बरसीम एवं लूसर्न के लिए खर-पतवार प्रबंधन
बरसीम एवं लूसर्न हरे, रसदार एवं स्वादिष्ट चारे के लिए रबी (शीत ऋतु) में सिंचित क्षेत्रों की महत्वपूर्ण फसलें हैं। ये फसलें वायुमंडलीय नाइट्रोजन का भूमि में स्थिरीकरण करके भूमि की उर्वरता बढ़ाती है। ये पोषण की दृष्टि से उच्च गुणवत्ता वाली चारे की फसलें हैं। ये दुधारू पशुओं के लिए अत्यंत उपयोगी होती है। बरसीम एवं लूसर्न में प्रोटीन, खनिज पदार्थ मुख्यत: कैल्सियम तथा फास्फोरस, विटामिन आदि के महत्वपूर्ण स्त्रोत है। दोनों फसलों की औसत पाचशीलता 60-70 प्रतिशत तक पाई जाती है। बरसीम फसल की उच्च गुणवत्ता के कारण इसे चारे की फसलों का राजा कहा जाता है। लूसर्न (रिजका) एवं बरसीम की फसलों में खर-पतवार (अवांछित पौधे) काफी संख्या में उग आते है जो कि इनकी पैदावार एवं गुणवत्ता के लिए हानि पहुंचाते है। कई खर-पतवार के कारण पशु अच्छी तरह से इनके चारे को नहीं खाते हैं।
वर्षा ऋतु वाले कुछ खर-पतवार शीत ऋतु के आरम्भ में ही बरसीम एवं लूसर्न के खेतों में उग जाते हैं तथा जैसे ही शीत ऋतु आरम्भ होती है, ये खरपतवार तब तक अपनी संख्या बढ़ाकर इन चारे की फसलों के साथ रौशनी, नमी एवं पोषक पदार्थो के लिए प्रतियोगिता (संघर्ष) शुरू कर देते हैं। कुछ खरपतवार जैसे पत्थरचट्टा (ट्राइन्थेमा मोनोगायना), तंगला (डाइजेरा आरवेन्सिस), जंगली चौलाई (अमरेन्थस विरिडिस), ओइनोथेरा स्पीसीज, सफेद दुदधी (यूफोरविया हिरटा), बथुआ (चीनोपोडियम अल्बम), सफेद सेंजी (मेलिलोटस इंडिका), पिटपारा (कोरोनोपस डिडिमस), सतगठिया (स्परगुला आरवेंसिस), वनसोया (फ्यूमेरिया पारवीफलोरा), रानी फूल (पाली गोनम एवीक्यूलेयर), जंगली पालक (पोर्टुलाका ओलरेसिया) आदि इन खेतों में प्राय: पाए जाते हैं तथा इनके अतिरिक्त तीन मुख्य प्रकार के खरपतवार इन फसलों की प्रभावी हानिकारक घासें है, इनमें कासनी/चिकोरी (चिकोरियम एंटिबस), अमरबेल (कसकुट्टा कम्प्रेस्ट्रिस) तथा ब्यूइन घास (पोआ एनुआ) । इनमें से पिटपारा एवं कासनी बरसीम से अधिक संबंधित है, जबकि अमरबेल, लूसर्न फसल का परजीवी एवं लपेटने वाली खरपतवार है। यदि चिकोरी को लगातार कई दिनों तक दूध देने वाले जानवरों को खिलाया जाए तो दूध एवं दूध उत्पादों में से दुर्गन्ध उत्पन्न होती है। अत: इसका नियंत्रण भूमि स्तर पर ही करना चाहिए और यह किसी भी हालत में बरसीम एवं लूसर्न के साथ मिश्रित नहीं होना चाहिए।
खरपतवार प्रबन्धन
चारे की अच्छी पैदावार के लिए खरपतवार प्रबन्धन निम्न विधियों द्वारा करना चाहिए।
इस तकनीक से खरपतवार की फसल के प्रति प्रतियोगिता (संघर्ष) को पहले ही खत्म करना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले खेत का पलेवा करने के पश्चात जिस समय खरपतवार अच्छी तरह से उग आएं तब खेत की जुताई करके उन्हें नष्ट कर दें और उसके पश्चात बरसीम एवं लूसर्न की बुवाई कर देने से खरपतवारों की समस्या को काफी कम किया जा सकता है अथवा ग्रमेक्सोन या ग्लाईसेल (अवशेष न छोड़ने वाले) खरपतवार नाशक दवाओं का छिड़काव करके खरपतवारों को नष्ट करने के पश्चात इन फसलों की बुवाई करने से खरपतवारों को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
हमेशा साफ सुथरा शुद्ध एवं अच्छी जामन बाला बीज बोना चाहिए। यह प्रक्रिया खरपतवारों से एक बचाव के रूप में तथा अमरबेल (कसक्यूटा), जैसे खरपतवार को लूसर्न से बाहर निकालने में उपयोगी है। बरसीम तथा लूसर्न चारे वाली फसलें होने के कारण इनमें खरपतवार के नियंत्रण पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है और कभी कभार ही मुश्किल से इसे खेत से निकाला जाता है और बहुतायत खरपतवार खेत में उगने से कटाई के समय इनको चारा फसलों के साथ काटकर जानवरों को खिला दिया जाता है। कटाई के बाद मड़ाई करते समय बरसीम एवं लूसर्न के बीजों के साथ मिलकर खरपतवारों के बीज पुन: अगली बुवाई में उग आते हैं और ये निरंतर एक वर्ष से दूसरे वर्षों में उगते रहते हैं। अधिकांश किसानों द्वारा यह छिड़कावाँ विधि से बो दिया जाता है और उनके लिए खरपतवार इया उचित प्रबन्धन करना काफी कठिनाई भरा होता है। इसके लिए बरसीम एवं लूसर्न के बीज को 10 प्रतिशत नमक के घोल में 5 मिनट तक डुबाना चाहिए जिससे खरपतवारों (अमरबेल, कासनी और पटवारा) के बीज हल्के होने के कारण घोल के सतह पर तैरने के पश्चात अच्छी तरह छानकर निकाल लेने चाहिए। उसके बाद तह में बैठे बरसीम एवं लूसर्न के बीज को घोल से निकालकर साफ़ पानी से अच्छी तरह धोकर बुवाई करनी चाहिए।
सामान्य से अधिक बीज दर बढ़ाकर बोने से खरपतवार की वृद्धि कम हो जाती है। कतारों में बुवाई करने से खरपतवारों पर नियंत्रण एवं अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है। अत: यह छिडकवाँ विधि से बुवाई की अपेक्षा कतारों में बोना अधिक लाभदायक है।
4.फसल चक्र द्वारा
फसल चक्र द्वारा परजीवी एवं समस्या उत्पन्न करने वाले खरपतवारों से होने वाले नुकसान को काफी कम किया जा सकता है। रबी की फसलें जैसे गेहूं, चना, मसूर, आलू आदि को फसल चक्र में अपनाने से वार्षिक खरपतवारों, सहफसली खरपतवारों तथा परजीवी खरपतवारों को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
(अ) बुवाई के पहले मिट्टी के उपचार द्वारा
(आ) जमाव के पहले उपचार
(इ) जमाव के बाद उपचार
ब्यूइन (पोआ एनुआ) बरसीम का एक अत्यंत कष्टदायक खरपतवार है और यह बरसीम की वृद्धि के दौरान फसल के साथ गंभीर संघर्ष करता है जिससे फसल की उपज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसको प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिए फ्लूक्लोरालिन को 400 मिली. को 200 लिटर प्रति एकड़ की दर से पानी में मिलाकर बरसीम के लिए तैयार खेत में छिड़काव करने के पश्चात फसल की बुवाई करनी चाहिए। जिन खेतों में पथरचट्टा घास की समस्या है उस खेत में बरसीम के साथ राया/राई का बीज के साथ मिलाकर बोने से राया/राई की अच्छी वृद्धि से खरपतवार दब जाते है और जहां पर पथरचट्टा की समस्या अधिक हो उसमें बुवाई देरी से यानि अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में करनी चाहिए, जिससे कि तापमान घटने से इस खरपतवार की संख्या में कमी हो जाती है। उचित खरपतवार प्रबन्धन से न केवल बरसीम एवं लूसर्न की उपज बढ़ाई जा सकती है, बल्कि इनके गुणवत्ता में भी अमूल परिवर्तन लाया जा सकता है जो कि पशुपालकों के लिए लाभकारी सिद्ध होगा।
खरपतवार पर नियंत्रण पाओ, अपने पशुओं की उत्पादकता बढ़ाओ।
संकर नेपियर घास
कम लागत में वर्षभर हरे चारे की उपलब्धता
पशुपोषण की आवश्यकताओं की पूर्ति करने तथा दुग्ध उत्पादन की लागत को कम करने में हरे चारे का एक विशेष महत्व है. एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2020 में हरे एवं सूखे चारे की उपलब्धता उसकी मांग से क्रमशः 64.21 व 24.81 प्रतिशत कम रहेगी. वर्तमान में हरे चारे की माँग एवं आपूर्ति के इस अन्तर को पाटने, चारा उत्पादन की लागत को कम करने तथा वर्षभर हरे चारे की उपलब्धता बनाये रखने के लिये पारम्परिक चारा फसलों के साथ-साथ बहुवर्षीय हरे चारे की खेती भी करना आवश्यक है. संकर नेपियर घास की खेती इस क्रम में एक अच्छा विकल्प हो सकता है, जिससे अन्य चारा फसलों की अपेक्षा कई गुना हरा चारा मिलता है. साथ ही इसकी खेती से 4-5 वर्षों तक बुवाई पर होने वाले व्यय की भी बचत होती है.
संकर नेपियर घास एक बहुवर्षीय चारा फसल है एक बार बोने पर 4-5 वर्ष तक सफलतापूर्वक हरा चारा उत्पादन करती है. यह तीव्र वृद्धि, शीघ्र पुर्नवृद्धि, अत्यधिक कल्ले, अत्यधिक पत्तियों आदि गुणों के साथ-साथ 2000 से 2500 कु0/है/वर्ष तक हरा चारा उत्पादन देने में सक्षम है. यह 40 दिन में 4-5 फुट उँची हो जाती है तथा इस अवस्था पर इसका पूरा तना व पत्तियां हरे रहते हैं जिसके कारण यह रसीली तथा सुपाच्य होती है और पशु इसे बड़े चाव से खाते हैं.
संकर नेपियर घास का पोषण मान
क्र.स. अवयव प्रतिशत मात्रा
1 शुष्क पदार्थ 16-17
2 क्रूड प्रोटीन 9.38-14
3 कैल्शियम 0.88
4 फास्फोरस 0.24
5 आक्जलेट्स 2.40-2.97
6 पाचकता 58
मृदा एवं जलवायु - उत्तर भारत में दिसम्बर व जनवरी माह को छोड़कर शेष महीनों में तीव्र वृद्धि करती है. यह जल भराव को सहन नहीं करती है. भारी मृदाओं की अपेक्षा इसकी खेती के लिये बलुई दोमट से बलुई मृदायें जिनमें सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था हो अच्छी रहती है. संकर नेपियर घास 5.0 से 8.0 तक पी.एच. को सहन करने की क्षमता रखती है.
खेत की तैयारी- इसके लिये एक गहरी जुताई हैरो या मिट्टी पलट हल से तथा 2-3 जुताई कल्टीवेटर से करके रिज मेकर से 60 सेमी. से 100 सेमी. की दूरी पर मेढ़ बना लेते है. मेढ़ों की ऊॅचाई लगभग 25 सेमी. रखते हैं. यदि सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था हो , तो इसका रोपण 15 फरवरी से सितम्बर माह के अन्त तक किया जा सकता है अन्यथा बरसात के महीनों में इसका रोपण करें.
उन्नत प्रजातियॉ- सी0ओ0-3, सी0ओ0-4, सी0ओ0-5
खाद एवं उर्वरक प्रबन्धन-बहुवर्षीय फसल होने के कारण खेत की तैयारी के समय 250 कु0 गोबर की खाद, 75 किग्रा. नत्रजन, 50 किग्रा. फास्फोरस तथा 40 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेअर का प्रयोग करना चाहिये. रोपण के 30 दिन बाद 75 किग्रा. नत्रजन तथा इसके पश्चात् प्रत्येक कटाई के बाद 75 किग्रा. नत्रजन प्रति हैक्टेअर की दर से प्रयोग करना चाहिये.
रोपण विधि- 60 से 100 सेमी. की दूरी पर 25 से.मी. उँची बनी मेढ़ों पर मेढ़ के दोनो तरफ दो तिहाई ऊॅचाई पर जिग-जैग रूप से संकर नेपियर घास की जड़ों या तने की कटिंग को 60 सेमीं. की दूरी पर लगाकर, आधार पर अच्छी तरह दबा देते हैं. कटिंग को थोड़ा तिरछा करके इस प्रकार लगाते है कि कटे भाग को सीधी धूप से बचाया जा सके. रोपण के तुरन्त बाद खेत में पानी लगा देते है. कटिंग लगाने के लिये 3-4 माह पुराने तनो का चुनाव करना चाहिये. तने की कटिंग इस प्रकार तैयार करते हैं कि उसमें दो गॉठ हों. एक गॉठ को मिट्टी में दबा देते हैं तथा दूसरी गॉठ को ऊपर रखते हैं. पौधों से पौधों की दूरी 60 से.मी. तथा लाइन से लाइन की दूरी 60 से.मी., 80 से.मी. तथा 100 से.मी. रखने पर क्रमशः 55300, 41700 तथा 33300 जड़ों या दो गॉठ के तनों की प्रति हैक्टेअर आवश्यकता होती है.
खरपतवार प्रबन्धन- रोपण के 30 दिन के भीतर मेढ़ां पर से निराई गुड़ाई करके घास निकाल देनी चाहिये तथा बीच के स्थान पर कस्सी द्वारा खुदाई करके खरपतवार प्रबन्धन करना चाहिये. इसी समय खाली स्थानों पर नई कटिंग लगाकर गैप फिलिंग भी कर देनी चाहिये.
सिंचाई प्रबन्धन- पहली सिंचाई रोपण के तुरन्त बाद तथा इसके तीन दिन पश्चात् दूसरी सिंचाई अवश्य करनी चाहिये। इसके पश्चात् मौसम के अनुसार 7-12 दिन पर अथवा आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें.
कटाई एवं उपज- संकर नेपियर घास की पहली कटाई 60-70 दिन पश्चात् तथा इसके बाद फसल की बढ़वार अनुसार 40-45 दिन (4-5 फीट ऊॅचाई होने पर) के अन्तराल पर भूमि की सतह से मिलाकर करनी चाहिये. वर्षभर में इसकी 6-7 कटाई से 2000-2500कु0/है0 तक हरे चारे की उपज प्राप्त होती है. इसके साथ बीच के खाली स्थान में मौसम अनुसार लोबिया या बरसीम की अन्तःफसली खेती करके अधिक उत्पादन, उत्तम गुणवत्ता का हरा चारा प्राप्त करने के साथ-साथ मृदा की उत्पादकता को भी बनाये रखा जा सकता हैं. नेपियर के एक पौधे में पहली कटिंग से पहले लगभग 15 कल्ले निकलते हैं तथा पहली कटिंग के पश्चात 50 सक अधिक कल्ले निकलते हैं.
कृषि विज्ञान केन्द्र, भाकृअनुप-भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधन संस्थान इज्जतनगर पर पशुओं के लिये हरे चारे की उपलध्ता बढाने के लिये संकर नेपियर घास, (उन्नत प्रजाति सी.ओ.-5 ) की कटिंग उचित दाम पर (एक रूपया प्रति कटिॅंग ) उपलब्ध है. कृषक, नेपियर घास की कटिंग प्राप्त करने के लिये, फोनः 0581-2301181, email: [email protected] पर सम्पर्क कर सकते है.
लोबिया
परिचय
लोबिया एक पौधा है जिसकी फलियाँ पतली, लम्बी होती हैं। इनकी सब्ज़ी बनती है। इस पौधे को हरी खाद बनाने के लिये भी प्रयोग में लाया जाता है। लोबिया एक प्रकार का बोड़ा है। इसे 'चौला' या 'चौरा' भी कहते हैं। यह सफेद रंग का और बहुत बड़ा होता है। इसके फल एक हाथ लंबे और तीन अंगुल तक चौड़े और बहुत कोमल होते हैं और पकाकर खाए जातै हैं।
किस्में
पूसा कोमल, पूसा सुकोमल, अर्का गरिमा, नरेन्द्र लोबिया, काशी गौरी तथा काशी कंचन
जलवायु : लोबिया की खेती के लिए गर्म व आर्द्र जलवायु उपयुक्त हे। तापमान 24-27 डिग्री से. के बीच ठीक रहता है । अधिक ठेडे मौसम में पौधों की बढ़वार रुक जाती है।
भूमि : लगभग सभी प्रकार की भूमियों में इसकी खेती की जा सकती है। मिट॒टी का पी.एच. मान 5.5 से 6.5 उचित है। भूमि में जल निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए तथा क्षारीय भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं है।
बीज दर : साधारण्तया 12-20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होता है। बीज की मात्रा प्रजाति तथा मौसम पर निर्भर करती है। बेलदार प्रजाति के लिए बीज की कम मात्रा की आवश्यकता होती है।
बुवाई का समय : गर्मी के मौसम के लिए इसकी बुवाई फरवरी -मार्च में तथा वर्षा के मौसम में जून अंत से जुलाई माह में की जाती है।
बुवाई की दूरी : झाड़ीदार किस्मों के बीज की बुवाई के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45-60 सें.मी. तथा बीज से बीज की दूरी 10 सें.मी. रखी जाती है तथा बेलदार किस्मो के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 80-90 सें.मी. रखते हैं। बुवाई से पहले बीज का राजजोबियम नामक जीवाणु से उपचार कर लेना चाहिए। बुवाई के समय भूमि में बीज के जमाव हेतु पर्याप्त नमी का होना बहुत आवश्यक है।
उर्वरण व खाद : गोबर या कम्पोस्ट की 20-25 टन मात्रा बुवाई से 1 माह पहले खेत में डाल दें। लोबिया एक दलहनी फसल है इसलिए नत्रजन की 20 कि.ग्रा., फास्फोरस 60 कि.ग्रा. तथा पोटाश 50 कि.ग्रा./ हेक्टेयर खेत में अंतिम जुलाई के समय मिट॒टी में मिला देना चाहिए तथा 20 कि.ग्रा. नत्रजन की मात्रा फसल में फूल आने पर प्रयोग करें।
खरपतवार नियंत्रण : दो से तीन निराई व गुड़ाई खरपतवार नियंत्रण के लिए करनी चाहिए। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए स्टाम्प 3 लिटर/हेक्टेयर की दर से बुवाई के बाद दो दिन के अन्दर प्रयोग करें।
तुड़ाई : लोबिया की नर्म व कच्ची फलियों की तुड़ाई नियमित रुप से 4-5 दिन के अंतराल में करें। झाड़ीदार प्रजातियों में 3-4 तुड़ाई तथा बेलदार प्रजातियों में 8-10 तुड़ाई की जा सकती है।
उपज : हरी फली की झाड़ीदार प्रजातियों में उपज 60-70 क्विंटल तथा बेलदार प्रजातियों में 80-100 क्विंटल हो सकती है।
बीजोत्पादन : लोबिया के बीज उत्पादन के लिए गर्मी का मौसम उचित है क्योंकि वर्षा के मौसम में वातावरण के अंदर आर्द्रता ज्यादा होने से फली के अंदर बीज का जमाव हो जाने से बीज खराब हो जाता है। बीज शुद्धता बनाए रखने के लिए प्रमाणित बीज की पृथक्करण दूरी 5 मी. व आधार बीज के लिए 10 मी. रखें। बीज फसल में दो बार अवांछित पौधों को निकाल दें। पहली बार फसल के फूल आने की अवस्था में तथा दूसरी बार फलियों में बीज से भरने की अवस्था पर पौधे तथा फलियों के गुणों के आधार पर अवांछित पौधों को निकाल दें। समय-समय पर पकी फलियों की तुड़ाई करके बीज अलग कर लेने के बाद उन्हें सुखाकर व बीमारी नाशक तथा कीटनाशी मिलाकर भंडारित करें।
बीज उपज : 5-6 क्विंटल/हेक्टेयर
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
रोग |
लक्षण |
नियंत्रण |
जीवाणुज अंगमारी (जैन्थोमोनास कैम्पेस्ट्रिस विग्नीकोला) |
रोग संक्रमित बीजों से निकलने वाले पौधों के बीज पत्रों एवं नई पत्तियों पर रोग के लक्षण सर्वप्रथम दिखाई पड़ते हैं। इस रोग के कारण बीज पत्र लाल रंग के होकर सिकुड़ जाते हैं। नई पत्तियों पर सूखे धब्बे बनते हैं। पौधों की कलिकाएँ नष्ट हो जाती है और बढ़वार रुक जाती है। अन्त में पूरा पौधा सूख जाता है। |
* रोगी पौधो के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए। * जल निकास का अच्छा प्रबंध होना चाहिए। * दो वर्षों का फसल चक्र अपनाना चाहिए। * उपचारित बीज का प्रयोग करना चाहिए तथा उन्नत कृषि विधियाँ अपनानी चाहिए| * खड़ी फसलों में कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 कि. ग्रा. एक हजार लिटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। |
लोबिया मोजैक (मोजैक विषाणु) |
रोगी पत्तियाँ हल्की पीली हो जाती है । इस रोग में हल्के पीले तथा हरे रंग के दाग भी बनते हैं। रोग की उग्र अवस्था में पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है और उन पर फफोले सदृश उभार आ जाते हैं । रोगी फलियों के दाने सिकुड़े हुए होते हैं तथा कम बनते हैं। |
* रोगी पौधो को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए। * स्वस्थ तथा अच्छे पौधों से प्राप्त बीज को ही बीज उत्पादन के काम मे लाना चाहिए| * कीटनाशी जैसे मेटासिस्टॉक्स (ऑक्सी मिथाइल डेमेटॉन) एक मि.लि. या डायमेक्रान (फॉज्ञफेमिडान) आधा मि.लि. प्रति लिटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर 15-15 दिन के अंतराल पर छिडकाव करना चाहिए। |
ज्वार
ज्वार की उन्नत किस्में
उन्नत प्रभेद
प्रभेद |
बुआई की दूरी |
तैयार होने का समय (दिन) |
उपज क्विं./हें. |
पौधे की लम्बाई (सें.मी.) |
|
दाना |
चारा |
||||
सी.एस.वी. |
45 x 15 सें.मी. |
115 |
38 |
140 |
210 |
कृषि कार्य
(क) जमीन की तैयारी: दो-तीन बार देशी हल से खेत की अच्छी तरह जुताई करके पाटा चला दें। जुताई के बाद खेत में गोबर की सड़ी खाद 100 क्विं./हें. की दर से खेत में डालकर अच्छी तरह मिला दें। इसकी खेती के लिए टांड जमीन उपयुक्त है। जल निकासी का पूरा प्रबंध होना चाहिए।
(ख) बुआई का समय: बुआई का उचित समय मध्य जून से मध्य जुलाई है।
(ग) बीज दर: 12 किलो प्रति हेक्टेयर।
(घ) उर्वरक: 60:40:20 किलो ग्राम एन.पी.के. प्रति हेक्टेयर।
उर्वरक |
बोने के समय |
बुआई के 30 दिनों के बाद |
नाइट्रोजन |
52 किग्रा. यूरिया/हें. |
88 किग्रा. यूरिया/हें. |
फ़ॉस्फोरस |
82 किग्रा. डी.ए.पी./हें. |
- |
पोटाश |
34 किग्रा. एम.ओ.पी./हें. |
- |
(ङ) निकाई-गुड़ाई: 20-25 दिनों के अंतर पर दो से तीन बार निकाई-गुड़ाई करनी चाहिए। प्रथम निकाई के 4-5 दिनों के बाद 88 किग्रा.यूरिया/हें. की दर से खड़ी फसल में डाल कर पौधे पर मिट्टी चढ़ानी चाहिए।
(च) कटनी तथा दौनी: फूल निकलने के 35-40 दिनों के बाद बाल के पकने पर इसकी कटनी करें। बाली को 2 से 3 दिनों तक धूप में अच्छी तरह सुखाकर इसके दाना को बाली से छुड़ाकर अलग कर ले
विशेष सावधानी
इसके पौधों में एच.सी.एन नामक जहरीला पदार्थ होता है। कच्ची फसल का उपयोग करने से जानवरों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। अत: ज्वार की फसल को फूल निकलने के बाद या जब पौधा 45 दिनों का हो जाए तभी फसल को चारे के रूप में प्रयोग में लाना चाहिए।
मुंजा
मुंजा एक बहुवर्षीय घास है, जो गन्ना प्रजाति की होती है। यह ग्रेमिनी कुल की सदस्य है। इसका प्रसारण जड़ों एवं सकर्स द्वारा होता है। यह वर्षभर हरी – भरी रहती है। इसके पौधों की लम्बाई 5 मीटर तक होती है। वैसे देखा जाये तो यह एक खरपतवार है, जो खेतों में पाया जाता है। बारानी एवं मरूस्थलीय प्रदेशों में इसका उपयोग मृदा कटाव व अपक्षरण रोकने में बहुत होता है। मुंजा के पौधा नहीं पनपता, वहां पर यह खरपतवार आसानी से विकसित हो जाती है। यह गोचर, ओरण आदि जगहों पर प्राकृतिक रूप से उग जाती है। इसकी पत्तियां बहुत तेज होती है, हाथ या शरीर का कोई भाग लग जाये तो एह स्थान कट जाता है और खून बहने लगता है। इस प्रकृति के कारण किसान अपने खेत के चचारों ओर मेड़ों पर लगाते हैं। इससे जंगली जानवरों से फसल सुरक्षा मिलती है।
मुंजा, नदियों के किनारे, सड़कों, हाईवे, रेलवे लाइनों और तालाबों के पास जहाँ खाली जगह हो, वहां पर प्राकृतिक रूप से उग जाती है। इसके पौधे, पत्तियों, जड़ व तने सभी औषधीय या अन्य किसी न किसी प्रकार उपयोग में लाये जाते हैं। इसकी हरी पत्तियां पशुओं के चारे के लिए प्रयोग में आती हैं। जब अकाल पड़ता है इउस समय इसकी पत्तियों को शुष्क क्षेत्रों में गाय व भैंस को हरे चारे के रूप में खिलाया जाता है। पत्तियों की कूट्टियोंकरके पशुओं को खिलाने से हरे चारे की पूर्ति हो जाती है। यह बहुवर्षीय घास भारत, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान के सूखा प्रभावित क्षेत्रों में पायी जाती है। इसकी जड़ों से औषधियां भी बनाई जाती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इनकी और खपत बढ़ने की प्रबल संभावनाएं हैं। पुराने समय में जब अंग्रेजी दवाइयों का प्रचलन नहीं था तो औषधिय पौधों को वैद्य और हकीम विभिन्न बीमारियों के उपचार के लिए प्रयोग में लाते थे। हमारे कई ग्रंथों में बहुत से बहुमूल्य जीवनरक्षक दवाइयां बनाने वाली बूटियों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसमें सरकंडा (मुंजा) की जड़ों का औषधीय उपयोग का भी उल्लेख है। आधुनिक युग में औषधीय पौधों का प्रचार व उपयोग अत्यधिक बढ़ गया है। इसका सीधा असर इनकी उपलब्धता व गण वत्ता पर पड़ा है।
यह ढलानदार, रेतीली, नालों के किनारे व हल्की मिट्टी वाले क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता है। यह मुख्यत: जड़ों द्वारा रोपित किया जाता है। एक मुख्य पौधे (मदर प्लांट) से तैयार होने वाले 25 से 40 छोटी जड़ों द्वारा इसे लगाया जाता है। जूलाई में जब पौधों से नए सर्कस निकलने लगे तब उन्हें मेड़ों, टिब्बों और ढलान वाले क्षेत्रों में रोपित करना चाहिए। नई जड़ों से पौधे दो महीने में पूर्ण तैयार हो जाते हैं इनको 30x30x30 सें मीटर आकार गड्ढों में 75x60 सें. मी. की दूरी लगाना चाहिए। इसकी 30,000 से 35,000 जड़ें या सकर्स प्रति हे. लगाई जा सकती हैं। पहाड़ों और रेतीले टिब्बों पर ढलान की ओर इसकी फसल लेने पर मृदा कटाव रूक जाता है। जब पौधे खेत में लगा देते हैं तो उदके दो माहीने बाद पशुओं से बचाना चाहिये। सूखे क्षेत्रों में लगाने के तुरंत बाद पानी अवश्य देना चाहिए। इससे पौधे हरे व स्वस्थ रहते हैं तथा जड़ों का विकास अच्छी तरह से होता है।
पानी का जमाव पौधे की जड़ों का विकास कम हो जाता है। इसकी खेती सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए काफी उपयोगी हो सकती है। पहली बार लगभग 12 महीने के बाद मुंजा को जड़ों से 30 सें. मी. ऊपर काटना चाहिए। इससे दुबारा फुटान अधिक होती है। यदि देखा जाये तो एक पूर्ण विकसित पौधे से जड़ों का गुच्छा बन जाता है। इससे लगभग 30 – 50 कल्लों )सरकंडों) का गुच्छा बन जाता है, जो 30 से 35 वर्षों तक उत्पादन देता रहता है। पूर्ण विकसित मुंजा के गुच्छे से प्रतिवर्ष कटाई करते रहना चाहिए। इससे मिलने वाले उत्पादों से अधिक लाभ कमाया जा सकता है। इसे बाजार में 4 – 5 रूपये प्रति कि. ग्रा. की दारफ से ताजा भी बेचा जा सकता है। मुंजा को रासायनिक खाद की आवश्यकता नहीं पड़ती फिर भी यदि आवश्यकता हो तो 15 – 20 टन प्रति हे. देसी खाद डालनी चाहिए। इसकी औसत पैदावार 350 – 400 क्विं. प्रति हे. प्राप्त की जा सकती है।
मुंजा को ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बहुत अधिक प्रयोग में लाया जाता है। इसको जड़ों और पत्तियों का प्रयोग विभिन्न प्रकार की औषधियां बनाने में किया जाता है। मुंजा एक लाभदायक खरपतवार है। इसके लाभ ज्यादा हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में इससे ग्रामीणों को रोजगार मिलता है। भारत, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान आदि देशों में मुंजा से ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 33 प्रतिशत रोजगार मिलता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में शादी – पार्टियों में इससे बने उत्पाद काम में लिए जाते हैं। वैज्ञानिक तौर पर देखें तो पाया गया है कि इसकी रस्सी से बनी चारपाई बीमार व्यक्तियों के स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी है। मुंजा की रस्सियों से बनी चारपाई पर सोने से कमर दर्द और हाथ – पैर में दर्द नहीं होता है। पशुओं के पैर में हड्डियां टूट जाने पर इसके सरकंडों को मुंजा की रस्सी से चारों तरफ बांधने पर आराम मिलता है। पशुओं व मनुष्यों में इससे बने छप्पर के नीचे सोने पर गर्म लू का प्रभाव कम हो जाता है।
मुंजा की कटाई प्रतिवर्ष अक्टूबर से नवंबर में करनी चाहिए। कटाई उस समय उचित मानी जाती है, जब इसकी ऊंचाई 10 से 12 फीट हो जाये तथा पत्तियां सूखने लगे व पीले रंग में परिवर्तित हो जाएँ। कटाई के बाद सरकंडों को सूखने के लिए 5 – 8 दिनों तक खेत में इकट्ठा करके फूल वाला भाग ऊपर तथा जड़ वाला भाग नीचे करके खेत में मेड़ों के पास खड़ा करके सुखाना चाहिए। सूखने के बाद कल्लों से फूल वाला भाग अलग कर लेना चाहिए। सूखे हुए सरकंडों से पत्तियां, कल्ले और फूल वाला भाग अलग कर लेना चाहिए। इस प्रकार प्रति हे. 350 – 400 क्विं उपज प्राप्त की जा सकती है। एक अनुमान के अनुसार इससे प्रतिक हे. औसतन 85,000 से 10,000 रूपये आय प्राप्त की जा सकती है।
अजोला चारे की खेती
परिचय
पिछले कुछ वर्षो में पेशे के रूप में खेती के प्रति किसानों का आकर्षण कम हो रहा है, इसके लिए अनेक कारण जिम्मेदार हैं| उनमें से सबसे महत्वपूर्ण है- कृषि उत्पादों की कीमत में अनिश्चितता और कृषि आदानों की तेजी से बढ़ती लागत, भूजल स्तर में गिरावट के कारण सुनिश्चित सिंचाई उपलब्ध नहीं हो रही है, फलस्वरूप कृषि और किसान की मुश्किलें और बढ़ गई है, यही कारण है कि किसी समय कृषि की दृष्टि से विकसित माने जाने वाले आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल के काफी बड़े भाग में किसान संकट में हैं| अनके समितियाँ ने इस समस्या के मूल कारणों को जानने की कोशिश की है और किसानों के लिए आय सृजन के वैकल्पिक अवसर उपलब्ध कराने के सुझाव दिए है, ऐसे संकटग्रस्त किसानों के लिए पशुपालन एक अच्छा विकल्प है| पशुओं के के वैज्ञानिक प्रबंधन में गुणवत्तापरक चारे की उपलब्धता प्रमुख बाधा है, क्योंकि भारत का भौगोलिक क्षेत्र विश्व का 2.4% है जबकि विश्व के 11% पशु भारत में है, यहाँ विश्व की 55% भैंसे, 20% बकरियां और 16% मवेशी पाए जाते हैं, इससे हमारी प्राकृतिक वनस्पतियों पर बहुत ज्यादा बोझ पड़ रहा है|
अब तक अजोला का इस्तेमाल मुख्यत: धान में हरी खाद के रूप से किया जाता था, इसमें छोटे किसानों हेतु पशुपालन के लिए चारे हेतु बढ़ती मांग को पूरा करने की जबरजस्त क्षमता है|
अजोला के बारे में
अजोला समशीतोष्ण जलवायु में पाया जाने वाला जलीय फर्न है, जो धान की खेती के लिए उपयोगी होता है| फर्न पानी पर एक हरे रंग की परत जैसा दिखता है| इस फर्न के निचले भाग में सिम्बोइंट के रूप में ब्लू ग्रीन एल्गी सयानोबैक्टीरिया पाया जाता है, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन को परिवर्तित करता है| इसकी नाइट्रोजन को परिवर्तित करने की दर लगभग 25 किलोग्राम प्रति हेक्टर होती है|
हरी खाद के रूप में, अजोला को पानी से भरे हुए खेत में दो से तीन सप्ताह के लिए अकेले उगाया जाता है, बाद में, पानी बाहर निकाल दिया जाता है और अजोला फर्न को धान की रोपाई से पहले खेत में मिलाया जाता है या धान की रोपाई के एक सप्ताह बाद, पानी से भरे खेत में 4-5 क्विंटल ताजा अजोला छिड़क दिया जाता है| सूखे अजोला को पोल्ट्री फीड के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है और हर अजोला मछली के लिए भी एक अच्छा आहार है| इसे जैविक खाद, मच्छर से बचाने वाली क्रीम, सलाद तैयार करने और सबसे बढ़कर बायो-स्क्वेंजर के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि यह सभी भारी धातुओं को हटा देता है|
अजोला के लाभ
अजोला की पोषण क्षमता
अजोला में प्रोटीन (25%-35%), कैल्शियम (67 मिलीग्राम/100 ग्राम) और लौह (7.3 मिली ग्राम/ 100 ग्राम) बहुतायत में पाया जाता है| अजोला और अन्य चारे के पोषक तत्वों का तुलनात्मक विश्लेषण निम्नलिखित तालिका में दिया जाता है|
अजोला और अन्य चारे के बायोमास और प्रोटीन की तुलना
क्र.सं |
मद |
बायोमास का वार्षिक उत्पादन (मिट्रिक टन/हेक्टेयर |
शुष्क पदार्थ (मिट्रिक टन/हेक्टेयर) |
प्रोटीन (%) |
1 |
हाइब्रिड नेपियर |
250 |
50 |
4 |
2 |
कोलाकटटो घास |
40 |
8 |
0.8 |
3 |
ल्युक्रेन |
80 |
16 |
3.2 |
4 |
कोऊपी |
35 |
7 |
1.4 |
5 |
सुबाबुल |
80 |
16 |
3.2 |
6 |
सोरघम |
40 |
3.2 |
0.6 |
7 |
अजोला |
1,000 |
80 |
24 |
स्रोत: डॉ. पी. कमलसनन , “ अजोला – ए सस्टेनेबल फीड सब्स्तित्यूत फॉर लाइवस्टॉक,” स्पाइस इंडिया
छोटे और सीमांत किसान खेती के काम के अलावा सामान्यत: 2-3 भैंस पाल सकते हैं| पशुपालन के पारंपरिक तरीकों से किसान चारे की आवश्यकताओं की पूर्ति फसली चारे से की जाती हैं और बहुत कम किसान है, जो जरा चारा और खली/पशु आहार का खर्च वहन कर सकते हैं| बहुत ही कम मामलों में, पशुओं के लिए खेती से घास एकत्र की जाती है या बैकयार्ड में हरा चारा उगाया जाता है| सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध होने पर भी हरे चारे की आपूर्ति 5 से 6 महीने के लिए हो पाती है| यदि छोटे किसान अजोला चारा उगाते है, तो वर्ष के शेष भाग के लिए चारे की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता हैं| प्रति पशु 2-2.5 किलो अजोला नियमित रूप से दिया जा सकता है| जो पूरक पशु आहार का कम कर सकता है|
यदि अजोला को चारे के लिए उगाया जाता है, तो इसे अनिवार्य रूप से स्वच्छ वातावरण में उगाया जाना आवश्यक है और सालभर नियमित आपूर्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए| चारा प्लाट अधिमानत: घर के पास होना चाहिए ताकि परिवार की महिला सदस्य इनकी देखरेख और रख रखाव कर सके|
खेती की प्रक्रिया
प्राकृतिक वातावरण में चावल के खेत में बायोमास का उत्पादन केवल 50 ग्राम/वर्ग मीटर/दिन होता है, जबकि अधिकतम उत्पादन 400 ग्राम/वर्ग मीटर/दिन होता है| अन्य शैवाल के साथ संक्रमण और प्रतिस्पर्धा को कम करके उत्पादन क्षमता में वृद्धि की जा सकती है| अधिमानत: खुली जगह में या जहाँ सूर्य का पर्याप्त प्रकाश उपलब्ध हो, छत हो, आंगन/बैकयार्ड में खड्डा खोदकर उसमें सिंथेटिक पोलीथिन शीट की लाइनिंग लगाकर अधिक मात्रा में अजोला उगाया जा सकता है|
यद्धपि, अजोला का नर्सरी प्लाट में अच्छा उत्पादन होता है लेकिन धन के खेतों में हरी खाद के रूप में अजोला का उत्पादन करने के लिए, इसे धान के खेत के के 10% क्षेत्र के घेरे में उगाया जाता है| खेत में पानी भरा जाता है और खेत को बराबर किया जाता है, ताकि खेत में पानी सभी जगह बराबर मात्रा में हो| अजोला इनोकूलम खेत में छिड़का जाता है और प्रति एकड़ 45 किलो सिंगल सुपर फास्फेट डाला जाता है| अजोला की खेती के लिए इस्तेमाल की गई भूमि व्यर्थ नहीं जाती है क्योंकि धान की फसल में (रोपण के चार दिनों के बाद) अजोला छिड़कने के बाद, इस जमीन को धान की खेती करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है|
मछली आहार के लिए उगाया जाने वाला अजोला तालाब के बगल में उगाया जाता है| तालाब का एक हिस्सा इसके लिए निर्धारित किया जाता है और घास से बनी रस्सी से घेरा बनाया जाता है| अजोला की चटाई का बनने के बाद, इसे रस्सी हटाकर धीरे-धीरे तालाब में छोड़ दिया जाता है|
अजोला चारा उगाने के लिए किसी विशेष विशेषज्ञता की जरूरत नहीं होती है और किसान खुद ही आसानी से उगा सकते हैं| यदि अजोला बैकयार्ड में उगाया है, तो इसे क्षेत्र को समतल किया जाता है और चारों ओर ईंटें खड़ी करके दिवार बनाई जाती है| क्यारी के चारों ओर थोड़ी ऊँची दिवार बनानी होगी ताकि उसमें पानी ठहर सके| या चारे का प्लाट 0.2 मीटर गहरे गड्ढे में बनाया जा सकता है| क्यारी में एक पॉलीथीन शीट इस तरह से बिछा दी जाती है, ताकि उसमें 10 सेमी पानी का स्तर बना रहे| क्यारी की चौड़ाई 1.5 मीटर रखते हैं, ताकि दोनों तरफ से काम किया जा सके| चारे की आवश्यकता के आधार पर क्यारी की लंबाई अलग-अलग रखी जा सकती है| लगभग 8 वर्ग मीटर क्षेत्र की दो क्यारी. जिनकी लंबाई 2.5 मीटर हो, से दो गाय के लिए हरे चारे की 50% जरूरत पूरी हो सकती हैं|
2.5 मीटर ×1.5 मीटर की क्यारी तैयार करने के बाद, क्यारी में 15 किलो छानी हुई मिट्टी फैला दी है, जो अजोला को पोषक तत्व प्रदान करेगी| लगभग 5 किलो गाय के गोबर (सड़ने के पूर्व के 2 दिन का) को पानी में मिला दिया जाता है जिससे अजोला को कार्बन प्राप्त होगा| 10 किलो रॉक फास्फेट, 1.5 किलो मैग्निशियम नाम और 500 ग्राम पोटाश की म्यूरेट के मिश्रण से बना लगभग 40 ग्राम पोषक तत्व मिश्रण अजोला की क्यारी में डाला जाता है| इस मिश्रण में वंछित मात्रा में सूक्ष्म पोषक तत्व भी डाले जाते है| इससे न केवल अजोला की सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता पूरी होगी बल्कि इसे खाने पर पशुओं की सूक्ष्म पोषक तत्वों की जरूरत भी पूरी हो सकेगी| क्यारी में 10 सेमी के जल स्तर को बनाए रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी डाला जाता है|
वैज्ञानिक और सतत आधार पर लंबे समय के लिए अजोला का उत्पादन करने हेतु 2 मीटर लंबे, एक मीटर चौड़े और 0.5 मीटर गहरे सीमेंट कंक्रीट के टैंक की आवश्यकता होती है| टैंक का निर्माण सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए ताकि टैंक में पानी भरा रह सके| 25 वर्ग मीटर क्षेत्र में दस या अधिक टैंकों का निर्माण किया जा सकता है| टैंक को लेआउट तस्वीर में दिखाया गया है| प्रत्येक टैंक के लिए पानी की व्यवस्था करने के लिए ऊपर रखी हुई टंकी से पाइप और नल लगाया जाना चाहिए|
टैंक में समान रूप से मिट्टी डाल देनी चाहिए| मिट्टी की परत 10 सेमी गहरी होने चाहिए| टैंक में गाय का गोबर 1 से 1.5 किलो प्रति वर्ग मीटर की दर से (प्रति टैंक 2 से 3 किलो गाय का गोबर) डालना चाहिए| टैंक में हर हफ्ते प्रति वर्ग मीटर 5 ग्राम की दर से सिंगल सुपर फास्फेट (एसएसपी) डालना चाहिए (प्रति टैंक 10 ग्राम एसएसपी)| टैंक में मिट्टी से 10 से 15 सेमी की ऊँचाई तक पानी डालना चाहिए| मिट्टी को अच्छे से जमा देना चाहिए| कीट संक्रमण से बचाव के लिए 2 ग्राम कार्बोफुरन मिला कर ताजा अजोला इनोकूलम तैयार करें| पानी की सतह पर निर्मित फोम और स्कम की परत को हटा दें| अगले दिन, पानी की सतह पर लगभग 200 ग्राम ताजा अजोला इनोकूलम छिड़क दें| पानी की सतह पर अजोला की परत बनने में 2 सप्ताह का समय लगता है| टैंक में पानी का स्तर, विशेषकर गर्मियों के दौरान, बनाए रखा जाना चाहिए| ज्यादा प्रकाश को रोकने के लिए टैंक पर नारियल के पत्तों की शेड/छप्पर बना देना चाहिए| इससे सर्दियों के दौरान अजोला पर ओस भी नहीं जमती है|
अजोला क्यारी में पानी को अच्छे से हिलाने के बाद अजोला की मदर नर्सरी से अजोला का 1.5 किलो बीज क्यारी में बराबर मात्रा में छिड़क देना चाहिए| अजोला बीज के स्रोत के बारे में सावधानी बरतनी चाहिए|
प्रारंभ में, अजोला पूरी क्यारी में फ़ैल जाता है और साथ दिनों के एक मोटी परत का आकार ले लेता है| आदर्श रूप में यह सात दिनों के भीतर 10 किलो काजोल का उत्पादन कर देता है| शुरू के सात दिनों के डरूँ, अजोला का प्रयोग नहीं किया जाता है| हर रोज पानी डालकर जल स्तर बनाए रखा जाता है| सात दिन बाद, हर दिन 1.5 किलो अजोला प्रयोग करने के लिए निकाल सकते है| छलनी से अजोला प्लास्टिक की ट्रे में एकत्र किया जाना चाहिए| इस अजोला को मवेशियों को खिलाने से पूर्व ताजा पानी में धोना चाहिए| गोबर की गंध को दूर करने के लिए इसे धोना आवश्यक है| अजोला की धुलाई में प्रयुक्त पानी को पेड़ – पौधों के लिए जैविक खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है| अजोला और पशु आहार को 1:1 अनुपात में मिलाकर पशुओं को खिलाया जाता है|
अजोला से हटाए गए गाय के गोबर और खनिज मिश्रण की पूर्ति के लिए, अजोला क्यारी में कम से कम सात दिनों में एक बार गाय का गोबर खनिज मिश्रण डालना चाहिए| अजोला क्यारी में गाय के गोबर, खनिज मिश्रण सात दिन में एक बार जरूर डालना चाहिए|
हर 60 दिनों के बाद, अजोला क्यारी से पुरानी मिट्टी हटा दी जाती और 15 किलो नई उपजाऊ मिट्टी डाली जाती है ताकि क्यारी में नाइट्रोजन निर्माण से बचा जा सके और अजोला को पोषक तत्व उपलब्ध होते रहे| मिट्टी और पानी निकालने के बाद, कम से कम छह महीने में एक बार पूरी प्रक्रिया को नए सिरे से दोहराते हुए अजोला की खेती की जानी चाहिए|
सावधानियाँ
चारा प्लाट की लागत
चारा प्लाट लगाने की लागत रू. 1500 से रू. 2000 के बीच होती है| प्राथमिक लागत श्रम के रूप में होती है जिसे पारिवारिक श्रम द्वारा पूरा किया जा सकता है| चारा प्लाट की लागत का आकलन करते समय चारा क्यारियों की दो इकाइयों को शामिल किया जाता है ताकि अजोला की उपज नियमित रूप से मिलती रहे| पशु और चारे की आवश्यकता के आधार पर इकाइयों की संख्या को बढ़ाया जा सकता है| लागत का विविरण निम्नानुसार है|
क्र.सं. |
विवरण |
मात्रा |
दर |
राशि (रू.) |
1 |
खाई (ट्रेंच) बनाने की लागत (2.25 मी. × 1.5 मी. × 0.2 मी.) |
2 खाई |
रू. 80.00 (एक श्रम दिवस) |
80.00 |
2. |
पोली शीट (3 मी. × 2.मी.) |
2 शीट |
रू. 300 |
600.00 |
3. |
उपजाऊ मिट्टी |
15 किलो/ खाई |
रू. 80.00 (एक श्रम दिवस) |
80.00 |
4. |
गाय का गोबर |
5 किलो/ खाई |
रू. 3 |
30.00 |
5.
|
उर्वरक एसएसपी 5किलो प्रत्येक खनिज मिश्रण 2 किलो प्रत्येक |
10 किलो 4 किलो |
रू. 10 |
100.00 400.00 |
6.
|
अजोला कल्चर |
एकमुश्त |
रू. 100 |
100.00 |
7. |
पोली नेट |
|
|
400.00 |
8. |
पंडाल निर्माण |
वैकल्पिक |
|
-- |
9. |
विविध |
|
|
10.00 |
|
कूल योग |
|
|
1800. |
चारे में रूप में अजोला का उपयोग करने के लिए अनेक स्थानों पर प्रयोग किए गए है, इनमें मुख्यत: है- कन्याकुमारी में विवेकानंद आश्रम, कोयंबटूर में जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड, आन्ध्र प्रदेश के गूंटूर में बायफ द्वारा कार्यान्वित पशुपालन कार्यक्रम, पशुपालन और ग्रामीण विकास विभाग, आन्ध्र प्रदेश सरकार के सहयोग से मडंल महिला समाख्या के माध्यम से चित्तूर में गंगाराम, वी कोटा और पूंगनूर मंडलों में अजोला चारे की खेती की जा रही है|
नाबार्ड ने वाटरशेड विकास निधि के तहत आजीविका गतिविधि के रूप में विभिन्न वाटरशेडों में अजोला चारा उत्पादन को प्रोत्साहित किया है| जिन वाटरशेड गांवों में डेयरी पर ज्यादा जोर हैं ऐसे गांवों में नाबार्ड प्रदर्शन इकाई के रूप में ऐसे नवाचारों को सहायता प्रदान करता है, कडप्पा जिले के टी सूंदूपल्ली मडंल के कोथापल्ली और चितूर जिले के थाम्बालापल्ली मंडल के रेनूमाकूलपल्ली आदि वाटरशेड गांवों में प्रदर्शन इकाइयों की स्थापना की गई है| इन प्रदर्शन इकाइयों से प्रेरित होकर अन्य डेयरी किसानों ने भी अजोला इकाइयाँ स्थापित की है|
आकलन के अनुसार, 2.5 × 1.5 मीटर आकार के अजोला चारा प्लाट की प्रत्येक इकाई की लागत रू. 1800 होती खर्च मुख्यत: प्लास्टिक और बीज सामग्री पर होता है| जैसे कि किसानों ने बताया इसका लाभ यह है कि किसानों को वर्ष भर हरा चारा मिलता रहता है और किसान बिना किसी खास कौशल के अजोला की खेती कर सकते हैं|
मवेशियों की आहार आवश्कता को पूरा करने के लिए डेयरी किसान अजोला चारा की खेती सकते है| वैकल्पिक रूप से, कलस्टर में डेयरी किसानों को पशु आहार की आपूर्ति के लिए उद्यमी आय सृजन गतिविधि के रूप में बड़े पैमाने पर अजोला की खेती कर सकते हैं| इस तरह की अभिनव पहलों से, हम श्वेत क्रांति के जनक डॉ. वर्गीज कूरियन के सपने को काफी हद तक पूरा करने में सफल हो सकते हैं|
अजोला से संबंधित जानकारी
इनोकूलम रेट = 250 ग्राम/वर्ग मी.
उपज = 10 टन/हेक्टेयर/सप्ताह या 1 किलो ग्राम/वर्ग मी./ सप्ताह – एक परत से
बिक्री मूल्य= रू. 1 से 1.2/किलो ग्राम (वियतनाम में 100 आस्ट्रेलियाई डॉलर टन)
बाविस्टीन = रू. 550ऍम/किलो ग्राम
फुराडन = रू. 65/किलो ग्राम
एसएसपी = रू. 5/किलो ग्राम
इनोकूलम और ताजा अजोला का अनुपात = 1:4