धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ अंचल का मध्यप्रदेश से अलग हो जाने के बावजूद भी इस प्रदेश में लगभग 17.25 लाख हेक्टर भूमि में धान की खेती प्रमुखता के साथ की जाती है।
प्रमुख उत्पादक जिले/क्षेत्र-बालाघाट,सिवनी,मंडला,रीवा,शहडोल, अनुपपूर, कटनी, जबलपुर, डिन्डौरी आदि।
खेत की तैयारी
ग्रीष्मकालीन जुताई करके दो से तीन बार कल्टीवेटर से जुताई करें एवं ढेलों को फोड़कर समतल करें एवं खेत में छोटी-छोटी पारे डालकर खेत तैयार करें।
उपयुक्त भूमि का प्रकार-मध्यम काली मिट्टी एवं दोमट मिट्टी।
उपयुक्त किस्में
धान की बीज की मात्रा बुवाई की पध्दति के अनुसार अलग-अलग रखी जाती है। जैसे छिटकवां विधि से बोने के लिये 40-48 ,कतार मे बीज बोने के लिये 36-40, लेही पध्दति में 28-32 किलो, रोपाई पध्दति में 12-16 किलों तथा बियासी पध्दति में 48-60 किलो प्रति एकड़ उपयोग में लाया जाता है।
विभिन्न क्षेत्रों के लिये संकर प्रजातियां एंव उनकी विशेषताएँ
इनके अलावा प्राईवेट कम्पनियों की संकर प्रजातियांजैसे अराईज 6444, अराईज 6209, अराईज 6129 किसानों के बीच प्रचलित हैं।
बीजोपचार
बीज को फफूंदनाशक दवा कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम/किग्रा बीज या कार्बेन्डाजिम + मैन्कोजेब 3 ग्राम/किग्रा बीज या कार्बोक्सिऩ + थायरम 3 ग्राम/किग्रा बीज से उपचारित करें।
बुवाई का समय
वर्षा आरम्भ होते ही धान की बुवाई का कार्य आरम्भ कर देना चाहिये। जून मध्य से जुलाई प्रथम सप्ताह तक बोनी का समय सबसे उपयुक्त होता है।
बुवाई की विधियाँ
कतारों में बोनी अच्छी तरह से तैयार खेत में निर्धारित बीज की मात्रा नारी हल या दुफन या सीडड्रील द्वारा 20 सें.मी. की दूरी की कतारों में बोनी करना चाहिए।
रोपा विधि
सामान्य तौर पर 2-3 सप्ताह के पौध रोपाई के लिये उपयुक्त होते हैं तथा एक जगह पर 2-3 पौध लगाना पर्याप्त होता है रोपाई में विलम्ब होने पर एक जगह पर 4-5 पौधे लगाना उचित होगा।
क्र. | प्रजातियाँ तथा रोपाई का समय | पौधो की ज्यामिती (सें.मी. सें.मी.) |
1 | जल्दी पकने वाली प्रजातियाँ उपयुक्त समय पर | 15 * 15 |
2 | मध्यम अवधि की प्रजातियाँ उपयुक्त समय पर | 20 * 15 |
3 | देर से पकने वाली प्रजातियाँ उपयुक्त समय पर | 25 * 20 |
जैव उर्वरकों का उपयोग:-धान में एजोस्पिरिलियम या एजोटाबेक्टर एवं पी.एस.बी. जीवाणुओं की 5 किलो ग्राम को 50 किग्रा/हैक्टेयर सूखी सड़ी हूई गोबर की खाद में मिलाकर खेत मे मिला दें। धान के रोपित खेत में (20दिन रोपाई उपरांत) 15 किग्रा/हैक्टेयर नील हरित काई का भुरकाव 3 सेमी पानी की तह रखते हुए करें।
पोषक तत्व प्रबंधन
गोबर खाद या कम्पोस्ट:-धान की फसल में 5 से 10 टन/हेक्टेयर तक अच्छी सडी गोबर की खाद या कम्पोस्ट का उपयोग करने से मंहगे उवैरकों के उपयोग में बचत की जा सकती है।
हरी खाद का उपयोग:-हरी खाद के लिये सनई ढेंचा का बीज 25 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रोपाई के एक महीना पहिले बोना चाहिये। लगभग एक महिने की खड़ी सनई की फसल को खेत में मचैआ करते समय मिला देना चाहिए।
उर्वरकों का उपयोग
क्र. | धान की प्रजातियाँ | उर्वरकों की मात्रा (किलों ग्राम/हेक्टेयर) | ||
नत्रजन | स्फुर | पोटाश | ||
1 | शीघ्र पकने वाली 100 दिन से कम | 40-50 | 20.30 | 15.20 |
2 | मध्यम अवधि 110-125दिन की, | 80-100 | 30.40 | 20.25 |
3 | देर से पकने वाली 125 दिनों से अधिक, | 100-120 | 50.60 | 30.40 |
4 | संकर प्रजातियाँ | 120 | 60 | 40 |
उपरोक्त मात्रा में प्रयोगों के परिणामों पर आधारित है किन्तु भूमि परीक्षण द्वारा उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण वांछित उत्पादन के लिये किया जाना लाभप्रद होगा।
उर्वरकों के उपयोग का समय व तरीका
नत्रजन उर्वरक देने का समय | धान के प्रजातियों के पकने की अवधि | |||||
शीध्र | मध्यम | देर | ||||
नत्रजन (:) | उम्र (दिन) | नत्रजन (:) | उम्र (दिन) | नत्रजन (:) | उम्र (दिन) | |
बीजू धान में निदाई करके या रोपाई के 6-7 दिनों बाद | 50 | 20 | 30 | 20-25 | 25 | 20-25 |
कंसे निकलते समय | 25 | 35-40 | 40 | 45-55 | 40 | 50-60 |
गभोट के प्रारम्भ काल में | 25 | 50-60 | 30 | 60-70 | 35 | 65-75 |
एक वर्ष के अंतर से जिंक सल्फेट 25 कि.ग्रा. प्रति हे. की दर से बुआई या रोपाई के समय प्रयोग करना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण की रासायनिक विधि
क्र. | शाकनाषी दवा का नाम | दवा की व्यापारिक मात्रा/है. | उपयोगका समय | नियंत्रित खरपतवार |
1 | प्रेटीलाक्लोर | 1250 मि.ली. | बुआई/रोपाई के 2-3 दिन के अन्दर | घास कुल के खरपतवार |
2 | पाइरोजोसल्फयूरॉन | 200 ग्राम | बुआई/रोपाई के 2-3 दिन के अन्दर | चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार |
3 | बेनसल्फ्युरान मिथाईल.प्रेटीलाक्लोर 6: | 10 kg | बुआई/रोपाई के 2-3 दिन के अन्दर | घास कुल,मौथा कुल तथा चौड़ी पत्ती |
4 | बिसपायरिबेक सोडियम | 80 मि.ली. | बुआई/रोपाई के 15-20 दिन के अन्दर | घास कुल,मौथा कुल तथा चौड़ी पत्ती |
5 | 2,4-डी | 1000 मि.ली. | बुआई/रोपाई के 25-35 दिन के अन्दर | चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार |
6 | फिनॉक्साप्रॉकप पी ईथाइल | 500 मि.ली. | बुआई/रोपाई के 25-35 दिन के अन्दर | घास कुल के खरपतवार |
7 | क्लोरीम्यूरॉन ईथाइल . मेटसल्फयूरॉन मिथाइल | 20 ग्राम | बुआई/रोपाई के 20-25 दिन के अन्दर | चौड़ी पत्ती तथा मौथा कुल |
रोग प्रबंधन
धान की प्रमुख गौण बीमारीयों के नाम, कवक उनके लक्षण, पौधों की अवस्था, जिसमें आक्रमण होता है,निम्नानुसार है
झुलसा रोग (करपा)
आक्रमण- पौधे से लेकर दाने बनते तक की अवस्था तक इस रोग का आक्रमण होता है। इस रोग का प्रभाव मुख्य पत्तियों, तने की गाठें, बाली पर आँख के आकार के धब्बे बनते है बीच में राख के रंग के तथा किनारों पर गहरे भूरे या लालीमा लिये होते है। कई धब्बे मिलकर कत्थई सफेद रंग के बडे धब्बे बना लेते हैं, जिससे पौधा झुलस जाता है। गाठो पर या बालियों के आधार पर प्रकोप होने पर पौधा हल्की हवा से ही गाठों पर से तथा बाली के आधर से टूट जाता है।
नियंत्रण
भूरा धब्बा या पर्णचित्ती रोग
आक्रमण - इस रोग का आक्रमण भी पौध अवस्था से दाने बनने कर अवस्था तके होता है। लक्षण- मूख्य रूप से यह रोग पत्तियों, पर्णछन्द तथा दानों पर आक्रमण करता है पत्तियों पर गोंल अंडाकर, आयताकार छोटे भूरे धब्बे बनते है जिससे पत्तिया झुलस जाती है, तथा पूरा का पूरा पौधा सूखकर मर जाता है। दाने पर भूरे रंग के धब्बे बनते है तथा दाने हल्के रह जाते है।
नियंत्रण - खेत में पडे पुराने पौध अवषेष को नष्ट करें। कोर्बेन्डाजीम- 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें। खडी फसल पर लक्षण दिखते ही कार्बेन्डाजिम या मेन्कोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें तथा निरोधक जातिया जैसे- आई आर-36 की बुवाई करें।
खैरा रोग
लक्षणजस्ते की कमी वाले खेत में पौध रोपण के 2 हफ्ते के बाद ही पुरानी पत्तियों के आधार भाग में हल्के पीले रंग के धब्बे बनते है जो बाद में कत्थई रंग के हो जाते हैं, जिससे पौधा बौना रह जाता है तथा कल्ले कम निकलते है एवं जड़े भी कम बनती है तथा भूरी रंग की हो जाती है।
नियंत्रण - खैरा रोग के नियंत्रण के लिये 20-25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर बुवाई पूर्व उपयोग करें। खडी फसल में 1000लीटर पानी में 5किलोग्राम जिंक सल्फेट तथा 2.5किलोग्राम बिना बुझा हुआ चुने के घोल का मिश्रण बनाकर उसमें 2किलो ग्राम यूरिया मिलाकर छिड़काव करने से रोग का निदान तथा फसल की बढ़वार में वृद्धि होती है।
जीवाणु पत्ती झुलसा रोग
लक्षण - इसका अक्रमण बाढ़ की अवस्था में होता है। इस रोग में पौधे की नई अवस्था में नसों के बीच पारदर्शिता लिये हुये लंबी-लंबी धरिया पड़ जाती है।, जो बाद में कत्थई रंग ले लेती है।
नियंत्रण - बीजोपचार स्ट्रेप्टोसायक्लीन 0.5 ग्राम/किलों बीज की दर से करें।
दाने का कंडवा (लाई फूटना)
आक्रमण - दाने बनने की अवस्था में
कीट का नाम | लक्षण | नियंत्रण हेतु अनुषंसित दवा | दवा की व्यापारिक मात्रा | उपयोग करने का समय एवं विधि |
पत्ती लपेटक (लीफ रोलर) | इस कीट की इल्ली हरे रंग की होती है, जो अपनी थूक से पत्ती के दोनो किनारों को आपस में जोड़ देती है। बाद में पत्तियां सूख जाती हैं। | ट्राइजोफॉस 40 ई.सी. प्रोफेनोफॉस 44 ई.सी. + साइपरमेथ्रिन 4 ई.सी. | 1 लीटर/है. 750 मिली/है. | कीट का प्रकोप होने पर छिड़काव। |
तना छेदक | तना छेदक कीट कल्ले निकलने की अवस्था में पौध पर आक्रमण करता है एवं केन्द्रीय भाग को हानि पहंुचाता है और परिणाम स्वरूप पौधा सूख जाता है। | कार्बोफ्यूरान 3 जी या कार्टेपहाइड्रोक्लोराइड 4 जी | 25 किग्रा/है. | कीट का प्रकोप होने पर छिड़काव। |
भूरा भुदका तथा गंधी बग | ब्राउन प्लांट हापर कीट पौधों के कल्लों के बीच में जमीन की उपरी सतह पर पाये जाते हैं। इनका आक्रमण फसल की दूधिया अवस्था एवं दाने के भराव के समय होता है। इनके रस चूसने के कारण तना सूख जाता है। गंधी वग कीट पौधों के विभिन्न भागों से रस चूसकर हानि पहुंचाता है। | एसिटामिप्रिड 20 प्रतिषत एस.पी. बुफ्रोजिन 25 प्रतिषत एस.पी. | 125 किग्रा/है. 750 मिली/है. | कीट का प्रकोप होने पर छिड़काव। |
लक्षण - बाली के 3-4 दानें में कोयले जैसा काला पाउडर भरा होता है, जो या तो दाने के फट जाने से बाहर दिखाई देता है या बंद रहने पर सामान्यतः दाने जैसा ही रहता है, परन्तु ऐसे दाने देर से पकते है तथा हरे रहते है सूर्य की धूप निकलने से पहले देखने पर संक्रमित दानो का काला चूर्ण स्पष्ट दिखाई देता है।
नियंत्रण - इस रोग का प्रकोप अब तीव्र हो गया है। अतः बीज उपचार हेतु क्लोरोथानोमिल 2 ग्राम प्रति किलो बीज उपयोग करें। लक्षण दिखते ही प्रभावीत बाली को निकाल दें व क्लोरोथानोमिल 2 ग्राम प्रति ली. की दर से छिड़काव करें है
कीट प्रबंधन
कटाई-गहाई एवं भंडारण
उपज
सिंचित /हे. | असिंचित/हे. |
50-60 क्वि. | 35-45 क्वि. |
आय व्यय का संक्षिप्त ब्यौराऔसत उत्पादन 50 क्विं. प्रति हे. होता है और 72500 की आमदानी होती है, जिसका खर्च लगभग 35000 प्रति हे. आता है । इस प्रकार एक हेक्टर में शुद्ध लाभ 37500 /- प्राप्त होता है।
अधिक उपज प्राप्त करने के लिए प्रमुख पांच बिन्दु
परिचय
भारत में गेहूँ एक मुख्य फसल है। गेहूँ का लगभग 97% क्षेत्र सिंचित है। गेहूँ का प्रयोग मनुष्य अपने जीवनयापन हेतु मुख्यत रोटी के रूप में प्रयोग करते हैं, जिसमे प्रोटीन प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। भारत में पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश मुख्य फसल उत्पादक क्षेत्र हैं।
प्रमुख प्रजातियाँ
गेहूँ की प्रजातियों का चुनाव भूमि एवं साधनों की दशा एवं स्थित के अनुसार किया जाता है, मुख्यतः तीन प्रकार की प्रजातिया होती है सिंचित दशा वाली, असिंचित दशा वाली एवं उसरीली भूमि की, आसिंचित दशा वाली प्रजातियाँ निम्न हैं-
असिंचित दशा
इसमें मगहर के 8027, इंद्रा के 8962, गोमती के 9465, के 9644, मन्दाकिनी के 9251, एवं एच डी आर 77 आदि हैं।
सिंचित दशा
सिंचित दशा वाली प्रजातियाँ सिंचित दशा में दो प्रकार की प्रजातियाँ पायी जाती हैं, एक तो समय से बुवाई के लिए-
इसमें देवा के 9107, एच पी 1731, राजश्य लक्ष्मी, नरेन्द्र गेहूँ1012, उजियार के 9006, डी एल 784-3, (वैशाली) भी कहतें हैं, एचयूडब्लू468, एचयूडब्लू510, एच डी2888, एच डी2967, यूपी 2382, पी बी डब्लू443, पी बी डब्लू 343, एच डी 2824 आदि हैं। देर से बुवाई के लिए त्रिवेणी के 8020, सोनाली एच पी 1633 एच डी 2643, गंगा, डी वी डब्लू 14, के 9162, के 9533, एचपी 1744, नरेन्द्र गेहूँ1014, नरेन्द्र गेहूँ 2036, नरेन्द्र गेहूँ1076, यूपी 2425, के 9423, के 9903, एच डब्लू2045,पी बी डब्लू373,पी बी डब्लू 16 आदि हैं।
उसरीली भूमि के लिए-
के आर एल 1-4, के आर एल 19, लोक 1, प्रसाद के 8434, एन डब्लू 1067, आदि हैं, उपर्युक्त प्रजातियाँ अपने खेत एवं दशा को समझकर चयन करना चाहिए।
जलवायु एवं भूमि की आवश्यकता
गेहूँ की खेती के लिए समशीतोषण जलवायु की आवश्यकता होती है, इसकी खेती के लिए अनुकूल तापमान बुवाई के समय 20-25 डिग्री सेंटीग्रेट उपयुक्त माना जाता है, गेहूँ की खेती मुख्यत सिंचाई पर आधारित होती है गेहूँ की खेती के लिए दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है, लेकिन इसकी खेती बलुई दोमट,भारी दोमट, मटियार तथा मार एवं कावर भूमि में की जा सकती है। साधनों की उपलब्धता के आधार पर हर तरह की भूमि में गेहूँ की खेती की जा सकती है।
खेत की तैयारी
गेहूँ की बुवाई अधिकतर धान की फसल के बाद ही की जाती है, पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से तथा बाद में डिस्क हैरो या कल्टीवेटर से 2-3 जुताईयां करके खेत को समतल करते हुए भुरभुरा बना लेना चाहिए, डिस्क हैरो से धान के ढूंठे कट कर छोटे छोटे टुकड़ों में हो जाते हैं: इन्हें शीघ्र सड़ाने के लिए 20-25 कि०ग्रा० यूरिया प्रति हैक्टर कि दर से पहली जुताई में अवश्य दे देनी चाहिए। इससे ढूंठे, जड़ें सड़ जाती हैं ट्रैक्टर चालित रोटावेटर से एक ही जुताई द्वारा खेत पूर्ण रूप से तलैयार हो जाता है।
बीजदर और बीज शोधन
गेहूँकि बीजदर लाइन से बुवाई करने पर 100 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा मोटा दाना 125 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा छिड़काव से बुवाई कि दशा से 125 कि०ग्रा० सामान्य तथा मोटा दाना 150 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर कि दर से प्रयोग करते हैं, बुवाई के पहले बीजशोधन अवश्य करना चाहिए बीजशोधन के लिए बाविस्टिन, काबेन्डाजिम कि 2 ग्राम मात्रा प्रति कि०ग्रा० कि दर से बीज शोधित करके ही बीज की बुवाई करनी चाहिए।
बुवाई विधि
गेहूँ की बुवाई समय से एवं पर्याप्त नमी पर करनी चाहिए अंन्यथा उपज में कमी हो जाती है। जैसे-जैसे बुवाई में बिलम्ब होता है वैसे-वैसे पैदावार में गिरावट आती जाती है, गेहूँ की बुवाई सीड्रिल से करनी चाहिए तथा गेहूँ की बुवाई हमेशा लाइन में करें। सयुंक्त प्रजातियों की बुवाई अक्तूबर के प्रथम पक्ष से द्वितीय पक्ष तक उपयुक्त नमी में बुवाई करनी चाहिए, अब आता है सिंचित दशा इसमे की चार पानी देने वाली हैं समय से अर्थात 15-25 नवम्बर, सिंचित दशा में ही तीन पानी वाली प्रजातियों के लिए 15 नवंबर से 10 दिसंबर तक उचित नमी में बुवाई करनी चाहिए और सिंचित दशा में जो देर से बुवाई करने वाली प्रजातियाँ हैं वो 15-25 दिसम्बर तक उचित नमी में बुवाई करनी चाहिए, उसरीली भूमि में जिन प्रजातियों की बुवाई की जाती है वे 15 अक्टूबर के आस पास उचित नमी में बुवाई अवश्य कर देना चाहिए, अब आता है किस विधि से बुवाई करें गेहूँ की बुवाई देशी हल के पीछे लाइनों में करनी चाहिए या फर्टीसीड्रिल से भूमि में उचित नमी पर करना लाभदायक है, पंतनगर सीड्रिल बीज व खाद सीड्रिल से बुवाई करना अत्यंत लाभदायक है।
उर्वरकों का प्रयोग
किसान भाइयों उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए, गेहूँ की अच्छी उपज के लिए खरीफ की फसल के बाद भूमि में 150 कि०ग्रा० नत्रजन, 60 कि०ग्रा० फास्फोरस, तथा 40 कि०ग्रा० पोटाश प्रति हैक्टर तथा देर से बुवाई करने पर 80 कि०ग्रा० नत्रजन, 60 कि०ग्रा० फास्फोरस, तथा 40 कि०ग्रा० पोटाश, अच्छी उपज के लिए 60 कुंतल प्रति हैक्टर सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। गोबर की खाद एवं आधी नत्रजन की मात्रा तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय आखिरी जुताई में या बुवाई के समय खाद का प्रयोग करना चाहिए, शेष नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई पर तथा बची शेष मात्रा दूसरी सिंचाई पर प्रयोग करनी चाहिए।
गेहूँ की फसल में खरपतवार नियंत्रण
गेहूँ की फसल में रबी के सभी खरपतवार जैसे बथुआ, प्याजी, खरतुआ, हिरनखुरी, चटरी, मटरी, सैंजी, अंकरा, कृष्णनील, गेहुंसा, तथा जंगली जई आदि खरपतवार लगते हैं। इनकी रोकथाम निराई गुड़ाई करके की जा सकती है, लेकिन कुछ रसायनों का प्रयोग करके रोकथाम किया जा सकता है जो की निम्न है जैसे की पेंडामेथेलिन 30 ई सी 3.3 लीटर की मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिलकर फ़्लैटफैन नोजिल से प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव बुवाई के बाद 1-2 दिन तक करना चाहिए। जिससे की जमाव खरपतवारों का न हो सके, चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिए बुवाई के 30-35 दिन बाद एवं पहली सिंचाई के एक सप्ताह बाद 24डी सोडियम साल्ट 80% डब्लू पी. की मात्रा 625 ग्राम 600-800 लीटर पानी में मिलकर 35-40 दिन बाद बुवाई के फ़्लैटफैन नीजिल से छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद जहाँ पर चौड़ी एवं संकरी पत्ती दोनों ही खरपतवार हों वहां पर सल्फोसल्फ्युरान 75% 32 ऍम. एल. प्रति हैक्टर इसके साथ ही मेटासल्फ्युरान मिथाइल 5 ग्राम डब्लू जी. 40 ग्राम प्रति हैक्टर बुवाई के 30-35 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए, इससे खरपतवार नहीं उगते हैं या उगते हैं तो नष्ट हो जाते हैं।
गेहूँ की फसल में रोग और उनका नियंत्रण
खड़ी फसल में बहुत से रोग लगते हैं,जैसे अल्टरनेरिया, गेरुई या रतुआ एवं ब्लाइट का प्रकोप होता है जिससे भारी नुकसान हो जाता है इसमे निम्न प्रकार के रोग और लगते हैं जैसे काली गेरुई, भूरी गेरुई, पीली गेरुई सेंहू, कण्डुआ, स्टाम्प ब्लाच, करनालबंट इसमें मुख्य रूप से झुलसा रोग लगता है पत्तियों पर कुछ पीले भूरे रंग के लिए हुए धब्बे दिखाई देते हैं, ये बाद में किनारे पर कत्थई भूरे रंग के तथा बीच में हल्के भूरे रंग के हो जाते हैं: इनकी रोकथाम के लिए मैन्कोजेब 2 किग्रा० प्रति हैक्टर की दर से या प्रापिकोनाजोल 25 % ई सी. की आधा लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए, इसमे गेरुई या रतुआ मुख्य रूप से लगता है,गेरुई भूरे पीले या काले रंग के, काली गेरुई पत्ती तथा तना दोनों में लगती है इसकी रोकथाम के लिए मैन्कोजेब 2 किग्रा० या जिनेब 25% ई सी. आधा लीटर, 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर छिड़काव करना चाहिए। यदि झुलसा, रतुआ, कर्नालबंट तीनो रोगों की संका हो तो प्रोपिकोनाजोल का छिड़काव करना अति आवश्यक है।
गेहूँ की फसल में कीट और उनका नियंत्रण
गेहूँ की फसल में शुरू में दीमक कीट बहुत ही नुकसान पहुंचता है इसकी रोकथाम के लिए दीमक प्रकोपित क्षेत्र में नीम की खली १० कुंतल प्रति हैक्टर की दर से खेत की तैयारी के समय प्रयोग करना चाहिए तथा पूर्व में बोई गई फसल के अवशेष को नष्ट करना अति आवश्यक है, इसके साथ ही माहू भी गेहूँ की फसल में लगती है, ये पत्तियों तथा बालियों का रस चूसते हैं, ये पंखहीन तथा पंखयुक्त हरे रंग के होते हैं, सैनिक कीट भी लगता है पूर्ण विकसित सुंडी लगभग 40 मि०मी० लम्बी बादामी रंग की होती है। यह पत्तियों को खाकर हानि पहुंचाती है, इसके साथ साथ गुलाबी तना बेधक कीट लगता है ये अण्डो से निकलने वाली सुंडी भूरे गुलाबी रंग की लगभग 5 मिली मीटर की लम्बी होती है, इसके काटने से फल की वानस्पतिक बढ़वार रुक जाती है, इन सभी कीट की रोकथाम के लिए कीटनाशी जैसे क्यूनालफास 25 ई सी. की 1.5-2.0 लीटर मात्रा 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए, या सैपरमेथ्रिन 750 मी०ली० या फेंवेलेरेट 1 लीटर 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। कीटों के साथ साथ चूहे भी लगते हैं, ये खड़ी फसल में नुकसान पहुँचाते हैं, चूहों के लिए जिंक फास्फाइट या बेरियम कार्बोनेट के बने जहरीले चारे का प्रयोग करना चाहिए, इसमे जहरीला चारा बनाने के लिए 1 भाग दवा 1 भाग सरसों का तेल तथा 48 भाग दाना मिलाकर बनाया जाता है जो कि खेत में रखकर प्रयोग करते हैं।
कटाई
फसल पकते ही बिना प्रतीक्षा किये हुए कटाई करके तुरंत ही मड़ाई कर दाना निकाल लेना चाहिए, और भूसा व दाना यथा स्थान पर रखना चाहिए, अत्यधिक क्षेत्री वाली फसल कि कटाई कम्बाईन से करनी चाहिए इसमे कटाई व मड़ाई एक साथ ही जाती है जब कम्बाईन से कटाई कि जाती है।
भण्डारण
मौसम का बिना इंतजार किये हुए उपज को बखारी या बोरो में भर कर साफ सुथरे स्थान पर सुरक्षित कर सूखी नीम कि पत्ती का बिछावन डालकर करना चहिए या रसायन का भी प्रयोग करना चाहिए।
उपज
असिंचित दशा में 35-40 कुंतल प्रति हैक्टर होती है, सिंचित दशा में समय से बुवाई करने पर 55-60 कुंतल प्रति हैक्टर पैदावार मिलती है, तथा सिंचित देर से बुवाई करने पर 40-45 कुंतल प्रति हैक्टर तथा उसरीली भूमि में 30-40 कुंतल प्रति हैक्टर पैदावार प्राप्त होती है।
स्त्रोत: कृषि विज्ञान केंद्र,बिस्वान तहसील,जिला-सीतापुर,उत्तरप्रदेश
परिचय
खरीफ में ज्वार की फसल सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। ज्वार की किस्मों में एक कटाई से लेकर तीन-चार कटाईयां देने की क्षमता है। गर्मी के मौसम में उगाई गई ज्वार में पानी की कमी नहीं होनी चाहिए क्योंकि ज्वार के चारे में धुरिन नामक विषैले पदार्थ की मात्रा विशेषकर गर्मी के मौसम में अधिक हो जाती है। पशुओं के लिए इसका चारा पर्याप्त रूप से पौष्टिक होता है। ज्वार का हरा चारा, कड़वी तथा साइलेज तीनों ही रूपों में पशुओं के लिए उपयोगी है।
खेत की तैयारी
इसकी खेती वैसे तो सभी पराक्र की मिट्टी में कि जा सकती है परन्तु दोमट, बलुई दोमट, सर्वोत्तम मानी गई है। ज्वार के लिए खेत को अच्छी तरह तैयार करना आवश्यक है। सिंचित इलाकों में दो बार गहरी जुताई करके पानी लगाने के बाद बत्तर आने पर दो जुताइयाँ करनी चाहिए।
बुआई का समय
सिंचित इलाकों में ज्वार की फसल 20 मार्च से 1- जुलाई तक बो देनी चाहिए। जिन क्षेत्रों में सिंचाई उपलब्ध नहीं हैं वहां बरसात की फसल मानसून में पहला मौका मिलते ही बो देनी चाहिए। अनेक कटाई वाली किस्मों/संकर किस्मों की बीजाई अप्रैल के पहले पखवाड़े में करनी चाहिए। यदि सिंचाई व खेत उपलब्ध न हो तो बीजाई मई के पहले सप्ताह की जा सकती है।
चारे की विभिन्न किस्में
एक कटाई देने वाली किस्में –हरियाणा चरी 136, हरियाणा चारी 171 हरियाणा चरी 260, हरियाणा चरी 307, पी.ससी-9 अधिक कटाई वाली किस्में-मीठी सूडान (एस एस जी 59-३), एफ, एस एच 92079 (सफेद मोती) बीज एवं बीज की मात्रा यदि कहत भली प्रकार तैयार हो तो बुआई सीडड्रील से 2.5 से 4 सेंमी गहराई पर एवं 25-30 सेंटीमीटर की दुरी पर लाइनों में करें। ज्वार की बीज दर प्रायः बीज के आकार पर निर्भर करती है। बीज की मात्रा 18 से 24 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब स बीजाई करें। यदि खेत की तैयारी अच्छी प्रकार न हो सके तो छिटकाव विधि से बुआई की जा सकती है जिसके लिए बीज की मात्रा में 15-20% वृद्धि आवश्यक है। अधिक कटाई वाली किस्में/संकर किस्मों के ली 8-10 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ के हिसाब से डालें।
खाद एवं उर्वरक
सिंचित इलाकों में इस फसल के लिए 80 किलोग्राम नाइट्रोजन व 30 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है। सही तौर पर 175 किलोग्राम यूरिया और 190 किलोग्राम एस एस पी एक हैक्टर में डालना पर्याप्त रहता है। यूरिया कि आधी मात्रा और एस एस पी की एक पूरी मात्रा बीजाई से पहले डालें तथा यूरिया की बची हुई आधी मात्रा बीजाई एक 30-35 में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन (112 किलोग्राम यूरिया) प्रति हैक्टर बीजाई से पहले डालें। अधिक कटाई देने वाली किस्मों से पहले व 30 किलो नाइट्रोजन प्रति हैक्टर हर कटाई के बाद सिंचाई उपरांत डालने से अधिक पैदवार मिलती है।
सिंचाई
वर्षा ऋतु में बोई गई फसल में आमतौर पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती । मार्च व अप्रैल में बीजी गई फसल में पहली सिंचाई बीजाई के 15-20 दिन बाद तथा आगे की सिंचाई 10-15 दिन के अंतर पर करें। मई-जून में बीजी गई फसल में 10-15 दिन के बाद पहली सिंचाई करें तथा बाद में आवश्यकतानुसार करें। अधिक कटाई वाली किस्मों में हर कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करें। इससे फुटव जल्दी व अच्छा होगा।
खरपतवार नियंत्रण
ज्वार में खरपतवार की समस्या विशेष तौर पर वर्षाकालीन फसल में अधिक पाई जाती है। सामान्यतः गर्मियों में बीजी गई फसल में एक गोड़ाई पहली सिंचाई के बाद बत्तर आने पर पर करनी चाहिए। यदि खरपतवार की समस्या अधिक हो तो एट्राजीन का छिड़काव् करे। क्योंकि चारे की ज्वार में किसी भी प्रकार के रसायन के छिड़काव को बढ़ावा नहीं दिया जाता।
रोग एवं कीट नियंत्रण
चारे की फसल में छिड़काव् कम ही करना चाहिए तथा छिड़काव् के बाद 25-30 दिन तक फसल पशुओं को नहीं खिलानी चाहिए।
कटाई और एच.सी. एन. का प्रबंध
चारे की अधिक पैदावार व गुणवत्ता के लिए कटाई 50% सिट्टे निकलने के पश्चात करें। एच.सी.एन. ज्वार में एक जहरीला तत्व प्रदान करता अहि। अगर इसकी मात्रा 2000 पी.पी.एम्. से अधिक हो तो यह पशुओं के लिए हानिकारक हो सकता है। 35-40 दिन की फसल में एच.सी. एन की मात्रा अधिक होती है। लेकिन 40 दन के बाद इसकी मात्रा अधिक होती है। लेकिन 40 दिन से पहले नहीं काटना चाहिए। अगर कटाई 40 दिन में करनी अत्यंत आवश्यक हो तो कटे हुए चारे को पशुओं को खिलाने से पहले 2-3 घंटे तक खुली हवा में छोड़ डे ताकि एच.सी. एन. की मात्रा कुछ कम हो सके।
अधिक कटाई वाली किस्मों में हरे चारे की अधिक पैदवार के लिए पहली कटाई बीजाई के 50 से 55 दिनों के पश्चात एवं शेष सभी कटाईयां 35-49 दिनों के अंतराल पर करें। अगर पहली कटाई देर से की जाए तो सूखे चारे में वृद्धि होती है परन्तु हरे चारे की पैदवार व गुणवत्ता कम हो जाती है। अच्छे फुटाव के लिए फसल को भूमि से 8 -10 सेंटीमीटर की उंचाई पर से काटें।
बीज का बनना
दाने वाली फसल के लिए बीजाई 10 जुलाई तक रकें। इस समय बीजी गई फसल से दाने की पैदवार सबसे ज्यादा मिलती है। जल्दी मिलती है। जल्दी बिजी गई फसलों में मिज कीड़े का आक्रमण इतना अधिक होता है कि दाने का रस चूसने से पैदवार काफी घट जाती है।
उपज
चारे की उपज ज्वार की किस्म तथा कटाई की अवस्था पर काफी कुछ निर्भर करती हैं यदि उन्नत तरीकों से खेती की जाए तो एक कटाई वाली फसल से 250-400 क्विंटल व् अधिक कटाई वाली किस्मों से हरे चारे की उपज 500-700 किवंटल प्रति हैक्टर प्रातो हो सकते हैं।