सरसों की उन्नत खेती
सरसों रबी में उगाई जाने वाली प्रमुख तिलहन फसल है। इसकी खेती सिचिंत एवं संरक्षित नमी द्वारा के बारानी क्षेत्रों में की जाती हैl राजस्थान का देश के सरसों के उत्पादन में प्रमुख स्थान हैl पश्चिम क्षेत्र में राज्य के कुल सरसों उत्पादन का 29 प्रतिशत पैदा होती हैl लेकिन क्षेत्र में सरसों की औसत की उपज (700 किलो ग्राम प्रति हैक्टेयर) काफी कम है उन्नत तकनीकों के उपयोग द्वारा सरसों की औसतन पैदावार 30 से 60 प्रतिशत तक बढ़ाई जा सकती है l
किस्म | पकने की अवधि | औसत उपज | विशेषतायें |
पूसा जय किसान | 125-130 | 18-20 | सफेद रोली उखटा व तुलासिता रोग रोधी सिचिंत व असिंचिंत बरनी क्षेत्रों के लिए उपयुक्तl |
आशीर्वाद | 125-130 | 16-18 | देरी में बुवाई की जा सकती हैl सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्तl |
आर एच-30 | 130-135 | 18-20 | दाने मोटे होते हैंl मोयला का प्रकोप कमl सिंचित व असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त l |
पूसा बोल्ड | 125-130 | 18-20 | मोटे रोग कम लगते हैंl |
लक्ष्मी (आरएच8812 ) | 135-140 | 20-22 | फलियां पकने पर चटकती नहीं दाना मोटा और कालाl |
क्रांति(पीआर15) | 125-130 | 16-18 | तुलसिता व सफेद रोलीरोधक,दाना मोटा व कत्थई रंग काl असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त l |
भूमि व उसकी तैयारी
सरसों की खेती के लिए दोमट व बलुए भूमि सर्वोतम रहती है l सरसों के लिए मिटटी भुरभुरी होनी चाहिए,क्योंकि सरसों का बीज छोटा होने के कारण अच्छी परक प्रकार तैयार की हुई भूमि में इसका जमाव अच्छा होता है l पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करनी चाहिए इसके पश्चात एक क्रास जुताई हैरो से तथा एक कल्टीवेटर से जुताई कर पाटा लगा देना चाहिये l
बीज एवं बुआई
सरसों के लिए4 से 5 किलो ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता हैl बारानी क्षेत्रों में सर्सो की बुआई 25 सितमबर से 15 अक्टूबर तथा सिंचाई क्षेत्रों में 10 अक्टूबर से 25 अक्टूबर के बीच करनी चाहिए l फसल की बुआई पंक्तियों में करनीचाहिएl पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 से 50 की दूरी तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखनी चाहिये l सिंचित क्षेत्रों में फसल की बुआई पलेवा देकर करनी चाहिये l
खाद एवं उर्वरक
सरसों की फसल के लिए 8-10 टन गोबर की हुई या कम्पोस्ट खाद को बुआई से कम से कम तीन से चार सप्ताह पूर्व खेती में अच्छी प्रकार मिला देनी चहिएl इसके पश्चात मिट्टी की जाँच के अनुसार सिंचित फसल के लिए 60 किलो ग्राम नाइट्रोजन यवंन 40 किलो ग्राम फास्फोरस की पूर्ण मात्रा बावई के समय कुंडों में, 87 किलो ग्राम डीएपी व 32 किलो ग्राम यूरिया द्वारा 65 किलो ग्राम व 250 किलो ग्राम सिंगलसुपर फास्फेट के द्वारा देनी चाहियेl नाइट्रोजन की शेष 30 किलो मात्रा को पहली सिंचाई के समय 65 किलो ग्राम यूरिया प्रति हेक्टयर के द्वारा छिड़क देनी चाहिएl इसके अतिरिक्त 40 किलो ग्राम गंधक चूर्ण प्रति हेक्टेयर की दर से फसल जब 40 दिन की हो जाये तो देना चाहियेl असिंचित क्षेत्र में 40 किलो ग्राम नाइट्रोजन व 40 किलो ग्राम फास्फोरस को बुआई क समय 87 किलो ग्राम डी. ए.पी. व 54 किलो ग्राम यूरिआ द्वारा प्रति हेक्टयर की दर से होनी चाहियेl
सिंचाई
सरसों की खेती के लिए 4-5 सिंचाई पर्याप्त होती हैl यदि पानी की कमी हो तो चार सिंचाई पहली बुवाई के समय,दूसरी शाखाऐं बनते समय (बुवाई के25-30दिन बाद) तीसरी फूल प्रारम्भ होने के समय (45-50 दिन) तथा अंतिम सिंचाई फली बनते समय (70-80 दिन बाद) की जाती हैl यदि पानी उपलब्ध हो तो सिंचाई दाना पकते समय बुवाई के 100-110 दिन बाद करनी लाभदायक होती हैl सिंचाई फव्वारे विधि दुबारा करनी चहियेl
फसल चक्र
फसल चक्र का अधिक पैदावार प्राप्त करने, भूमि की उर्वराशक्ति बनाये रखने तथा भूमि में कीड़े ,बीमारियों एवं खरपतवार काम करने में महत्पूर्ण योगदान होता हैल सरसों की खेती के लिए पश्चिमी क्षेत्र में,मूंग-सरसों,ग्वार-सरसों,बाजरा-सरसों एक वर्षीय फसल चक्र तथा बाजरा-सरसों-मूंग /ग्वार -सरसों दो वर्षीय फसल चक्र उपयोग में लिये जा सकते हैंl बारानी क्षेत्रों में जहाँ केवल रबी में फसल ली जाती हो वहाँ सरसों के बाद चना उगाया जा सकता हैl
गिराई-गुड़ाई
सरसों की फसल में अनेक प्रकार के खरतपतवार जैसे गोयला,चील,मोरवा,प्याजी इत्यादि नुकसान पहुंचाते हैंl इनके नियंत्रण के लिए बुवाई के 25 से 30दिनपश्चात कस्सी से गुड़ाई करनी चाहियेl इसके पश्चात दूसरी गुड़ाई 50दिन बाद कर देनी चाहियेl सरसों के साथ उगने वाले खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए बाजार में उपलब्धपेंडीमेथालिन की 3लीटरमात्रा बुवाई के 2 दिनों तक प्रयोग करनी चाहियेl सरसों की फसल में आग्या(ओरोबंकी)नामकपरजीवी खरपतवार फसल के पौंधों की जड़ पर उगकर अपना भोजन प्राप्त करता हैl तथा फसल के पौंधों की जड़ों पर उगकर अपना भोजन प्राप्त करता है l
पादप सुरक्षा
पन्टेड बग व आरा मक्खी
यह किट फसल को अंकुरण के 7-10 दिनों में अधिक हानि पहुंचता हे इस किट की रोकथाम के लिए एन्डोसल्फान 4 प्रतिसत मिथाइल पैरा थियोन 2 प्रतिशत चूर्ण 20 से 25 किलो हेक्टेयर की दर भुरकाव करना चाहिये l
मोयला
इस कीट का प्रकोप फसल में अधिकतर फूल आने के पश्चात मौसम में नमी व बादल होने पर होता हैl यह कीट हरे,काले,एवं पीले रंग का होता है पौधे के विभिन भागों पत्तियों,शाखाओं,फूलों एवं फलिओं का रस चूसकर नुकसान पहुंचता हैl इस कीट को नियंत्रण करने के लिए फास्फोमीडोन 85 डब्लू.सी की250 मिली या इपीडाक्लोरप्रिड की 500 मिली या मेलाथियोनं 50 ई.सी.की1.25 लीटर पानी में घोल बनाकर एक सप्ताह के अंतराल पर दो छिड़काव करने चाहिएं l
बीज उत्पादन
सरसों का बीज बुवाई हेतु किसान स्वयं भी अपने खेत पर पैदा कर सकते हैंl केवल कुछ सावधानियां अपनाने की आवश्यकता हैंl बीज उत्पादन कर लिए ऐसी भूमि का चुनाव करना चाहिये,जिसमें पिछले वर्ष सरसो खेती न की होl सरसों के चारों ओर 200 से300 मीटर की दूरी तक सरसों की फसल नहीं होनी चाहियेl सरसों की खेती के लिए प्रमुख कृषि क्रियाएं,फसल सुरक्षा,अवांछनीय पौधों को निकलना तथा उचित समय पर कटाई की जानी चाहियेl फसल की कटाई करते समय खेत को चारों ओर से 10 मीटर क्षेत्र छोड़ते हुए बीज के लिए लाटा काटकर अलग सुखाना चाहिये तथा दाना निकाल कर उस साफ करके ग्रेडिंग करना चाहियेल दाने में नमी 8-9 प्रतिशत अधिक नहीं होनी चाहिये। बीज को कीट एवं कवकनाशी से उपचारित कर लोहे की टंकी या अच्छी किस्म के बोरों में भरकर सुरक्षित जगह भंडारित कर देना चाहियेl इस प्रकार उत्पादित बीज को किसान अगले वर्ष बुवाई के लिए प्रयोग कर सकते हैंl
कटाई एवं गहाई
फसल अधिक पकने पर फलियों के चटकने की आशंका बढ़ जाती हे अत: पौधों के पीले पड़ने एवं फलियां भूरि होने पर फसल की कटाई कर लेनी चाहिएl लाटे को सुखाकर थ्रेसर या डंडो से पीटकर दाने को अलग कर लिया जाता हे l
उपज एवं आर्थिक लाभ
सरसों की उन्नत विधियों द्वारा खेती करने पर औसतन 15 – 20 कुतल प्रति हेक्टयर दाने की उपज प्राप्त हो जाती हर तथा एक हेक्टेयर के लिए लगभग 25 हजार रूपये का खर्च आ जाता हैl यदि सरसों का भाव 30 रूपये प्रति किलो हो तो प्रति हेक्टयर लगभग 30 हजार रूपये का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है l
स्त्रोत : राजसिंह एवं शैलेन्द्र कुमार द्वारा लिखित,निदेशक,केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान(भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) द्वारा प्रकाशित,जोधपुर,राजस्थान
अरण्डी रेशम का उत्पादन
भूमिका
रेशम कीट पालन से अतिरिक्त आय अरंडी बोने के दो माह बाद पत्तों की उपलब्धता हो जाती है। तब उस पर रेशम कीट पालन किया जाता है। रेशम कीट पत्तों से ही अपना भोजन लेता है। अरंडी के पत्ते और कोई भी जानवर नहीं खाते। एकमात्र रेशम कीटों का भोजन होने से ये सुरक्षित रहते हैं। एक एकड़ खेत में अरंडी के पत्तों पर 14000 कीट पाले जाते हैं। एक कीट रेशम बनाने में 25 दिन का समय लेता है। इस प्रकार अपने पूरे जीवन काल में एक अरंडी पौधे से तीन बार रेशम कीट पालन किया जाता है। एक एकड़ खेत में पाले गये रेशम कीट से 21 किग्रा. रेशम ककून प्राप्त होता है।
अरण्डी रेशम कीट का परिचय
रेशम कीट-फाइलोसेमिया रिसिनी बाइसोड एवं फाइलोसेमिया सिन्थिया।
भोज्य वृक्ष
अरण्डी रेशम कीट मुख्य रूप से रिसिनस कम्यूनिस अरण्डी अथवा हेटरोपेनेक्स फ्रेग्रेन्स कसेरू की पत्तियां खाता है।
अरण्डी बागान तैयार करने की विधि एवं रख-रखाव
कीटपालन
अरण्डी कीटपालन का आर्थिक विश्लेषण
इस प्रकार एक एकड़ अरण्डी की खेती से सकल आय का आगणन निम्नवत है:-
(अ) अण्डी रेशम कोया से रू० 6,000.00
(ब) प्यूपा बिक्री से रू० 2,500.00
(स) अण्डी के बीज से रू० 7,500.00
(ग) मिर्च उत्पादन से रू० 10,000.00
कुल रू० 26,000.00
तिल की उन्नत उत्पादन तकनीक
मध्य प्रदेश मे तिल की खेती खरीफ मौसम में 315 हजार हे. में की जाती है।प्रदेश मे तिल की औसत उत्पादकता 500 कि.ग्रा. /हेक्टेयर ळें प्रदेश के छतरपुर, टीकमगढ़, सीधी, शहडोल, मुरैना, शिवपुरी सागर, दमोह, जबलपुर, मण्डला, पूर्वी निमाड़ एवं सिवनी जिलो में इसकी खेती होती है
हल्की रेतीली, दोमट भूमि तिल की खेती हेतु उपयुक्त होती हैं। खेती हेतु भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 7.5 होना चाहिए। भारी मिटटी में तिल को जल निकास की विशेष व्यवस्था के साथ उगाया जा सकता है।
किस्म |
विमोचन वर्ष |
पकने की अवधि (दिवस) |
उपज (कि.ग्रा./हे.) |
तेल की मात्रा (प्रतिशत) |
अन्य विशेषतायें |
टी.के.जी. 308 |
2008 |
80-85 |
600-700 |
48-50 |
तना एवं जड सड़न रोग के लिये सहनशील। |
जे.टी-11 (पी.के.डी.एस.-11) |
2008 |
82-85 |
650-700 |
46-50 |
गहरे भूरे रंग का दाना होता है। मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील। गीष्म कालीन खेती के लिए उपयुक्त। |
जे.टी-12(पी.के.डी.एस.-12) |
2008 |
82-85 |
650-700 |
50-53 |
सफेद रंग का दाना , मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील, गीष्म कालीन खेती के लिए उपयुक्त। |
जवाहर तिल 306 |
2004 |
86-90 |
700-900 |
52.0 |
पौध गलन, सरकोस्पोरा पत्ती घब्बा, भभूतिया एवं फाइलोड़ी के लिए सहनशील । |
जे.टी.एस. 8 |
2000 |
86 |
600-700 |
52 |
दाने का रंग सफेद, फाइटोफ्थोरा अंगमारी, आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा तथा जीवाणु अंगमारी के प्रति सहनशील। |
टी.के.जी. 55 |
1998 |
76-78 |
630 |
53 |
सफेद बीज, फाइटोफ्थोरा अंगमारी, मेक्रोफोमिना तना एवं जड़ सड़न बीमारी के लिये सहनशील। |
तिल की बोनी मुख्यतः खरीफ मौसम में की जाती है जिसकी बोनी जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के मध्य तक करनी चाहिये। ग्रीष्मकालीन तिल की बोनी जनवरी माह के दूसरे पखवाडे से लेकर फरवरी माह के दूसरे पखवाडे तक करना चाहिए । बीज को 2 ग्राम थायरम+1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम , 2:1 में मिलाकर 3 ग्राम/कि.ग्रा. फफूंदनाशी के मिश्रण से बीजोपचार करें। बोनी कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा कतारों में पौधो से पौधों की दूरी 10 से.मी. रखते हुये 3 से.मी. की गहराई पर करे ।
मध्य प्रदेश में तिल उत्पादन हेतु नत्रजन,स्फुर एवं पोटाश की अनुशंसित मात्रा इस प्रकार मात्रा (कि.ग्राम./है.) है ।
अवस्था |
नत्रजन |
स्फुर |
पोटाश |
सिंचित |
60 |
40 |
20 |
असिंचित/वर्षा आधारित |
40 |
30 |
20 |
बोनी के 15-20 दिन पश्चात् पहली निंदाई करें तथा इसी समय आवश्यकता से अधिक पौधों को निकालना चाहिये । निंदा की तीव्रता को देखते हुये दूसरी निंदाई आवश्यकता होने पर बोनी के 30-35 दिन बाद नत्रजनयुक्त उर्वरकों का खडी फसल में छिडकाव करने क पूर्व करना चाहिये।
क्र |
नींदा नाशक दवा का नाम |
दवा की व्यापारिक मात्रा/है. |
उपयोग का समय |
उपयोग करने की विधि |
1 |
फ्लूक्लोरोलीन (बासालीन) |
1 ली./है |
बुवाई के ठीक पहले मिट्टी में मिलायें। |
रसायन के छिडकाव के बाद मिट्टी में मिला दें। |
2 |
पेन्डीमिथिलीन |
500-700 मि.ली./है. |
बुआई के तुरन्त बाद किन्तु अंकुरण के पहले |
500 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करे। |
3 |
क्यूजोलोफाप इथाईल |
800 मि.ली./है. |
बुआई के 15 से 20 दिन बाद |
500 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करे। |
क्र |
रोग का नाम |
लक्षण |
नियंत्रण हेतु अनुशंसित दवा |
दवा की व्यापारिक मात्रा |
उपयोग करने का समय एंव विधि |
1. |
फाइटोफ्थोरा अंगमारी |
प्रारंभ में पत्तियों व तनों पर जलसिक्त धब्बे दिखते हैं, जो पहले भूरे रंग के होकर बाद में काले रंग के हो जाते हैं। तिल की फाइटोप्थोरा बीमारी |
थायरम अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी से बीजोपचार |
नियंत्रण हेतु थायरम (3 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा.) |
नियंत्रण हेतु थायरम (3 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा.) द्वारा बीजोपचार करें। खड़ी फसल पर रोग दिखने पर रिडोमिल एम जेड (2.5 ग्रा./ली.) या कवच या कापर अक्सीक्लोराइड की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अंतर से छिड़काव करें। |
2. |
भभूतिया रोग |
45 दिन से फसल पकने तक इसका संक्रमण होता है। इस रोग में फसल की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता हैं |
गंधक |
घुलनशील गंधक (2 ग्राम/लीटर) का छिड़काव करे |
रोग के लक्षण प्रकट होने पर घुलनशील गंधक (2 ग्राम/ लीटर) का खडी फसल में 10 दिन के अंतर पर 2-3 बार छिड़काव करे। |
3. |
तना एवं जड़ सड़न |
संक्रमित पौधे की जड़ों का छिलका हटाने पर नीचे का रंग कोयले के समान घूसर काला दिखता हैं जो फफूंद के स्क्लेरोषियम होते है। |
थायरम अथवा ट्राइकोडरमा विरिडी |
नियंत्रण हेतु थायरम + कार्बेन्डाजिम (2:1 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी ( 5 ग्रा./कि.ग्रा.) द्वारा बीजोपचार करें। |
|
4. |
पर्णताभ रोग (फायलोडी) |
फूल आने के समय इसका संक्रमण दिखाई देता हैं । फूल के सभी भाग हरे पत्तियों समान हो जाते हैं। संक्रमित पौधे में पत्तियाँ गुच्छों में छोटी -छोटी दिखाई देती हैं। |
फोरेट |
फोरेट 10 जी की 10 किलोग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर |
नियंत्रण हेतु रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट करें तथा फोरेट 10 जी की 10 किलोग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर के मान से खेत में पर्याप्त नमी होने पर मिलाये ताकि रोग फेलाने वाला कीट फुदका नियंत्रित हो जाये। नीम तेल (5मिली/ली.) या डायमेथोयेट (3 मिली/ली.) का खडी फसल में क्रमषः 30,40 और 60 दिन पर बोनी के बाद छिड़काव कर |
5. |
जीवाणु अंगमारी |
पत्तियों पर जल कण जैसे छोटे-छोटे बिखरे हुए धब्बे धीरे-धीरे बढ़कर भूरे रंग के हो जाते हैं। यह बीमारी चार से छः पत्तियों की अवस्था में देखने को मिलती हैं। |
स्ट्रेप्टोसाइक्लिन |
स्ट्रेप्टोसाइक्लिन(500 पी.पी.एम.)पत्तियों पर छिड़काव करें |
बीमारी नजर आते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (500 पी.पी.एम.) और कॉपर आक्सी क्लोराईड (2.5 मि.ली./ली.) का पत्तियों पर 15 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करें। |
इल्लीयां |
फसल के प्रारंभिक अवस्था में इल्लीयां पत्तियों के अंदर रहकर खाती हैं। |
प्रोफ़ेनोफॉस या निबौलीकाअर्क |
प्रोफ़ेनोफॉस 50 ईसी 1 ली./हे. या निबौली का अर्क 5 मिली/ली. |
500 से 600 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें |
कली मक्खी |
कली मक्खी प्रारम्भिक अवस्था में अण्डे देती है अण्डों से निकली इल्लियां फूल के अंडाशय में जाती है जिससे कलियां सिकुड़ जाती है |
क्विनॉलफॉस या ट्रायजफॉस |
क्विनॉलफॉस 25 ईसी (1.5मि.ली./ली. )या ट्रायजफॉस 40 ईसी |
(1 मि.ली./ली.)500 से 600 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें |
निबौंली 5 प्रतिशत घोल के लिये एक एकड़ फसल हेतु 10 किलो निंबौली को कूटकर 20 लीटर पानी में गला दे तथा 24 घंटे तक गला रहने दे। तत्पश्चात् निंबौली को कपड़े अथवा दोनों हाथों के बीच अच्छी तरह दबाऐं ताकि निंबौली का सारा रस घोल में चला जाय। अवषेश को खेत में फेंक दे तथा घोल में इतना पानी डालें कि घोल 200 लीटर हो जायें। इसमें लगभग 100 मिली. ईजी या अन्य तरल साबुन मिलाकर डंडे से चलाये ताकि उसमें झाग आ जाये। तत्पश्चात् छिड़काव करें।
पौधो की फलियाँ पीली पडने लगे एवं पत्तियाँ झड़ना प्रारम्भ हो जाये तब कटाई करे। कटाई करने उपरान्त फसल के गट्ठे बाधकर खेत में अथवा खालिहान में खडे रखे। 8 से 10 दिन तक सुखाने के बाद लकड़ी के ड़न्डो से पीटकर तिरपाल पर झड़ाई करे। झडाई करने के बाद सूपा से फटक कर बीज को साफ करें तथा धूप में अच्छी तरह सूखा ले। बीजों में जब 8 प्रतिशत नमी हो तब भंडार पात्रों में /भंडारगृहों में भंडारित करें।
उपरोक्तानुसार बताई गई उन्नत तकनीक अपनाते हुऐ काष्त करने एवं उचित वर्षा होने पर असिंचित अवस्था में उगायी गयी फसल से 4 से 5 क्वि. तथा सिंचित अवस्था में 6 से 8 क्वि./है. तक उपज प्राप्त होती है।
उपरोक्तानुसार तिल की काष्त करने पर लगभग 5 क्व./ हे उपज प्राप्त होती है। जिसपर लागत -व्यय रु 16500/ हे के मान से आता है। सकल आर्थिक आय रु 30000 आती है। शुद्ध आय रु 13500/ हे के मान से प्राप्त हो कर लाभ आय-व्यय अनुपात 1.82 मिलता है।
तिल की फसल खेत में जलभराव के प्रति संवेदनशील होती है। अतः खेत में उचित जल निकास की व्यवस्था सुनिश्चित करें। खरीफ मौसम में लम्बे समय तक सूखा पड़ने एवं अवर्षा की स्थिति में सिंचाई के साधन होने पर सुरक्षात्मक सिंचाई अवश्य करे।
मूंगफली की उन्नत खेती
मूंगफली भारत की मुखय महत्त्वपूर्ण तिलहनी फसल है। यह गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडू तथा कर्नाटक राज्यों में सबसे अधिक उगाई जाती है। अन्य राज्य जैसे मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान तथा पंजाब में भी यह काफी महत्त्वपूर्ण फसल मानी जाने लगी है। राजस्थान में इसकी खेती लगभग 3.47 लाख हैक्टर क्षेत्र में की जाती है जिससे लगभग 6.81 लाख टन उत्पादन होता है। इसकी औसत उपज 1963 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर (2010-11) है । भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के अधीनस्थ अनुसंधानों संस्थानों, एवं कृषि विश्वविद्यालयों ने मूंगफली की उन्नत तकनीकियाँ जैसे उन्नत किस्में, रोग नियंत्रण, निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण आदि विकसित की हैं जिनका विवरण नीचे दिया गया हैं।
भूमि एवं उसकी तैयारी
मूंगफली की खेती के लिये अच्छे जल निकास वाली, भुरभुरी दोमट व बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती है। मिट्टी पलटने वाले हल तथा बाद में कल्टीवेटर से दो जुताई करके खेत को पाटा लगाकर समतल कर लेना चाहिए।जमीन में दीमक व विभिन्न प्रकार के कीड़ों से फसल के बचाव हेतु क्विनलफोस 1.5 प्रतिशत 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की दर से अंतिम जुताई के साथ जमीन में मिला देना चाहिए।
बीज एवं बुवाई
मूंगफली की बुवाई प्रायः मानसून शुरू होने के साथ ही हो जाती है। उत्तर भारत में यह समय सामान्य रूप से 15 जून से 15 जुलाई के मध्य का होता है। कम फैलने वाली किस्मों के लिये बीज की मात्रा 75-80 कि.ग्राम. प्रति हेक्टर एवं फैलने वाली किस्मों के लिये 60-70 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर उपयोग में लेना चाहिए बुवाई के बीज निकालने के लिये स्वस्थ फलियों का चयन करना चाहिए या उनका प्रमाणित बीज ही बोना चाहिए। बोने से 10-15 दिन पहले गिरी को फलियों से अलग कर लेना चाहिए। बीज को बोने से पहले 3 ग्राम थाइरम या 2 ग्राम मेन्कोजेब या कार्बेण्डिजिम दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित कर लेना चाहिए। इससे बीजों का अंकुरण अच्छा होता है तथा प्रारम्भिक अवस्था में लगने वाले विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाया जा सकता है। दीमक और सफेद लट से बचाव के लिये क्लोरोपायरिफास (20 ई.सी.) का 12.50 मि.ली. प्रति किलो बीज का उपचार बुवाई से पहले कर लेना चाहिए। मूंगफली को कतार में बोना चाहिए। गुच्छे वाली/कम फैलने वाली किस्मों के लिये कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा फैलने वाली किस्मों के लिये 45 से.मी.रखें। पौधों से पौधों की दूरी 15 से. मी. रखनी चाहिए। बुवाई हल के पीछे, हाथ से या सीडड्रिल द्वारा की जा सकती है। भूमि की किस्म एवं नमी की मात्रा के अनुसार बीज जमीन में 5-6 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
उर्वरकों का प्रयोग भूमि की किस्म, उसकी उर्वराशक्ति, मूंगफली की किस्म, सिंचाई की सुविधा आदि के अनुसार होता है। मूंगफली दलहन परिवार की तिलहनी फसल होने के नाते इसको सामान्य रूप से नाइट्रोजनधारी उर्वरक की आवश्यकता नहीं होती, फिर भी हल्की मिट्टी में शुरूआत की बढ़वार के लिये 15-20 किग्रा नाइट्रोजन तथा 50-60 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टर के हिसाब से देना लाभप्रद होता है। उर्वरकों की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय ही भूमि में मिला देना चाहिए। यदि कम्पोस्ट या गोबर की खाद उपलब्ध हो तो उसे बुवाई के 20-25 दिन पहले 5 से 10 टन प्रति हैक्टर खेत मे बिखेर कर अच्छी तरह मिला देनी चाहिए। अधिक उत्पादन के लिए अंतिम जुताई से पूर्व भूमि में 250 कि.ग्रा.जिप्सम प्रति हैक्टर के हिसाब से मिला देना चाहिए।
नीम की खल का प्रयोग
नीम की खल के प्रयोग का मूंगफली के उत्पादन में अच्छा प्रभाव पड़ता है। अंतिम जुताई के समय 400 कि.ग्रा. नीम खल प्रति हैक्टर के हिसाब से देना चाहिए। नीम की खल से दीमक का नियंत्रण हो जाता है तथा पौधों को नत्रजन तत्वों की पूर्ति हो जाती है। नीम की खल के प्रयोग से 16 से 18 प्रतिशत तक की उपज में वृद्धि, तथा दाना मोटा होने के कारण तेल प्रतिशत में भी वृद्धि हो जाती है। दक्षिण भारत के कुछ स्थानों में अधिक उत्पादन के लिए जिप्सम भी प्रयोग में लेते हैं।
सिंचाई
मूंगफली खरीफ फसल होने के कारण इसमें सिंचाई की प्रायः आवश्यकता नहीं पड़ती। सिंचाई देना सामान्य रूप से वर्षा के वितरण पर निर्भर करता हैं फसल की बुवाई यदि जल्दी करनी हो तो एक पलेवा की आवश्यकता पड़ती है। यदि पौधों में फूल आते समय सूखे की स्थिति हो तो उस समय सिंचाई करना आवश्यक होता है। फलियों के विकास एवं गिरी बनने के समय भी भूमि में पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है। जिससे फलियाँ बड़ी तथा खूब भरी हुई बनें। अतः वर्षा की मात्रा के अनुरूप सिंचाई की जरूरत पड़ सकती है।
मूंगफली की फलियों का विकास जमीन के अन्दर होता है। अतः खेत में बहुत समय तक पानी भराव रहने पर फलियों के विकास तथा उपज पर बुरा असर पड़ सकता है। अतः बुवाई के समय यदि खेत समतल न हो तो बीच-बीच में कुछ मीटर की दूरी पर हल्की नालियाँ बना देना चाहिए। जिससे वर्षा का पानी खेत में बीच में नहीं रूक पाये और अनावश्यक अतिरिक्त जल वर्षा होते ही बाहर निकल जाए।
निराई गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
निराई गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण का इस फसल के उत्पादन में बड़ा ही महत्त्व है। मूंगफली के पौधे छोटे होते हैं। अतः वर्षा के मौसम में सामान्य रूप से खरपतवार से ढक जाते हैं। ये खरपतवार पौधों को बढ़ने नहीं देते। खरपतवारों से बचने के लिये कम से कम दो बार निराई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। पहली बार फूल आने के समय दूसरी बार 2-3 सप्ताह बाद जबकि पेग (नस्से) जमीन में जाने लगते हैं। इसके बाद निराई गुड़ाई नहीं करनी चाहिए। जिन खेतों में खरपतवारों की ज्यादा समस्या हो तो बुवाई के 2 दिन बाद तक पेन्डीमेथालिन नामक खरपतवारनाशी की 3 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टर छिड़काव कर देना चाहिए।
फसल चक्र
असिंचित क्षेत्रों में सामान्य रूप से फैलने वाली किस्में ही उगाई जाती हैं जो प्रायः देर से तैयार होती है। ऐसी दशा में सामान्य रूप से एक फसल ली जाती है। परन्तु गुच्छेदार तथा शीघ्र पकने वाली किस्मों के उपयोग करने पर अब साथ में दो फसलों का उगाया जाना ज्यादा संभव हो रहा है। सिंचित क्षेत्रों में सिंचाई करके जल्दी बोई गई फसल के बाद गेहूँ की खासकर देरी से बोई जाने वाली किस्में उगाई जा सकती हैं।
रोग नियंत्रण
उगते हुए बीज का सड़न रोगः कुछ रोग उत्पन्न करने वाले कवक (एर्र्स्पर्जिलस नाइजर, एर्र्स्पर्जिलस फ्लेवस आदि) जब बीज उगने लगता है उस समय इस पर आक्रमण करते हैं। इससे बीज पत्रों, बीज पत्राधरों एवं तनों पर गोल हल्के भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। बाद में ये धब्बे मुलायम हो जाते हैं तथा पौधे सड़ने लगते हैं और फिर सड़कर गिर जाते हैं। फलस्वरूप खेत में पौधों की संखया बहुत कम हो जाती है और जगह-जगह खेत खाली हो जाता है। खेत में पौधों की भरपूर संखया के लिए सामान्य रूप से मूंगफली के प्रमाणित बीजों को बोना चाहिए। अपने बीजों को बोने से पहले 2.5 ग्राम थाइरम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर लेना चाहि।
रोजेट रोग
रोजेट (गुच्छरोग) मूंगफली का एक विषाणु (वाइरस) जनित रोग है इसके प्रभाव से पौधे अति बौने रह जाते हैं साथ पत्तियों में ऊतकों का रंग पीला पड़ना प्रारम्भ हो जाता है। यह रोग सामान्य रूप से विषाणु फैलाने वाली माहूँ से फैलता है अतः इस रोग को फैलने से रोकने के लिए पौधों को जैसे ही खेत में दिखाई दें, उखाड़कर फेंक देना चाहिए। इस रोग को फैलने से रोकने के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 3 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव कर देना चाहिए।
टिक्का रोग
यह इस फसल का बड़ा भयंकर रोग है। आरम्भ में पौधे के नीचे वाली पत्तियों के ऊपरी सतह पर गहरे भूरे रंग के छोटे-छोटे गोलाकार धब्बे दिखाई पड़ते हैं ये धब्बे बाद में ऊपर की पत्तियों तथा तनों पर भी फैल जाते हैं। संक्रमण की उग्र अवस्था में पत्तियाँ सूखकर झड़ जाती हैं तथा केवल तने ही शेष रह जाते हैं। इससे फसल की पैदावार काफी हद तक घट जाती है। यह बीमारी सर्कोस्पोरा परसोनेटा या सर्केास्पोरा अरैडिकोला नामक कवक द्वारा उत्पन्न होती है। भूमि में जो रोगग्रसित पौधों के अवशेष रह जाते हैं उनसे यह अगले साल भी फैल जाती है इसकी रोकथाम के लिए डाइथेन एम-45 को 2 किलोग्राम एक हजार लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से दस दिनों के अन्तर पर दो-तीन छिड़काव करने चाहिए।
कीट नियंत्रण
रोमिल इल्ली
रोमिन इल्ली पत्तियों को खाकर पौधों को अंगविहीन कर देता है। पूर्ण विकसित इल्लियों पर घने भूरे बाल होते हैं। यदि इसका आक्रमण शुरू होते ही इनकी रोकथाम न की जाय तो इनसे फसल की बहुत बड़ी क्षति हो सकती है। इसकी रोकथाम के लिए आवश्यक है कि खेत में इस कीडे़ के दिखते ही जगह-जगह पर बन रहे इसके अण्डों या छोटे-छोटे इल्लियों से लद रहे पौधों या पत्तियों को काटकर या तो जमीन में दबा दिया जाय या फिर उन्हें घास-फॅूंस के साथ जला दिया जाय। इसकी रोकथाम के लिए क्विनलफास 1 लीटर कीटनाशी दवा को 700-800 लीटर पानी में घोल बना प्रति हैक्टर छिड़काव करना चाहिए।
मूंगफली की माहु
सामान्य रूप से छोटे-छोटे भूरे रंग के कीडे़ होते हैं। तथा बहुत बड़ी संखया में एकत्र होकर पौधों के रस को चूसते हैं। साथ ही वाइरस जनित रोग के फैलाने में सहायक भी होती है। इसके नियंत्रण के लिए इस रोग को फैलने से रोकने के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव कर देना चाहिए
लीफ माइनर
लीफ माइनर के प्रकोप होने पर पत्तियों पर पीले रंग के धब्बे दिखाई पड़ने लगते हैं। इसके गिडार पत्तियों में अन्दर ही अन्दर हरे भाग को खाते रहते हैं और पत्तियों पर सफेद धारियॉं सी बन जाती हैं। इसका प्यूपा भूरे लाल रंग का होता है इससे फसल की काफी हानि हो सकती हैं। मादा कीट छोटे तथा चमकीले रंग के होते हैं मुलायम तनों पर अण्डा देती है। इसकी रोकथाम के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 1 लीटर पानी में घोल छिड़काव कर देना चाहिए।
सफेद लट
मूंगफली को बहुत ही क्षति पहुँचाने वाला कीट है। यह बहुभोजी कीट है इस कीट की ग्रव अवस्था ही फसल को काफी नुकसान पहुँचाती है। लट मुखय रूप से जड़ों एवं पत्तियों को खाते हैं जिसके फलस्वरूप पौधे सूख जाते हैं। मादा कीट मई-जून के महीनें में जमीन के अन्दर अण्डे देती है। इनमें से 8-10 दिनों के बाद लट निकल आते हैं। और इस अवस्था में जुलाई से सितम्बर-अक्टूबर तक बने रहते हैं। शीतकाल में लट जमीन में नीचे चले जाते हैं और प्यूपा फिर गर्मी व बरसात के साथ ऊपर आने लगते हैं। क्लोरोपायरिफास से बीजोपचार प्रारंभिक अवस्था में पौधों को सफेद लट से बचाता है। अधिक प्रकोप होने पर खेत में क्लोरोपायरिफास का प्रयोग करें । इसकी रोकथाम फोरेट की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टर खेत में बुवाई से पहले भुरका कर की जा सकती है।
बीज उत्पादन
मूंगफली का बीज उत्पादन हेतु खेत का चयन महत्त्वपूर्ण होता है। मूंगफली के लिये ऐसे खेत चुनना चाहिए जिसमें लगातार 2-3 वर्षो से मूगंफली की खेती नहीं की गई हो भूमि में जल का अच्छा प्रबंध होना चाहिए। मूंगफली के बीज उत्पादन हेतु चुने गये खेत के चारों तरफ 15-20 मीटर तक की दूरी पर मूंगफली की फसल नहीं होनी चाहिए। बीज उत्पादन के लिये सभी आवश्यक कृषि क्रियायें जैसे खेत की तैयारी, बुवाई के लिये अच्छा बीज, उन्नत विधि द्वारा बुवाई, खाद एवं उर्वरकों का उचित प्रयोग, खरपतवारों एवं कीडे़ एवं बीमारियों का उचित नियंत्रण आवश्यक है। अवांछनीय पौधों की फूल बनने से पहले एवं फसल की कटाई के पहले निकालना आवश्यक है। फसल जब अच्छी तरह पक जाय तो खेत के चारों ओर का लगभग 10 मीटर स्थान छोड़कर फसल काट लेनी चाहिए तथा सुखा लेनी चाहिए। दानों में 8-10 प्रतिशत से अधिक नमी नहीं होनी चाहिए। मूंगफली को ग्रेडिंग करने के बाद उसे कीट एवं कवक नाशी रसायनों से उपचारित करके बोरों में भर लेना चाहिए। इस प्रकार उत्पादित बीज को अगले वर्ष की बुवाई के लिये उपयोग में लिया जा सकता है।
कटाई एवं गहाई
सामान्य रूप से जब पौधे पीले रंग के हो जायें तथा अधिकांश नीचे की पत्तियॉं गिरने लगे तो तुरंत कटाई कर लेनी चाहिए। फलियों को पौधों से अलग करने के पूर्व उन्हें लगभग एक सप्ताह तक अच्छी प्रकार सुखा लेना चाहिए। फलियों को तब तक सुखाना चाहिए जब तक उनमें नमी की मात्रा 10 प्रतिशत तक न हो जायें क्योंकि अधिक नमी वाली फलियों को भंडारित करने पर उस पर बीमारियों का खासकर सफेद फंफूदी का प्रकोप हो सकता है।
उपज एवं आर्थिक लाभ
उन्नत विधियों के उपयोग करने पर मूंगफली की सिंचित क्षेत्रों में औसत उपज 20-25 क्विण्टल प्रति हेक्टर प्राप्त की जा सकती है। इसकी खेती में लगभग 25-30 हजार रुपये प्रति हेक्टर का खर्चा आता हैं। मूंगफली का भाव 30 रुपये प्रतिकिलो रहने पर 35 से 40 हजार रुपये प्रति हेक्टर का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
सूरजमुखी की खेती
सूरजमुखी की खेती खरीफ, रबी, एवं जायद तीनो ही मौसम में की जा सकती है, लेकिन खरीफ में इस पर अनेक रोगों एवं कीटो का प्रकोप होने के कारण फूल छोटे होते है, तथा दाना कम पड़ता हैI जायद में सूरजमुखी की अच्छी उपज प्राप्त होती हैI इस कारण जायद में ही इसकी खेती ज्यादातर की जाती हैI
जलवायु और भूमि
सूरजमुखी की खेती के लिए किस प्रकार की जलवायु और भूमि की आवश्यकता पड़ती है?
सूरजमुखी की खेती खरीफ रबी जायद तीनो मौसम में की जा सकती हैI फसल पकते समय शुष्क जलवायु की अति आवश्यकता पड़ती हैI सूरजमुखी की खेती अम्लीय एवम क्षारीय भूमि को छोड़कर सिंचित दशा वाली सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है, लेकिन दोमट भूमि सर्वोतम मानी जाती हैI
प्रजातियाँ
उन्नतशील प्रजातियाँ कौन कौन सी होती है, जिन्हें हमें खेत में बोना चाहिए?
इसमे मख्य रूप से दो प्रकार की प्रजातियाँ पायी जाती हैI एक तो सामान्य या संकुल प्रजातियाँ इसमे मार्डन और सूर्य पायी जाती हैI दूसरा संकर प्रजातियाँ इसमे के बी एस एच-1 और एस एच 3322 एवं ऍफ़ एस एच-17 पाई जाती हैI
खेत की तैयारी
सूरजमुखी की फसल के लिए खेतो की तैयारी हमारे किसान भाई किस प्रकार करें?
खेत की तयारी में जायद के मौसम में प्राप्त नमी न होने पर खेत को पलेवा करके जुताई करनी चाहिएI एक जुताई मिटटी पलटने वाले हल से तथा बाद में 2 से 3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए मिटटी भुरभुरी कर लेना चाहिए, जिससे की नमी सुरक्षित बनी रह सकेI
बुवाई का समय
बुवाई का सही समय क्या है और किस विधि से ये बोये जाते है?
जायद में सूरजमुखी की बुवाई का सर्वोत्तम समय फरवरी का दूसरा पखवारा है इस समय बुवाई करने पर मई के अंत पर जून के प्रथम सप्ताह तक फसल पक कर तैयार हो जाती है, यदि देर से बुवाई की जाती है तो पकाने पर बरसात शुरू हो जाती है और दानो का नुकसान हो जाता है, बुवाई लाइनों में हल के पीछे 4 से 5 सेंटीमीटर गहराई पर करनी चाहिएI लाइन से लाइन की दूरी 45 सेंटी मीटर तथा पौध से पौध की दूरी 15 से 20 सेंटीमीटर रखनी चाहिएI
बीज की मात्रा
सूरजमुखी की बुवाई में प्रति हेक्टयर बीज की कितनी मात्रा लगती है, और इनका शोधन किस प्रकार करे?
बीज की मात्रा अलग अलग पड़ती है, जैसे की संकुल या सामान्य प्रजातियो में 12 से 15 किलो ग्राम प्रति हैक्टर बीज लगता है और संकर प्रजातियो में 5 से 6 किलो ग्राम प्रति हैक्टर बीज लगता हैI यदि बीज की जमाव गुणवता 70% से कम हो तो बीज की मात्रा बढ़ाकर बुवाई करना चाहिए, बीज को बुवाई से पहले 2 से 2.5 ग्राम थीरम प्रति किलो ग्राम बीज को शोधित करना चाहिएI बीज को बुवाई से पहले रात में 12 घंटा भिगोकर सुबह 3 से 4 घंटा छाया में सुखाकर सायं 3 बजे के बाद बुवाई करनी चाहिए जायद के मौसम में I
उर्वरक का प्रयोग
सूरजमुखी की फसल में उर्वरको का प्रयोग कितनी मात्रा में करनी चाहिए और कब करना चाहिए?
सामान्य उर्वरकों का प्रयोग मृदा परिक्षण के आधार पर ही करनी चाहिए फिर भी नत्रजन 80 किलोग्राम, 60 किलोग्राम फास्फोरस एवम पोटाश 40 किलो ग्राम तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता हैI नत्रजन की आधी मात्रा एवम फास्फोरस व् पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय कुडों में प्रयोग करना चाहिए इसका विशेष ध्यान देना चाहिए शेष नत्रजन की मात्रा बुवाई के 25 या 30 दिन बाद ट्राईफ़ोसीड के रूप में देना चाहिए यदि आलू के बाद फसल ली जाती है तो 20 से 25% उर्वरक की मात्र कम की जा सकती है, आखिरी जुताई में खेत तैयार करते समय 250 से 300 कुंतल सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद लाभदायक पाया गया हैI
सिंचाई का समय
सूरजमुखी की फसल में सिचाई कब और कैसे करनी चाहिए?
पहली सिचाई बुवाई के 20 से 25 दिन बाद हल्की या स्प्रिकलर से करनी चाहिएI बाद में आवश्यकतानुसार 10 से 15 दिन के अन्तराल पर सिचाई करते रहना चाहिएI कुल 5 या 6 सिचाइयो की आवश्यकता पड़ती हैI फूल निकलते समय दाना भरते समय बहुत हल्की सिचाई की आवश्यकता पड़ती हैI जिससे पौधे जमीन में गिरने न पाए क्योकि जब दाना पड जाता है तो सूरजमुखी के फूल के द्वारा बहुत ही पौधे पर वजन आ जाता है जिससे की गिर सकता है गहरी सिचाई करने सेI
निराइ एवं गुड़ाई
फसल की निराई गुड़ाई कब करनी चाहिए और उसमे खरपतवारो का नियत्रण हमारे किसान भाई किस प्रकार करें?
बुवाई के 20 से 25 दिन बाद पहली सिचाई के बाद ओट आने के बाद निराई गुड़ाई करना अति आवश्यक है, इससे खरपतवार भी नियंत्रित होते हैI रसायनो द्वारा खरपतवार नियत्रण हेतु पेंडामेथालिन 30 ई सी की 3.3 लीटर मात्रा 600 से 800 लीटर पानी घोलकर प्रति हैक्टर की दर से बुवाई के 2-3 दिन के अन्दर छिडकाव करने से खरपतवारो का जमाव नहीं होता हैI
मिट्टी की मात्रा
सूरजमुखी की फसल में पौधों पर कब, कैसे और कितनी मिट्टी चढानी चाहिए, ताकि उनका संतुलन बना रहे?
सूरजमुखी का फूल बहुत ही बड़ा होता है इससे पौधा गिराने का भय बना रहता है इसलिए नत्रजन की टापड्रेसिंग करने के बाद एक बार पौधों पर 10 से 15 सेंटीमीटर ऊँची मिट्टी चढाना अति आवश्यक है जिससे पौधे गिरते नहीं हैI
परिषेचन की क्रिया
सूरजमुखी में परिषेचन की क्रिया कब करनी चाहिए किन साधनों के द्वारा करना चाहिए?
सूरजमुखी एक परिषेचित फसल है इसमे परिषेचन क्रिया अति आवश्यक है यदि परिषेचन क्रिया नहीं हो पाती तो पैदावार बीज न बन्ने के कारण कम हो जाती है इसलिए परिषेचन क्रिया स्वतः भवरो, मधुमक्खियो तथा हवा आदि के द्वारा होती रहती है फिर ही अच्छी पैदावार हेतु अच्छी तरह फूलो, फुल आने के बाद हाथ में दस्ताने पहनकर या रोयेदार कपडा लेकर फसल के मुन्दको अर्थात फूलो पर चारो ऒर धीरे से घुमा देने से परिषेचन की क्रिया हो जाती है यह क्रिया प्रातः 7 से 8 बजे के बीच में कर देनी चाहिएI
फसल सुरक्षा
सूरजमुखी की फसल में फसल सुरक्षा किस प्रकार करें?
सूरजमुखी में कई प्रकार के कीट लगते है जैसे की दीमक हरे फुदके डसकी बग आदि हैI इनके नियंत्रण के लिए कई प्रकार के रसायनो का भी प्रयोग किया जा सकता हैI मिथाइल ओडिमेंटान 1 लीटर 25 ई सी या फेन्बलारेट 750 मिली लीटर प्रति हैक्टर 800 से 1000 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिएI
कटाई और मड़ाई
सूरजमुखी की फसल की कटाई और मड़ाई करने का सही समय क्या है कब करनी चाहिए?
जब सूरजमुखी के बीज कड़े हो जाए तो मुन्डको की कटाई करके या फूलो के कटाई करके एकत्र कर लेना चाहिए तथा इनको छाया में सुख लेना चाहिए इनको ढेर बनाकर नहीं रखना चाहिए इसके बाद डंडे से पिटाई करके बीज निकल लेना चाहिए साथ ही सूरजमुखी थ्रेशर का प्रयोग करना उपयुक्त होता हैI
भण्डारण
फसल प्राप्त होने के पश्चात उसका भण्डारण हम किस प्रकार करें?
बीज निकलने के बाद अच्छी तरह सुख लेना चाहिए बीज में 8 से 10% नमी से आधिक नहीं रहनी चाहिएI बीजो से 3 महीने के अन्दर तेल निकल लेना चाहिए अन्यथा तेल में कड़वाहट आ जाती है, अर्थात पारिस्थिकी के अंतर्गत भंडारण किया जा सकता हैI
सूरजमुखी की फसल से कितनी पैदावार प्राप्त हो जाती है?दोनों तरह की प्रजातियों की पैदावार अलग- अलग होती हैI संकुल या सामान्य प्रजातियों की पैदावार 12 से 15 कुन्तल प्रति हैक्टर होती है तथा संकर प्रजातियों की पैदावार 20 से 25 कुन्तल प्रति हैक्टर प्राप्त होती हैI
तीसी की उन्नत खेती
खरीफ की तेलहनी फसलों में तीसी का मुख्य स्थान है। इसकी खेती एकल फसल के रूप में अथवा मिश्रित फसल के रूप में कर सकते हैं।
भूमि का चुनाव- खेत की तैयारी हेतु दो-तीन बार जुताई करके पाटा चला दें और खेत समतल कर दें। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से एवं शेष जुताई देशी हल अथवा कल्टीवेटर से करनी चाहिए।
उन्नत प्रभेद |
बुआई का समय |
परिपक्वता अवधि (दिन) |
औसत उपज (किवंटल/हे.) |
तेल की मात्रा (अभ्युक्ति) |
टी. 397 |
10 अक्तू- 15 नव. |
120-130 |
10-12 |
40%, पैरा फसल हेतु उपयुक्त |
सुभ्रा |
10 अक्तू- 15 नव. |
130-135 |
12-14 |
44% |
गरीमा |
10 अक्तू- 15 नव. |
125-130 |
10-12 |
42% |
श्वेता |
10 अक्तू- 15 नव. |
140-145 |
12-15 |
41% |
शेखर |
10 अक्तू -15 नव. |
135-140 |
10-12 (10 किवंटल रेशा) |
43%, पैरा फसल हेतु उपयुक्त |
पार्वती |
20 अक्तू -20 नव. |
140-146 |
10-12(10 किवंटल रेशा) |
42% सिंचित खेती हेतु |
मीरा |
20 अक्तू- 20 नव. |
135-140 |
10-12(10 किवंटल रेशा) |
42% सिंचित खेती हेतु |
रश्मि |
20 अक्तू -20 नव. |
140-46 |
10-12(10 किवंटल रेशा) |
42% सिंचित खेती हेतु |
बीज दर- 15-20 कि.ग्रा.हे.।
बीजोपचार- बीज जनित रोगों एवं कीटों से फसल को बचाने के लिए फुफुन्दनाशक दवा से बीजों को उपचारित करना जरुरी है। बुआई से पहले बीजों को वैबिस्टिन चूर्ण से २.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
बोने की दूरी- पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 0.5 सें.मी.
खाद एवं उर्वरक प्रबन्धन – 8-10 टन सड़ी हुई कम्पोस्ट खाद खेत में अंतिम जुताई के समय खेत में बिखेर देना चाहिए। सिंचित अवस्था में 60 किलोग्राम नेत्रजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस एवं 20 किलोग्राम पोटाश तथा असिंचित अवस्था में 50 किलोग्राम नेत्रजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस एवं 20 किलोग्राम पोटाश का प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए।
प्रयोग विधि- सिंचित अवस्था में नेत्रजन की आधी मात्रा एवं स्फुर तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय प्रयोग करें। नेत्रजन की शेष आधी मात्रा फूल लगने के समय उपरिवेशन करें। असिंचित अवस्था में नेत्रजन, स्फुर तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय प्रयोग करें।
सिंचाई- अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए मृदा में पर्याप्त नमी बनाये रखना आवश्यक है। सिंचित अवस्था में दो सिंचाई करें। पहली सिंचाई फूल आने से पूर्व तथा दूसरी सिंचाई फलियों के लगने के समय करें।
लिनिसड मिज – वयस्क कीट सुंदर नारंगी रंग का होता है। मादा मक्खी पौधों के फूलों की कली में अंडे देती है, जिससे शिशु निकल कर फूलों की कली को खाता है, जिसके कारण गॉल का निर्माण होता है। फलस्वरूप उत्पादन में काफी कमी आ जाती है।
प्रबन्धन
- फसल की अगात बुआई करें।
- फसल चक्र अपनाएँ
- इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. का 1 मि.ली. प्रति 3 ली. पानी में घोलबनाकर छिड़काव करें।
- आक्सीडेमेटान मिथाएल 25 ई.सी. 1 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बनाकर फसल का छिडकाव करें।
सेमिलपुर कीट- इसका वयस्क पीलापन लिए हुए भूरे रंग का होता है। पंख पर सफेद रंग का निशान होता है। इसकी खास पहचान है कि ये अपने शरीर को वलय के आकार में मोड़कर चलता है। पिल्लू पौधों की पत्तियाँ खाकर नष्ट का देता है, जिसके कारण पौधों पर फूलों एवं फलों की संख्या काफी कम हो जाती है।
प्रंबधन
- खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें।
- खेत को खरपतवार से मुक्त रखें।
- आक्सीडेमेटान मिथाएल 25 ई.सी, का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
- हरदा रोग- इस रोग में पत्तियों पर पहले गुलाबी (रंग का धब्बा बनता है, जो बाद में तना एवं फली पर भी बनने लगता है। प्रभावित पत्तियाँ रंगहीन होकर सुख जाती है।
प्रबन्धन
- रोग रोधी किस्म का प्रयोग करें
- खेत को खरपतवार से मुक्त रखें।
- रोग ग्रसित पौधों को जला दें।
- मैन्कोजेव 75 घुलनशील चूर्ण का २ ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करें।
- निकाई-गुड़ाई एवं खरपतवार प्रबन्धन – तीसी फसल में 15 दिनों के अंदर अतिरिक्त पौधों की बछनी जरुर करें। बुआई के 25-30 दिनों तक खरपतवार से मुक्त रखें।
कटनी दौनी एवं भंडारण – जब पौधों का तना पीला होने लगे तब फसल की कटनी प्रारंभ कर देनी चाहिए। फसल कटनी के बाद कुछ दिन फसल सूखने के लिए छोड़ दें, इसके बाद दौनी का दाने को अलग कर लें। दौनी के बाद उचित भंडारण में भंडारित करें।
तोरी एवं सरसों की उन्नत खेती
तिलहनी फसलों में तोरी एवं सरसों का महत्व यहाँ के किसानों के जीवन में इसकी विविध उपयोग के कारण और भी बढ़ जाता है। अतः यह यहाँ की सबसे महत्वपूर्ण खाद्य तेल फसल मनाई जाती है। इसके अनुशंसित उन्नत प्रभेदों की वैज्ञानिक खेती की तकनीकों को अपनाकर किसानों को आर्थिक लाभ की ओर ले जाया जा सकता है।
तोरी एवं सरसों की फसल की खेती के लिए हल्की मीट्टी से भारी दोमट मिट्टी वाले खेत सर्वोत्तम माने गये हैं। खेत में दो-तीन बार हल चलाने के बाद पाटा लगाकर मिट्टी को भुरभुरी का लेना चाहिए, ताकि नमी को संरक्षित किया जा सके।
तोरी तथा सरसों की उन्नत किस्मों की कुछ प्रचलित एवं अनुशंसित प्रभेद निम्न है, जिन्हें उपलब्धता एवं अपनी आवश्यकता के अनुसार चयन करना चाहिए।
उन्नत प्रभेद |
बुआई का समय |
परिपक्वता अवधि (दिन) |
औसत उपज (किंव./हे.) |
तेल की मात्रा |
आर.ए.यु.टी.एस. 17 |
25 सित.-10 अक्तू. |
90-95 |
12-15 |
43% |
पाचाली |
25 सित. -10 अक्तू. |
90-105 |
10-12 |
43% |
पी.टी. 303 |
25 सित.- 10 अक्तू. |
90-100 |
12-14 |
40$% |
भवानी |
25 सित.-10 अक्तू. |
90-95 |
10-12 |
41% |
तोरी एवं सरसों के 6 कि.ग्रा. (पतले दानों वाले) से 8 कि.ग्रा. (पुष्ट दोनों वाली किस्म) बीज प्रति हेक्टेयर, जिससे 3.3 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर खेत में स्थापित हो जाएँ, बुआई के लिए व्यवहार में पानी चाहिए।
अगात फसल |
10 से 15 अक्तूबर (हथिया नक्षत्र की वर्षा के बाद) |
समयकालीन फसल |
15 से 25 अक्तूबर |
पिछात फसल |
25 अक्तूबर से 15 नवम्बर तक |
बहुत पिछात फसल |
15 नवम्बर से 7 दिसम्बर तक |
बीजोपचार
तोरी एवं सरसों के बीज को खेत में बोने से पहले २-3 ग्राम थीरम/कैप्टान/बेवस्टीन नामक दवा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए।
वछनी (थिनिंग)
छिड़काव विधि से बुवाई किये गये खेत में बुआई के 14-15 दिन बाद वछनी कर पौधे से पौधे के बीच की दुरी 10 सें.मी. स्थापित कर लेना चाहिए। अगर संभव् हो तो 30-14 सें.मी. की दुरी पर कतारों में 10 से 15 सें.मी. दुरी पर बीज की बुआई करें जिसके बाद वछनी की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
- मिट्टी जाँच के आधार पर संतुलित मात्रा एवं उपयुक्त अवस्था में पोषको तत्वों का व्यवहार अच्छी उपक्ज का गूढ़ मन्त्र माना जाता है।
- इसके लिए खेत में बुआई से 20-30 दिन पहले 8 टन प्रति हेक्टेयर कम्पोस्ट बिखेर का खेत तैयार करें। कम्पोस्ट की अनुपलब्धता की स्थिति में वर्मी कम्पोस्ट के इस्तेमाल की भी अनुशंसा की जाती है।
- गंधकयुक्त उर्वरक जसी एस.एस.पी. (सिंगल सुपर फास्फेट) यह अमोनियम सल्फेट का प्रयोग अथवा जाँच के आधार पर 20-30 किलोग्राम गंधक तथा आवश्यकतानुसार जिंक और बोरान का प्रयोग करें ।
खेत की स्थिति |
बुआई के पहले या खेत की अंतिम के समय (कि.ग्रा./हे.) |
खेत की स्थिति |
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नेत्रजन |
स्फुर |
पोटाश |
नेत्रजन |
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सिंचित अवस्था |
40 |
40 |
40 |
40 |
असिंचित अवस्था |
40 |
20 |
20 |
- |
- सामन्यतः तोरी या सरसों में खेत की मिट्टी की संरचना के आधार पर एक से दो सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है, जिसे सिंचाई की उपलब्धता के आधार पर सुविधानुसार दिया जाना चाहिए।
- अगर एक ही सिंचाई उपलब्ध हो तो फसल लगाने के 25 से 30 दिन बाद सिंचाई करें।
- दो सिंचाई की उपलब्धता एवं फसल की मांग होने पहली सिंचाई फसल लगाने के 25 से 30 दिन तथा दूसरी 55-60 दिन बाद दें।
- अगर आवश्यक हो तो बुआई के 30 से 45 दिनों के बाद कतारों के बीच पतला हल या बख्खर चलाकर यह पहले सिंचाई के बाद जमीन के रूखे हो जाने खुरपी द्वारा खरपतवार का नियन्त्रण किया जा सकता है।
वेसलिन (फ्लूक्लोरीन) नामक रसायन के 1.5 किलोग्राम 600-800 लीटर पानी में घोलकर खेत की तैयारी के अंतिम जुताई और पाटा के बीच छिड़काव कर भी तोड़ी एवं सरसों के खरपतवार को नियंत्रित किया जा सकता है।
तिलहनी फसलों में मुख्यतः जिन रोगों या कीटों का प्रकोप होता है, उनके नियंत्रण के लिए निम्नलिखित रसायनों का प्रयोग किया जा सकता है-
प्रबन्धन
- नीम आधारित कीटनाशी का 5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
- पीला चिपकने वाला फंदा का व्यवहार फूल आने के पहले करना चाहिए। 8-10 फंदा प्रति हेक्टेयर लगावें।
- रासायनिक कीटनाशी के रूप में ऑक्सीडेमेटान मिथाएल 25 ई.सी एक मिलीलीटर प्रति लीटर अथवा मालाथियान 50 ई.सी. 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
यह अलबिगो नामक फुफुन्द से होने वाला रोग हैं। इस रोग में सफेद या सफेद या हल्के पीले रंग के अनियमिताकार फफोले बनते हैं। पत्तियों के निचले सतह पर छोटे-छोटे उजले या हल्के पीले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इसका आक्रमण पुष्पक्रमों पर होने से पुष्पक्रम मोटे और विकृत हो जाते है।
प्रबन्धन
- खड़ी फसल में इस रोग का आक्रमण होने पर मौन्कोजेब 75 घुलनशील चूर्ण का २ ग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करें।
प्रबन्धन
- कार्बेन्डाजिम 50 घुलनशील चूर्ण २ ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार कर बुआई करें।
- फसल को खरपतवार से मुक्त रखें।
- खड़ी फसल में इस रोग का आक्रमण होने पर मैंकोजेब 75% घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
प्रबन्धन
- फसल की कटाई के बाद खेत की गहरी जुताई करना चाहिए, ताकि मिट्टी में उपस्थित इस कीट प्यूपा मिट्टी से बाहर आ जाए तथा नष्ट हो जाए।
- नीम आधारित कीटनाशी 5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
- रासायनिक कीटनाशियों में मिथाएल पाराथियान २% धूल अथवा मालाथियान में 5% धुल का 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए अथवा मिथाएल पाराथियान 50 ई.सी. का एक मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
कटाई
जब फसल की 75% फलियाँ पीली/भूरी हो जाएँ तब पौधों की कटाई कर बोझा बनाकर या खेत में पसार कर एक दो-दिन छोड़ने के बाद दानों को अलग करना चाहिए।
उपज
सोयाबीन की खेती
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
सोयाबीन की खेती अधिक हल्की, हल्की व रेतीली भूमि को छोड़कर सभी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है। परंतु पानी के निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिये अधिक उपयुक्त होती है। जिन खेतों में पानी रुकता हो, उनमें सोयाबीन न लें।
ग्रीष्मकालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवष्य करनी चाहिये। वर्षा प्रारम्भ होने पर 2 या 3 बार बखर तथा पाटा चलाकर खेत का तैयार कर लेना चाहिये। इससे हानि पहुंचाने वाले कीटों की सभी अवस्थायें नष्ट होंगीं। ढेला रहित और भुरभुरी मिट्टी वाले खेत सोयाबीन के लिये उत्तम होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत: अधिक उत्पादन के लिये खेत में जल निकास की व्यवस्था करना आवश्यक होता है। जहां तक सम्भव हो आखरी बखरनी एवं पाटा समय से करें जिससे अंकुरित खरपतवार नष्ट हो सकें। यथा सम्भव मेंढ़ और कूड़ (रिज एवं फरों) बनाकर सोयाबीन बोयें।
उन्नत प्रजातियां
|
बीज दर
छोटे दाने वाली किस्में - 28 किलोग्राम प्रति एकड़
मध्यम दाने वाली किस्में - 32 किलोग्राम प्रति एकड़
बड़े दाने वाली किस्में - 40 किलोग्राम प्रति एकड़
बीजोपचार
सोयाबीन के अंकुरण को बीज तथा मृदा जनित रोग प्रभावित करते हैं। इसकी रोकथाम हेतु बीज को थायरम या केप्टान 2 ग्राम, कार्बेडाजिम या थायोफिनेट मिथाइल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा 4 ग्राम / कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलों ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोयें।
कल्चर का उपयोग
फफूंदनाशक दवाओं से बीजोपचार के प्श्चात् बीज को 5 ग्राम रायजोबियम एवं 5 ग्राम पीएसबी कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिये एवं शीघ्र बोनी करना चाहिये। घ्यान रहे कि फफूंद नाशक दवा एवं कल्चर को एक साथ न मिलाऐं।
बोनी का समय एवं तरीका
जून के अंतिम सप्ताह में जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय सबसे उपयुक्त है। बोने के समय अच्छे अंकुरण हेतु भूमि में 10 सेमी गहराई तक उपयुक्त नमी होना चाहिये। जुलाई के प्रथम सप्ताह के पश्चात् बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत बढ़ा देना चाहिये। कतारों से कतारों की दूरी 30 से.मी. (बोनी किस्मों के लिये) तथा 45 से.मी. बड़ी किस्मों के लिये। 20 कतारों के बाद एक कूंड़ जल निथार तथा नमी सरंक्षण के लिये खाली छोड़ देना चाहिये। बीज 2.50 से 3 से.मी. गहरा बोयें।
अंतरवर्तीय फसलें
सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसलों के रुप में अरहर सोयाबीन (2:4), ज्वार सोयाबीन (2:2), मक्का सोयाबीन (2:2), तिल सोयाबीन (2:2) अंतरवर्तीय फसलें उपयुक्त हैं।
समन्वित पोषण प्रबंधन
अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) 2 टन प्रति एकड़ अंतिम बखरनी के समय खेत में अच्छी तरह मिला देवें तथा बोते समय 8 किलो नत्रजन 32 किलो स्फुर 8 किलो पोटाश एवं 8 किलो गंधक प्रति एकड़ देवें। यह मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर घटाई बढ़ाई जा सकती है। यथा सम्भव नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के उपयोग को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में लगभग 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिये। गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति एकड़ एवं उथली मिट्टियों में 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से 5 से 6 फसलें लेने के बाद उपयोग करना चाहिये।
खरपतवार प्रबंधन
फसल के प्रारम्भिक 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नियंत्रण बहुत आवश्यक होता है। बतर आने पर डोरा या कुल्फा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करें व दूसरी निदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन बाद करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारों को नश्ट करने के लिये क्यूजेलेफोप इथाइल 400 मिली प्रति एकड़ अथवा घांस कुल और कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये इमेजेथाफायर 300 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव की अनुशसा है। नींदानाशक के प्रयोग में बोने के पूर्व फ्लुक्लोरेलीन 800 मिली प्रति एकड़ आखरी बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़कें और दवा को भलीभाँति बखर चलाकर मिला देवें। बोने के पश्चात एवं अंकुरण के पूर्व एलाक्लोर 1.6 लीटर तरल या पेंडीमेथलीन 1.2 लीटर प्रति एकड़ या मेटोलाक्लोर 800 मिली प्रति एकड़ की दर से 250 लीटर पानी में घोलकर फ्लैटफेन या फ्लैटजेट नोजल की सहायता से पूरे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों के स्थान पर 8 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से ऐलाक्लोर दानेदार का समान भुरकाव किया जा सकता है। बोने के पूर्व एवं अंकुरण पूर्व वाले खरपतवार नाशियों के लिये मिट्टी में पर्याप्त नमी व भुरभुरापन होना चाहिये।
सिंचाई
खरीफ मौसम की फसल होने के कारण सामान्यत: सोयाबीन को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। फलियों में दाना भरते समय अर्थात् सितम्बर माह में यदि खेत में नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो हल्की सिंचाई करना सोयाबीन के विपुल उत्पादन लेने हेतु लाभदायक है।
पौध संरक्षण
कीट
सोयाबीन की फसल पर बीज एवं छोटे पौधे को नुकसान पहुंचाने वाला नीलाभृंग (ब्लूबीटल) पत्ते खाने वाली इल्लियां, तने को नुकसान पहुंचाने वाली तने की मक्खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का प्रकोप होता है, एवं कीटों के आक्रमण से 5 से 50 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आ जाती है। इन कीटों के नियंत्रण के उपाय निम्नलिखित हैं:
कृषिगत नियंत्रण
खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें। मानसून की वर्षा के पूर्व बोनी नहीं करें। मानसून आगमन के पश्चात् बोनी शीघ्रता से पूरी करें। खेत नींदा रहित रखें। सोयाबीन के साथ ज्वार अथवा मक्का की अंतरवर्तीय फसल लें। खेतों को फसल अवशेषों से मुक्त रखें तथा मेढ़ों की सफाई रखें।
रासायनिक नियंत्रण
बोवाई के समय थयोमिथोक्जाम 70 डब्ल्यू.एस. 3 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से प्रारम्भिक कीटों का नियंत्रण होता है अथवा अंकुरण के प्रारम्भ होते ही नीला भृंग कीट नियंत्रण के लिये क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियान (फालीडाल 2 प्रतिशत या धानुडाल 2 प्रतिशत) 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करना चाहिये। कई प्रकार की इल्लियां पत्ती, छोटी फलियों और फलों को खाकर नष्ट कर देती है। इन कीटों के नियंत्रण के लिये घुलनशील दवाओं की निम्नलिखित मात्रा 300 से 325 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिये। हरी इल्ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला भाग चौड़ा होता है। सोयाबीन के फूलों और फलियों को खा जाती है, जिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी लगती। चूँकि फसल पर तना मक्खी, चक्रभृंग, माहो हरी इल्ली लगभग एक साथ आक्रमण करते हैं, अत: प्रथम छिड़काव 25 से 30 दिन पर एवं दूसरा छिड़काव 40-45 दिन का फसल पर अवश्य करना चाहिये।
क्रं |
प्रयुक्त कीटनाशक |
मात्रा प्रति एकड़ |
क्रं |
प्रयुक्त कीटनाशक |
मात्रा प्रति एकड |
1 |
क्लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी. |
600 मिली |
5 |
ईथोफेनप्राक्स 40 ई.सी. |
400 मिली |
2 |
क्यूनालफॉस 25 ई.सी. |
600 मिली |
6 |
मिथोमिल 10 ई.सी. |
400 मिली |
3 |
ईथियान 50 ई.सी. |
600 मिल |
7 |
नीम बीज का घोल 5 प्रतिशत |
15 कि.ग्रा. |
4 |
ट्रायजोफॉस 40 ई.सी. |
320 मिली |
8 |
थयोमिथोक्जाम 25 डब्ल्यू जी |
40 ग्राम |
छिड़काव यंत्र उपलब्ध न होने की स्थिति में निम्नलिखित में से एक पावडर (डस्ट) का उपयोग 8-10 किग्रा प्रति एकड़ करना चाहिये।
क्यूनालफॉस - 1.5 प्रतिशत
मिथाईल पैराथियान - 2.0 प्रतिशत
जैविक नियंत्रण
कीटों के आरम्भिक अवस्था में जैविक कीट नियंत्रण हेतु बी.टी. एवं व्यूवेरीया बेसियाना आधारित जैविक कीटनाशक 400 ग्राम या 400 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से बोवाई के 35-40 दिन तथा 50-55 दिन बाद छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई. समतुल्य का 200 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशक की जगह जैविक कीटनाशकों को अदला-बदली कर डालना लाभदायक होता है।
गर्डल बीटल प्रभावित क्षेत्र में जे.एस. 335, जे.एस. 80-21, जे.एस. 90-41 लगावें।
निंदाई के समय प्रभावित टहनियां तोड़कर नष्ट कर दें।
कटाई के पश्चात् बंडलों को सीधे गहाई स्थल पर ले जावें।
तने की मक्खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें।
रोग
फसल बोने के बाद से ही फसल निगरानी करें। यदि सम्भव हो तो लाइट ट्रेप तथा फेरोमेन टूब का उपयोग करें।
ब्ीजोपचार आवश्यक है। उसके बाद रोग नियंत्रण के लिये फंफूद के आक्रमण से बीज सड़न रोकने हेतु कार्बेंडाजिम 1 ग्राम / 2 ग्राम थीरम के मिश्रण से प्रति किलो ग्राम बीज उपचारित करना चाहिये। थीरम के स्थान पर केप्टान एवं कार्बेंडाजिम के स्थान पर थायोफेनेट मिथाइल का प्रयोग किया जा सकता है।
पत्तों पर कई तरह के धब्बे वाले फुंद जनित रोगों को नियंत्रित करने के लिये कार्बेंडाजिम 50 डब्ल्यू.पी. या थायोफेनेट मिथाइल 70 डब्ल्यू.पी. 0.05 से 0.1 प्रतिशत से 1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिये। पहला छिड़काव 30-35 दिन की अवस्था पर तथा दूसरा छिड़काव 40-45 दिन की अवस्था पर करना चाहिये।
बैक्टीरियल पश्च्यूल नामक रोग को नियंत्रित करने के लिये स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या कासूगामाइसिन की 200 पीपीएम 200 मिग्रा दवा प्रति लीटर पानी के घोल और कॉपर आक्सीक्लोराइड 0.2 (2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में मिश्रण करना चाहिये। इसके लिये 10 लीटर पानी में 1 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन एवं 20 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड दवा का घोल बनाकर उपयोग कर सकते हैं।
गेरुआ प्रभावित क्षेत्रों (जैसे बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी) में गेरुआ के लिये सहनशील जातियां लगायें तथा रोगों के प्रारम्भिक लक्षण दिखते ही 1 मि.ली. प्रति लीटर की दर से हेक्साकोनाजोल 5 ई.सी. या प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. या ऑक्सीकार्बोजिम 10 ग्राम प्रति लीटर की दर से ट्रायएडिमीफान 25 डब्ल्यूपी दवा के घोल का छिड़काव करें।
विषाणु जनित पीला मोजेक वायरस रोग व वड व्लाइट रोग प्राय: एफ्रिडस सफेद मक्खी, थ्रिप्स आदि द्वारा फेलते हैं। अत: केवल रोग रहित स्वस्थ बीज का उपयोग करना चाहिये एवं रोग फेलाने वाले कीड़ों के लिये थायोमेथेक्जोन 70 डब्ल्यू एस. से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर एवं 30 दिनों के अंतराल पर दोहराते रहें। रोगी पौधों का खेत से निकाल देवें। इथोफेनप्राक्स 10 ई.सी., 400 मि.ली. प्रति एकड़, मिथाइल डेमेटान 25 ईसी 300 मिली प्रति एकड़, डायमिथोएट 30 ईसी 300 मिली प्रति एकड़, थायोमिथेजेम 25 डब्ल्यू जी 400 ग्राम प्रति एकड़।
पीला मोजेक प्रभावित क्षेत्रों में रोग के लिये ग्राही फसलों (मूंग, उड़द, बरबटी) की केवल प्रतिरोधी जातियां ही गर्मी के मौसम में लगायें तथा गर्मी की फसलों में सफेद मक्खी का नियमित नियंत्रण करें।
नीम की निम्बोली का अर्क डिफोलियेटर्स के नियंत्रण के लिये कारगर साबित हुआ है।
फसल की कटाई एवं गहाई
अधिकांश पत्तियों के सूख कर झड़ जाने पर और 10 प्रतिशत फलियां के सूख कर भूरी हो जाने पर फसल की कटाई कर लेना चाहिये। पंजाब 1 पकने के 4-5 दिन बाद, जे.एस. 335, जे.एस. 76-205 एवं जे.एस. 72-44, जेएस 75-46 आदि सूखने के लगभग 10 दिन बाद चटकने लगती है। कटाई के बाद गट्ठों को 2-3 दिन तक सुखाना चाहिये। जब कटी फसल अच्छी तरह सूख जाये तो गहाई कर दोनों को अलग कर देना चाहिये। फसल गहाई थ्रेसर, ट्रेक्टर, बैलों तथा हाथ द्वारा लकड़ी से पीटकर करना चाहिये। जहां तक सम्भव हो बीज के लिये गहाई लकड़ी से पीट कर करना चाहिये, जिससे अंकुरण प्रभावित न हो।
राई-सरसों की खेती
सरसों रबी की प्रमुख तिलहनी फसल है जिसका भारत की अर्थ व्यवस्था में एक विशेष स्थान है। सरसों (लाहा) कृषकों के लिए बहुत लोक प्रिय होती जा रही है क्यों कि इससे कम सिंचाई व लागत में दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ प्राप्त हो रहा है। इसकी खेती मिश्रित रूप में और बहु फसलीय फसल चक्र में आसानी से की जा सकती है। भारत वर्ष में क्षेत्रफल की दृष्टि से इसकी खेती प्रमुखता से राजस्थान, मध्यप्रदेश, यूपी, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, आसाम, झारखंड़, बिहार एवं पंजाब में की जाती है। जबकि उत्पादकता (1721 किलो प्रति हे.) की दृष्टि से हरियाणा प्रथम स्थान पर है। मध्यप्रदेश की उत्पादकता (1325 किलो प्रति हे.) वर्ष 2012-13 में थी। मध्यप्रदेश में इसकी खेती सफलता पूर्वक मुरैना, श्योपुर, भिंड़, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, अशोकनगर, दतिया, जबलपुर, कटनी, बालाघाट, छिंदवाडा़, सिवनी, मण्डला, डिण्डोरी, नरसिंहपुर, सागर, दमोह, पन्ना, टीकमगढ, छतरपुर, रीवा, सीधी, सिंगरोली, सतना, शहडोल, उमरिया, इन्दौर, धार, झाबुआ, खरगोन, बडवानी, खण्डवा, बुरहानपुर, अलीराजपुर, उज्जैन, मंदसौर, नीमच, रतलाम, देवास, शाजापुर, भोपाल, सीहौर, रायसेन, विदिशा, राजगढ, होशंगाबाद, हरदा, बैतूल जिलों में होती है एवं इन जिलो में राई-सरसों के उत्पादन की एवं प्रचार प्रसार की असीम संभावनायें है। उत्पादन की दृष्टि से मुरैना जिला की मुख्य भूमिका है। यहाँ औसतन उत्पादकता वर्ष 2012-13 में 1815 किलो ग्राम प्रति हे. थी। अतः वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर उन्नतशील प्रजातियाँ एवं उन्नत तकनीक अपनाकर किसान भाई 25 से 30 क्विंटल प्रति हे. सरसों की पैदावार ले सकते है।
दोमट या बलुई भूमि जिसमें जल का निकास अच्छा हो अधिक उपयुक्त होती है। अगर पानी के निकास का समुचित प्रबंध न हो तो प्रत्येक वर्ष लाहा लेने से पूर्व ढेचा को हरी खाद के रूप में उगाना चाहिए। अच्छी पैदावार के लिए जमीन का पी.एच.मान. 7.0 होना चाहिए। अत्यधिक अम्लीय एवं क्षारीय मिट्टी इसकी खेती हेतु उपयुक्त नहीं होती है। यद्यपि क्षारीय भूमि में उपयुक्त किस्म लेकर इसकी खेती की जा सकती है। जहां जमीन क्षारीय है वहाँ प्रति तीसरे वर्ष जिप्सम/पायराइट 5 टन प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। जिप्सम की आवश्यकता मृदा पी.एच. मान के अनुसार भिन्न हो सकती है। जिप्सम/पायराइट को मई-जून में जमीन में मिला देना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में खरीफ फसल के बाद पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और उसके बाद तीन-चार जुताईयाँ तवेदार हल से करनी चाहिए। सिंचित क्षेत्र में जुताई करने के बाद खेत में पाटा लगाना चाहिए जिससे खेत में ढेले न बने। गर्मी में गहरी जुताई करने से कीड़े मकौड़े व खरपतवार नष्ट हो जाते हैं। अगर वोनी से पूर्व भूमि में नमी की कमी है तो खेत में पलेवा करना चाहिए। बोने से पूर्व खेत खरपतवार रहित होना चाहिए। बारानी क्षेत्रों में प्रत्येक बरसात के बाद तवेदार हल से जुताई कर नमी को संरक्षित करने के लिए पाटा लगाना चाहिए जिससे कि भूमि में नमी बनी रहे। अंतिम जुताई के समय 1.5 प्रतिशत क्यूनॉलफॉस 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलादें, ताकि भूमिगत कीड़ों की रोकथाम की जा सके।
मध्यप्रदेश में अधिक उपज एवं तेल की अधिकतम मात्रा प्राप्त करने हेतु सरसों की निम्न जातियों को बुबाई हेतु अनुशंसा की जाती है।
किस्में |
पकने की अवधि (दिन) |
उपज(कि.ग्रा./है.) |
तेल की मात्रा (%) |
मुख्य विशेषताएं |
तोरियाः जवाहर तोरिया-1 भवानी टाईप-9 |
85-90 75-80 90-95 |
1500-1800 1000-1200 1200-1500 |
43 44 40 |
श्वेत किट्ट के प्रति प्रतिरोधी अंतरवर्ती फसल के लिए उपयुक्त। शष्क एवं सिंचित खेती के लिए उपयुक्त। |
सरसों जवाहर सरसों-2 जवाहर सरसों-3 राज विजय सरसों-2
|
135-138 130-132 120-140
|
1500-3000 1500-2500 1800-2000 (पिछेती बोनी) 2500.3000) (समय पर बोनी) |
40 40 37-41
|
मृदुरोमिल आसिता रोग व पाला के प्रति सहनशील है। झुलसन रोग एवं माहू का प्रकोप कम होता है। सिंचित एवं अंसिचित क्षेत्रो के लिए उपयुक्त। सफेद फफोला, झुलसन रोग, तना सड़न, चूर्णिल एवं मृदुरोमिल आसिता के प्रति मध्यम प्रतिरोधिता
|
कोरल-432 |
113-147 |
1831-2581 |
40-42 |
सिंचित अवस्था एवं बाजरा सरसों फसल चक्र हेतु उपयुक्त। |
सी.एस.-56 |
113-147 |
1170-1423 |
35-40 |
पिछेती बानी हेतु उपयुक्त। |
नवगोल्ड (पीली सरसों) |
122-134 |
1095-1803 |
34-41 |
पिछेती बोनी हेतु उपयुक्त। सफेद फफोला, झुलसन रोग एवं तना सड़न रोगों के प्रति मध्यम प्रतिरोधी। |
एन.आर.सी.एच.बी.-101 |
105-135 |
1384-1492 |
34-42 |
समय पर एवं पिछेती बोनी हेतु उपयुक्त। |
पूसा सरसों-21 |
127-149 |
1428-2197 |
30-42 |
सफेद फफोला, झुलसन रोग, तना सड़न, चूर्णिल एवं मृदुरोमिल आसिता। |
पूसा सरसों-27 |
108-135 |
1437-1639 |
39-45 |
अगेती बोनी हेतु उपयुक्त। |
आर.जी.एन.-73 |
127-136 |
1771-2226 |
39-42 |
फलियों एवं पौधें के गिरने के प्रति प्रतिरोधिता। |
आशीर्वाद |
125-130 |
1440-1685 |
39 |
पिछेती बोनी के लिए उपयुक्त, श्वेत किट्ट के प्रति प्रतिरोधी, पत्तियों एवं फली के झुलसन रोग के प्रति मध्य प्रतिरोधी। |
माया |
125-136 |
1990-2280 |
40 |
अगेती बोनी एवं उच्च तापमान के प्रति सहनशील, सफेद किट्ट के प्रति प्रतिरोधी। |
जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन है, उन क्षेत्रों में सरसों की बोनी के पूर्व खरीफ में खेत खाली नही छोड़ना चाहिए। सस्य सघनता बढाने हेतु अन्य फसलों के क्रम में इसे सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है। इसकी खेती से भूमि एवं आने वाली फसल के उत्पादन पर किसी भी प्रकार का विपरीत प्रभाव नही पड़ता । सरसों पर आधारित उपयुक्त फसल चक्र निम्नानुसार लिए जा सकते है।
सिंचित क्षेत्रों के लिए
असिंचित क्षेत्रों के लिए
अंर्तवर्तीय फसलें
सरसों चना- (19) सरसों की एक कतार तथा चना की 9 कतार के अनुपात में बोनी करना लाभदायक होगा।
सरसों मसूरः- (19) सरसों की एक कतार तथा चना की 9 कतार के अनुपात में बोनी करना लाभदायक होगा।
सरसों गेहूँ-(19) कम पानी या असिंचित गेहूँ की सरसों के साथ अंर्तवर्तीय खेती का भी काफी लाभ होता है। इनके कतार का अनुपात 1 कतार सरसों एवं 9 कतार गेहूँ की बुआई करें।
भरपूर पैदावार हेतु फसल को बीज जनित बीमारियों से बचाने के लिये बीजोपचार आवश्यक है। श्वेत किट्ट एवं मृदुरोमिल आसिता से बचाव हेतु मेटालेक्जिल (एप्रन एस डी-35) 6 ग्राम एवं तना सड़न या तना गलन रोग से बचाव हेतु कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज उपचार करें।
उचित समय पर बोनी करने से उत्पादन तो अधिक होता ही है साथ ही साथ फसल पर रोग व कीटों का प्रकोप भी कम होता है। इसके कारण पौध संरक्षण पर आने वाली लागत से भी बचा जा सकता है।
बुवाई का उपयुक्त समय एवं बीज दर निम्नानुसार है-
फसल |
बुवाई का समय |
बीज दर प्रति हेक्टेयर |
तोरिया |
सितम्बर का प्रथम पक्ष |
4-5 कि.ग्रा. |
सरसों |
बारानी क्षेत्र 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर |
5-6 कि.ग्रा. |
सरसों सिंचित क्षेत्र |
10 अक्टूबर से 30 अक्टूबर |
4.5-5 कि.ग्रा. |
बुवाई देशी हल या सरिता या सीड़ ड्रिल से कतारों में करें, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से.मी., पौधें से पौधे की दूरी 10-12 सेमी. एवं बीज को 2-3 से.मी. से अधिक गहरा न बोयें, अधिक गहरा बोने पर बीज के अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पडता है।
भरपूर उत्पादन प्राप्त करने हेतु रासायनिक उर्वरको के साथ केचुंआ की खाद, गोबर या कम्पोस्ट खाद का भी उपयोग करना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों के लिए अच्छी सडी हुई गोबर या कम्पोस्ट खाद 100 क्विंटल प्रति हैक्टर अथवा केचुंआ की खाद 25 क्विंटल/प्रति हेक्टर बुवाई के पूर्व खेत में डालकर जुताई के समय खेत में अच्छी तरह मिला दें। बारानी क्षेत्रों में देशी खाद (गोबर या कम्पोस्ट) 40-50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से वर्षा के पूर्व खेत में डालें और वर्षा के मौसम मे खेत की तैयारी के समय खेत में मिला दें। राई-सरसों से भरपूर पैदावार लेने के लिए रासायनिक उर्वरकों का संतुलित मात्रा में उपयोग करने से उपज पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। उर्वरको का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना अधिक उपयोगी होगा। राई-सरसों को नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश जैसे प्राथमिक तत्वों के अलावा गंधव तत्व की आवश्यकता अन्य फसलों की तुलना में अधिक होती है। साधारणतः इन फसलों से निम्नांकित संतुलित उर्वरकों का प्रयोग कर अधिकतम उपज प्राप्त की जा सकती है-
फसल |
उर्वरक (कि.ग्रा./हेक्टेयर) |
|||
नत्रजन |
स्फुर |
पोटाश |
गंधक |
|
तोरिया |
60 |
30 |
20 |
20 |
सरसों असिंचित |
40 |
20 |
10 |
15 |
सरसों सिंचित (बाजरा/सोयाबीन/सरसों) |
100 |
50 |
25 |
40 |
मध्यप्रदेश के कई क्षेत्रों की मृदाओं में गंधक तत्व की कमी देखी गई है, जिसके कारण फसलोत्पादन में दिनों दिन कमी होती जा रही है तथा तेल की प्रतिशत भी कम हो रही है। इसके लिए 30-40 कि0ग्रा0 गंधक तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से देना आवश्यक है। जिसकी पूर्ति अमोनियम सल्फेट, सुपर फास्फेट, अमोनियम फास्फेट सल्फेट आदि उर्वरकों के उपयोग से की जा सकती है। किन्तु इन उर्वरकों के उपलब्ध न होने पर जिप्सम या पायराइटस के रूप में गंधक दिया जा सकता है।
बारानी क्षेत्र (असिंचित) अनुशंसित नत्रजन, स्फुर, पोटाश तथा गंधक की संपूर्ण मात्रा बुआई के समय खेत में अच्छी तरह मिला दें।
अनुशंसित नत्रजन की आधी मात्रा एंव स्फुर पोटाश व गंधक की संपूर्ण मात्रा बुआई के समय खेत में अच्छी तरह मिला दें तथा नत्रजन की शेष बची हुई आधी मात्रा पहली सिंचाई के बाद खेत में खडी फसल में छिटक कर दें।
उपयोग के लिए बनाये गये विभिन्न उर्वरकों के मिश्रण को तुरंत खेंत में डाल दे अन्यथा इन्हे रखे रहने से उर्वरको का ढेला बन जायेगा और पौधों को समान रूप से सही मात्रा नहीं मिलेगी। उर्वरको का छिडकाव शाम के समय करें।
जब सरसों करीब 30-35 दिन की व फूल आने की प्रारंभिक अवस्था पर हो तो सरसों के पौधों को पतली लकड़ी से मुख्य तने की ऊपर से तुड़ाई कर देना चाहिए। इस प्रक्रिया को करने से मुख्य तना की वृद्धि रूक जाती है तथा शाखाओं की संख्या में वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप उपज में करीब 10 से 15 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है।
उचित समय पर सिंचाई करने से उत्पादन में 25-50 प्रतिशत तक वृद्धि पाई गई है। इस फसल में 1-2 सिंचाई करने से लाभ होता है।
तोरिया की फसल में पहली सिंचाई बुआई के 20-25 दिन पर (फूल प्रारंभ होना) तथा दूसरी सिंचाई 50-55 दिन पर फली में दाना भरने की अवस्था पर करना लाभप्रद होगा।
सरसों की बोनी बिना पलेवा दिये की गई हो तो पहली सिंचाई बुआई के 30-35 दिन पर करें। इसके बाद अगर मौसम शुष्क रहे अर्थात पानी नही बरसे तो बोनी के 60-70 दिन की अवस्था पर जिस समय फली का विकास या फली में दाना भर रहा हो सिंचाई अवश्य करें। द्विफसलीय क्षेत्र में जहाँ पर सिंचित अवस्था में सरसों की फसल पलेवा देकर बोनी की जाती है, वहाँ पर पहली सिंचाई फसल की बुवाई के 40-45 दिन पर व दूसरी सिंचाई मावठा न होने पर 75-80 दिन पर करना चाहिए।
राई-सरसों की फसल में सिंचाई पट्टी विधि द्वारा करनी चाहिए। खेत की ढाल व लंबाई के अनुसार 4-6 मीटर चैडी पट्टी बनाकर सिंचाई करने से सिंचाई जल का वितरण समान रूप से होता है तथा सिंचाई जल का पूर्ण उपयोग फसल द्वारा किया जाता है। यह बात अवश्य ध्यान रखें कि सिंचाई जल की गहराई 6-7 से0मी0 से ज्यादा न रखें।
पौंध संरक्षण
समन्वित नींदा प्रबंधन
भरपूर उपज प्राप्त करने के लिए फसल को प्रांरंभिक अवस्था में ही नींदा रहित रखना लाभकारी रहता है।
इसके लिए फसल की बुआई के तुरंत बाद पेन्डीमीथिलीन नामक रसायन की 1.0 कि0गा0 सक्रिय तत्व की मात्रा 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करने से नींदा निंयत्रित हो जाते है। नींदा नाशक का प्रयोग खेत में पर्याप्त नमी होने की स्थिति में ही करें। इसके बाद में यदि नींदा आते है तो उन्हे निंदाई द्वारा निकाल दें।
सरसों का सफेद रतुआ या श्वेत किट्ट रोग एवं नियन्त्रण
सफेद रतुआ रोग प्रायः सभी जगह पाया जाता है, जब तापमान 10-18° सेल्सियस के आसपास रहता है तब पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग के फफोले बनते है। रोग की उग्रता बढ़ने के साथ-साथ ये आपस में मिलकर अनियमित आकार के दिखाई देते है। पत्ती को उपर से देखने पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते है। रोग की अधिकता में कभी-कभी रोग फूल एवं फली पर केकडे़ के समान फूला हुआ भी दिखाई देता है।
नियत्रंण
सरसों का झुलसा या काला धब्बा रोग एवं नियन्त्रण
पत्तियों पर गोल भूरे धब्बे दिखाई पड़ते है। फिर ये धब्बे आपस में मिलकर पत्ती को झुलसा देते है एवं धब्बों में केन्द्रीय छल्ले दिखाई देते है। रोग के बढ़ने पर गहरे भूरे धब्बे तने, शाखाओं एवं फलियों पर फैल जाते है। फलियों पर ये धब्बे गोल तथा तने पर लम्बे होते है। रोगग्रसित फलियों के दाने सिकुड़े तथा बदरंग हो जाते है एवं तेल की मात्रा घट जाती है।
नियंत्रण
सरसों का तना सड़न या पोलियो रोग एवं नियन्त्रण
नियंत्रण
सरसों का चितकबरा (पेन्टेड बग) कीट एवं नियन्त्रण
यह चितकबरा कीट प्रांरभिक अवस्था की फसल के छोटे-छोटे पौधों को ज्यादा नुकसान पहुँचाते है, प्रौढ़ व षिषु दोनों ही पौधों से रस चूसते है जिससे पौधे मर जाते है। यह कीट बुवाई के समय अक्टूबर माह एवं कटाई के समय मार्च माह में ज्यादा हानि पहुँचाते है।
नियंत्रण
सरसों का चेंपा लसा या माहू कीट एवं नियन्त्रण
यह राई सरसों का प्रमुख कीट है। यह कीट प्रायः दिसम्बर के अन्त में प्रकट होता है और जनवरी फरवरी में इसका प्रकोप अधिक होता है। इस कीट के शिशु व प्रौढ़ पौधों का रस चूसते है व फसल को अत्याधिक हानि पहुँचाते हैं।यह कीट मधुस्त्राव निकालते है जिससे काले कवक का आक्रमण होता है और उपज कम हो जाती है। यह कीट कम तापमान व 60-80 प्रतिशत आर्द्रता में अत्यधिक वृद्धि करते है।
नियंत्रण