बिहार में चना की खेती
चना
चना रबी की मुख्य दलहनी फसल है । इस फसल को खेती बिहार में सभी सिंचिंत तथा असिंचिंत क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है । सभी दलहनी पौधों की तरह चना अपनी जड़ों में बनने वाली गांठों में रहने वाले बैक्टीरिया के द्वारा नेत्रजन का स्थिरीकरण कर भूमि की उर्वराशक्ति बढ़ा़ता है। इसलिए फसल चक्र में इसे सम्मिलित किया जाता है, ताकि भूमि की उत्पादकता बनी रहे । धनहर क्षेत्रों की भारी मिट्टी वाली भूमि भी इस फसल के लिये उपयुक्त है।
खेत की तैयारी
अगात खरीफ फसल एवं धान की कटनी के बाद खेत की अविलम्ब तैयारी जरूरी है । पहली जुताई मिट्टी पलटने वाली हल से व दूसरी जुताई कल्टीवेटर से करके पाटा लगा देते है जिससे खेत समतल हो जायेगा।
अनुशंसित प्रभेद
उन्नत प्रभेद |
बुआई का समय |
परिपक्वता अवधि (दिन) |
औसत उपज (क्वि0/हे0) |
अभ्युक्ति |
राजेन्द्र चना |
15 अक्टूबर-10 नवम्बर |
140-145 |
15-18 |
मध्यम दाना |
उदय (के.पी.जी. 59) |
1 नवम्बर -10 दिसम्बर |
130-135 |
20-22 |
रोग सहिष्णु, बडा दाना |
पूसा 256 |
1 नवम्बर -10 दिसम्बर |
150-155 |
25-30 |
बडा दाना |
आर.ए.यू. 52 |
15 अक्टूबर-30 नवम्बर |
140-145 |
22-25 |
रोग सहिष्णु, |
के. डब्लू. आर. 108 |
25 नवम्बर-10 दिसम्बर |
130-135 |
20-22 |
मध्यम दाना |
पूसा 372 |
15 नवम्बर-15 दिसम्बर |
130-135 |
15-20 |
छोटा दाना |
एस. जी. 2 |
15 अक्टूबर-30 नवम्बर |
140-145 |
21-22 |
छोटा दाना |
बी. आर. 78 |
15 अक्टूबर-30 अक्टूबर |
140-145 |
14-15 |
हरा दाना(सब्जी हेतु) |
काबुली चना |
|
|
|
|
पूसा 1003 |
15 अक्टूबर-30 अक्टूबर |
150-160 |
12-15 |
बडा दाना |
एच. के. 94-134 |
15 अक्टूबर-30 अक्टूबर |
150-160 |
12-15 |
बडा दाना |
बीज दर
75 -80 कि0ग्रा0/हे0 । बडे दाने एवं काबुली चने के लिये बीज दर 100 कि0ग्रा0/हे0
बीजोपचार
बोने की दूरी
पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंमी. ।
उर्वरक प्रबंधन
20 कि0ग्रा0 नेत्रजन, 40-50 कि0ग्रा0 स्फूर (100 कि0ग्रा0 डी.ए.पी.)/हे0। उर्वरकों की पूरी मात्रा बुआई के पूर्व अंतिम जुताई के समय एक समान रूप से खेत में मिला दें ।
निराई गुडाई एवं खरपतवार प्रबंधन
दो बार निकाई गुडाई करना आवश्यक है । प्रथम निकाई गुडाई बुआई के 25-30 दिनों बाद एवं दूसरी 45 - 50 दिनों बाद करें । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिये फ्लूक्लौरालिन(वासालीन) 45 ई.सी. 2 लीटर प्रति हेक्टयर की दर से खेत की अंतिम तैयारी के समय प्रयोग करें ।
सिंचाई
साधारणतयः दलहनी फसलों को कम जल की आवश्यकता होती है । नमी की कमी स्थिति में पहली सिंचाई बुआई के 45 दिनों के बाद तथा दूसरी सिंचाई फली बनने की अवस्था में करें ।
मिश्रित खेती
धनियाँ, राई सरसों, तीसी एवं गेहूँ के साथ मिश्रित खेती की जा सकती है । चने के साथ धनियॉ की अन्तर्वर्ती खेती करने से चने में फलीछेदक का प्रकोप नियंत्रित होता है ।
कटनी, दौनी एवं भंडारण
फसल तैयार होने पर फलियाँ पीली पड़ जाती है तथा पौधा सूख जाता है। पौधों को काटकर धूप में सूखा लें एवं दौनी कर दाना अलग कर लें। दानों को सूखाकर ही भंडारित करें।
चना के प्रमुख कीट एवं रोग तथा प्रबंधन
प्रमुख कीट |
रोग तथा प्रबंधन |
फली छेदक कीट (हेलीकोभरपा आर्मिजेरा)
|
इस कीट का व्यस्क पीले-भूरे रंग का होता है एवं सफेद पंख के किनारे काले रंग की पट्टी बनी होती है। मादा कीट पत्तियों पर एक-एक अण्डे देती है, 4-5 दिनों में अण्डे से कत्थई रंग का पिल्लू निकलता है, जो आगे चलकर हरे रंग का हो जाता है। पिल्लू प्रारंभ में पत्तियों तथा फुलों को खाकर क्षति पहुँचाता है। बाद में कीट फली को भी छेद कर दानों को खाता है, जिसके कारण फली बर्बाद हो जाता है। प्रबंधन 1. दस फेरोमौन फंदा जिसमें हेलिकोभरपा आर्मीजेरा का ल्योर लगा हो प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगावें। 2. प्रकाश फंदा का उपयोग करें। 3. 15-20 T आकार का पंछी बैठका (बर्ड पर्चर) प्रति हेक्टेयर लगावें। 4. खड़ी फसल में इनमें से किसी एक का छिड़काव करें। जैविक दवा एन0पी0भी0 250 एल0ई0 या क्यूनालफॉस 25 ई0सी0 का 1 मिलीलीटर या नोवाल्युरॉन 10 ई0सी0 का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। |
कजरा कीट (अग्रोटिस यप्सिलोंन)
|
इस कीट के व्यस्क काले-भूरे रंग के होते हैं, तथा पिल्लू 3-4 से0मी0 लम्बा काले-भूरे रंग का चिकना एवं मुलायम होता है। ये अंकुरण कर रहे बीज को क्षतिग्रस्त करते हैं एवं नवांकुरित पौधों को जमीन की सतह से काट कर गिरा देते हैं। दिन में पिल्लू मिट्टी में छिपे रहते हैं और शाम होते ही बाहर निकल कर पौधों को काटते हैं। प्रबंधन
|
चने का सेमीलूपर
|
इस कीट का पिल्लू हरे रंग का होता है, जो कोमल पत्तियों को खाकर क्षति पहुँचाता है तथा फलियों को भी नुकसान पहुँचाता है। प्रबंधन
|
उखड़ा रोग (विल्ट)
|
खड़ी फसल आक्रान्त होती है। यह मिट्टी जनित रोग है। फसल मुरझाकर सूखने लगती है। प्रबंधन
|
स्टेमफिलियम ब्लाइट |
यह रोग स्टेमफिलियम जनित फफूँद से होता है। पत्तियों पर बहुत छोटे भूरे-काले रंग के धब्बे बनते हैं। इस रोग में पहले पौधे के निचली भाग की पत्तियाँ आक्रान्त होकर झड़ती हैं और रोग ऊपरी भाग पर बढ़ते जाता है। फसल में यह रोग एक स्थान से शुरू होकर धीरे-धीरे चारों ओर फैलता है। प्रबंधन
|
हरदा रोग(रस्ट)
|
यह रोग यूरोमाईसीज फफूंद से होता है। इस रोग में पौधे के पत्तियों, तना, टहनियों एवं फलियों पर गोलाकार प्यालीनुमा सफेद भूरे रंग के फफोले बनते हैं। बाद में तना पर के फफोले काले हो जाते हैं और पौधे सूख जाते हैं। प्रबंधन
|
मूल गांठ सूत्र कृमि रोग(नेमातोड)
|
यह रोग मिलाईडोगाइनी स्पीसिज नामक सुत्रकृमि से होता है। पौधे की जड़ों में जहाँ-तहाँ छोटे-बड़े गाँठ बन जाते हैं। पौधों में असमान वृद्धि दिखाई देती है। प्रभावित पौधों में बौनापन, पीलापन दिखता है तथा उपज भी कम मिलता है। प्रबंधन
|
ग्रीष्म कालीन उरद की खेती
भूमिका
उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश के सिंचित क्षेत्र में अल्पावधि (60-65 दिन) वाली दलहनी फसल उरद की खेती करके किसानों की वार्षिक आय में आशातीत वृद्धि संभव है। साथ ही मृदा संरक्षण/उर्वरता को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। उर्द की ग्रीष्मकालीन फसल में पीत चितकबरा रोग भी खरीफ फसल की अपेक्षा कम लगता है। ग्रीष्म कालीन उरद उत्पादन की उन्नत एवं नूतन तकनीक का विवरण निम्नलिखित हैः-
उन्नतशील प्रजातियॉं
पीला चितकबरा रोग रोधी प्रजातियों का ही चयन करें जैसे बसंत बहार (पी0डी0यू0-1) व आई0पी0यू0 94-1, के0यू0-300ए के0यू0-92-1 (आजाद उर्द-1)ए एल0बी0जी0 20
अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन अन्तर्गत प्रमुख प्रजातियों की पैदावार निम्न तालिका में दर्शायी गयी है-
राज्य |
प्रजाति |
उपज कि0ग्रा0/है0 |
% वृद्धि |
||
|
उन्नत |
लोकल |
उन्नत |
स्थानीय |
|
पूर्वी उत्तर प्रदेश |
पी0डी0यू0-1 (बसन्त बहार) |
लोकल |
638 |
210 |
203.8 |
आन्ध्र प्रदेश |
एल0वी0जी0-20 |
लोकल |
1010 |
725 |
39.3 |
बीजशोधन
मृदा एवं बीज जनित रोगों से बचाव के लिए 2 ग्राम थायरम एवं 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम मिश्रण (2:1) प्रति कि0ग्रा0 बीज अथवा कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्रा0 प्रति कि0ग्राम बीज की दर से शोधित कर लें। बीजशोधन कल्चर से उपचारित करने के 2-3 दिन पूर्व करना चाहिए।
बीजोपचार
राइजोबियम कल्चर का एक पैकेट (250 ग्रा0) प्रति 10 कि0ग्रा0 बीज के लिए पर्याप्त होता है। 50 ग्राम गुड़ या शक्कर को 1/2 लीटर जल में घोलकर उबालें व ठण्डा कर लें। ठण्डा हो जाने पर ही इस घोल में एक पैकेट राइजोबियम कल्चर मिला लें। बाल्टी में 10 कि0ग्रा0 बीज डाल कर अच्छी तरह से मिला लें ताकि कल्चर के लेप सभी बीजों पर चिपक जाएं उपचारित बीजों को 8-10 घंटे तक छाया में फेला देते हैं। उपचारित बीज को धूप में नहीं सुखाना चाहिए। बीज उपचार दोपहर में करें ताकि शाम को अथवा दूसरे दिन बुआई की जा सके। कवकनाशी या कीटनाशी आदि का प्रयोग करने पर राइजोबियम कल्चर की दुगनी मात्रा का प्रयोग करना चाहिए तथा बीजोपचार कवकनाशी-कीटनाशी एवं राइजोबियम कल्चर के क्रम में ही करना चाहिए।
बुवाई की विधि
बुवाई पंक्तियों में ही सीड डिरल या देशी हल के पीछे नाई या चोंगा बॉंधकर करते हैं। ग्रीष्म ऋतु में अधिक तापक्रम के कारण फसल वृद्धि कम होती है। अतः बुवाई कम दूरी पर (पंक्ति से पंक्ति 20-25 से0मी0 तथा पौधा से पौधा 6-8 से0मी0) करना चाहिए तथा अधिक बीजदर का प्रयोग करना चाहिए।
अन्तर्वर्ती खेती
बसंतकालीन गन्ने के साथ अन्तर्वर्ती खेती करना अत्यन्त लाभदायक रहता है। 75 से.मी. की दूरी पर बोई गयी गन्ने की दो पंक्तियों के बीच की दूरी में उरद की दो पंक्ति आसानी से ली जा सकती है।ऐसा करने पर उरद के लिए अतिरिक्त उर्वरक की आवश्यकता नहीं पड़ती है। सूरजमुखी व उरद की अन्तर्वर्ती खेती के लिए सूरजमुखी की दो पंक्तियों के बीच उरद की दो से तीन पंक्तियॉं लेना उत्तम रहता है।
उर्वरक
एकल फसल के लिए 10 कि0ग्रा0 नत्रजन, 30 कि0ग्रा0 फासफोरस एवं 20 कि0ग्रा0 सल्फर, प्रति हे0 की दर से अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देना चाहिए। अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन से सल्फर के प्रयोग से 11% अधिक उपज प्राप्त हुई है। नाइट्रोजन एवं फासफोरस की पूर्ति के लिए 75 कि0ग्रा डी0ए0पी0 तथा सल्फर की पूर्ति के लिए 100 कि0ग्रा0 जिप्सम प्रति है0 प्रयोग करना चाहिए। उर्वरकों को अन्तिम जुताई के समय ही बीज से 2-3 से0मी0 की गहराई व 3-4 से0मी0 साइड पर ही प्रयोग करना चाहिए।
सिंचाई
2-4 सिंचाई आवश्यकतानुसार। प्रथम सिंचाई पलेवा के रूप में तथा अन्य सिंचाईयाँ 15 से 20 दिन के अन्तराल में फसल की आवश्यकतानुसार करना चाहिए। पुष्पावस्था एवं दाने बनते समय खेत में उचित नमी होना अति आवश्यक है। स्प्रिंकलर सेट का उपयोग कर जल संवर्धन एवं फसल के उत्पादन में अप्रत्यासित बढ़त प्राप्त की जा सकती है।
खरपतवार नियंत्रण
बुआई के 25 से 30 दिन बाद तक खरपतवार फसल को अत्यधिक नुकासान पहुॅचाते हैं यदि खेत में खरपतवार अधिक हैं तो 20-25 दिन बाद एक निराई कर देना चाहिए। जिन खेतों में खरपतवार गम्भीर समस्या हों वहॉं पर बुआई से एक दो दिन पश्चात पेन्डीमेथलीन की 0.75 किग्रा0 सक्रिय मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में छिड़काव करना लाभप्रद रहता है।
पौध रक्षा
ग्रीष्म कालीन उरद में थ्रिप्स व श्वेत मक्खी का प्रकोप ज्यादा होता है। इन्हें मारने के लिए मोनोक्रोटोफास 0.04 प्रतिशत व मेटासिस्टाक्स 0.05 प्रतिशत (2 एम0एल0 1 लीटर) पानी में घोल का छिड़काव करें।
कटाई एवं मड़ाई
जब 70-80 प्रतिशत फलियॉं पक जाएं, हंसिया से कटाई आरम्भ कर देना चाहिए। तत्पश्चात वण्डल बनाकर फसल को खलिहान में ले आते हैं। 3-4 दिन सुखाने के पश्चात बैलों की दायें चलाकर या थ्रेसर द्वारा भूसा से दाना अलग कर लेते हैं।
औसत उपज व लाभ
उक्त तरीके से ग्रीष्म कालीन उरद की खेती करने से 8-10 कुन्तल प्रति हे0 उपज प्राप्त होती है
व लगभग आठ हजार से दस हजार रूपये प्रति हे0 की आय प्राप्त होती है।
भण्डारण
धूप में अच्छी तरह सुखाने के बाद जब दानों में नमी की मात्रा 8-9: या कम रह जाये, तभी फसल को भण्डारित करना चाहिए।
आइसोपाम सुविधा
तिलहन, दलहन, आयलपाम तथा मक्का पर एकीकृत योजना के अन्तर्गत देश में उरद उत्पादन को बढ़ावा देने हेतु उपलब्ध सुविधायें :-
मूंग की लाभकारी खेती
किस्म |
पकने की अवधि (दिनों में ) |
औसत उपज |
विशेषतायें |
आर एम जी-62 |
65-70 |
6-9 |
सिंचित एवं अ सिंचित क्षत्रो के लिए उपयुक्तI राइजक्टोनिया ब्लाइट कोण व् फली छेदन किट के प्रति रोधक ,फलिया एक साथ पकती है I |
आर एम जी-268 |
62-70 |
8-9 |
सूखे के प्रति सहनसीलI रोग एवं कीटो का कम प्रकोपI फलिया एक साथ पकती है I |
आर एमजी-344 |
62-72 |
7-9 |
खरीफ एवं जायद दोनों के लिए उपयुक्तI ब्लाइट को सहने की क्षमता चमकदार एवं मोटा दाना I |
एस एम एल-668 |
62-70 |
8-9 |
खरीफ एवं जायद दोनों के लिए उपयुक्तlअनेक बिमारियों एवं रोगो के प्रति सहनसील I पीत शिरा एवं बैक्टीरियल ब्लाइट का प्रकोप कम I |
गंगा-8 |
7072 |
9-10 |
उचित समय एवं देरी दोनों के लिए उपयुक्त , खरीफ एवं जायद दोनों के लिए उपयुक्त I पीत शिरा एवं बैक्टीरियल ब्लाइट का प्रकोप कम I |
जी एम-4 |
62-68 |
10-12 |
फलिया एक साथ पकती है Iदाने हरे रंग के तथा बड़े आकर के होते है |
मूंग के -851 |
70-80 |
8-10 |
सिंचित एवं अ सिंचित क्षत्रो के लिए उपयुक्त I चमकदार एवं मोटा दाना I |
स्त्रोत: राजसिंह एवं शैलेन्द्र कुमार,केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान(भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद), जोधपुर
मटर की ऊन्न्त खेती
भारत में मटर 7.9 लाख हेक्टेयर भूमि में उगाई जाती है। इसका वार्षिक उत्पादन 8.3 लाख टन एवं उत्पादकता १०२९ किग्रा./हेक्टेयर है। मटर उगाने वाले प्रदेशों में उत्तर प्रदेश प्रमुख हैं। उत्तरप्रदेश में 4.34 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मटर उगाई जाती है, जो कुल राष्ट्रीय क्षेत्र का 53.7% है। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश में २.7 लाख हे., उड़ीसा में 0.48 लाख., बिहार में 0.28 लाख हे. क्षेत्र में मटर उगाई जाती है।
भूमि की तैयारी – मटर की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है, फिर भी गंगा के मैदानी भागों की गहरी दोमट मिट्टी इसके लिए सबसे अच्छी रहती है। मटर के लिए भूमि को अच्छी तरह तैयार करना चाहिए। खरीफ की फसल की कटाई के बाद भूमि की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल करके २-3 बार हैरो चलाकर अथवा जुताई करके पाटा लगाकर भूमि तैयार करनी चाहिए। धान के खेतों में मिट्टी के ढेलों को तोड़ने का प्रयास करना चाहिए। अच्छे अंकुरण के लिए मिट्टी में नमी होना जरुरी है।
फसल पद्धति- सामान्यतः मटर की फसल, खरीफ ज्वार, बाजरा, मक्का, धान और कपास के बाद उगाई जाती है। मटर, गेंहूँ और जौ के साथ अंतः पसल के रूप में भी बोई जाती है। हरे चारे के रूप में जई और सरसों के साथ इसे बोया जाता है। बिहार एवं पश्चिम बंगाल में इसकी उतेरा विधि से बुआई की जाती है।
बीजोपचार – उचित राजोबियम संवर्धक (कल्चर) से बीजों को उपचारित करना उत्पादन बढ़ाने का सवसे सरल साधन है। दलहनी फसलों में वातावरणीय नाइट्रोजन के स्थिरीकरण करने की क्षमता जड़ों में स्थित ग्रंथिकाओं की संख्या पर निर्भर करती है और यह भी राइजोबियम की संख्या पर भी निर्भर करता है। इसलिए इन जीवाणुओं का मिट्टी में होना जरुरी है। क्योंकि मिट्टी में जीवाणुओं की संख्या पर्याप्त नहीं होती है, इसलिए राईजोबियम संवर्धक से बीजों को उपचारित करना जरूरी है।
राईजोबियम से बीजों को उपचारित करने के लिए उपयुक्त कल्चर का एक पैकेट (250 ग्राम) 10 किग्रा. बीज के लिए पर्याप्त होता ही। बीजों को उपचारित करने के लिए 50 ग्राम गुड़ और २ ग्राम गोंद को एक लीटर पानी में घोल कर गर्म करके मिश्रण तैयार करना चाहिए। सामान्य तापमान पर उसे ठंडा होने दें और ठंडा होने के बाद उसमें एक पैकेट कल्चर डालें और अच्छी तरह मिला लें। इस मिश्रण में बीजों को डालकर अच्छी तरह से मिलाएं, जिससे बीज के चारों तरफ इसकी लेप लग जाए। बीजों को छाया में सुखाएं और फिर बोयें। क्योंकि राइजोबियम फसल विशेष के लिए ही होता है, इसलिए मटर के लिए संस्तुत राईजोबियम का ही प्रयोग करना चाहिए। कवकनाशी जैसे केप्टान, थीरम आदि भी राईजोबियम कल्चर के अनुकूल होते हैं। राइजोबियम से उपचारित करने के 4-5 दिन पहले कवकनाशियों से बीजों का शोधन कर लेना चाहिए।
बुआई के समय- मटर की बुआई मध्य अक्तूबर से नवम्बर तक की जाती है जो खरीफ की फसल की कटाई पर निर्भर करती है। फिर भी बुआई का उपयुक्त समय अक्तूबर के आखिरी सफ्ताह से नवम्बर का प्रथम सप्ताह है।
बीज-दर, दूरी और बुआई- बीजों के आकार और बुआई के समय के अनुसार बीज दर अलग-अलग हो सकती है। समय पर बुआई के लिए 70-80 किग्रा. बीज/हे. पर्याप्त होता है। पछेती बुआई में 90 किग्रा./हे. बीज होना चाहिए। देशी हल जिसमें पोरा लगा हो या सीड ड्रिल से 30 सेंमी. की दूरी पर बुआई करनी चाहिए। बीज की गहराई 5-7 सेंमी. रखनी चाहिये जो मिट्टी की नमी पर निर्भर करती है। बौनी मटर के लिए बीज दर 100 किलोग्राम/हे. उपयुक्त है।
उर्वरक – मटर में सामान्यतः 20 किग्रा, नाइट्रोजन एवं 60 किग्रा. फास्फोरस बुआई के समय देना पर्याप्त होता है। इसके लिए 100-125 किग्रा. डाईअमोनियम फास्फेट (डी, ए,पी) प्रति हेक्टेयर दिया जा सकता है। पोटेशियम की कमी वाले क्षेत्रों में २० कि.ग्रा. पोटाश (म्यूरेट ऑफ़ पोटाश के माध्यम से) दिया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में गंधक की कमी हो वहाँ बुआई के समय गंधक भी देना चाहिए। यह उचित होगा कि उर्वरक देने से पहले मिट्टी की जांच करा लें और कमी होने पर उपयुक्त पोषक तत्वों को खेत में दें।
सिंचाई- प्रारंभ में मिट्टी में नमी और शीत ऋतु की वर्षा के आधार पर 1-२ सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई फूल आने के समय और दूसरी सिंचाई फलियाँ बनने के समय करनी चाहिए। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हल्की सिंचाई करें और फसल में पानी ठहरा न रहे।
खतपतवार नियंत्रण – खरपतवार फसल के निमित्त पोषक तत्वों व जल को ग्रहण का फसल को कमजोर करते हैं और उपज के भारी हानि पहुंचाते हैं। फसल को बढ़वार की शुरू की अवस्था में खरपतवारों से अधिक हानि होती है। अगर इस दौरान खरपतवार खेत से नहीं निकाले गये तो फसल की उत्पादकता बुरी तरह से प्रभावित होती है। यदि खेत में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार, जैसे-बथुआ, सेंजी, कृष्णनील, सतपती अधिक हों तो 4-5 लीटर स्टाम्प-30 (पैंडीमिथेलिन) 600-800 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से घोलकर बुआई के तुरंत बाद छिड़काव कर देना चाहिए। इससे काफी हद तक खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है।
मटर की प्रमुख प्रजातियाँ – मटर की प्रमुख प्रजातियाँ और उनके विशिष्ट गुण निम्न हैं –
प्रजाति |
उत्पादन क्षमता (किवंटल प्रति हे.) |
संस्तुत क्षेत्र |
विशेष गुण |
पकने की अवधि |
ऊँचे कद की प्रजातियाँ
|
||||
रचना |
20-22 |
पूर्वी एवं पश्चिमी मैदानी क्षेत्र |
सफेद फुफुन्द अवरोधी |
150-140 |
मालवीय मटर-२ |
20-25 |
पूर्वी मैदानी क्षेत्र |
एवं पश्चिमी मैदानी क्षेत्र |
120-140 |
बौनी प्रजातियाँ
|
||||
अपर्णा |
25-30 |
मध्य पूर्वी एवं पश्चिमी क्षेत्र |
- |
120-140
|
मालवीय मटर-२ |
25-30 |
पूर्वी मैदानी क्षेत्र |
सफेद फफूंद एवं रतुआ रोग अवरोधी |
125-140 |
के.पी.एम.आर. 400 |
20-25 |
मध्य क्षेत्र |
सफेद फफूंद अवरोधी |
10-125 |
के.पी.एम.आर. 522 |
25-30 |
पश्चिमी मैदानी क्षेत्र |
सफेद फफूंद अवरोधी |
१२४-140 |
पूसा प्रभात |
18-20 |
पूर्वी मैदानी क्षेत्र |
अल्पकालिक |
100-110 |
पूसा पन्ना |
18-20 |
पश्चिमी मैदानी क्षेत्र |
अल्पकालिक |
100-110 |
रतुआ – इस रोग के कारण जमीन के ऊपर के पौधे के सभी अंगों पर हल्के से चमकदार पीले (हल्दी के रंग के ) फफोले नजर आते हैं। पत्तियों की निचली सतह पर ये ज्यादा होते हैं। कई रोगी पत्तियाँ मुरझा कर गिर जाती है। अंत में पौधा सुखकर मर जाता है। रोग के प्रकोप से सें संकुचित व छोटे हो जाते हैं। अगेती फसल बोने से रोग का असर कम होता है। अवरोधी प्रजाति मालवीय मटर 15 प्रयोग करें।
आर्द्रजड़ गलन- इस रोग से प्रकोपित पौधों की निचली पत्तियाँ हल्के पीले रंग की हो जाती है। पत्तियाँ नीचे की ओर मुड़कर सुखी और पीली पड़ जाती है। तनों और जड़ों पर खुरदरे खुरंट से पड़ जाते हैं। यह रोग जड़-तंत्र सड़ा डालता है। यह रोग मृदा जनित है। रोग की बीजाणु वर्षों तक मिट्टी में जमे रहते हैं। हवा में 25 से 50% की अपेक्षित आर्द्रता और 22 से 32 डिग्री में सेल्सियस दिन का तापमान रोग पनपने में सहायक होता है। रोगग्राही फसल को उसी खेत में हर साल न उगाएँ। बीज का उपचार करने के लिए कार्बेन्ड़ाजिम 1 ग्राम + थीरम २ ग्राम मात्रा एक किग्रा. बीज में मिलाएं। फसल की अगेती बुआई से बचें तथा सिंचाई हल्की करें।
चांदनी रोग- इस रोग से पौधों पर एक से.मी. व्यास के बड़े-बड़े गोल बादामी और गड्ढे वाले दाग पीजे जाते हैं। इन दागों के चारों ओर गहरे रंग की किनारों भी होती है। तने पर घेरा बनाकर यह रोग पौधे के मार देता है। रोग मुक्त बीज ही बोयें 3 ग्राम थीरम दवा प्रति किग्रा. बीज की दर से मिलाकर बीजोपचार करें।
तुलासिता/रोमिल फफूंद- इस रोग के कारण पत्तियों की ऊपरी सतह एप पीले और ठीक उनके नीचे की सतह पर रुई जैसी फफूंद छा जाती है और रोगग्रस्त पौधों की बढ़वार रुक जाती है। पत्तियाँ समय से पहले ही झड़ जाती है। संक्रमण अधिक होने पर 0.२% मौन्कोजेब अथवा जिनेब का छिड़काव 400-800 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से करनी चाहिए।
पौध/मूल विगलन- जमीन के पास के हिस्से से नये फूटे क्षेत्रों पर इस रोग का प्रकोप होता है। तना बादामी रंग का होकर सिकुड़ जाता है, जिसकी वजह से पौधे मर जाते हैं। 3 ग्रा. थीरम+1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें खेत का जल निकास ठीक रखें। संक्रमित खेती में अगेती बुआई न करें।
तना मक्खी - ये पूरे देश में पाई जाती है। पत्तियों, डंठलों अरु कोमल तनों में गांठें बनाकर मक्खी उनमें अंडे देती है। अंडों देती है। अंडों से निकली सड़ी पत्ती के डंठल या कोमल तनों मने सुरंग बनाकर अंदर-अंदर खाती है, जिससे नये पौधे कमजोर होकर झुक जाते हैं और पत्तियों पीली पड़ जाती है। पौधों की बढ़वार रुक जाती है। अंततः पौधे मर जाते हैं।
मांहू (एफिड) - कभी-कभी मांहू भी मटर की फसल को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। इनके बच्चे और वयस्क दोनों ही पौधे का रस चूसने में सक्षम होते हैं। यह रस ही नहीं चूसते, बल्कि जहरीले तत्व भी छोड़ देते हैं। इसका भारी प्रकोप होने पर फलियाँ मुरझा जाती हैं। अधिक प्रकोप होने पर फलियाँ सुख जाती है। मांहू मटर एक वायरस (विषाणु) को फैलाने में भी उसके वाहक बनकर सहायता करती है।
मटर का अधफंदा (सेमीलूपर) - यह मटर का साधारण कीट है। इसकी गिड़ारें पत्तियाँ खाती है। पर कभी-कभी फूल और कोमल फलियों को भी खा जाती हैं। चलते समय यह शरीर के बीचोबीच फंदा सा बनाती है, इसलिए इसका नाम अधफंदा या सेमिलुपर पड़ा।
जहाँ पर तना मक्खी या पटसुरंगा या मांहू का प्रकोप हो, वहाँ २% फोरेट से बीज उपचार करें या 1 किग्रा. फोरेट प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की मिट्टी में बुआई के समय मिला दें। आवश्यकता होने पर पहली निकलने की अवस्था में फसल पर 0.०३% डामेथोएट 400 से 500 लीटर पानी में मिलाकर घोल कर प्रति हेक्टेयर छिड़कें। जहाँ बुआई के समय मिट्टी में दवा न मिला पाए हों, वहाँ कीट के प्रकोप के अनुसार कीटनाशी दवा का छिड़काव करें।
कटीला फली भेदक (एटीपेला) - यह फली भेदक उत्तर भारत में अधिक पाया जाता है। अगेती किस्म के अपेक्षा पछेती प्रजातियों पर इसका अधिक प्रकोप होता है। इसी तरह देर से बोई गयी फसल में जल्दी बोई गयी फसल की तुलना में अधिक हानि होती है। फली और अंखुबड़ी के जोड़ वाली जगह पर या फली की सतह पर यह पंतगा अंडे देता है। अंडे से निकलते ही इसके नियंत्रण के लिए आवश्यक कदम उठाना चाहिए।
कटाई और मड़ाई - मटर की फसल सामन्यतः 130-150 दिनों में पकती है। इसकी कटाई दरांती से करनी चाहिए 5-7 दिन धुप में सुखाने के बाद बैलों से मड़ाई करनी चाहिए। साफ दानों को 3-4 दिन धूप में सुखाकर उनको भंडारण पात्रों (बिन) में करना चाहिये। भंडारण के दौरान कीटों से सुरक्षा के लिए एल्युमिनियम फोस्फाइड का उपयोग करें।
उपज – उत्तम कृषि कार्य प्रबन्धन से लगभग 18-30 किवंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की सकती है।
स्त्रोत: कृषि विभाग, बिहार सरकार
बिहार में मसूर की खेती
परिचय
मसूर रबी में उगायी जाने वाली बिहार की बहुप्रचलित एवं लोकप्रिय दलहनी फसल है। इसकी खेती बिहार के सभी भूभागों में की जाती है। भूमि की उर्वराशक्ति बनाये रखने में यह सहायक होती है। मसूर की फसल असिंचिंत क्षेत्रों के लिए अन्य रबी दलहनी फसलों की अपेक्षा अधिक उपयुक्त है।इसकी खेती हल्की, उपरी भूमि से लेकर धनहर क्षेत्रों के खेतों में की जा सकती है । टाल क्षेत्रों हेतु यह एक प्रमुख फसल है।
खेत की तैयारी
अगात खरीफ फसल एवं धान की कटनी के बाद खेत की अविलम्ब तैयारी जरूरी है । पहली जुताई मिट्टी पलटने वाली हल से व दूसरी जुताई कल्टीवेटर से करके पाटा लगा देते है जिससे खेत समतल हो जायेगा।
बीज दर
छोटे दाने की प्रजाति के लिये 30-35 एवं बडे दाने के लिये 40-45 कि0ग्रा0/हे0 । पैरा फसल के रूप मे बुआई हेतु 50-60 कि0ग्रा0/हे0 ।
बीजोपचार
बोने की दूरी
पंक्ति से पंक्ति 25 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंमी. ।
अनुशंसित प्रभेद
उन्नत प्रभेद |
बुआई का समय |
परिपक्वता अवधि (दिन) |
औसत उपज (क्वि0/हे0) |
अभ्युक्ति |
बी. आर. 25 |
15 अक्टूबर-15 नवम्बर |
110-120 |
14-15 |
पूरे बिहार के लिये उपयुक्त |
पी.एल. 406 |
25 अक्टूबर-25 नवम्बर |
130-140 |
18-20 |
पूरे बिहार एवं पैरा फसल के लिये उपयुक्त |
मल्लिका (के. 75) |
15 अक्टूबर-15 नवम्बर |
130-135 |
20-22 |
पूरा बिहार, दाना मध्यम बड़ा |
अरूण (पी.एल. 77-12) |
15 अक्टूबर-15 नवम्बर |
110-120 |
22-25 |
दाना मध्यम बड़ा |
पी. एल. 639 |
25 अक्टूबर-15 नवम्बर |
120-125 |
18-20 |
पूरा बिहार |
एच. यू. एल. 57 |
25 अक्टूबर-15 नवम्बर |
120-125 |
20-25 |
उकटा सहिष्णु |
के. एल. एस. 218 |
25 अक्टूबर-15 नवम्बर |
120-125 |
20-25 |
हरदा (रस्ट) एवं उकटा सहिष्णु |
नरेन्द्र मसूर- 1 |
25 अक्टूबर-15 नवम्बर |
120-125 |
20-25 |
हरदा (रस्ट) एवं उकटा सहिष्णु |
उर्वरक प्रबंधन
20 कि0ग्रा0 नेत्रजन, 40-50 कि0ग्रा0 स्फूर (100 कि0ग्रा0 डी.ए.पी.)/हे0 । उर्वरकों की पूरी मात्रा बुआई के पूर्व अंतिम जुताई के समय एक समान रूप से खेत में मिला दें ।
निकाई गुड़ाई एवं खरपतवार प्रबंधन
दो बार निकाई गुड़ाई करना आवश्यक है। प्रथम निकाई गुड़ाई बुआई के 25-30 दिनों बाद एवं दूसरी 45-50 दिनों बाद करें । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिये फ्लूक्लोरोलिन
(वासालीन) 45 ई.सी. 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम तैयारी के समय प्रयोग करें ।
सिंचाई
साधारणतयः दलहनी फसलों को कम जल की आवश्यकता होती है । नमी की कमी स्थिति में पहली सिंचाई बुआई के 45- दिनों के बाद तथा दूसरी सिंचाई फली बनने की अवस्था में करें ।
मिश्रित खेती
सरसों एवं तीसी के साथ मिश्रित खेती की जा सकती है ।
कटनी दौनी एवं भंडारण
फसल तैयार होने पर फलियाँ पीली पड़ जाती है तथा पौधा सूख जाता है । पौधों को काटकर धूप में सूखा लें एवं दौनी कर दाना अलग कर लें । दानों को सूखाकर ही भंडारित करें।
मसूर के प्रमुख कीट एवं रोग तथा प्रबंधन
कजरा कीट(एग्रोटीस)
कट वर्म (कजरा कीट) कभी-कभी मसूर उत्पादक क्षेत्रों में कटवर्म समूह (एग्रोटीस स्पी0) के कीटों का आक्रमण हो जाता है। इनके साथ या अलग स्पोडोप्टेरा कीट का भी आक्रमण पाया जाता है। मादा कीट मिट्टी या पौधे के निचली पत्तियों पर समूह में अण्डा देती है। अण्डे से निकलने के बाद पिल्लू अंकुरण कर रहे बीज को क्षतिग्रस्त करते हैं एवं नवांकुरित पौधों को जमीन की सतह से काट कर गिरा देते है। दिन में पिल्लू मिट्टी में छिपे रहते हैं और शाम होते ही बाहर निकल कर पौधों को काटते हैं।
प्रबंधन
थ्रिप्स कीट
यह सूक्षम आकृति वाला काला एवं भूरे रंग का बेलनाकार कीट होता है। रैस्पींग एण्ड सकिंग टाईप का मुख भाग होने के कारण यह पत्तियों को खुरचता है तथा उससे निकले द्रव्य को पीता है।
कीट का प्रबंधन
फली छेदक कीट (हेलीकोभरपा आर्मिजेरा)
इस कीट का व्यस्क पतंगा-पीले, भूरे रंग का होता है एवं सफेद पंख के किनारे काले रंग की पट्टी बनी होती है। मादा कीट पत्तियों पर एक-एक अण्डे देती है, 4-5 दिनों में अण्डे से कत्थई रंग का पिल्लू निकलता है जो बाद में हरे रंग का हो जाता है।
प्रबंधन
लूसर्न कैटरपीलर
इस कीट का पिल्लू पीले-हरे रंग का पतला लगभग 2 सेंटीमीटर लम्बा होता है, जो पौधे की फुनगी को जाल बनाकर बाँध देता है और पत्तियों को खाता है। किसी चीज से संपर्क होने पर कीट काफी सक्रियता दिखाते हैं। फसल की प्रारंभिक अवस्था में प्रकोप ज्यादा होता है।
प्रबंधन
लाही कीट(एफिड)
कभी कभी मसूर फसल पर लाही कीट का आक्रमण हो जाता है। यह पत्तियों, डंठलों एवं फलियों पर रहकर पौधे का रस चूसती है।
प्रबंधन
उकठा रोग
मिट्टी में प्रयाप्त नमी रहने के बावजूद भी पौधों का सूखना उकठा रोग कहलाता है। इस रोग के रोगाणु मिट्टी में ही पलते हैं। दोपहर में पौधो का मुरझाना एवं सुबह हरा हो जाना इसका लक्षण है।
प्रबंधन
जड़ एवं कालर सड़न रोग
पौधों में वानस्पतिक वृद्धि ज्यादा होने, मिट्टी में नमी बहुत बढ़ जाने और वायुमंडलीय तापमान बहुत गिर जाने पर इस रोग का आक्रमण होता है। पौधे के पत्तियों, तना टहनियों एवं फलियों पर गोलाकार प्यालीनुमा सफेद भूरे रंग के फफोले बनते हैं। बाद में तना पर के फफोले काले हो जाते हैं और पौधे सूख जाते हैं।
प्रबंधन
स्टेमफिलियम ब्लाईट
पत्तियों पर बहुत छोटे भूरे काले रंग के धब्बे बनते हैं। पहले पौधे के निचली भाग की पत्तियाँ आक्रान्त होकर झड़ती हैं और रोग उपरी भाग पर बढ़ते जाता हैं। खेत में यह रोग एक स्थान से शुरू होकर धीरे-धीरे चारो ओर फैलता है।
प्रबंधन
मृदरोमिल रोग(पावडरी मिल्ड्यू)
मसूर में यह रोग इरीसाइफी पोलिगोनाई नामक फफूंद से होता है। पहले पत्तियों पर छोटे सफेद फफोले बनते हैं जो बाद में तना एवं फलियों पर भी छा जाते है।
प्रबंधन
अरहर की उन्नतशील खेती
भूमिका
दलहनी फसलों में अरहर का विशेष स्थान है। अरहर की दाल में लगभग 20-21 प्रतिशत तक प्रोटीन पाई जाती है, साथ ही इस प्रोटीन का पाच्यमूल्य भी अन्य प्रोटीन से अच्छा होता है। अरहर की दीर्घकालीन प्रजातियॉं मृदा में 200 कि0ग्रा0 तक वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थरीकरण कर मृदा उर्वरकता एवं उत्पादकता में वृद्धि करती है। शुष्क क्षेत्रों में अरहर किसानों द्वारा प्राथमिकता से बोई जाती है। असिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती लाभकारी सि) हो सकती है क्योंकि गहरी जड़ के एवं अधिक तापक्रम की स्थिति में पत्ती मोड़ने के गुण के कारण यह शुष्क क्षेत्रों में सर्वउपयुक्त फसल है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश देश के प्रमुख अरहर उत्पादक राज्य हैं।
उन्नतशील प्रजातियॉं
शीघ्र पकने वाली प्रजातियॉं
|
उपास 120, पूसा 855, पूसा 33, पूसा अगेती, आजाद (के 91-25) जाग्रति (आईसीपीएल 151) , दुर्गा (आईसीपीएल-84031)ए प्रगति।
|
मध्यम समय में पकने वाली प्रजातियॉं |
टाइप 21, जवाहर अरहर 4, आईसीपीएल 87119 (आशा) ए वीएसीएमआर 583
|
देर से पकने वाली प्रजातियॉं |
बहार, बीएमएएल 13, पूसा-9 |
हाईब्रिड प्रजातियॉं |
पीपीएच-4, आईसीपीएच 8 |
रबी बुवाई के लिए उपयुक्त प्रजातियॉं |
बहार, शरद (डीए 11) पूसा 9, डब्लूबी 20
|
अग्रिम पंक्ति प्रदेशन अन्तर्गत शीघ्र, मध्यम व देर से पकने वाली उन्नत प्रजातियों ने विभिन्न स्थानीय/पुरानी प्रजातियों की अपेक्षा क्रमशः 94, 36 एवं 17 प्रतिशत अधिक उपज प्रदान की हैं। प्रमुख अरहर उत्पादक राज्यों हेतु संस्तुत उन्नत प्रजातियों की उपज निम्न तालिका में दर्शायी गयी है।
राज्य |
प्रजाति |
उपज कि0ग्रा0/है0 |
%वृद्धि |
||
शीघ्र
|
|
|
|
|
|
हरियाणा |
एच0 82-1 (पारस) |
- |
1127 |
- |
- |
पंजाब |
पी0पी0एच0-4 (हाइब्रिड) ए0एल0-201 |
- - |
1400 1295 |
- - |
- - |
उत्तर पद्रेश |
उपास-120 |
स्थानीय |
1295 |
817 |
46.8 |
उड़ीसा |
उपास-120 |
गोकनपुर |
337 |
173 |
94.8 |
तमिलनाडु |
सी0ओ0पी0एच0-2 |
सी0ओ0-5 |
850 |
610 |
39.3 |
मध्यम |
|
|
|
|
|
महाराष्ट्र |
आई0सी0पी0एल0-87119 (आशा) वी0एस0एम0आर0-583 |
स्थानीय स्थानीय |
1410 2185 |
1060 1278 |
33.0 70.9 |
गुजरात |
आई0सी0पी0एल0-87119 (आशा) जे0के0एम0-7 |
टी0-21 वी0डी0एन0-2 |
1762 1400 |
1207 887 |
45.9 57.8 |
छत्तीसगढ़ |
आई0सी0पी0एल0-87119 (आशा) |
एन0-1481 |
514 |
407 |
26.3 |
मध्य प्रदेश |
आई0सी0पी0एल0-87119 (आशा) आई0सी0पी0एल0-87119 (आशा) ए0के0पी0जी0-4101 जी0टी0-100 |
स्थानीय वी0डी0एन0-2 स्थानीय वी0डी0एन0-2 |
1410 1350 1600 1256 |
1060 1000 950 836 |
33.0 35.0 68.4 56.2 |
कर्नाटक |
आई0सी0पी0एल0-87119 (आशा) |
स्थानीय |
1465 |
1240 |
18.4 |
आन्ध्र प्रदेश |
आई0सी0पी0एल0-87119 (आशा) |
- |
1905 |
1452 |
31.1 |
देर |
|
|
|
|
|
बिहार |
पूसा-9 |
शरद |
2142 |
2034 |
5.3 |
पूर्वीउत्तर प्रदेश |
बहार |
- |
1995 |
- |
- |
बुआई का समय
शीघ्र पकने वाली प्रजातियों की बुआई जून के प्रथम पखवाड़े तथा विधि में तथा मध्यम देर से पकने वाली प्रजातियों की बुआई जून के द्वितीय पखवाड़े में करना चाहिए। बुआई सीडडिरल या हल के पीछे चोंगा बॉंधकर पंक्तियों में हों।
भूमि का चुनाव
अच्छे जलनिकास व उच्च उर्वरता वाली दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती है। खेत में पानी का ठहराव फसल को भारी हानि पहुँचाता है।
खेत की तैयारी
मिट्टी पलट हल से एक गहरी जुताई के उपरान्त 2-3 जुताई हल अथवा हैरो से करना उचित रहता है। प्रत्येक जुताई के बाद सिंचाई एवं जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था हेतु पाटा देना आवश्यक है।
उर्वरक
मृदा परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अन्तिम जुताई के समय हल के पीछे कूड़ में बीज की सतह से 2 से0मी0 गहराई व 5 से0मी0 साइड में देना सर्वोत्तम रहता है। प्रति हैक्टर 15-20 कि0ग्रा0 नाइट्रोजन , 50 कि0ग्रा0 फास्फोरस, 20 कि0ग्रा0 पोटाश व 20 कि0ग्रा0 गंधक की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में जस्ता की कमी हो वहॉं पर 15-20 कि0ग्रा0 जिन्क सल्फेट प्रयोग करें। नाइट्रोजन एवं फासफोरस की समस्त भूमियों में आवश्यकता होती है। किन्तु पोटाश एवं जिंक का प्रयोग मृदा पीरक्षण उपरान्त खेत में कमी होने पर ही करें। नत्रजन एवं फासफोरस की संयुक्त रूप से पूर्ति हेतु 100 कि0ग्रा0डाइ अमोनियम फासफेट एवं गंधक की पूर्ति हेतु 100 कि0ग्रा0 जिप्सम प्रति हे0 का प्रयोग करने पर अधिक उपज प्राप्त होती है।
बीजशोधन
मृदाजनित रोगों से बचाव के लिए बीजों को 2 ग्राम थीरम व 1 ग्राम कार्वेन्डाजिम प्रति कि0ग्राम अथवा 3 ग्राम थीरम प्रति कि0ग्राम की दर से शोधित करके बुआई करें। बीजशोधन बीजोपचार से 2-3 दिन पूर्व करें।
बीजोपचार
10 कि0ग्रा0 अरहर के बीज के लिए राइजोबियम कल्चर का एक पैकेट पर्याप्त होता है। 50 ग्रा0 गुड़ या चीनी को 1/2 ली0 पानी में घोलकर उबाल लें। घोल के ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर मिला दें। इस कल्चर में 10 कि0ग्रा0 बीज डाल कर अच्छी प्रकार मिला लें ताकि प्रत्येक बीज पर कल्चर का लेप चिपक जायें। उपचारित बीजों को छाया में सुखा कर, दूसरे दिन बोया जा सकता है। उपचारित बीज को कभी भी धूप में न सुखायें, व बीज उपचार दोपहर के बाद करें।
दूरी
पंक्ति से पंक्ति
45-60 से0मी0 तथा (शीघ्र पकने वाली)
60-75 से0मी0 (मध्यम व देर से पकने वाली)
पौध से पौध
10-15 से0मी0 (शीघ्र पकने वाली)
15-20 से0मी0 (मध्यम व देर से पकने वाली)
बीजदर
12-15 कि0ग्रा0 प्रति हे0।
सिंचाई एवं जल निकास
चूँकि फसल असिंचित दशा में बोई जाती है अतः लम्बे समय तक वर्षा न होने पर एवं पूर्व पुष्पीकरण अवस्था तथा दाना बनते समय फसल में आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। उच्च अरहर उत्पादन के लिए खेत में उचित जलनिकास का होना प्रथम शर्त है अतः निचले एवं अधो जल निकास की समस्या वाले क्षेत्रों में मेड़ो पर बुआई करना उत्तम रहता है।
खरपतवार नियंत्रण
प्रथम 60 दिनों में खेत में खरपतवार की मौजूदगी अत्यन्त नुकसानदायक होती है। हैन्ड हों या खुरपी से दो निकाईयॉं करने पर प्रथम बोआई के 25-30 दिन बाद एवं द्वितीय 45-60 दिन बाद खरपतवारों के प्रभावी नियंत्रण के साथ मृदा वायु-संचार में वृद्धि होने से फसल एवं सह जीवाणुओं की वृद्धि हेतु अनुकूल वातावरण तैयार होता है। किन्तु यदि पिछले वर्षों में खेत में खरपतवारों की गम्भीर समस्या रही हो तो अन्तिम जुताई के समय खेत में वैसालिन की एक कि0ग्रा0 सक्रिय मात्रा को 800-1000 ली0 पानी में घोलकर या लासो की 3 कि0ग्रा0 मात्रा को बीज अंकुरण से पूर्व छिड़कने से खरपतवारों पर प्रभावी नियन्त्रण पाया जा सकता है।
फसल सुरक्षा के तरीके
कीट नियन्त्रण
रोग नियन्त्रण
प्रमुख कीट
यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं खाद में प्रौढ़ बनकर बाहर आती है। दानों का सामान्य विकास रूक जाता है।मादा छोटे व काले रंग की होती है जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडो से मेगट बाहर आते है ओर दाने को खाने लगते है। फली के अंदर ही मेगट शंखी में बदल जाती है जिसके कारण दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है ओर दानों का आकार छोटा रह जाता है। तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
छोटी इल्लियॉ फलियों के हरे उत्तकों को खाती है व बडे होने पर कलियों , फूलों फलियों व बीजों पर नुकसान करती है। इल्लियॉ फलियों पर टेढे – मेढे छेद बनाती है।
इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियॉ पीली, हरी, काली रंग की होती है तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पटिटयॉ होती है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
मादा प्राय: फलियों पर गुच्छों में अंडे देती है। अंडे कत्थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु वयस्क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते है, जिससे फली आडी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड जाते है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते है।
इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विश्टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दानो के आसपास लाल रंग की फफूंद आ जाती है।
ये भृंग कलियों, फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है जिससे उत्पादन में काफी कमी आती है। यक कीट अरहर मूंग, उड़द , तथा अन्य दलहनी फसलों पर भी नुकसान पहुंचाता है। भृंग को पकडकर नष्ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।
कीटो का प्रभावी नियंत्रण
1.कृषि के समय
2 . यांत्रिक विधि द्धारा
3 . जैविक नियंत्रण द्वारा
4 जैव – पौध पदार्थ के छिड़काव द्वारा : -
फली छेदक इल्लियों के नियंत्रण के लिए
फेनवलरेट 0.4 प्रतिशत चूर्ण या क्लीनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण या इन्डोसल्फान 4 प्रतिशत चूर्ण का 20 से 25 किलोग्राम / हे. के दर से भुरकाव करें या इन्डोसलफॉन 35 ईसी. 0.7 प्रतिशत या क्वीनालफास 25 ई.सी 0.05 प्रतिशत या क्लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी . 0.6 प्रतिशत या फेन्वेलरेट 20 ई.सी 0.02 प्रतिशत या एसीफेट 75 डब्लू पी 0.0075 प्रतिशत या ऐलेनिकाब 30 ई.सी 500 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हे. या प्राफेनोफॉस 50 ई.सी एक लीटर प्रति हे. का छिड़काव करें। दोनों कीटों के नियंत्रण हेतु प्रथम छिडकाव सर्वागीण कीटनाशक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्पर्श या सर्वागीण कीटनाशक दवाई का छिड़काव करें। कीटनाशक का तीन छिड़काव या भुरकाव पहला फूल बनने पर दूसरा 50 प्रतिशत फुल बनने पर और तीसरा फली बनने बनने की अवस्था पर करना चाहिए।
कटाई एवं मड़ाई
80 प्रतिशत फलियों के पक जाने पर फसल की कटाई गड़ासे या हॅंसिया से 10 से0मी0 की उॅंचाई पर करना चाहिए। तत्पश्चात फसल को सूखने के लिए बण्डल बनाकर फसल को खलिहान में ले आते हैं। फिर चार से पॉच दिन सुखाने के पश्चात पुलमैन थ्रेशर द्वारा या लकड़ी के लठ्ठे पर पिटाई करके दानो को भूसे से अलग कर लेते हैं।
उपज
उन्नत विधि से खेती करने पर 15-20 कुन्तल प्रति हे0 दाना एवं 50-60 कुन्तल लकड़ी प्राप्त होती है।
भण्डारण
भण्डारण हेतु नमी का प्रतिशत 10-11 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। भण्डारण में कीटों से सुरक्षा हेतु अल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोली प्रति टन प्रयोग करे।
आइसोपाम सुविधा
तिलहन, दलहन, आयलपाम तथा मक्का पर एकीकृत योजना के अन्तर्गत देश में अरहर उत्पादन को बढ़ावा देने हेतु उपलब्ध सुविधायें-