए। एसिड लाईम के लिए हल्की मिट्टी में 6 मीटर से कम का अंतराल अपर्याप्त है। मध्य भारत के मध्यम मिट्टी में लाईम की बुआई की दूरी 5.5-6.0 मीटर होनी चाहिए। छिछली मिट्टी के लिए यह दूरी 4.0-4.5 मीटर रखनी चाहिए। उत्तरी भारत के इंडो गंगा समतल क्षेत्र में बुआई की दूरी 5.0-6.5 मीटर रखनी चाहिए। प्रारंभ में पौधों की दूरी 8-10 वर्षों तक 3 मी०x3 मीटर रखनी चाहिए। फिर एकान्तर पंक्ति को काटकर हटा देना चाहिए जिससे पौधों को फैलने हेतु पर्याप्त जगह मिल सके। स्वीट लाईम की अच्छी उर्वरता वाली मिट्टी में यह दूरी 6 से 7.5 मीटर तथा कम उर्वरता वाली मिट्टी में यह दूरी 5.0-5.5 मीटर रखनी चाहिए। रंगपुर लाईम साधारणतया मेढ़ पर लगाये जाते हैं या रोड के दोनों तरफ तथा नर्सरी के कोने में 4-6 मी० की दूरी पर लगाना श्रेयष्कर होता है।
लेमन, लाईम की अपेक्षा ज्यादा फैलते हैं, इसलिए लेमन की दूरी लाईम से अधिक होनी चाहिए। लेमन के लिए अनुशंसित दूरी प्रभेद, मिट्टी एवं वर्षा के आधार पर 6.0 से 8.0 मीटर होनी चाहिए। लाईम एवं लेमन के लिए वर्गाकार पद्धति उपर्युक्त होती है।
गड्ढा बनाना एवं भरना
बुआई के 2-3 सप्ताह पूर्व ग्रीष्मकाल में 90-100 सेंटीमीटर के गढ़े तैयार किये जाते हैं। जलवायु मिट्टी एवं स्थान को ध्यान में रखते हुए गड्ढे को 15-30 दिन तक धूप मिलने के लिए छोड़ दिया जाता है, फिर गढ़े में सूखे पत्तियां या पुआल रखकर रोगाणुमुक्त करने हेतु जला दिया जाता है। बुआई 15 दिन पूर्व गढ़े की आधी निकाली गयी मिट्टी+तालाब का साद+लाल मिट्टी+ फार्म यार्ड मैन्युर+ हड्डी की खल्ली या सुपर फास्फेट एवं कीटनाशक से मिलाकर भर देना चाहिए, फिर मिट्टी को स्थिर करने हेतु पानी देना चाहिए।
बुआई
हल्के वर्षा वाले क्षेत्र में मानसून प्रारंभ (जून-अगस्त) होने पर बुआई करनी चाहिए जिससे पौध वर्षा का उपयोग कर सके। अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में (आसाम) बुआई वर्षा मौसम के अंत में करनी चाहिए। जिससे गढ़े में वर्षा जल जमाव की संभावना कम रहती है। सिंचाई वाले क्षेत्रों में बुआई फरवरी माह में करनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन बुआई हेतु सुझाव नहीं दिया जाता है क्योंकि इस मौसम में नये पौध को जल्द सिंचाई देनी पड़ती है तथा गर्मी, हवा एवं अधिक तापक्रम से बचाना पड़ता है।
नये पौध का देखभाल
नये पौध को प्रारंभ के 3-4 वर्षों तक गर्मी आर्द्रता एवं ठण्ड से बचाना पड़ता है। जमीन के स्तर से 60-70 सेंटीमीटर तक पौध की डालियों को काटकर एक ही धड़ रखा जाता है हालांकि इस धड़ का सूर्य जलन से प्रभावित होने की संभावना बनी रहती है, जिसके लिए इसे स्ट्रेन पेपर या कपड़े से ढँक देना चाहिए। उत्तरी समतली क्षेत्रों में पौध के कम तापमान तथा पाला से बचाने के लिए जल्द-जल्द हल्की सिंचाई देना तथा बगीचे को वायु अवरोध से घेर देना श्रेस्यकर होता है। नये पौधे 4 या 5 बार नई पत्तियां देकर अपना विकास करते हैं। इस विकास के क्रम में पत्ती छेदक, साइट्रस तितली एवं कैंकर का प्रकोप अधिक होता है, जिसका जल्द उपचार आवश्यक है। इसलिए फ्लशिंग के पूर्व नाइट्रोजनीय उर्वरक का हल्का प्रयोग करना चाहिए। नये लगाये पौध को जल्दी-जल्दी सिंचाई देना श्रेयस्कर होता है। लेकिन वर्षा के मौसम में जल जमाव, जो पौधा के लिए नुकसान है गड्ढे में नहीं रहना चाहिए। इसके लिए उपयुक्त जल-निकास की व्यवस्था करनी चाहिए।
ट्रेनिंग एवं काट-छांट करना
लाईम
छोटे एसिड लाईम पौधों को सेंट्रल लीडर पद्धति के रूप में ट्रेंड किया जाता है, जिसके लिए जमीन से 75-100 सेंटीमीटर तक सभी डालियों को काट दिया जाता है एवं 4.5 अच्छी डालियों को मचान के रूप में छोड़ दिया जाता है धड़ पर जमीन से 75 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर आनेवाले नए कोपलों को हटा देना चाहिए। इसी प्रकार बड़े पेड़ों के मुख्य धड़ में वाटर सकर्स निकलने पर उन्हें हटा देना चाहिए।
एक बार अगर छोटे पौधे को वांछित आकार के लिए ट्रेंड कर दिया जाता है तो इसमें आगे कम ही काट-छांट करना पड़ता है कम काट-छांट किये गये नये पौधों के धड़ में अधिक विकास होता है तथा पूर्व में फल आ जाते हैं। पौध में पानी सोखने वाले को निश्चित रूप से हटा देना चाहिए। फल कटने के तुरंत बाद पौध की छंटाई कर देने चाहिए एवं जल्द कटे हुए भाग को बरडीजो पेस्ट या ब्लाटॉक्स से उपचारित कर देना चाहिए।
लेमन
लेमन के पेड़ लाईम के पेड़ से अलग होते हैं- इन्हें थोड़ी अलग ट्रेनिंग एवं काट-छांट की जाती है। छोटे लेमन के पेड़ की प्रवृत्ति लंबे तथा फैलनेवाली डालियाँ विकसित करने की होती है तथा फल बगल की डालियों पर लगते हैं जिस कर्ण डालियाँ झुक जाती है।
पूर्ण विकसित लेमन के पेड़ में ज्यादा डालियों की काट-छांट करनी पड़ती है। लंबी डालियों जिसके चोटियों में फल आने वाले हैं उसकी कटाई कर देनी चाहिए जिससे जमीन की नजदीक की डालियों में ज्यादा फल आये। उन डालियों को जिस पर कुछ वर्षों से फल आ गये हैं उन्हें काट देना चाहिए तथा नए डालियों में उच्च गुणवत्ता वाले फल आने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
खाद एवं उर्वरक प्रयोग की प्रक्रिया प्रभेद एवं मिट्टी पर निर्भर करती है। पौधा तत्व की आवश्यकता कार्बनिक एवं अकार्बनिक खाद एवं उर्वरकों से उपलब्ध करनी चाहिए। साईट्रस के लिए कार्बनिक खाद, का प्रयोग हेमशा लाभप्रद होता है क्योंकि इससे मिट्टी की अवस्था ठीक रहती है, तथा आवश्यक तत्वों की आपूर्ति होती है।
नाइट्रोजन का प्रयोग फार्म यार्ड मैन्युर (25%) तेल खल्ली (25 एवं रासायनिक उर्वरक (50%) के रूप में तथा फास्फेट एवं पोटाश का प्रयोग सुपर—फास्फेट एवं म्यूरेट ऑफ़ पोटाश इ रूप में क्रमशः करनी चाहिए। आंध्रप्रदेश में उर्वरक का प्रयोग साल में दो बार दिसम्बर-जनवरी (फूल देने के पूर्व) तथा जून-जुलाई (फल विकास की अवस्था)में की जाती है।
पूर्ण विकसित एसिड लाईम वृक्ष में 50 किलोग्राम फार्म यार्ड मैन्युर, 300 ग्राम नेत्रजन, 250 ग्राम पोटाश/प्रति वर्ष देना चाहिए। फार्म यार्ड मैन्युर (एफ० वाई० एम० ) एवं फास्फेट की पूरी मात्रा एंव नेत्रजन तथा पोटाश की आधी मात्रा वर्षा के वाद तथा शेष नेत्रजन एवं पोटाश की मात्रा फूल लगने के पश्चात मार्च-अप्रैल में देनी चाहिए। गुजरात में एसिड लाईम में चूना के प्रयोग की अनुशंसा की गयी है।
साधारणतया खाद एवं उर्वरक का प्रयोग मिट्टी ( बेसीन) में की जाती है चूँकि एसिड लाईम की जड़-प्रणाली गहरी नहीं होती है, जिससे जड़ 45-60 सेंटीमीटर की गहराई तक ही सिमित रहती हैं 15-25 सेंटीमीटर चौड़ा एवं 15-20 सेंटीमीटर गहरा गड्ढा पेड़ चारों तरफ 60-100 सेंटीमीटर धड़ से हटकर बनाया जाता है तथा इसी में उर्वरक कुदाल में मिला दिया जाता है।
सिंचाई –लाईम एवं लेमन की नारंगी के अपेक्षा अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में एसिड लाईम का 875 मि०मी०/ वर्ष जल आवश्यकता होती है।
पौधा विकास की अवधि में अधिक नमी की आवश्यकता होती है। ऐसी अवस्था में नमी की कमी होने पर पेड़ का विकास, फल का आकार छोटा, उत्पादन में कमी तथा फल टूटकर गिरने की गति में वृद्धि हो जाती है। इसलिए अत्यावश्यक है कि इस अवस्था में उचित्त सिंचाई की व्यवस्था की जाए।
भारत में साधारणतया सिंचाई हेतु बेसिन पद्धति ही अपनाई जाती है लेकिन ड्रिप सिंचाई अब्ब अधिक लोकप्रिय हो रहा है। ड्रिप सिंचाई के जड़ के पास की मिट्टी 60% भींगी कर देनी चाहिए। ड्रिप सिंचाई से 22-50% जल की बचत तथा अधिक उत्पादन एवं गुणवत्ता के फल उत्पादित होते हैं।
गर्मी मौसम में लाईम एवं लेमन को 5-7 दिन उपरान्त तथा ठंडा मौसम में 10-15 दिन अंतराल में सिंचाई देनी चाहिए। जब ऊपर की मिट्टी 25 सेंटीमीटर तक सुख जाती है तब सिंचाई दे देनी चाहिए। एसिड लाईम की अधिक पैदावार 50-60% उपलब्ध नमी की अवस्था में होती है। मिट्टी की नमी 55-65% फील्ड कैपिसिटी पर रखना अनुशंसित है, जबतक कि फल 2-5 सेंटीमीटर व्यास के न हो जाए। इसके पश्चात पत्तियों का मुरझाना ही सिंचाई देने की अवधि का संकेत है।
रख-रखाव
बगीचे के मिट्टी के व्यवस्थापन का अर्थ मिट्टी की जुताई, मल्चिंग एवं खरपतवार के नियंत्रण से है। बगीचा के गलियारे के मिट्टी की खरपतवार नियंत्रण हेतु जुताई, मिट्टी का नमी संरक्षण, उर्वरता संरक्षण हरी खाद मिट्टी तथा जड़ प्रणाली को हवादार बनाना चाहिए। इस मिट्टी की साल में दो बार जुताई प्रथम मानसून प्रारंभ होने के पूर्व तथा द्वितीय वर्षा समाप्त होने पर होनी चाहिए। बेसिन की मिट्टी को कड़ा होने से रोकने के लिए हल्की हाथ से कोड़ाई या होईंग प्रति 3-4 सिंचाई के पश्चात करनी चाहिए।
उष्णकटिबंधीय जलवायु में मल्चिंग का मुख्य स्थान है। साइट्रस के बगीचे में ग्रीष्म अवधि काफी खर्चीला है इसलिए एक वर्ष में 6 माह मल्चिंग करना आवश्यक है। पेड़ के बेसिन का मल्चिंग, खरपतवार, नमी संरक्षण, तापक्रम बदलाव का नियंत्रक मिट्टी में जैविक गतिविधियों में वृद्धि के लिए आवश्यक है। निकौनी करने के पश्चात बेसिन को सुखी पत्तियों, धान का भूसा, मूंगफली का छिलका, लकड़ी का बुराद, सीरियल फसल का पत्तवार, नारियल का रेशा एवं सूखे घास से मल्चिंग कर देना चाहिए। जनवरी से जून तक एसिड लाइम के बेसिन में 8 सेंटीमीटर मोटा या 120 किलोग्राम प्रति बेसिन 16 मीटर) मल्चिंग करना अनुशंसित है। 30 किलोग्राम/पेड़ हरी पत्ती का मल्चिंग काफी असरदार होता है।
खरपतवार नियंत्रण
साइट्रस बगीचे का खरपतवार नियंत्रण मोनौरॉन, ड्युरॉन एवं ग्रामोजोन के प्रयोग से किया जाता है। खरपतवार निकलने के पूर्व ड्युरॉन का 2-5 किलोग्राम/500 लीटर पाने में घोलकर मिट्टी में पेड़ से 30-40 सेंटीमीटर की दुरी पर छिड़काव् करना चाहिए। द्वि-दलीय खरपतवार के नियंत्रण हेतु अंकुरण के पूर्व ड्यूरॉन का छिड़काव् एवं ग्रामोजों+ड्यूरॉन का अंकुरण के पश्चात छिड़काव् करना प्रभावकारी होता है। ड्युरॉन (3 किलोग्राम)+ ग्रामोजों (1.5 किलोग्राम) का तीन महीने के के वार छिड़काव एसिड लाईम बगीचे का खरपतवार नियंत्रण करने में प्रभावकारी होता है। अंकुरण के पश्चात ग्लाईफास्फेट (2.0 किलोग्राम/हेक्टेयर का प्रयोग 15 दिनों के अंतराल पर करना श्रेयस्कर है।
अतंराल सस्य- बुआई के 5-6 साल बाद लाईम का बगीचा खाली अन्तर्भूमि के उपयोग हेतु अच्छा अवसर प्रदान करता है। दलहनी (बरसीन लुसर्न, काऊपी, मूंगफली, मुंग, उरद आदि) फसलों को लाईम एवं लेमन बगीचे एके अंतर्गत अंतर्भूमि में लगाया जा सकता है। सब्जी जैसे-कद्दू, टिंडा, प्याज, मुंग आदि ग्रीष्मकाल में तथा मटर, गाजर, शलजम, ठन्डे मौसम में लाईम बगीचे में लगाया जा सकता है।
अंतरफसल एंव कटाई पश्चात व्यवस्थापन
लाईम एवं लेमन की कटाई प्रभेद एवं स्थान पर अलग-अलग तरीके से होता है। उत्तरी-तटीय आंध्रप्रदेश में फसल की कटाई मार्च-अप्रैल, मध्य आंध्रप्रदेश में अप्रैल-मई एवं रायल सीमा में जुताई-सितम्बर माह में की जाती है। तमिलनाडु में लाईम एक कटाई का मौसम जून-अगस्त एंव जनवरी से मार्च है। मध्यभारत (महाराष्ट्र एंव गुजरात) कटाई का मुख्य मौसम जुलाई-सितम्बर है। उत्तरी भारत में एसिड लाईम की फसल बाजार में जून-जुलाई में आती है।
उत्तर भारत में स्वीट लाईम की फसल अगस्त-अक्टूबर, आसाम में सिंतबर से नवम्बर दक्षिण भारत में अगस्त से सितम्बर माह में बाजार में आती है। दक्षिण भारत में रंगपुर लाईम की कटाई जून-अगस्त माह में की जाती है।
लाईम एंव लेमन का रंग जब हरा से पीला होने लगता है- यदि समय कटाई का है। फिर भी हरा रंग के हालत में भी तैयार फल की तोड़ाई की जा सकती है जिससे इसके अम्लीय गुण का भी उपयोग किया जा सके।
फल को खींचकर तोड़ना नहीं बली कली पर से काटना चाहिए। अधिकतर फल की तोड़ाई लम्बे बांस में बंधे हुए लोहे के हुक एवं जाली द्वारा की जाती है।
एक अच्छा लाईम पौधा द्वारा वर्ष में 2000-5000 फल प्राप्त होते हैं, जबकि यह संख्या औसतन 3000 -3500 फल प्रति वर्ष है। एक लेमन पेड़ द्वारा औसतन 600-800 फल/ पेड़ प्राप्त होता है। इसकी संख्या अनुकूल परिस्थिति में 1000-1200 फल/पेड़ हो सकती है।
काटे गये फल को पैकिंग करनेवाले जगह पर जल्द लाना चाहिए। इन्हें सूर्य की रौशनी में ज्यादा देर तक नहीं रखनी चाहिए। वर्तमान में भारत में कोई ग्रेडिंग पद्धति नहीं अपनाई जा रही है। भारत में साइट्रस फलों का ग्रेडिंग मनुष्यों द्वारा मात्रा आकार के आधार पर किया जाता है।
साइट्रस फलों का हरा रंग कैल्सियम कार्बाइड द्वारा पकने वाले चैम्बर में हटाया जाता है। कैल्सियम कार्बाइड द्वारा एथलीन गैस का निर्माण होता है जो फल के रंग को समाप्त का देता है। तथा बिना गुणवत्ता के बदले पीला रंग प्रदान करता है एक साधारण तकनीक विकसित किया गया है जिससे टाहीटी लाईम का रंग हरा रहित हो जाता है। इस तकनीक में पूरा विकसित लाईम पक्के हो रहे केले के साथ वायुबंद चैम्बर में 6:1 (लाइम+केला) के अनुपात में रखा जाता है। केला पकने के क्रम में केले में एथिलीन गैस निकलती है जो लाईम का २४ घंटे के अन्दर हरा रंग हटा देता है।
बैस्क्सिंग एक तरीका है जिससे फल का मुरझाना तथा झुरी बनना रुक जाता है, जिससे इसकी अपनी जीवंतता बढ़ जाती है फल को 12% की वैक्सोल घोल में डुबाने से इसकी भंडारीकरण अवधि बढ़ जाती है। वैक्स द्वारा फल के छिलके के छिद्र बंद हो जाते हैं जिससे रेसपिरेशन एवं ट्रांसपिरेशन नहीं हो पाता है। फल को पॉलीथीन थैले में रखने से भी भंडारीकरण की अवधि बढ़ जाती है।
विकास नियत्रंक 2,4- ड़ी एवं 2,4,5 टी० प्रयोग से फल का जीवन कला बढ़ जाता है। फल का जीवन काल 2,4,-ड़ी के घोल में डुबोने से 25 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है। जीए2 (200 एवं 500 पी० पी० एम्०) और साइटोशिनीन (10-25 पी० पी० एम्०) फल का बिनावजन घटाए तथा गुणवत्ता घटाए सेल्फ लाइफ बढ़ा देता है। जबकि एसिड लाईम कोल्ड स्टोरेज में 6-8 सप्ताह तक 8.3 सेंटीग्रेड -10 सेंटीग्रेड तापक्रम एवं 85-90% आर्द्रता पर संग्रहित किया जा सकता है, वहीं लेमन 8-12 सप्ताह तक 7.2सेंटीग्रेड -8.6 सेंटीग्रेड तापमान तथा 85-90% आर्द्रता पर संग्रहित किया जा सकता है।
क्रियात्मक विकृतियाँ
चटकना एवं फटना लाईम एवं लेमन की साधारनतया विकृतियाँ हैं। फलों का फटना मौसम बदलाव, सुखा पश्चात सिंचाई या अधिक वर्षा या बैक्टीरिया के आक्रमण से होता है। कभी-कभी गर्म हवा भी फलों के चटकने का कारण हो सकती है। सुखा के बाद सिंचाई हल्की होनी चाहिए। इसका रोकथाम ग्रीष्मकाल में जल्द-जल्द सिंचाई देने से हो सकती है।
समेकित फसल क्षतिकारक प्रबन्धन रणनीतियां
कृषीय प्रक्रिया
1. गर्मी के मौसम में गहरी जुताई ताकि मिट्टी के अंदर रहने वाले पतिंगे रोगजनक एवं गोलकृमि बाहर निकल आए।
2. गहरी अच्छी तरह समतल की हुई एवं अच्छी नालियों वाली भूमि का चयन करें।
3. केवल प्रमाणित बीज का उपयोग ही होना चाहिए। बीज के लिए गर्म- जल उपचार (51-52 सेंटीग्रेड) 10 मिनट के लिए किया जा सकता है।
4. प्रतिरोधी जड़-संग्रह उपयोग में लाएं एवं पौधशाळा से रोगमुक्त पौधे चुनें।
5. मिट्टी का स्वास्थ्य बेहतर बनाने एवं कुछ मिट्टी जनित रोग के प्रबन्धन ले लिए जैविक पदार्थों के साथ ट्राईकोडरमा स्पीसीज का प्रयोग करें।
6. जलजमाव एवं नालियों द्वारा सिंचाई से बचें।
7. मिट्टी से होने वाले रोगजनकों से बचने के लिए कली को जितना संभव हो सके मिट्टी से दूर रखें।
8. खेत में काम करते समय तना एवं जड़ों को चोट पहुँचाने से बचें।
9. पाउडरी मिल्ड्यू के संक्रमण से बचने के लिए जल के निकट निकले कोंपलों को नियमित रूप से छांटें।
10. नींबू वंशीय कुकरी(स्कैब) को कम करने के लिए ऊपर से जल के छिड़काव से बचें।
11. एक दूसरे पौधे एक बीच उचित दूरी रखें तथा उचित सिंचाई एवं पोषक तत्व प्रबन्धन को अपनाएं। अधिक् नाईट्रोजन वाले उर्वरक लगाने से बचें। मात्र गोलकृमि वाले खेत में सुनिश्चित नमी की स्थिति में, प्रति हेक्टेयर एक टन की दर से नीम की खल्ली का प्रयोग करें।
12. नींबू वंशीय सफेद/काली मक्खी एवं पाउडर जैसे दिखनेवाले कीट से बचाव के लिए एक-दूसरे पर चढ़ आई डालों को छांट देना ।
13. गिरे हुए फलों की जमीन में गाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए। बगीचे को साफ-सुथुरा रखना चाहिए ताकि फल-चुश्क पतिंगों का विकास न हो सकें।
14. आच्छादन फसल को मौसम के शुरूआती समय में ही निकल लें, इससे फल-चुश्क कीटों पर प्रभावकारी नियंत्रण होता है क्योंकि कीट-कोष अधिक दूर तक नहीं चल सकते हैं।
15. बगीचे में पाये जानेवाले चीटियों के घरों का नष्ट कर देना चाहिए क्योंकि ये मिलीबग कीट के वाहक होते हैं।
16. जैविक-एजेंट जिव जन्तुओं को जैसे मादा मादा चिड़िया भृंग, क्रिसोपेरला इत्यादि को बसाने के लिए निम्नलिखित फसल चक्र की अनुशंसा की जाती है।
2. नींबू जातीय+सोयाबीन
यांत्रिक प्रक्रिया
2. नींबू वंशीय काली मक्खी, फल-मक्खी एवं नींबू तितली को नियंत्रित करने के लिए हल्के फंदे लगाये जा सकते हैं।
3. कज्जली फुफंद से ग्रसित बगीचों में स्ट्रार्च का 2% घोल छिडकने की अनुशंसा की जाती है। इसमें पत्तों की सतह से कज्जली फुफंद अलग हो जाती है जो सुख जाने पर गर्म हवा को झोकों से उड़ा दिया जाता है।
जैविक नियंत्रण प्रक्रिया
संरक्षण
संवर्द्धन
नींबू वंशीय काली/सफेद मक्खी एवं मांहू की घटनाओं का अनुश्रवण करें एवं क्रिसोपेरला अथवा मल्लाडा के 10-15 अंडे अथवा लार्वा प्रति पेड़ की दर से छोड़ दें। जैविक नियंत्रण एजेंटों को छोड़ने के कम से कम एक सप्ताह बाद तक कीटनाशक के छिड़काव से बचें।
रसायनिक नियंत्रण प्रक्रिया
आईपीएम की परिधि के अंतर्गत कीटनाशकों का आवश्यकतानुसार विवेकपूर्ण एवं सुरक्षित व्यवहार रासायनिक नियंत्रण कार्रर्वाई के सबसे महत्वपूर्ण त्रिविधि खंड हैं इसमें फसल स्वास्थ्य का उचित अनुश्रवण ईटीएल का अवलोकन एवं प्राकृतिक जैविक नियंत्रण संभावानाओं के संरक्षण द्वारा वातावरण के साथ सुरक्षित व्यवहार करने के लिए आईपीएम् कुशलताओं का विकास करना शामिल है जिससे रासायनिक कीटनाशक का उपयोग करने से पूर्व इसे अंतिम उपाय समझा जा सके। अतः परिशिष्ट 111 में दी सूची के आधार पर कीटनाशकों पर भरोसा करना जरुरी है।
आईपीएम् रणनीति के सन्दर्भ में नियंत्रण उपायों की सफलता के लिए निम्नलिखित सुझावों का महत्वपूर्ण स्थान हैं।
2. दो या इससे अधिक कीटनाशकों का मिश्रण करने से बचें।
3. एक ही कीटनाशक के बार-बार व्यवहार से बचना चाहिए।
4. सिंथेटिक पायरेथ्रॉयदस के व्यवहार से बचें जिसका परिणाम चुश्क कीटों का पुनरुत्थान होता है।
5. मौसम प्रारंभिक चरण के दौरान चुनिन्दा कीटनाशकों (इंडोसल्फान) का यवहार करें।
6. व्यक्तिगत रूप से नीम आधारित सूत्रों का उपयोग करें।
7. पायरेथ्रॉयडस का इस्तेमाल नियंत्रित रूप में होना चाहिए।
8. उचित छिड़काव यंत्रों का व्यवहार होना चाहिए-
क. नींबू वंशीय बगीचे के लिए नैपसैक स्प्रेयर आदर्श है।
ख. अनजाने अकुशल छिड़काव यंत्र एवं सीडीए स्प्रेयर के व्यवहार को हतोत्साहित करें।
ग. इकाई क्षेत्र के लिए उचित मात्रा में छिड़काव करें।
फाईटोप्थोरा स्पीसीज द्वारा जनित रोगों का समेकित प्रबन्धन
2. पौधे लगाने के लिए प्रतिरोधी प्रकंदों का चयन करें।
3. नाईट्रोजनी उर्वरक के अत्याधिक प्रयोग से बचना चाहिए।
4. फाईटोप्थोरा मुक्त प्रमाणित नर्सरी से ऊँचे मुकुलन वाले (9 से अधिक उंचाई) पौधे का चयन करें।
5. अंकुरण स्थल को अधिक से अधिक ऊँचा रखें ताकि सिंचाई का पानी कली तक न पहुंचे। सिंचाई की दोहरी गोलाई वाली पद्धति तने को पानी के संपर्क से दूर रखने में सहायता करती है।
6. मिट्टी को सूखने दें एवं अत्याधिक पानी से सिंचाई न करें तथा सतह पर अधिक समय तक पानी का जमाव न होने दें।
7. कृषि-कार्य करते समय तनों एवं जड़ प्राणाली को चोट लगने से बचाएं।
8. 1:40 के औसत के प्रति पौधा 2 किलोग्राम की दर से ट्राईकोडरमा को जैविक पदार्थ के साथ मिलाकर इस्तेमाल करें। मिट्टी में 60-70% नमी सुनिश्चित करें।
9. आधार व जड़ की सड़न तथा ग्युयोसिस के प्रबन्धन के लिए समय पर कॉपर फफुदंनाशक, कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50% डब्ल्यू पी का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर 2.5 किलोग्राम की दर से करें।
10. वर्षा काल प्रारंभ होने से पहले ही पेड़ के तनों पर बोरडॉक्स लेप रोग-निरोधक के रूप में लगाएं। एक तेजधार छुरी से आधार सड़न अथवा गमोसिस ग्रसित अंशों को खुरच कर निकाल दें लेकिन ध्यान रखें कि बोरडॉक्स लेप लगाने से पूर्व लकड़ी को क्षति न पहुंचे।
खरपतवार प्रबन्धन प्रक्रिया
2. समय से अंतरखेती एवं हाथों द्वारा उखाड़कर बगीचे को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए।
3. अल्काथिन फ़िल्म, गेहूं की भूसी, चावल की भूसी, पुआल इत्यादि से दक्कन भी खरपतवार को नियंत्रण में रखता है।
सूत्रकृमि (नेमाटोड) प्रबन्धन प्रक्रिया
2. प्रतिरोधी मुकुलन/कलम द्वारा उत्पादन
3. 40 ग्राम प्रति पौधा की दर से नीम की खल्ली एवं पाइसीलोमायसेस लिटासिनस अथवा स्यूडोमोनास प्लूरसेंस (10 सिएफयु )का प्रयोग करे।
4. कार्बोफ्यूरान का प्रयोग 1.00 किलोग्राम ए०आई/हेक्टेयर की दर से करें।
नींबू का अवस्थावर/कीटवार समेकित कीट प्रबन्धन
क्रम. सं. |
फसल चरण/ कीट |
आईपीएम् के घटक |
समेकित कीट प्रबन्धन |
1 |
बुनने के समय मिट्टी एवं बीज जनित बीमारियाँ |
कृषीय प्रक्रिया |
2. मुकुलन स्थल को जहाँ तक हो ऊँचा रखें। |
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रसायनिक प्रकिया |
2. दूषित स्थानीय क्षेत्र में बीज को प्रतिजैविकी में डुबोना। |
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चुश्क कीट |
रसायनिक प्रकिया |
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2 |
पौधा –रोपण से पूर्व |
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2. वैकल्पिक परपोषी को हटाना 3. मिट्टी में धूप दिखाना 4. गड्ढो में पर्याप्त खाद डालना। 5. 1:40 के औसत में प्रति गड्ढा की दर से ट्राईकोडरमा स्पीसीज को जैविक पदार्थ में मिलाकर प्रयोग करना। 6. रोग मुक्त प्रमाणित मुकुलन/कलम का चुनाव करें। |
3 |
वानस्पतिक विकास कृषीय प्रक्रिया चरण(1-5 वर्ष) खरपतवार |
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2. अल्काथिन, गेहूं भूसी अथवा चावल भूसी से ढंकना |
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रसायनिक नियंत्रण |
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4 |
फल आने का चरण |
कृषीय प्रक्रिया |
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नींबू जातीय काली/सफेद मक्खियाँ |
कृषीय प्रक्रिया |
2. पेड़ों की बीच अंतर, कम दूरी से बचना चाहिए। 3. अच्छा जल-निकास वाली मिट्टी |
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यांत्रिक प्रकिया |
2. पीले रंगवाल चिपचिपा फन्दा प्रयोग करें। |
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जैविक प्रकिया |
2. क्रिसोपेरला स्पीसीज एवं मल्लाडा बोनिन्नेसिस 10-15 अंडे/सुंडी प्रति पौधा की दर से संवर्द्धन |
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रसायनिक नियंत्रण |
2. मोनोक्रोटोफॉस (0.06%) अथवा इंडोसल्फान (01%) का छिड़काव |
5 |
नींबू जातीय सिल्ला |
कृषीय प्रकिया |
2. पीले रंग के चिपचिपे फंदे का प्रयोग करें। 3. संक्रमित पौधों को नष्ट कर देना। |
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जैविक नियंत्रण |
2. परभक्षियों का संवर्द्धन |
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रसायनिक नियंत्रण |
2. नीम उत्पाद का प्रयोग करें। |
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कीट |
रसायनिक नियंत्रण |
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फल चुश्क पतिंगे |
कृषीय प्रक्रिया |
2. गिरे हुए फलों को नष्ट कर दें। |
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यांत्रिक प्रकिया |
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रसायनिक नियंत्रण |
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फल मक्खी |
कृषीय प्रक्रिया |
2. संक्रमित फलों का नष्ट कर दें। 3. पेड़ों के नीचे फूटे हुए फलों में अंडा पैदा होने दें फिर नष्ट कर दें।
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यांत्रिक प्रकिया |
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जैविक प्रक्रिया |
2. प्राकृतिक शत्रुओं का संरक्षण एवं संवर्द्धन। |
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रसायनिक प्रक्रिया |
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नींबू तितली |
यांत्रिक प्रक्रिया |
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जैविक प्रक्रिया |
2. 0.05% की दर से बैसिलस थुरिंगजिएन्सीस का छिड़काव करें। |
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रसायनिक प्रक्रिया |
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छालभक्षक कीड़ा कीट |
कृषीय प्रक्रिया |
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रसायनिक प्रक्रिया |
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मिलीबग |
कृषीय प्रक्रिया |
2. चीटियों को छिद्र नष्ट कर दें। |
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यांत्रिक प्रक्रिया |
2. गर्मी के दिनों में तने के चारों ओर मिट्टी की खुदाई कर देने से अंडे नष्ट होने और आटेदार कीट प्राकृतिक शुत्रुओं के सामने आ जाते हैं। 3. फेरोमोन फंदों का प्रयोग करें। |
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जैविक प्रक्रिया |
2. 5000-7000 व्यस्क प्रति हेक्टेयर की दर से लैप्तोमैसिटक्स डैक्टाइलोपी
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छोड़ें |
रसायनिक प्रक्रिया |
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नींबू जातीय पतिंगे |
कृषीय |
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जैविक प्रक्रिया |
2. 10-15क्रिसोपेरला सुंडी प्रति पौधे की दर से छोड़ें। |
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रसायनिक प्रकिया |
2. अनुश्रवण के आधार पर 1 एम्एल मोनोक्रोटोफॉस अथवा 1.5 एम्एल ऑक्सीडेटान मिथाइल अथवा नम गंधक 80 डब्ल्यू पी 3 ग्राम/प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। |
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रोग |
कृषीय प्रक्रिया |
2. मानूसन से पहले केंकर से संक्रमित सभी कोपलों को काट कर नष्ट कर दें। |
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रसायनिक प्रक्रिया |
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