परिचय
आलू एक अर्द्धसडनशील सब्जी वाली फसल है। इसकी खेती रबी मौसम या शरदऋतु में की जाती है। इसकी उपज क्षमता समय के अनुसार सभी फसलों से ज्यादा है इसलिए इसको अकाल नाशक फसल भी कहते हैं। इसका प्रत्येक कंद पोषक तत्वों का भण्डार है, जो बच्चों से लेकर बूढों तक के शरीर का पोषण करता है। अब तो आलू एक उत्तम पोष्टिक आहार के रूप में व्यवहार होने लगा है। बढ़ती आबादी के कुपोषण एवं भुखमरी से बचाने में एक मात्र यही फसल मददगार है।
खेत का चयन
ऊपर वाली भीठ जमीन जो जल जमाव एवं ऊसर से रहित हो तथा जहाँ सिंचाई की सुविधा सुनिश्चित हो वह खेत आलू की खेती के लिए उपयुक्त है। खरीफ मक्का एवं अगात धान से खाली किए गए खेत में भी इसकी खेती की जाती है।
खेत की जुताई
ट्रैक्टर चालित मिट्टी पलटने वाले डिस्क प्लाउ या एम.बी. प्लाउ से एक जुताई करने के बाद डिस्क हैरो 12 तबा से दो चास (एक बार) करने के बाद कल्टी वेटर यानि नौफारा से दो चास (एक बार) करने के बाद खेत आलू की रोपनी योग्य तैयार हो जाता है। प्रत्येक जुताई में दो दिनों का अंतर रखने से खर-पतवार में कमी आती है तथा मिट्टी पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक जुताई के बाद हेंगा तथा खर-पतवार निकालने की व्यवस्था की जाती है। ऐसा करने से खेत की नमी बनी रहेगी तथा खेत खर-पतवार से मुक्त हो जाएगा।
खर-पतवार से मुक्ति के लिए जुताई से एक सप्ताह पूर्व राउंड अप नामक तृणनाशी दवा जिसमें ग्लायफोसेट नामक रसायन (42 प्रतिशत) पाया जाता है उसका प्रति लीटर पानी में 2.5 (अढ़ाई) मिली लीटर दवा का घोल बनाकर छिड़काव करने से फसल लगने के बाद खर-पतवार में काफी कमी हो जाती है।
खाद एवं उर्वरक
आलू बहुत खाद खाने वाली फसल है। यह मिट्टी के ऊपरी सतह से ही भोजन प्राप्त करती है। इसलिए इसे प्रचुर मात्रा में जैविक एवं रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता होती है।
इसमें सड़े गोबर की खाद 200 क्विंटल तथा 5 क्विंटल खल्ली प्रति हें. की दर से डाला जाता है। खल्ली में अंडी, सरसों, नीम एवं करंज जो भी आसानी से मिल जाय उसका व्यवहार करे। ऐसा करने से मिट्टी की उर्वराशक्ति हमेशा कायम रहती है तथा रासायनिक उर्वरक पौधों को आवश्यकतानुसार सही समय पर मिलता रहता है।
रासायनिक उर्वरकों में 150 किलोग्राम नेत्रजन 330 किलोग्राम यूरिया के रूप में प्रति हें. की दर से डाला जाता है। यूरिया की आधी मात्रा यानि 165 किलोग्राम रोपनी के समय तथा शेष 165 किलोग्राम रोपनी के 30 दिन बाद मिट्टी चढ़ाने के समय डाला जाता है। 90 किलोग्राम स्फुर तथा 100 किलोग्राम पोटाश प्रति हें. की दर से डाला जाता है। स्फुर के लिए डी.ए.पी. या सिंगल सुपर फास्फेट दोनों में से किसी एक ही खाद का प्रयोग करें। डी.ए.पी. की मात्रा 200 किलोग्राम प्रति हें. तथा सिंगल सुपर फास्फेट की मात्रा 560 किलोग्राम प्रति हें. तथा पोटाश के लिए 170 किलोग्राम म्यूरिएट ऑफ़ पोटाश प्रति हें. की दर से व्यवहार करें।
सभी उर्वरकों को एक साथ मिलाकर अंतिम जुलाई के पहले खेत में छिंठ कर जुताई के बाद पाटा देकर मिट्टी में मिला दिया जाता है।
रोपनी के समय आलू की पंक्तियों में खाद डालना अधिक लाभकर है परन्तु ध्यान रहे उर्वरक एवं आलू के कंद में सीधा सम्पर्क न हो नहीं तो कंद सड़ सकता है। इसलिए व्हील हो या लहसूनिया हल से नाला बनाकर उसी में खाद डालें। खाद की नाली से 5 से 10 सेंमी. की दूरी पर दूसरी नाली में आलू का कंद डालें।
यदि पोटेटो प्लांटर उपलब्ध हो तो उसके अनुसार उर्वरक प्रयोग में परिवर्तन किया जा सकता है।
रोपनी का समय
हस्त नक्षत्र के बाद एवं दीपावली के दिन तक आलू रोपनी का उत्तम समय है। वैसे अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से लेकर दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक आलू की रोपनी की जाती है। परन्तु अधिक उपज के लिए मुख्यकालीन रोप 5 नवम्बर से 20 नवम्बर तक पूरा कर लें।
प्रभेदों का चयन
आवश्यकता एवं इच्छा के अनुसार प्रभेदों का चयन करें। राजेन्द्र आलू -3, कुफ्री ज्योति, कुफ्री बादशाह, कुफ्री पोखराज, कुफ्री सतलज, कुफ्री आनन्द एवं कुफ्री बहार मधय अगात के लिए प्रचलित प्रभेद हैं जो 90 दिन से लेकर 105 दिनों में परिपक्व हो जाता है।
राजेन्द्र आलू -1, कुफ्री सिंदुरी एवं कुफ्री लालिमा आलू के प्रचलित पिछात प्रभेद हैं जो 120 दिन से लेकर 130 दिन तक परिपक्व हो जाते है।
बीज दर
आलू का बीज दर इसके कंद के वजन, दो पंक्तियों के बीच की दूरी तथा प्रत्येक पंक्ति में दो पौधों के बीच की दूरी पर निर्भर करता है। प्रति कंद 10 ग्राम से 30 ग्राम तक वजन वाले आलू की रोपनी करने पर प्रति हें. 10 क्विंटल से लेकर 30 क्विंटल तक आलू के कंद की आवश्यकता होती है।
बीजोपचार
शीत-भंडार से आलू निकालने के बाद उसे त्रिपाल या पक्की फर्श पर छायादार एवं हवादार जगह में फैलाकर कम से कम एक सप्ताह तक रखा जाता है। सड़े एवं कटे कंद को प्रतिदिन निकालते रहना चाहिए। जब आलू के कंद में अंकुरण निकलना प्रारंभ हो जाय तब रासायनिक बीजोपचार के बाद रोपनी करनी चाहिए।
रासायनिक बीजोपचार
शीत भंडार से निकाले कंद को फफूंद एवं बैक्टिरिया जनित छुआ-छुत रोगों से सुरक्षा के लिए फफूंदनाशक एवं एन्टीवायोटिक दवा का व्यवहार किया जाता है। इसके लिए ड्राम, बाल्टी, नाद या टिन में नाप कर पानी लिया जाता है। प्रति लीटर पानी में 5 ग्राम इमिशान-6 तथा आधाग्राम यानि 500 मिलीग्राम स्ट्रोप्टोसाइक्लिन एन्टीवायोटिक दवा का पाउडर मिलाकर घोल तैयार किया जाता है। इस घोल में कंद को 15 मिनट तक डुबाकर रखने के बाद घोल से आलू को निकाल कर त्रिपाल या खल्ली बोरा पर छायादार स्थान में फैला कर रखा जाता है ताकि कंद की नमी कम हो जाय। घोल बहुत गंदा हो जाने पर या बहुत कम हो जाने पर उस घोल को फेंक कर फिर से पानी डालकर नया घोल तैयार कर लिया जाता है। फफूंदनाशक दवाओं में घोल तैयार करने वास्ते इमिशान-6 सस्ता पड़ता है। इसके अभाव में इन्डोफिल एम.-45, कैप्टाफ या ब्लाइटाक्स 2.5 ग्राम मात्र प्रति लीटर पानी में घोलकर घोल बनाया जा सकता है। इसका मतलब है कि रासायनिक बीजोपचार आवश्यक है। ऐसा करने से खेत में आलू की सड़न रुक जाती है तथा कंद की अंकुरण क्षमता बढ़ जाती है।
रोपने की दूरी
आलू को शुद्ध फसल के लिए दो पंक्तियों के बीच की दूरी 40 सें.मी. से लेकर 600 सें.मी. तक रखें परन्तु, मक्का में आलू की अंतरवर्ती खेती के लिए दो पंक्तियों के बीच की दूरी 60 सें.मी. रखें। यदि ईख में आलू की अंतरवर्ती खेती करनी हो तो ईख की दो पंक्तियों के बीच की दूरी के आधार पर ईख को दो पंक्तियों के बीच में 40 सें.मी. से लेकर 50 सें.मी. की दूरी पर आलू की दो पंक्तियाँ रखें। प्रत्येक कतार में दो कंद के बीच की दूरी 15 सें.मी. से लेकर 20 सें.मी. तक रखें। छोटे कंद को 15 सें.मी. की दूरी पर तथा बड़े कंद को 20 सें.मी. की दूरी पर रोपनी करें।
रोपनी की विधि
आलू रोपने के समय ही कुदाली से मिट्टी चढ़ाकर लगभग 15 सें.मी. ऊँचा मेड बना दिया जाता है तथा उसे कुदाली से हल्का थप-थप कर मिट्टी दबा दिया जाता है ताकि मिट्टी की नमी बनी रहे तथा सिंचाई में भी सुविधा हो।
यदि सुविधा हो तो बड़े खेत में पोटेटो प्लांटर से भी रोपनी की जाती है। इसके द्वारा समय एवं श्रम दोनों की बचत होती है।
यदि आलू में मक्का लगाना चाहते है तो आलू की मेड के ठीक नीचे सटाकर आलू रोपनी के पाँच दिन के अंदर खुरपी से 30 सें.मी. की दूरी पर मक्का बीज की बुआई कर दें। ऐसा करने से आलू के साथ सिंचाई में भी बाधा न होगी। मक्का-आलू साथ लगाने पर मक्का के लिए पूरी खाद की मात्रा तथा आलू के लिए आधी खाद की मात्रा का प्रयोग करें। मक्का-आलू साथ लगाने पर एक ही खेत से एक ही सीजन में कम लागत में दोनों फसल की प्राप्ति हो जाती है तथा आलू का क्षेत्रफल भी बढ़ सकता है। बचे हुए खेत में दूसरी फसल लगायी जा सकती है।
सिंचाई
कहावत है – आलू एवं मक्का पानी चाटता है – पीता नही है। इसलिए इसमें एक बार में थोड़ा पानी कम अंतराल पर देना अधिक उपज के लिए लाभदायक है। चूँकि खाद की मात्रा ज्यादा रखी जाती है इसलिए रोपनी के 10 दिन बाद परन्तु 20 दिन के अंदर ही प्रथम सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। ऐसा करने से अकुरण शीघ्र होगा तथा प्रति पौधा कंद की संख्या बढ़ जाती है जिसके कारण उपज में दो गुणी वृद्धि हो जाती है। प्रथम सिंचाई समय पर करने से खेत में डाले गए खाद का उपयोग फसलों द्वारा प्रारंभ से ही आवश्यकतानुसार होने लगता है। दो सिंचाई के बीज का समय खेत की मिट्टी की दशा एवं अनुभव के आधार पर घटाया बढ़ाया जा सकता है। फिर भी दो सिंचाई के बीच 20 दिन से ज्यादा अंतर न रखें। खुदाई के 10 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर दें। ऐसा करने से खुदाई के समय कंद स्वच्छ निकलेंगे। ध्यान रखें प्रत्येक सिंचाई में आधी नाली तक ही पानी दें ताकि शेष भाग रिसाब द्वारा जम हो जाय।
अंतरकर्षण
प्रथम सिंचाई के बाद यानि रोपनी के 25 दिन बाद खुरपी से खर-पतवार निकाल दिया जाता है। पूरी फसल अवधि में दो बार निकाई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है।
मिट्टी चढ़ाना
रोपनी के 30 दिन बाद दो पंक्तियों के बीच में यूरिया का शेष आधी मात्रा यानि 165 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालकर कुदाली से मिट्टी बनाकर प्रत्येक पंक्ति में मिट्टी चढ़ा दिया जाता है तथा कुदाली से हल्का थप-थपाकर दबा दिया जाता है ताकि मिट्टी में पकड़ बनी रहें।
पौध संरक्षण
भूमिगत कीटों से सुरक्षा हेतु रोपनी के समय ही फोरेट-10 जी या डर्सभान 10 जी. जिसमें क्लोरोपायरिफास नामक कीट नाशी दवा रहता है उसका 10 किलोग्राम प्रति हें. की दर से उर्वरकों के साथ ही मिलाकर रोपनी पूर्व व्यवहार किया जाता है। ऐसा करने से धड़ छेदक कीटों से जी मिट्टी में ही दबे रहते हैं उसे सुरक्षा मिल जाती है।
पिछात झुलसा रोग से बचाव के लिए 20 दिसम्बर से लेकर 20 जनवरी तक 10 से 15 दिन के अंतराल पर फफूंदनाशक दवा का छिड़काव करें। प्रथम छिड़काव में इन्ड़ोफिल एम-45, दूसरे छिड़काव में ब्लाइटॉक्स एवं तीसरे छिड़काव में इन्ड़ोफिल एम-45, दूसरे छिड़काव में ब्लाइटॉक्स एवं तीसरे छिड़काव में आवश्यकतानुसार रीडोमील फफूंदनाशक दवा का 2.5 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। प्रति हेक्टेयर 2.5 किलोग्राम दवा एवं 1000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। लगभग 60 टिन पानी प्रति हें. लग जाता है। ऐसा करने से फसल सुरक्षा बढ़ जाती है।
14 जनवरी के आस-पास लाही गिरने का समय हो जाता है। यदि लाही का प्रकोप हो तो मेटासिस्टोक्स नामक कीटनाशी दवा का प्रति लीटर पानी में एक मिली. दवा डालकर स्प्रे किया जाता है। दवा नापने के लिए प्लास्टिक सिरीज का व्यवहार करें। लाही नियंत्रण से आलू में कुकरी रोग यानि लीफ रोल नाम विषाणु रोग का खतरा कम हो जाता है।
देखभाल
आलू रोपनी के 60 दिन बाद प्रत्येक पंक्ति में घूमकर फसल को देखा करें। यदि आलू का कंद दिखलाई पड़े तो उसे मिट्टी से ढँक दें नहीं तो उसका रंग हरा जो जायगा। तथा कंदों का बढ़ना रुक जायगा। चूहा द्वारा क्षति का भी अंदाज लग जायगा। चूहा के आक्रमण पर प्रत्येक बिल में 10 ग्राम थीमेट नामक कीटनाशी दवा डालकर छेद को बंद कर दें। ऐसा करने से चूहा बिल में ही मर जायगा या नहीं तो खेत छोड़कर भाग जायगा।
लत्तर काटना
यदि आलू को बीज के लिए या अधिक दिनों तक रखना हो तो परिपक्वता अवधि पूरी होने पर लत्तर काट दें। लत्तर काटने के 10 दिन बाद खुदाई करें। ऐसा करने से कंद का छिलका मुटाता है। जिससे आलू की भंडारण क्षमता बढ़ती है तथा सडन में कमी आती है।
खुदाई
बाजार भाव एवं आवश्यकता को देखते हुए रोपनी के 60 दिन बाद आलू का खुदाई की जाती है। यदि भंडारण के लिए आलू रखना हो तो कंद की परिपक्वता की जाँच के बाद ही खुदाई करें। परिपक्वता की जाँच के लिए कंद को हाथ में रखकर अंगूठा से दवाकर फिसलाया जाता है यदि ऐसा करने पर कंद का छिलका अगल नहीं होता है तो समझा जाता है कि कंद परिपक्व हो गया है। ऐसे कंद की खुदाई करने से भंडारण के कंद सड़ता नहीं है। खुदाई दिन के 12.00 बजे तक पूरा कर लेनी चाहिए। खुदे कंद को खुले धूप में न रखकर छायादार जगह में रखा जाता है। धूप में रखने पर भंडारण क्षमता घट जाती है। 15 मार्च तक आलू के सभी प्रभेदों की खुदाई अवश्य पूरी कर लेनी चाहिए। खुरपी या पोटेटो डीगर से खुदाई की जाती है। खुरपी से खुदाई करने पर ध्यान रहे आलू कटने न पावें। कहावत है – आलू नहीं कटती हैं, तकदीर कट जाती है।
यदि आलू को शीत भंडार भेजना है तो कटे एवं सड़े आलू की छाँटकर खुदाई के एक सप्ताह बाद बोरा में बंद कर भेज दें। प्रत्येक बोरा के अंदर प्रभेद का नाम लिख दें तथा बोरा के ऊपर भी अपना पता लिख दें।
उपज
परिपक्वता अवधि एवं अनुशंसित फसल प्रणाली को अपनाने पर रोपनी के 60 दिन बाद 100 क्विंटल, 75 दिन बाद 200 क्विंटल, 90 दिन बाद, 300 क्विंटल तथा 105 दिन बाद प्रभेद के अनुसार 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जाती है। परन्तु यदि प्रथम सिंचाई रोपनी के 10 दिन बाद तथा 20 दिन के अंदर न हुआ तो उपज आधी हो जायगी।
खेत गहरा न जोता जाए तो बहुत बार जोतने से भी क्या लाभ होगा? इसलिए गहराई से जोतना जरूरी है। अच्छी फसल के लिए खेती की हेंगाई मतलब खेती की मिट्टी फोड़ना बहुत जरूरी है।
शकरकंद: भू सोना (उन्नत किस्म)
शकरकंद: भू कृष्णा (उन्नत किस्म)
परिचय
गाजर के रस का एक गिलास पूर्ण भोजन है। इसके सेवन से रक्त में वृद्धि होती है। गाजर के रस में विटामिन ‘ए’,'बी’, ‘सी’, ‘डी’,'ई’, ‘जी’, और ‘के’ मिलते हैं। गाजर का जूस पीने या कच्ची गाजर खाने से कब्ज की परेशानी खत्म हो जाती है। गाजर में बिटा-केरोटिन नामक औषधीय तत्व होता है, जो कैंसर पर नियंत्रण करने में उपयोगी है| इसके सेवन से इम्यूनिटी सिस्टम तो मजबूत होता ही है, साथ ही आँखों की रोशनी भी बढ़ती है।
किस्में
उष्ण वर्गीय
पूसा रुधिरा : लाल रंग वाली तथा मध्य सितम्बर से मैदानी क्षेत्रों में बुवाई के लिए उचित।
पूसा आसिता : काले रंग वाली तथा मैदानी क्षेत्रों में बुवाई के लिए उचित।
पूसा वृष्टि : लाल रंग वाली तथा अधिक गर्मी व आर्द्रता प्रतिरोधी व मैदानी क्षेत्रों में जुलाई से बुवाई के लिए उपयुक्त ।
शीतोष्ण वर्गीय
पूसा यमदगिनी : संतरी रंग वाली तथा सितम्बर से बुवाई के लिए उपयुक्त।
नैंनटीज : संतरी रंग वाली तथा सितम्बर से बुवाई के लिए उपयुक्त।
पूसा नयन ज्योति :संतरी रंग वाली संकर प्रजाति तथा सितम्बर से बुवाई के लिए उपयुक्त।
बीज की मात्रा : 5 कि.ग्रा./है.
खाद व उर्वरण
गोबर का खाद : 10-15 टन/है.
नत्रजन : 70 कि.ग्रा./है.
फॉस्फोरस : 40 कि.ग्रा./है.
पोटाश : 40 कि.ग्रा./है.
खरपतवार नियंत्रण : खेत की जुलाई के पश्चात् खेत में आधी मात्रा नत्रजन तथा सारा फॉस्फोरस व पोटाश मिला कर 45 ई.सी. के अन्तर पर में तैयार करें और 3.0 सें.मी. लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से स्टाम्प नामक खरपतवारनाशी का छिड़काव करें और हल्की सिंचाई करें या छिड़काव से पहले र्प्याप्त नमी सुनिशिचत करें।
बुवाई का समय : जुलाई से अक्तूबर
बुआई का अन्तराल : बुवाई 45 सें.मी. के अन्तराल पर बनी मेंड़ों पर 2-3 सें.मी. गहराई पर करें और पतली मिट्टी की परत से ढ़ंक दें । अंकुरण के पश्चात् पौधों को विरला कर 8-10 सें.मी. अन्तराल बनाएँ।
सिंचाई व निराई-गुड़ाई : पर्याप्त नमी सुनिशिचत करने के लिए गर्मियों में साप्ताहिक अन्तराल पर तथा सर्दियों में 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करें तथा यह स्मरण रखें कि नालियों की आधी मेड़ों तक ही पानी पहुँचे । बुवाई के लगभग एक महीना पश्चात् पौध छंटाई के समय शेष आधी नत्रजन की मात्रा के साथ-साथ मिट्टी चढ़ाने का कार्य करें जिससे खरपतवार नियंत्रण भी हो जाएगा।
तुड़ाई व उपज : लगभग ढाई से तीन महीनों में गाजर जड़ें विकास के लिए तैयार हो जाती है और औसतन 25 से 30 टन प्रति हेक्टेयर उपज हो जाती है।
बीजोत्पादन : चयनित जड़ों की रोपाई के लिए तैयार करते समय एक तिहाई जड़ के साथ 4-5 सें.मी. पत्ते रखें। खेत को तैयार करते समय उसमें 15-20 टन गोबर की खाद, 40 किल.ग्रा. नत्रजन, 50 कि.ग्रा. फास्फोरस और 60 कि.ग्रा. पोटाश मिलाएँ। जड़ों की रोपाई 60 से 45 सें.मी. पर करें और तत्पश्चातत् सिंचाई करें। यह सुनिशिचत करें कि आधार बीज के लिए पृथ्क्करण दूरी 1000 मीटर तथा प्रमाणित बीज के लिए 800 मीटर हो।
कटाई व गहाई : जब दूसरी अम्बल या शीर्ष बीज पक जाएँ तथा उनके बाद में आने वाले शीर्ष भूरे रंग के हो जाएँ तो बीज फसल काट लेनी चाहिए क्योंकि बीज पकने की प्रक्रिया एकमुशत नहीं होती। इसलिए कटाई 3-4 बार करनी पड़ती है। सुखाने के पश्चात् बीज को अलग कर लें और छंटाई करके वायुरोधी स्थान पर उनका भण्डारण करें।
बीज उपज : औसतन 400-500 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज उपज हो जाती है।
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
रोग का कारण |
लक्षण |
नियंत्रण पूर्ण |
सर्कास्पोरा पर्ण अंगमारी (सर्कोस्पोरा कैरोटेई) |
इस रोग के लक्षण पत्तियों, पर्णवृन्तों तथा फूल वाले भागो पर दिखाई पड़ते हैं | रोगी पत्तियां मुड़ जाती हैं | पत्ती की सतह तथा पर्णवृन्तों पर बने दागों का आकार अर्धगोलाकार, घूसर, भूरा, या काला होता है | ये दाग पर्णवृन्तों को चारों तरफ से घेर लेते हैं, फलस्वरूप पत्तियां मर जाती है | फूल वाले भाग बीज बनने से पहले ही सिकुड़ जाते हैं | |
* बीज बोते समय थायरम कवकनाशी (2.5 ग्रा./कि.ग्रा. बीज) से उपचारित करें | * खड़ी फसल मे रोग के लक्षण दिखाई पडते ही मैकोजब, 25 कि.ग्रा. कॉपर ओक्सीक्लोराइड या क्लोरोथैलोराइड 3 कि.ग्रा. या (कवच) 2 कि.ग्रा. का एक हजार लिटर पानी में घोल बनाकर, प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए | |
सक्लेरोटीनिया विगलन (स्क्लेरोटीनिया स्क्लेरोशियोरम) |
पत्तियों, तनों एवं डण्ठलों पर सूखे धब्बे उत्पन्न होते हैं, रोगी पत्तियाँ पीली होकर झड़ जाती है। कभी-कभी सारा पौधा भी सुखकर नष्ट हो जाता है। रोगी फलों का रोग का लक्षण पहले सूखे दाग के रुप में आता है। फिर कवक गूदे में तेजी से बढ़ती हैं और पूरे फल को सड़ा देती है। |
|
कीट प्रकोप एवं प्रबंधन
गाजर को वीवील (सुसरी) जैसिड व जंग मक्खी नुकसान पहुँचाते हैं।
इस कीट के सफेद टांग रहित शिशु गाजर के ऊपरी हिस्से में सुरंग बनाकर नुकसान
करते हैं। इस कीट की रोकथाम के लिए इनिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 1 मि.लि./3
लिटर या डाइमेथेएट 30 ई.सी. 2 मि.लि./लिटर या इन्डोसल्फान 35 ई.सी. 2 मि.लि./लिटर का छिड़काव करें।
इस कीट के शिशु पौधों की जड़ों में सुरंग बनाते हैं, जिससे पौधे मर भी जाते हैं। इस कीट की रोकथाम के लिए क्लोरपयरीफॉस 20 ई.सी. 2.5 लिटर/हेक्टेयर की दर से हल्की सिंचाई के साथ प्रयोग करें।
कैसे लें मूली की अधिक उपज
जड़ वाली सब्जियों में मूली एक महत्वपूर्ण एवं शीतलता प्रदान करने, ठंडी तासीर, कब्ज दूर करने एवं भूख बढ़ाने वाली सब्जी है। इसका उपयोग सलाद, अचार तथा कैंडी बनाने के लिए किया जाता है। बवासीर, पीलिया और जिगर के रोग में इसका प्रयोग अत्यधिक लाभप्रद है। इसमें विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ तथा खनिज लवण, फ़ॉस्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम इत्यादि पाए जाते हैं।
मूली की खेती पूरे भारत में की जाती है। इसकी जड़ों के साथ-साथ इसकी हरी पत्तियाँ भी सलाद व सब्जी के रूप में प्रयोग की जाती हैं। इसकी खेती पूरे वर्ष से पश्चिम बंगाल, बिहार, पंजाब, असोम, हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में किया जाता है।
जलवायु
एशियाई मूली अधिक तापमान के प्रति सहनशील है, लेकिन अच्छी पैदावार के लिए ठंडी जलवायु उत्तम होती है। ज्यादा तापमान पर जड़ें कठोर तथा चरपरी हो जाती है। यह ठंडे मौसम की फसल है। इसकी बढ़वार हेतु 10 से 150 सेल्सियस तापमान होना चाहिए। अधिक तापमान पर जड़ें कड़ी तथा कड़वी हो जाती है।
भूमि की तैयारी
इसकी खेती प्राय: सभी प्रकार की मृदा में की जा सकती है। बलुई दोमट और हल्की दोमट भूमि में जड़ों की बढ़वार अच्छी होती है। मटियार भूमि खेती के लिए अच्छी नहीं मानी जाती है। भूमि का पी.एच. मान 6.5 के निकट अच्छा माना जाता है। मूली की खेती करने के लिए गहरी जुताई की आवश्यकता होती है, क्योंकि इसकी जड़ें गहराई तक जाती है। अत: गहरी जुताई करके मिट्टी भुरभुरी बना लेते है।
उन्नत किस्में
एशियाई किस्में फरवरी से सितंबर तक
काशी श्वेता, कशी हंस, अर्का निशांत, जापानी व्हाइट, पूसा रेशमी, पूसा चेतकी, पूसा देशी, हिसार मुली नं. 1, कल्याणपुर 1, जौनपुरी एवं स्थानीय किस्में।
यूरोपियन किस्में अक्तूबर से फरवरी तक
व्हाइट आइसकिल, रेपिड रेड व्हाइट, टिप्ड स्कारलेट, ग्लोब एवं पूसा हमानी।
खाद एवं उर्वरक
मूली शीघ्र तैयार होने वाली फसल है। अत: मिट्टी में पर्याप्त मात्रा में खाद व उर्वरक का होना अत्यंत आवश्यक है। अच्छी पैदावार के लिए एक हैक्टर खेत में 20 से 25 टन अच्छी प्रकार सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट, बुआई से 25 से 30 दिनों पूर्व प्रारंभिक जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त 50 किग्रा. नाइट्रोजन, 25 किग्रा. फ़ॉस्फोरस और 25 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर की दर से देने की आवश्यकता पड़ती है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा एवं फ़ॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा शेष बुआई से पहले खेत में डाल देनी चाहिए। आधी नाइट्रोजन की मात्रा बुआई के पहले खेत में डाल देनी चाहिए। आधी नाइट्रोजन की मात्रा बुआई के 20 दिन बाद शीतोष्ण किस्मों में और 25 से 30 दिन बाद एशियाई किस्मों में टॉप ड्रेसिंग के रूप में दें, परन्तु ध्यान रहे कि उर्वरक पत्तियों के ऊपर न पड़े। अत: यह आवश्यक है कि यदि पत्तियाँ गीली हों तो छिड़काव न करें।
बीज दर
एशियाई किस्मों में 6 से 8 किग्रा. और यूरोपियन किस्मों में 8 से 10 किग्रा. बीज प्रति हैक्टर की दर से आवश्यक होती है।
बुआई का समय
उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में एशियाई मूली बोने का मुख्य समय फरवरी से सितंबर तथा यूरोपियन किस्मों का अक्टूबर से जनवरी तक होता है। पहाड़ी क्षेत्रों में बुआई मार्च से अगस्त तक की जाती है।
बुआई
बुआई के समय खेत में नमी अच्छी तरह से होनी चाहिए। खेत में नमी की कमी होने पर पलेवा करके खेत तैयार करते है। इसकी बुआई या तो छोटी-छोटी समतल क्यारियों में या 30 से 45 सें.मी. की दूरी पर बनी मेड़ों पर करते हैं। यदि क्यारियों में बुआई करनी हो तो 30 सेमी. के अंतराल पर कतारें बना लें और उन कतारों में बीज बोयें। मेड़ों पर बीज 1 से 2 सेमी. गहराई पर लाइन बनाकर बोते हैं। मेड़ों पर बुआई करने से जड़ें अच्छी बनती है। बीज जमने के बाद पौधों की दूरी 6 से 7 सेमी. रखते है। यदि पौधे घने हों तो उन्हें उखाड़ देना चाहिए।
सिंचाईवर्षा ऋतु की फसल में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है, परन्तु गर्मी की फसल की 4 से 5 दिनों के अंतराल पर सिंचाई अवश्य करते रहना चाहिए। शरदकालीन फसल में 10 से 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। मेड़ों पर सिंचाई हमेशा आधी मेड़ ही करनी चाहिए ताकि पूरी मेड़ नमीयुक्त व भुरभुरी बनी रहे। इससे जड़ों की बढ़वार में सुगमता होती है।
अंत:सस्य क्रियाएं
यदि खेत में खरपतवार उग आयें हो तो आवश्यकतानुसार उन्हें निकालते रहना चाहिए। रासायनिक खरपतवारनाशक जैसे स्टाम्प 3 किग्रा. 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से बुआई के 48 घंटे के अंदर प्रयोग करने पर प्रारंभि के 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नहीं उगते। निराई-गुड़ाई 15 से 20 दिनों बाद करके मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। मूली की जड़ें मेड़ से ऊपर दिखाई दे रही हों तो उन्हें मिट्टी से ढक दें अन्यथा सूर्य के प्रकाश के संपर्क से वे हरी हो जाती हैं। इससे बाजार भाव तो घटता ही है साथ-साथ खाने में भी अच्छी नहीं लगती हैं।
खुदाई तथा बाजार के लिए तैयारी
मूली की सदैव नरम और कोमल अवस्था में ही खुदाई करनी चाहिए। खुदाई एक तरफ से न करके तैयार जड़ों को छांटकर करनी चाहिए। इस प्रकार 10 से 15 दिनों में पूरी खुदाई करते हैं। बाजार में ले जाने से पूर्व उखड़ी हुई मूली की जड़ें पानी से अच्छी तरह धोकर साफ़ कर लें। मोटी व पतली मूलियों का बंडल अलग-अलग बनाकर केवल हरी मुलायम पत्तियों को छोड़कर पीली व पुरानी पत्तियों को तोड़कर निकाल देना चाहिए।
मूली की उपज
मूली की पैदावार, इसकी किस्में, भूमि खाद व उर्वरक तथा अंत:सस्य कृषि क्रियाओं के ऊपर निर्भर करती है। एशियाटिक या बड़ी किस्मों की औसत उपज 250 से 400 क्विंटल बुआई के 35 से 50 दिनों में और छोटी किस्मों या यूरोपियन मूली की उपज 100 से 150 क्विंटल प्रति हैक्टर बुआई के 20 से 25 दिनों के बाद प्राप्त होती है।
प्रमुख कीटों का नियंत्रण
बिहार की बालदार सुंडी
जीवन चक्र एवं पहचान: इस कीट की सुंडियां पत्तियों को नुकसान पहुंचाती हैं। मादा पत्ती की निचली सतह पर गुच्छों में अंडे देती हैं, जो कि 200-300 तक होते हैं। लगभग एक सप्ताह में इन अण्डों से सुंडियां निकल आती है तथा समूह में रहकर ही पत्तियों को खुरचकर हरे भाग को खाती हैं, जिससे पत्ती पतली छलनी जैसी सफेद हो जाती हैं। सुंडियां बाद में पूरे खेत में फ़ैल जाती हैं तथा पत्तियों एवं विभिन्न पौधों को नुकसान करती हैं। भंयकर प्रकोप होने पर केवल पत्ती की शिराएं ही शेष बचती हैं।
नियंत्रण
मूली व शलगम
मूली व शलगम
जड़ वाली सब्जियों में मूली, शलगम, गाजर व चकुंदर प्रमुख है। इनकी कृषि क्रियाओं में प्रयाप्त समानता है। ये ठंडे मौसम की फसलें है तथा सभी भूमिगत होती है। इनसे हमें पौष्टिक तत्व, शर्करा, सुपाच्य रेशा, खनिज लवण, विटामिन्स व कम वसा प्राप्त होती है।
मूली की किस्में
|
|
(क) व्हाइट आइसिकिल |
25-30 दिन में तैयार होती है और अक्तूबर से दिसम्बर तक बुवाई के लिए उपयुक्त |
(ख) रैपिड रैड व्हाइट टिप्ड
|
|
(ग) मृबुला
|
(क) पूसा देसी : लम्बी जड़ें 50-55 दिन में तैयार, बुवाई मध्य अगस्त से सितम्बर तक।
(ख) जापानी सफेद: 55-60 दिन में तैयार, बुवाई अक्तूबर से दिसम्बर तक।
(ग) पूसा जिमानी : 55-60 दिन में तैयार, बुवाई दिसम्बर से फरवरी तक।
(घ) पूसा चेतकी : गर्मी मौसम के लिए उपयुक्त, 45-50 दिन में तैयार, बुवाईअप्रैल से
अगस्त तक।
(ङ) पालम हृदय : 45-50 दिन में तैयार, बुवाई सितम्बर से नवम्बर। ओवल हल्की हरी टाप और अन्दर से गुलाबी जड़ें।
शलगम की किस्में
उर्वरण व खाद
गोबर का खाद : 10-15 टन/है.
नत्रजन : 80 कि.ग्रा./है.
फॉस्फोरस : 50 कि.ग्रा./है.
पोटाश : 40 कि.ग्रा./है.
इसमें से आधी नत्रजन जड़ बनने की स्थिति में मिट॒टी चढ़ाते समय डालें तथा अन्य खादें खेत तैयार करते समय मिट॒टी में मिला दें।
बीज की मात्रा व बुनाई
मूली : 8-10 कि.ग्रा./है.
शलजम : 3-4 कि.ग्रा./है.
बुवाई 45-60 सें.मी. दूर बनी मेढ़ों पर लगभग 1.5 सें.मी. गहराई पर करें और अंकुरण के पश्चात् छंटाई करके पौधों में 8-10 सें.मी. का अन्तराल बनाएँ।
सस्य क्रियाएँ : खरपतवार नियंत्रण के लिए बुवाई से पहले स्टाम्प नामक खरपतवारनाशी 3 लिटर /है. की दर से छिड़कें जिससे जड़ बनने की अवस्था तक खरपतवार नियंत्रित रहें और तब पौधों को मिट॒टी चढ़ाएँ। समय-समय पर सिंचाइ्र करके पर्याप्त नमी बनाएँ रखें।
जड़ विकास व उपज : किस्म की समयावधि के अनुसार जड़ निकास करना आवश्यक है तथा खुदाई से पहले हल्की सिंचाई कर लें ताकि जड़ निकास आसान हो जाए अन्यथा जड़ टूटने की आद्गांका रहेगी।
मूली की उपज : 25-30 टन/है.
शलजम की उपज : 25-30 टन/है.
बीजोत्पादन : चुनी हुई जड़ों के कएक तिहाई हिस्से की 4-5 सें.मी. पत्तों सहित 60 सें.मी. दूर पंक्तियों में 30 सें.मी. अंतराल पर रोपाई करें। खेत तैयार करते समय लगभग 10-15 टन गोबर की खाद, 50 कि.ग्रा. नत्रजन, 60 कि.ग्रा. फॉस्फोरस, 50 कि.ग्रा. पोटाश, भूमि में मिलाएँ। बीज डंठल निकलने पर पौधों को मिट॒टी चढ़ाते समय नत्रजन 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। रोपाई करते समय अन्य किस्मों या इसी वर्ग की अन्य फसलों से प्रमाणित बीज के लिए 1600 मीटर की दूरी बनाएँ।
मूली की बीज फलियाँ पकने पर उन्हें काट कर सुखा लें तथा अलग कर साफ करें तथा सुखा कर ठण्डी व सूखी जगह में भन्डारण करकें। शलजम की फलियाँ पीली पड़ने पर पौधों को काट कर ढेर लगा दें तथा 4-5 दिन धूप में उलट-पलट कर सुखएँ और फिर बीज अलग कर सुखाएँ, तथा साफ कर ठंडी व सुखी जगह में भंडारित करें।
बीज उपज
मूली : 500-600 कि.ग्रा./है.
शलजम : 400-500 कि.ग्रा./है.
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
रोग का कारण |
लक्षण |
नियंत्रण |
शवेत किट्ट (White rust) (एल्बुगो कैंडिडा |
पत्तियों, तनों तथा पुष्प वृन्तों पर शवेत रंग के, अनयमित गोलाकार स्फोट दिखाई पड़ते हैं। पौधों का सर्वागी संक्रमक होने से रोगग्रस्त भाग फूलकर विरुपित हो जाते हैं। |
* खड़ी फसलों में मैंकोजेब, जिनेब या राइडोमिल एम 2.5 कि.ग्रा. रसायन का एक हजार लिटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। |
आल्टर्नेरिया पर्ण चित्ती (Alternaria leaf spot) (आल्टर्नेंरिया रैफेनी) |
बीज के अंकुरण के तुरंत काले बाद पौध के तने पर छोटी-छोटी काले रंग की चित्तियाँ बनती है, जो बाद मे बढकर पौध का आर्द विगलन कर देती है| रोगी पौधों की बढवार रुक जाती है | बड़े पौधों की पत्तियों पर गहरे भूरे या काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते है | धब्बों के चारों तरफ पीला क्षेत्र बनता है | पुराने धब्बों के बीच मे गोल छल्ले जैसे निशान निकल आते हैं | |
* थायरम 2.5 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें | * खड़ी फसलों में मैंकोजेब, जिनेब 2.5 कि.ग्रा. कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 कि.ग्रा. का एक हजार लिटर पानी मे घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करें | |
अरबी (घुइयाँ) को मुख्यतः कंद के रुप में उपयोग के लिए उगाया जाता है| अरबी के पत्तियों तथा कन्दों में एक प्रकार का उददीपनकारी पदार्थ (कैल्शियम ऑक्जीलेट) होता है, जिसके कारण इसे खाते वक्त मुंह और गले में तीक्ष्णता (खुजलाहट) उत्पन्न होती है| उन्नत तथा विकसित किस्मों में यह तत्व नाम मात्र पाया जाता हैं| अरबी का कंद कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन का अच्छा स्त्रोत है| इसके कंदो में स्टार्च की मात्रा आलू तथा शकरकंद से अधिक होती है| इसकी पत्तियों में विटामिन ए खनिज लवण जैसे फास्फोरस, कैल्शियम व आयरन औरबीटा कैरोटिन पाया जाता है|
इसके प्रति 100 ग्राम में 112 किलो कैलोरी ऊर्जा, 26.46 ग्राम कार्बोहाइड्रेट्स, 43 मिली ग्राम कैल्शियम, 591 मिली ग्राम पोटेशियम पाया जाता है| इसकी नर्म पत्तियों से साग तथा पकोड़े बनाये जाते है| कन्दों को साबुत उबालकर छिलकर उतारने के बाद तेल या घी में भून कर स्वादिष्ट व्यंजन के रुप में प्रयोग किया जाता है| हरी पत्तियों को बेसन और मसाले के साथ रोल के रुप में भाप से पका कर खाया जाता है| पत्तियों के डंठल को टुकड़ों में काट तथा सुखा कर सब्जी के रुप में प्रयोग किया जाता है|
अरबी अजीर्ण के रोगियों के लिये फायदेमंद है और इसका आटा बच्चों के लिए गुणकारी है| इन सब महत्व को ध्यान में रखकर किसान बन्धुओं को इसकी खेती का परम्परागत तरीका छोड़ कर वैज्ञानिक तकनीक से करनी चाहिए| ताकि इसकी खेती से अधिकतम उपज प्राप्त की जा सके| इस लेख में अरबी की खेती वैज्ञानिक तकनीक से कैसे करें का विस्तृत उल्लेख किया गया है|
अरबी की फसल को गर्म तथा नम जलवायु और 21 से 27 डिग्री सेल्सियस तापक्रम की आवश्यकता होती हैं| अधिक गर्म व अधिक सूखा मौसम इसकी पैदावार पर विपरित प्रभाव डालता हैं| जहॉ पाले की समस्या होती हैं, वहाँ यह फसल अच्छी पैदावार नहीं देती हैं| जिन स्थानों पर औसत वार्षिक वर्षा 800 से 1000 मिलीमीटर तथा समान रूप से वितरित होती हैं, वहाँ इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती हैं| छायादार स्थान में भी पैदावार अच्छी होती हैं, इसलिए फलदार वृक्षों के साथ अन्तवर्तीय फसलों के रूप ली जा सकती है|
भूमि और तैयारी
अरबी की अच्छी फसल लेने के लिए बलुई दोमट आदर्श भूमि हैं| दोमट और चिकनी दोमट में भी उत्तम जल निकास के साथ इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती हैं| इसकी खेती के लिए 5. 5 से 7.0 पी एच मान वाली भूमि उपयुक्त होती हैं| रोपण हेतु खेत तैयार करने के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल एवं दो जुताई कल्टीवेटर से करके पाटा चलाकर मिट्टी को भुरीभुरी बना लेना चाहिए|
इंदिरा अरबी 1- इस किस्म के पत्ते मध्यम आकार और हरे रंग के होते हैं| तने (पर्णवृन्त) का रंग ऊपर- नीचे बैंगनी तथा बीच में हरा होता हैं| इस किस्म में 9 से 10 मुख्य पुत्री धनकंद पाये जाते है| इसके कंद स्वादिष्ट खाने योग्य होते हैं और पकाने पर शीघ्र पकते हैं, यह किस्म 210 से 220 दिन में खुदाई योग्य हो जाती हैं| इसकी औसत पैदावार 22 से 33 टन प्रति हेक्टेयर हैं|
श्रीरश्मि- इसका पौधा लम्बा, सीधा और पत्तियाँ झुकी हुई, हरे रंग की बैंगनी किनरा लिये होती है| तना (पर्णवृन्त) का ऊपरी भाग हरा, मध्य तथा निचला भाग बैंगनी हरा होता हैं| इसका मातृ कंद बडा और बेलनाकार होता हैं| पुत्री धनकंद मध्यम आकार के व नुकीले होते हैं| इस किस्म के कंद कंदिकाएँ, पत्तियां और पर्णवृन्त सभी तीक्ष्णता (खुजलाहट) रहित होते हैं तथा उबालने पर शीघ्र पकते हैं| यह किस्म 200 से 201 दिन में खुदाई के लिये तैयार हो जाती हैं और इससे औसत 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर पैदावार प्राप्त होती हैं|
पंचमुखी- इस किस्म में सामान्यतः पॉच मुख्य पुत्री कंदिकाये पायी जाती हैं, कंदिकायें खाने योग्य होती है और पकने पर शीघ्र पक जाती हैं| रोपण के 180 से 200 दिन बाद इसके कंद खुदाई योग्य हो जाते हैं| इस किस्म से 18 से 25 टन प्रति हेक्टेयर औसत कंद पैदावार प्राप्त होती हैं|
व्हाइट गौरेइया- अरबी की यह किस्म रोपण के 180 से 190 दिन में खुदाई योग्य हो जाती हैं| इसके मातृ तथा पुत्री कंद व पत्तियां खाने योग्य होती हैं| इसकी पत्तियां डंठल और कंद खुजलाहट मुक्त होते हैं| उबालने या पकाने पर कंद शीघ्र पकते है| इस किस्म की औसत पैदावार 17 से 19 टन प्रति हेक्टेयर हैं|
नरेन्द्र अरबी- इस किस्म के पत्ते मध्यम आकार के तथा हरे रंग के होते हैं| पर्णवृन्त का ऊपरी और मध्य भाग हरा निचला भाग हरा होता हैं| यह 170 से 180 दिनों में तैयार हो जाती हैं| इसकी औसत पैदावार 12 से 15 टन प्रति हेक्टेयर हैं| इस किस्म की पत्तियॉ, पर्णवृन्त एवं कंद सभी पकाकर खाने योग्य होते हैं|
श्री पल्लवी- यह किस्म 210 दिन में तैयार हो जाती है और इसकी औसत पैदावार 16 से 18 टन प्रति हेक्टेयर है|
श्रीकिरण- यह किस्म 190 दिन में तैयार हो जाती है और इसकी औसत पैदावार 17 से 18 टन प्रति हेक्टेयर है|
सतमुखी- यह किस्म 200 दिन में तैयार हो जाती है और इसकी औसत पैदावार 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर है|
आजाद अरबी- यह किस्म 135 दिन में तैयार हो जाती है और इसकी औसत पैदावार 28 से 30 टन प्रति हेक्टेयर है|
मुक्ताकेशी- यह किस्म 160 दिन में तैयार हो जाती है और इसकी औसत पैदावार 20 टन प्रति हेक्टेयर है|
बिलासपुर अरूम- यह किस्म 190 दिन में तैयार हो जाती है और इसकी औसत पैदावार 30 टन प्रति हेक्टेयर है|
रोपण का समय- अरबी का रोपण जून से जुलाई (खरीफ फसल) में किया जाता हैं| उत्तरी भारत में इसे फरवरी से मार्च में भी लगाया जाता हैं|
बीज की मात्रा- बीज दर किस्म और कंद के आकार तथा वजन पर निर्भर करती हैं| सामान्य रूप से 1 हेक्टेयर में रोपण हेतु 15 से 20 क्विटल कंद बीज की आवश्यकता होती हैं| इसके मातृ एवं पुत्री कंदों (20 से 25 ग्राम) दोनों को रोपण सामग्री हेतु प्रयुक्त किया जाता हैं|
बीज उपचार- कंदों को रिडोमिल एम जेड- 72 की 5 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम कंद की दर से उपचारित करना चाहिए| कंदों को बुआई पूर्व फफूंदनाशक के घोल में 10 से 15 मिनट डुबाकर रखना चाहिए|
मेड़नाली विधि- इस विधि में तैयार खेत में 60 सेंटीमीटर की दूरी पर मेड़ व नाली का निर्माण किया जाता हैं तथा 10 सेंटीमीटर उंची मेड पर 45 सेंटीमीटर की दूरी पर प्रत्येक कंद बीज को 5 सेंटीमीटर की गहराई में रोपा जाता हैं|
ऊँची समतल क्यारी मेड़नाली विधि- इस विधि में खेत में 8 से 10 सेंटीमीटर ऊँची समतल क्यारियाँ बनाते हैं, जिसके चारो तरफ जल निकास नाली 50 सेंटीमीटर की होती हैं| इन क्यारियों पर लाईन की दूरी 60 सेंटीमीटर की रखते हुए 45 सेंटीमीटर के अंतराल पर बीजों का रोपण 5 सेंटीमीटर की गहराई पर किया जाता है| इस विधि में रोपण के दो माह बाद निंदाई-गुड़ाई के साथ उर्वरक की बची मात्रा देने के बाद पौधों पर मिट्टी चढाकर बेड को मेडनाली में परिवर्तित करते हैं, यह विधि अरबी की खरीफ फसल के लिये उपयुक्त हैं|
नालीमेड विधि- इस विधि में अरबी का रोपण 8 से 10 सेंटीमीटर गहरी नालियों में 60 से 65 सेंटीमीटर के अंतराल पर करना चाहिए| रोपण से पूर्व नालियों में आधार खाद और उर्वरक देना चाहिए| रोपण के 2 माह बाद बचे हुए उर्वरक की मात्रा देने के साथ नालियों को मिट्टी से उपर तक भर पौधों पर मिट्टी चढाकर मेड नाली पद्धति में परिवर्तित कर देना चाहिए| यह विधि रेतीली दोमट और नदी किनारे भूमि के लिए उपयुक्त हैं|
अरबी के लिए भूमि तैयार करते समय 15 से 25 टन प्रति हेक्टेयर सडी गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद और आधार उर्वरक को अंतिम जुताई करते समय मिला देना चाहिए| रासायनिक उर्वरक नत्रजन 80 से 100 किलोग्राम, फास्फोरस 60 किलोग्राम और पोटाश 80 से 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग लाभप्रद हैं| नत्रजन तथा पोटाश की पहली मात्रा आधार के रूप में रोपण के पूर्व देना चाहिए| रोपण के एक माह नत्रजन की दूसरी मात्रा का प्रयोग निंदाई-गुड़ाई के साथ करना चाहिए| दो माह पश्चात् नत्रजन की तीसरी तथा पोटाश की दूसरी मात्रा को निंदाई-गुड़ाई के साथ देने के बाद पौधों पर मिट्टी चढा देना चाहिए|
सिंचाई प्रबंधन
अरबी की पत्तियों का फैलाव ज्यादा होने के कारण वाष्पोत्सर्जन ज्यादा होता हैं| इसलिए प्रति इकाई पानी की आवश्यकता अन्य फसलों से ज्यादा होती हैं| सिंचित अवस्था में रोपी गयी फसल में 7 से 10 दिन के अंतराल पर 5 माह तक सिंचाई आवश्यक हैं| वर्षा आधारित फसल में 15 से 20 दिन तक वर्षा न होतो सिंचाई के साधन उपलब्ध होने पर सिंचाई अवश्य करनी चाहिए| परिपक्व होने पर भी अरबी की फसल हरी दिखती हैं, सिर्फ पत्तों का आकार छोटा हो जाता हैं| खुदाई के एक माह पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिए, जिससे नये पत्ते नहीं निकलते हैं तथा फसल पूर्णरूपेण परिपक्व हो जाती हैं|
अरबी की अच्छी पैदावार के लिये यह आवश्यक हैं, कि खेत खरपतवारों से मुक्त रहे और मिट्टी सख्त न होने पाये| इसके लिये रोपण के एक माह बाद हल्की निंदाई-गुडाई की आवश्यकता पड़ती हैं| यदि रोपण के बाद मल्चिंग (पलवार) का प्रयोग किया जाये तो खरपतवारों की रोकथाम अपने आप हो जाती हैं और कंदों का अंकुरण भी अच्छा होता हैं| रोपण के बाद कुल तीन निंदाई-गुडाई (30,60,90 दिन बाद) की आवश्यकता होती हैं, 60 दिन वाली गुडाई के साथ मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए|
यह ध्यान रखना चाहिए कि कंद हमेशा मिट्टी से ढके रहे| नींदा नियंत्रण के लिए रासायनिक खरपतवारनाशी सिमाजिन या एट्राजिन 1.5 से 2.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से रोपण पूर्व उपयोग किया जा सकता है| अरबी की फसल में प्रति पौधा अधिकतम तीन स्वस्थ पर्णवृन्तों को छोड़ बाकी अन्य निकलने वाले पर्णवृन्तों की कटाई करते रहना चाहिए, इससे कंदों के आकार में वृद्धि होती हैं|
तम्बाकू की इल्ली- अरबी फसल को हानि पहुँचाने वाला यह एक प्रमुख कीट हैं| इसकी इल्लियाँ पत्तियों के हरित भाग को चटकर जाती हैं, जिससे पत्तियों की शिराएँ दिखने लगती हैं तथा धीरे-धीरे पूरी पत्ती सूख जाती हैं|
रोकथाम- कम संख्या में रहने पर इनको पत्ते समेत निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए| अधिक प्रकोप होने पर क्विनालफॉस 25 ई सी 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या प्रोफेनोफॉस 3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिए|
एफिड (माहू) एवं थ्रिप्स- एफिड एफिड (माहू) एवं थ्रिप्स रस चूसने वाले कीट हैं| यह अरबी फसल की पत्तियों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाते है, जिससे पत्तियों पीली पड़ जाती हैं| पत्तियों पर छोटे काले धब्बे दिखाई देते हैं, अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां सूख जाती हैं|
रोकथाम- क्विनालफॉस या डाइमेथियोट के 0. 05 प्रतिशत घोल का 7 दिन के अंतराल पर दो से तीन छिडकाव कर रस चूसने वाले कीटों को नियंत्रित किया जा सकता हैं|
फाइटोफ्थोरा झुलसन (पत्ती अंगमारी)- अरबी की फसल का यह मुख्य रोग हैं| यह रोग फाइटोफथोरा कोलाकेसी नामक फफूंदी के कारण होता है| इस रोग में पत्तियॉ, कंदों, पुष्प पुंजो पर रोग के लक्षण दिखाई देते हैं| पत्तियों पर छोटे-छोटे गोल या अण्डाकार भूरे रंग के धब्बे पैदा होते है| जो धीरे-धीरे फैल जाते हैं, बाद में डण्ठल भी रोग ग्रस्त हो जाता हैं और एवं पत्तियों गलकर गिरने लगती हैं तथा कंद सिकुड़ कर छोटे हो जाते हैं|
रोकथाम- अरबी कंद को बोने से पूर्व रिडोमिल एम जेड- 72 से उपचारित करें| खड़ी फसल में रोग की प्रारम्भिक अवस्था में रिडोमिल एम जेड- 72 की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करें|
सर्कोस्पोरा पर्ण चित्ती (पत्ती धब्बा)- इस रोग से पत्तियों पर छोटे वृताकार धब्बे बनते हैं| जिनके किनारे पर गहरा बैंगनी और मध्य भाग राख के समान होता हैं| परन्तु रोग की उग्र अवस्था में यह धब्बे मिलकर बडे धब्बे बनते हैं, जिससे पत्तियॉ सिकुड़ जाती हैं और फलस्वरूप पत्तियॉ झुलसकर गिर जाती हैं|
रोकथाम- रोग की प्रारम्भिक अवस्था में मेंकोजेब 0.3 प्रतिशत का छिडकाव करें और क्लोरोथेलोनिल की 0.2 प्रतिशत मात्रा का छिडकाव करें|
मोजैक- इसके प्रकोप से पत्तियाँ तथा पौधे छोटे रह जाते हैं| पत्तियों पर पीली सफेद धारियॉ पड जाती हैं| प्रभावित पौधों में बहुत ही कम मात्रा में कंद बनते हैं|
रोकथाम- इस रोग के प्रबंधन के लिए अरबी का रोग मुक्त फसल से बीज लेना चाहिए| रस चूसने वाले कीट जो की इस रोग को फैलाते हैं, का प्रभावी नियंत्रण करना चाहिए प्रभावित पौधों को कंद समेत उखाड कर नष्ट करके इस रोग को फैलने से रोका जा सकता हैं|
कंद का शुष्क सड़न रोग- यह रोग भण्डारण में अरबी कंदों को क्षति पहुंचाता हैं, संक्रमित कंद भूरे, काले, सूखे, सिकुडे, कम भार वाले होते हैं और कंद के उपरी सतह पर सूखा फफूंद चूर्ण बिखरा रहता हैं| लगभग 60 दिन में संक्रमित कंद पूरी तरह से सड़ जाता है तथा सडे कंदों से अलग किस्म की बदबू आती हैं|
रोकथाम- बीज हेतु प्रयुक्त होने वाले अरबी कंद को 0.1 प्रतिशत मरक्यूरिक क्लोराइड या 0.5 प्रतिशत फार्मेलिन से उपचारित कर भण्डारित करना चाहिए|
अरबी की वर्षा आधारित फसल 150 से 175 दिन तथा सिंचित अवस्था की फसल 175 से 225 दिनों में तैयार हो जाती हैं| कंद रोपण के 40 से 50 दिन बाद पत्तियॉ कटाई के योग्य हो जाती है| कंद पैदावार के लिये रोपित फसल की खुदाई आमतौर पर जब पत्तियॉ छोटी हो जाए तथा पीली पड़कर सूखने लगे तब की जाती हैं| खुदाई उपरान्त अरबी के मातृ कंदों एवं पुत्री कंदिकाओं को अलग करना चाहिए|
पैदावार
उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक से अरबी की खेती करने पर सामान्य अवस्था में अरबी से किस्म के अनुसार वर्षा आधारित फसल के रूप में 20 सर 25 टन तथा सिंचित अवस्था की फसल में 25 से 35 टन प्रति हेक्टेयर कंद पैदावार प्राप्त होती हैं| जब लगातार पत्तियों की कटाई की जाती है, तब कंद एवं कंदिकाओं की पैदावार 6 से 9 टन प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है, जबकि एक हेक्टेयर से 8 से 11 टन हरी पत्तियों की पैदावार होती हैं|
भंडारण- अरबी मातृकंदों को मात्र 1 से 2 महीने तक एवं पुत्री कंदिकाओं को 4 से 5 महीने तक सामान्य तापक्रम पर हवादार भण्डार गृह में भण्डारित किया जा सकता हैं| कंद एवं कंदिकाओं का पानी से धुलाई तथा श्रेणीकरण करना आवश्यक हैं, केवल लम्बी अंगुलीकार कंदिकाओं को छाया में सूखाकर बॉस की टोकरी या जूट के बोरों में भरकर विक्रय हेतु भेजना चाहिए| ग्रीष्मकालीन अरबी के कंदों का भण्डारण ज्यादा दिन तक नहीं किया जा सकता है| अतः खुदाई उपरांत एक माह के अंदर कंदों का उपयोग कर लेना चाहिए|
मुख्यत: अफ्रीका में उगाई जाने वाली यह फसल पोषण तत्वों से भरपूर है। आंशिक दृष्टि से भी किसानों के लिये इसकी खेती लाभकारी है।
भूमि तथा जलवायु–
यह उष्ण जलवायु की फसल हैं। उपजाऊ दोमट भूमि जिसमें पानी नहीं भरता हो इसकी खेती के लिये उपयुक्त रहती हैं। क्षारीय भूमि इसके लिये उपयुक्त नहीं हैं।
उपयुक्त किस्में –
रंग के आधार पर इसकी दो फसलें प्रचलित हैं- सफेद तथा लाल।
खेत की तैयारी तथा बुवाई –
खेत की गहरी जुताई करके क्यारियों में 50 सेन्टीमीटर की दूरी पर डोलियाँ बना लेनी चाहिये। इन डोलियों पर 30 सेन्टीमीटर की दूरी पर रतालू की बुवाई करें। 50 ग्राम तक के टुकड़े 0.2 प्रतिशत मैन्कोजेब के घोल में 5 मिनट तक उपचारित करके बुवाई के काम में लिये जाते हैं। प्रति हेक्टेयर 20 से 30 क्विंटल बीज की आवश्यकता होती हैं। रतालू के ऊपरी भाग के टुकड़े सबसे अच्छी उपज देते हैं। इसे अप्रैल से जून तक बोया जाता हैं।
खाद व उर्वरक –
खेत तैयार करते समय प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल सड़ी हुई गोबर की खाद, 60 किलो फास्फोरस तथा 100 किलो पोटाश डोलियां बनाने से पहले जमीन में दें। इसके अलावा 50 किलो नत्रजन दो समान भागों में करके फसल लगाने के 2 एवं 3 माह बाद पौधे के चारों ओर डाल दें।
सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई –
प्रथम सिंचाई बुवाई के तुरन्त बाद करें। फसल को कुल 15 से 25 सिंचाईयों की आवश्यकता होती हैं। डोलियों पर गुड़ाई करके मिट्टी चढ़ानी चाहिये। आवश्यकतानुसार निराई भी करते रहे।
खुदाई एवं उपज –
फसल 8 से 9 माह में तैयार हो जाती हैं। रतालू के प्रत्येक पौधे को खोदकर निकाला जाता हैं। उपज 250 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होती हैं।2017 admin 6075 Views 0 Comments cultivate, yam, खेती, रतालू
पोषण तथ्य |